Tuesday, March 19, 2024
होमअर्थव्यवस्थाभविष्य के अंदेशों के बीच बम्बइया मिठाई

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

भविष्य के अंदेशों के बीच बम्बइया मिठाई

सामान्य शहर में रहने वाले व्यक्ति का मुंबई जाकर सरवाइव करना मुश्किल होता है। एक तो वहाँ की भागती-दौड़ती ज़िंदगी, लोकल ट्रेन का सफर और बेतहाशा भीड़, जहां स्वयं को देख पाने की याद और फुरसत दोनों नहीं मिलती। ऐसे में घर से गया अकेला आदमी अक्सर घबरा जाता है और जल्द ही वापस अपने घर आने की सोचता है।

बहुत दिनों के बाद आज अचानक कालोनी में डमरू की आवाज सुनाई दी। तुरंत बाद गाने की आवाज आई … छोटे-बड़े-बच्चों का ध्यान किधर है, बम्बइया मिठाई इधर है।  यह मेरी स्मृतियों में सुरक्षित एक ऐसी गतिविधि है जिससे बचपन में कतई निस्पृह नहीं रहा जा सकता था। आज भी कानों में पड़ते ही ऑफिस के कमरे से निकलकर मैं टेरिस पर भागी।  देखा तो नीचे चार-पाँच बच्चों से घिरा हुआ एक व्यक्ति साइकिल पर बंधे बाँस में लिपटी, चीनी की गाढ़ी चाशनी में अनेक चीजों को मिलाकर बनाई गई बम्बइया मिठाई की अलग-अलग आकृतियाँ  बना रहा था। मेरे पाँव न रुक पाए और मैं नीचे भागी।

ऐसे ही जब बचपन में बंबइया मिठाई वाला… बंबइया मिठाई वाला… कहते और हाथ से घंटी बजाते हुए आता था तो आवाज सुनते ही बिना चप्पल पहने घर से बाहर  भागते थे। उन दिनों पाँच पैसा, दस पैसा और बहुत अच्छे घर से हुए तो पच्चीस पैसा मिलता था बंबइया मिठाई के लिए। पैसे के हिसाब से मिठाई वाला अलग-अलग आकार बनाता।  भले स्वाद में कोई भी अंतर न हो, पर बालमन खाने से ज्यादा उसकी बनाई आकृतियों की तरफ आकर्षित होता था लेकिन लेना पड़ता अपनी जेब देखकर। लगता था कबूतर से मोर या तितली से हाथी ज्यादा स्वादिष्ट है। लेकिन आज बच्चों के हाथ में पचास का नोट है। कोई कुतुबमीनार बनवा रहा है तो कोई ताजमहल। किसी को मोर अच्छा लग रहा है किसी को कौवा। मिठाई वाला बनाता जाता और बीच बीच में गाता जाता। बच्चों को हिसाब समझाकर पैसे भी लेता जाता।

मोर की आकृति में बम्बइया मिठाई

यह मिठाई वाला पैंतीस साल के राजेश कुमार हैं और जौनपुर जिले की पूर्वी सीमा पर पड़ने वाले चंदवक के रहने वाले हैं। फिलहाल बनारस के भोजूबीर मुहल्ले में रहकर मिठाई बनाते हैं और साइकिल लेकर बेचने निकल पड़ते हैं। राजेश बताते हैं कि वह 2016 से इस काम में लगे हुए हैं। पढ़े-लिखे कम हैं, तो रोजी रोटी के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। उन्होंने बताया कि पहले वे गाड़ी बनाने वाली दुकान में मैकेनिक का काम सीख रहे थे लेकिन उसमें मन नहीं लगा और वह काम छोड़कर मुंबई चले गए। मुंबई में भी जहां रहते थे वहाँ का किराया और बाकी खर्चे उनकी तनख्वाह से पूरे नहीं होते थे।

वह कहते हैं कि ‘सामान्य शहर में रहने वाले व्यक्ति का मुंबई जाकर सरवाइव करना मुश्किल होता है। एक तो वहाँ की भागती-दौड़ती ज़िंदगी, लोकल ट्रेन का सफर और बेतहाशा भीड़, जहां स्वयं को देख पाने की याद और फुरसत दोनों नहीं मिलती। ऐसे में घर से गया अकेला आदमी अक्सर घबरा जाता है और जल्द ही वापस अपने घर आने की सोचता है।’

2016 में मुंबई पहुंचे राजेश कुमार भी जल्द ही ऊब गए। एक दिन यूं ही तफरीह करते हुए एक मुंबइया मिठाई वाले से भेंट हुई। उससे दस रुपये की मिठाई खरीद कर खाते हुए उससे उसके काम के बारे में बात की और खुद इसी काम को शुरू करने के लिए सिखाने की गुजारिश की। उस व्यक्ति ने हामी भरी और फिर शुरू हुआ राजेश के सीखने का काम। शुरुआती बातें और बनाने का काम सीखने के बाद वापस बनारस आ  गए। यहाँ आकर उन्होंने अपने बड़े भाई महेंद्र कुमार से अच्छी तरह सीखा। सीखने के लिए इस काम में बहुत कुछ है। एक तरह से रचनात्मकता बहुत जरूरी है।

घूम-घूमकर बम्बइया मिठाई बेचते राजेश कुमार

राजेश ने बताया इस मिठाई से फूल, चिड़िया, मोर, नागिन, इंसान, शैतान-विश्वसुन्दरी, ताजमहल, इंडिया गेट के अलावा कार्टून के चरित्र छोटू, मोटू, पतलू, मोगली आदि बच्चों को खूब पसंद आते हैं। राजेश बाजारवाद को अच्छी तरह समझ चुके हैं। बजारवाद की परिभाषा भले वे नहीं जानते हों लेकिन बाजार में क्या बिकता है और किसकी मांग है वह भली प्रकार समझ चुके हैं। लेकिन इसके लिए उन्होंने पाँच साल जमकर मेहनत की है। वह बताते हैं कि आज भी कोई नया चरित्र या बात आती है तो उसे भी इस मिठाई में ढालने के लिए उसे अच्छे से देखते-समझते हैं और बनाते हैं।

इस मिठाई को वे घर पर खुद  बनाते हैं। उन्होंने बताया कि इस मिठाई को बनाने के लिए चीनी, नींबू, इलाइची, देसी घी, खाने वाला रंग और जैम की जरूरत होती है। बनाने में चार-पाँच घंटे का समय लगता है। वे डेढ़-दो किलो की मिठाई रोज बनाते हैं। अक्सर पूरी बिक जाती है लेकिन बच जाने पर इसके खराब होने का कोई डर नहीं होता और अगले दिन इसे बेचा जा सकता है।

यह भी देखिये –

राजे अपने काम से संतुष्ट हैं और इस काम में उनकी बेहद रुचि है। हर रोज 30-35 किलोमीटर साइकिल चलाकर अलग-अलग मोहल्ले-टोले और आसपास के गाँव में जाते हैं। रोज का लगभग 500-600 रुपए कमा लेते हैं। खास बात इन्होंने यह बताई कि पूरे बनारस में इसे बेचने वाले गिने-चुने लोग ही बचे हैं। आज ज़्यादातर बच्चे दुकानों में मिलने वाली अनेक प्रकार की चॉकलेट खरीदकर खाना पसंद करते हैं, ऐसे में हमारे काम पर असर तो पड़ा ही है। शहरों के बड़े या सम्पन्न  इलाके में बेचने जाने पर लोग खरीदते तो कम हैं और लेकिन अजूबा अधिक समझते हैं। शायद वे साफ-सफाई और शुद्धता को लेकर सतर्क रहते हैं, लेकिन दूसरे इलाके में पहुँचने पर बच्चों के माता-पिता उन्हें यह मिठाई खरीदने के लिए पैसा दे देते हैं। शादी-ब्याह और बर्थडे पार्टियों  में बच्चे तो बच्चे बड़े भी इसे खूब शौक से खाते हैं। मुस्कराते हुये राजेश कहते हैं ‘मुझे लगता है लोग जगह देखकर सामान लेते हैं।’

उन्होंने बताया कि परिवार में उनकी पत्नी और एक बच्चा है। उसे वे पढ़ा रहे हैं। जैसा कि हर अभिभावक चाहता है कि उसका बच्चा ऊंची पढ़ाई करे और उनसे बड़ा काम करे,  वैसे ही राजेश कुमार भी चाहते हैं। वह कहते हैं कि ‘इस हुनर को सीख भले जाए लेकिन काम कोई दूसरा ही करे।’

यह काम अलबत्ता मेहनत-मजदूरी का है लेकिन इसका भी जोखिम है। सबसे बड़ी चीज तो महंगाई है। हर चीज महंगी होती जा रही है। वह कहते हैं कि ‘बताइये, इतना महंगा सिलेन्डर और आटा है। गरीब आदमी कितना कमाएगा कि पेट भर खा सकेगा। अस्पताल और दवाओं का खर्च सुनकर ही चक्कर आते हैं। बच्चों की फीस, ड्रेस और किताबें सब महंगी है। अभी तो छोटी क्लास में है। आगे की पढ़ाई के लिए तो और भी पैसे खर्च होंगे। लेकिन हमारी मेहनत करने की क्षमता तो घटती जाएगी। मेरे पास कोई पेंशन तो है नहीं। बताइये, इस महंगाई में कितना खाएँगे और भविष्य के लिए क्या बचाएंगे?’

आज हर क्षेत्र में विकास हुआ है। बनने-बनाने और रखने के लिए नए-नए तरीके या चुके हैं। लेकिन बंबइया मिठाई के बनाने, खाने-खिलाने और रखने के तरीका आज भी वैसा ही है जैसा 40-42  वर्ष पहले था। बेशक बदलते हालात और महँगाई ने भी इसकी मिठास कम न की हो लेकिन भविष्य में अंधेरा तो यहाँ भी है!

अपर्णा
अपर्णा रंगकर्मी और गाँव के लोग की संस्थापक कार्यकारी संपादक हैं।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें