लोकसभा चुनाव मे 400 पार का नारा देने वाली भाजपा ने अपने उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर दी है। लिस्ट मे 195 उम्मीदवारों के नाम हैं। इस लिस्ट मे पीएम मोदी और उनकी सरकार के 34 केन्द्रीय मंत्रियों के नाम भी हैं। इस लिस्ट की खास बात यह है कि 50 साल से कम उम्र के 47 उम्मीदवार उतारे गए हैं ।इसमें एससी के 27, एसटी के 18 और ओबीसी के उम्मीदवारों की संख्या 57 है। भाजपा द्वारा जारी उम्मीदवारों की सूची कुछ नाम भी काटे गए हैं। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सीटों के बंटवारे में कोई नया प्रयोग नहीं हुआ है।
400 पार का दावा करने वाली भाजपा ने बुजुर्गों को टिकट न देने और कार्यकर्ताओं को टिकट देने की घोषणा से पीछे हटते हुए पुराने और स्थापित चेरों पर भरोसा जताया है। ऐसा करने से संदेश गया है कि उसमें 400 के पार जाने का कॉन्फिडेंस नहीं है. बहरहाल भाजपा की ओर से उम्मीदवारों की पहली सूची जारी होने के बाद भले ही राजनीतिक विश्लेषकों में नकारात्मक टिप्पणी का दौर शुरू हो गया हो पर, भाजपा ने नेतृत्व ने पहली सूची जारी कर यह संदेश दे दिया है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए वह विपक्ष के मुकाबलें ज्यादा सक्रिय और तैयार है। पहली सूची पर तरह-तरह की नकारात्मक टिप्पणी करने वाले राजनीतिक टिप्पणीकार इस बात की भी अनदेखी कर रहे हैं। भाजपा ने 195 में से सिर्फ एक मुस्लिम उम्मीदवार डॉक्टर अब्दुल सलाम का नाम है, जिन्हें केरल के मलप्पुरम से टिकट मिला है। यह बहुत महत्वपूर्ण खबर है, जिसकी अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों नें अनदेखी कर दी है।
भाजपा की ओर से मुसलमानों को नहीं के बराबर टिकट देना, उसकी चुनावी रणनीति का एक खास अंग रहा है, जिसका उसे भारी लाभ मिलता है। भाजपा की चुनावी सफलता में मुस्लिम उम्मीदवारों की अनदेखी उसकी सफलता संभवतः सबसे बड़ा कारण बनती है। संघ ने वर्षों के प्रयास से मुसलमानों को हिंदुओं के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप मे स्थापित किया है। उसके अभियानों से हिंदुओं में यह संदेश गया है कि मुसलमानों ने ही हिन्दू धर्म-संस्कृति को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई है और आज भी वे हिन्दू राष्ट्र की राह मे सबसे बड़ी बाधा हैं। इसलिए भाजपा के समर्थक सब समय पार्टी द्वारा मुसलमानों को टाइट करते देखना चाहता है। यही कारण है, भाजपा जब इस समुदाय के अधिकार छीनती है या इसको किसी तरह से परेशान करती है, उसकी सवर्णपरस्त नीतियों से खुद बर्बाद हो चुके बहुसंख्य हिंदुओं तक के कलेजे को ठंडक पहुचती है।
मुसलमानों के प्रति बहुसंख्यक हिंदुओं के ह्रदय के अतल गहराई तक समाई इस नफरत को भांपते हुए ही भाजपा नेतृत्व मुस्लिम बहुल इलाकों तक में मुसलमान उम्मीदवार नहीं उतारता। इससे उसके हिन्दुत्व की राजनीति को धार मिलती है और हिन्दू मतदाता भारी उत्साह से उसको मतदान करते हैं। हिंदुओं के इस साइक को ध्यान में रखते हुए भाजपा वर्षों से ही चुनावों में नहीं के बराबर मुस्लिम उम्मीदवार उतारती रही है। इतिहास गवाह है कि भाजपा ने लोकसभा चुनाव 2009 में सिर्फ चार मुस्लिम उतारे, जिनमें सिर्फ शहनवाज हुसैन जीतने में सफल रहे। 2014 मे तो इस मामले में एक रिकार्ड ही बना। भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ जब 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस पार्टी की सरकार बनी, उसका कोई मुसलमान सांसद नहीं था। 2014 में भाजपा ने सिर्फ 7 मुस्लिम उतारे थे। इसी तरह 2019 में 6 मुस्लिम उतारे। लेकिन 2014 और 2019: दोनों ही आम चुनावों में उसकी ओर से एक भी मुसलमान उम्मीदवार नहीं जीता।
माना जा रहा था कि 2024 बीजेपी अपनी परंपरागत चुनावी रणनीति में बदलाव करते हुए इस बार ठीक-ठाक मात्र में मुस्लिम उम्मीदवार उतार सकती है। सूत्रों के मुताबिक इस बार भाजपा की ओर से 60 से अधिक उम्मीदवार उतारे जाने की संभावना जाहिर की गई थी। किन्तु उसने जोखिम नहीं उठाया और जिस तरह उसने टिकट वितरण पुराने चेहरों पर भरोसा जताया, उसी तरह मुसलमानों को टिकट देने की पुरानी परम्परा का अनुसरण करने का मन बनाया। जिस तरह उसने 195 में एक उम्मीदवार घोषित किया है, उसके आधार पर दावे के साथ कहा जा सकता कि इस बार भी उसकी ओर से मुस्लिम प्रार्थियों की संख्या दो अंक में नहीं पहुंच पाएगी। 2024 के चुनाव के ऐन पहले भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में लाए गए राजनीतिक प्रस्तावों में राम मंदिर और सनातन धर्म का गौरव है तो उसमें जम्मू-कश्मीर में हटाए गए अनुच्छेद–370 का भी उल्लेख है। ये प्रस्ताव तभी कारगर हो सकते हैं, जब मुसलमानों को पहले की भांति नहीं के बराबर टिकट दिए जाएं। इसलिए भाजपा नेतृत्व टिकट बंटवारे में पुराने चेहरों के साथ मुसलमानों को टिकट देने में परम्परागत नीति का अनुसरण किया है।
लोकसभा चुनाव : हिंदुत्व के लिए बिहार क्यों है कठिन चुनौती?
बहरहाल निंदनीय होने के बावजूद वर्षों से टिकट बंटवारे में मुसलमानों को वंचित करने की पॉलिसी जिस तरह कारगर हुई है, उसे देखते हुए भाजपा-विरोधी, खासतौर से सामाजिक न्यायवादी दलों को टिकट बंटवारे में उसकी यह रणनीति अख्तियार करते हुए उन समुदायों को कम से कम टिकट देना चाहिए था, जो जन्मजात सामाजिक न्याय विरोधी हैं। किन्तु सामाजिक न्यायवादी दलों ने टिकट बंटवारे में भाजपा की मुस्लिम विरोधी नीति से कोई सबक नहीं लिया और न सिर्फ संगठन, बल्कि टिकट वितरण में सवर्णों को उनके संख्यानुपात से कई गुना अवसर दिया। फलतः जिस सामाजिक न्याय पर चुनाव को केंद्रित करके भाजपा को आसानी से शिकस्त दिया जा सकता है, उस पर अमल करने का साहस बहुजन नेतृत्व न जुटा सका। इसके फलस्वरूप जहां चैंपियन सामाजिक विरोधी भाजपा चुनाव दर चुनाव मुस्लिम विद्वेष के सहारे अप्रतिरोध्य बनती गई, वहीं बहुजनवादी दल अपना प्रभाव खोते गए और आज उन्हें अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। सवर्णों को संगठन और टिकट बंटवारे में उनके संख्यानुपात से अधिक अपने दलों में अवसर देकर क्यों बर्बाद हुए सामाजिक न्यायवादी दल, इसे समझने के भारत समाज के चरित्र की तह में जाना होगा।
हिंदुओं में समग्र वर्ग की चेतना का अभाव इतनी बड़ी सच्चाई है कि इससे बड़े से बड़े राजा- महाराजा, लेखक–विचारक ही नहीं, मोक्ष के लिए गृह-त्याग करने वाले साधु-संत तक मुक्त नहीं रहे। इस समाजशास्त्रीय यथार्थ के कारण जब मण्डल की रिपोर्ट के बाद वंचित जातियों के सशक्तिकरण और सवर्णवादी सत्ता के विनाश की संभावना पैदा हुई, उसकों नष्ट करने के लिए जब भाजपा ने मण्डल के विरुद्ध राम मंदिर अभियान छेड़ा, साधु-संत उसके हमेशा के लिए उसके साथ हो लिए। साधु-संत इसलिए भाजपा के अभियान के साथ जुड़े, क्योंकि संतई के लिए अधिकृत सिर्फ ब्राह्मण व सवर्ण समाज अधिकृत है।
अपवाद रूप से ही संतों के मध्य धर्मेन्द्र स्वामी, रामदेव यादव और साध्वी ऋतंभरा व उमा भारती जैसी शूद्र-शूद्राणियाँ साधु-संतों की जमात में शामिल हैं। तो हरि-भजन छोड़कर साधु-संत भाजपा के साथ इसलिए जुड़ गए क्योंकि भाजपा मन-प्राण से बहुजनों के विरुद्ध सवर्णों की स्वार्थ रक्षा में जुटी। जब मोक्ष के लिए संसार त्याग करने वाले साधु–संत तक समग्र वर्ग के चेतना की दरिद्रता का दृष्टांत स्थापित करते हुए सवर्णों के स्वार्थ रक्षा में जुटी भाजपा के साथ हो लिए तो उन नेताओं से क्या प्रत्याशा, जो वर्गीय चेतना की दुर्बलता के सर्वाधिक शिकार रहे। इसी कारण मण्डल उत्तर काल में गैर- भाजपाई दलों में शामिल सवर्ण नेता मन व प्राण से उस भाजपा के साथ रहे जो सवर्णों के स्वार्थ में सरकारी कंपनियां, हॉस्पिटल, स्कूल-कॉलेज, रेलवे–हवाई अड्डे इत्यादि समस्त कुछ अदानी-अंबानियों के हाथ में दे रही है। इसलिए गैर- भाजपा दलों में शामिल सवर्ण नेता मुख्यतः भाजपा के एजेन्ट के रूप में काम करते रहे। इस कारण ही बहुजनवादी दलों में प्रभावी तरीके से उपस्थित सवर्ण नेता चुनाव को उस सामाजिक न्याय पर केंद्रित करने से रोकते रहे, जिस सामाजिक न्याय पर चुनाव को केंद्रित करने पर सवर्णों की चैंपियन हितैषी भाजपा कभी जीत ही नहीं सकती ।
राज्यसभा चुनाव : राजनीति में जागती अंतरात्माएं और मजबूत सरकार
बहरहाल गैर-भाजपाई दलों में शामिल सवर्ण नेता किस तरह अपने समाज के स्वार्थ की रक्षा के लिए भाजपा के साथ मन- प्राण से जुड़े रहते हैं, इसका ताजा दृष्टांत हाल ही में सम्पन्न हुए राज्यसभा का चुनाव में स्थापित हुआ। राज्यसभा चुनाव के चार-पांच दिन पहले सपा-बसपा के साथ आने से ऐसा लगा कि इंडिया गठबंधन भाजपा को न सिर्फ चुनौती देने, बल्कि शिकस्त देने की स्थिति में पहुंचते जा रहा है, तब सपा और कांग्रेस के विधायक अंतरात्मा की आवाज पर भाजपा के पक्ष में वोट कर डाले। यह अंतरात्मा की आवाज और कुछ नहीं सवर्णों की स्वार्थ रक्षा से प्रेरित रही। यह थोड़े से दृष्टांत बतलाते हैं कि आज देश के लाखों साधु-संतों के साथ गैर- भाजपा दलों में शामिल 99 प्रतिशत सवर्ण नेता ही अपने समुदाय की स्वार्थ रक्षा के लिए खुद को जयचंद की मानसिकता से पुष्ट कर लिए हैं ! इसीलिए गैर- भाजपाई दलों को यदि भाजपा के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़नी है तो टिकट बंटवारे में भाजपा की मुसलमान- विरोधी नीति का अनुसरण करते हुए सवर्णों को कम से कम टिकट देने की नीति तय करनी होगी। इस नीति को