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भाजपा के 45 वर्ष : तोड़फोड़ और विध्वंस का इतिहास

जनसंघ के लोगों ने 7 अप्रैल, 1980 को भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। इसकी स्थापना के अब 45 साल पूरे हो गए हैं। अपनी स्थापना के पांच साल के अंदर (1985) लाल कृष्ण आडवाणी ने शाह बानो विवाद की आड़ में बाबरी मस्जिद व राम जन्मभूमि विवाद को हवा दी,  रथ यात्राओं की राजनीति की, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की घटना के साथ भाजपा की स्थापना से लेकर अब तक की पूरी राजनीति को आस्था के सवाल पर ला खड़ा किया और यह सफर बिना रुके आज तक चल रहा है।

‘यदि राजनीतिक दल अपनी विचारधारा को देश से अधिक महत्वपूर्ण मानने लगेंगे, तो निश्चित रूप से स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी’, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने संविधान सभा के अपने अंतिम संबोधन में कहा था। 7 अप्रैल को भाजपा की स्थापना के 45 वर्ष पूरे होने के अवसर पर मुझे बाबासाहेब का यह वाक्य बार-बार याद आ रहा है। क्योंकि भारत की आजादी के बाद हुए विभाजन में मुस्लिम लीग भारत में कुछ ही स्थानों पर बची थी। केरल से बनतवाला जैसे सांसद बड़ी मुश्किल से संसद पहुंच पाते थे।

कैसे बना जनसंघ

तत्कालीन आरएसएस प्रमुख एम.एस. गोलवलकर को मुस्लिम लीग की तर्ज पर हिंदुओं के लिए राजनीतिक इकाई के रूप में अलग पार्टी की आवश्यकता महसूस हुई। महात्मा गांधी की हत्या से हिंदू महासभा कलंकित हुई,  इसलिए पश्चिम बंगाल के श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में 21 अक्टूबर, 1951 कोजनसंघ नामक पार्टी शुरू की गई। जो 26 साल के भीतर 1977 में जनता पार्टी में विलय हो गई। लेकिन  दो साल के भीतर ही दोहरी सदस्यता (एक ही समय में जनता पार्टी और आरएसएस का सदस्य होना) के मुद्दे पर यह जनता पार्टी से अलग हो गया और 7 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी के नाम से पुनः स्थापित हुआ और मुस्लिम लीग की ही तर्ज पर हिंदू लीग यानी भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से यह दावा करता रहा है कि यह विशुद्ध रूप से शैक्षणिक और सांस्कृतिक संगठन है। इसका राजनीति से कोई संबंध नहीं है। यह कितना सच है? सभी देख रहे हैं।

जनता पार्टी का विभाजन 

1977 में जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन कांग्रेस के खिलाफ चुनाव जीतने के लिए समाजवादी पार्टी, सांगठनिक कांग्रेस और जनसंघ, ​​जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा की पार्टी जैसी विभिन्न पार्टियों को एकजुट करने की पहल की। ​​यही कारण है कि उन्होंने विभिन्न पार्टियों की एक पार्टी बनाकर भारतीय संसदीय राजनीति में एक सर्कस किया।

मैंने इस पार्टी के गठन का विरोध किया है क्योंकि जनसंघ हिंदू महासभा का दूसरा संस्करण है और हिंदू समुदायों का ध्रुवीकरण करने तथा सावरकर-गोलवलकर के सपनों का हिंदू राष्ट्र बनाने व अल्पसंख्यक समुदायों के सभी लोगों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की प्रक्रिया हिंदू महासभा के नाम पर शुरू हुई थी, लेकिन गांधी की हत्या के बाद इसे एक अलग नाम दिया गया। फिर जनसंघ के नाम पर पिछले 45 वर्षों से यह भाजपा के नाम पर किया जा रहा है।

समाजवादियों, गांधीवादियों और अघोषित हिंदू राष्ट्र व मुक्त अर्थव्यवस्था, पूंजीवाद, राजाओं,  महाराजाओं, जमींदारों और उच्च जातियों की पार्टियों के बीच वैचारिक मतभेदों के बावजूद  जनसंघ के साथ तत्काल चुनावी गठबंधन ठीक था लेकिन पार्टी बनाने का विचार मुझे ठीक नहीं लगा। मैंने यह बात जनता पार्टी के गठन से पहले एस.एम. जोशी जी के सामने रखी थी। आपातकाल के दौरान मैंने एस.एम. जोशी से कहा था कि जब तक सभी विपक्षी दल कांग्रेस के खिलाफ चुनाव जीतने के लिए एक पार्टी नहीं बनाते हैं, तब तक जयप्रकाश नारायण चुनाव अभियान में भाग नहीं लेंगे। इस कारण से  जोशी जी ने सभी के साथ संवाद के क्रम में मुझसे बात की। मैंने स्पष्ट रूप से कहा था कि समाजवादी पार्टी जनसंघ जैसी पार्टी से हाथ मिलाने की कल्पना भी नहीं कर सकती जो हिंदुत्ववादी है और मुक्त अर्थव्यवस्था, पूंजीवाद की समर्थक है। यह राजाओं, महाराजाओं, जमींदारों और ऊंची जातियों की पार्टी है।

यह प्रयोग समाजवादी पार्टी के लिए आत्मघाती प्रयोग होगा और आश्चर्य की बात यह है कि मुझसे मिलने से एस.एम. जोशी  जॉर्ज फर्नांडिस से मिलकर तिहाड़ जेल से आए थे क्योंकि उस समय जॉर्ज फर्नांडिस सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। एस.एम. ने कहा कि जॉर्ज फर्नांडिस भी आपकी ही तरह की राय रखते है। उस समय मेरी उम्र 23 साल रही होगी। तब मैंने कहा कि अगर राष्ट्रीय अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडिस भी मेरी ही तरह की राय रखते हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि मैं सही कह रहा हूँ। उसके बाद जॉर्ज के जीवन का अंतिम पड़ाव क्या रहा? यह सभी जानते हैं।

लेकिन इन सबके बावजूद जनता पार्टी की स्थापना हुई और जब दो साल पहले जयप्रकाश की आंखों के सामने यह टूट गई, तो उन्होंने कहा, ‘मेरा बगीचा उजड़ गया।‘ हालांकि यह बगीचा नहीं था, यह तो बस एक गुलदस्ता था जिसे एक दिन नष्ट होना ही था।

पुराने जनसंघ के लोगों ने 7 अप्रैल, 1980 को भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। इसकी स्थापना के अब 45 साल पूरे हो गए हैं। अपनी स्थापना के पांच साल के अंदर (1985) लाल कृष्ण आडवाणी ने शाह बानो विवाद की आड़ में बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि विवाद को हवा दी,  रथ यात्राओं की राजनीति की, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की घटना के साथ भाजपा की स्थापना से लेकर अब तक की पूरी राजनीति को आस्था के सवाल पर ला खड़ा किया। ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’  के नारे के साथ भाजपा की स्थापना से लेकर अब तक की पूरी राजनीति को आस्था के सवाल पर ला खड़ा किया। फिर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने भारत की आजादी के बाद पहली सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के खिलाफ 28 फरवरी 2002 को गुजरात दंगे शुरू करवा कर अपना राजनीतिक करियर बनाने का उदाहरण पेश किया। लेकिन यह विडम्बना है कि भारत के इतिहास में दंगों की राजनीति करके उन्होंने खुद को देश के सर्वोच्च पद पर बिठाया।

डॉ. बाबा साहेब के अनुसार यह देश की स्वतंत्रता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाला मामला है। अल्पसंख्यक समुदाय के लोग जो कि आबादी का एक चौथाई हिस्सा हैं, उन्हें असुरक्षित मानसिकता में डालकर आप कौन सा देशभक्ति का काम कर रहे हैं? फिर गाय, लव-जिहाद, हिजाब,  नागरिकता कानून और 370 तथा धार्मिक हस्तक्षेप की बात करके नवीनतम वक्फ बिल लाकर भारत के अल्पसंख्यक समुदाय के सभी लोगों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर आप कौन सा देशभक्ति का काम कर रहे हैं?

वे लोग देश के रोजमर्रा के जीवन से जुड़े मुद्दों को हाशिए पर धकेलने में सफल रहे। उन्होंने पूरी राजनीति को केवल आस्था के सवाल पर ठप्प कर दिया। भाजपा जब से सत्ता में आई है, तब से वह नोटबंदी से लेकर कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म करने,  तथाकथित नागरिकता संशोधन कानून, कृषि व श्रम कानूनों में बदलाव के फैसले तथा लव जिहाद, गोहत्या प्रतिबंध और वक्फ बिल जैसे कानून लाकर भारत जैसे बहुधार्मिक देश को हिंदू राष्ट्र की ओर ले जाने की कोशिश कर रही है।

न्यायपालिका, मीडिया, कार्यपालिका जिसमें आईबी, सीबीआई, ईडी, एनआईए शामिल हैं और विदेशी दुश्मनों से लड़ने के लिए जगह-जगह पुलिस या अर्धसैनिक बलों व सेना की तैनाती। लेकिन यह सारी व्यवस्थाएं अर्धसैनिक बलों जो भारत की आबादी का एक चौथाई हिस्सा है, मुख्य रूप से भारत के आदिवासी और दलित और गरीब लोगों को उनके अधिकारों के लिए लड़ने से रोकने के लिए हैं।

सरकारी उद्योगों और देश के जल, जंगल और जमीन को बेचने की प्रक्रिया शुरू करके, संविधान सभा में डॉ. बाबा साहेब के अंतिम संबोधन के अनुसार, ‘यह देश पर अपनी पार्टी का एजेंडा थोपकर हमारे देश की एकता और अखंडता के साथ खिलवाड़ करने का मामला है।‘

इसे भाजपा की बेशर्मी कहें या क्रूरता, लेकिन इसके नेता दावा करते हैं कि वे देश के हित में सब कुछ कर रहे हैं, जो इसका विरोध करते हैं वे देशद्रोही हैं। सिर्फ दस साल में देशद्रोह कानून का इस्तेमाल करके कितने लोगों को जेल में डाला गया है? स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों को निजी मालिकों के हाथों में सौंप दिया गया। रेलवे, बैंक, बीमा और रक्षा जैसे महत्वपूर्ण विभागों को निजी और विदेशी निवेश के लिए दे दिया गया। सवाल उठता है कि यह किस तरह की देशभक्ति है?

सबसे आश्चर्य की बात यह है कि सत्ता में आने के बाद लगातार इन गलत नीतियों के खिलाफ बोलने, लिखने  और विरोध करने वालों को देशद्रोही बता विरोधाभासी काम कर रही है। वह भी देशभक्ति के नाम पर।

मतलब, 135 करोड़ की आबादी वाले भारत में भाजपा अपने आप को भारत का मालिक मानने लगी, जबकि उसकी पार्टी को बमुश्किल 40% वोट मिले, जबकि दिल्ली की गद्दी पर बैठने के बाद प्रधानमंत्री खुद कहने लगे कि ‘मैं प्रधानमंत्री नहीं बल्कि प्रधान सेवक हूं।‘ लेकिन आपके  भौंहें और हाव-भाव देखकर ऐसा लगता है कि आप प्रधानमंत्री नहीं बल्कि प्रधान सेवक हैं, महज एक बयान के अलावा कुछ नहीं है।

पार्टी की 45वीं वर्षगांठ के अवसर पर नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘कुछ लोग हमें महज चुनावी मशीन समझते हैं।‘ हालांकि यह तो पता नहीं कि ऐसा कौन सोचता है, लेकिन भारतीय चुनावों में वे सड़क से लेकर दिल्ली तक दिखने वाले एकमात्र प्रधानमंत्री हैं जो अपना सारा काम छोड़कर इस तरह चुनावी मैदान में उतरते हैं। मुझे उनके जैसा कोई दूसरा प्रधानमंत्री याद नहीं आता। इसलिए अगर कोई हमें चुनावी मशीन कह रहा है तो वह कुछ गलत नहीं कह रहा है।

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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