25 नवंबर, 1949 को भारत की संविधान सभा में संविधान का मसौदा पूरे होने पर उसको प्रस्तुत करते हुए बाबासाहब अंबेडकर ने बेहद महत्वपूर्ण बात कही जो आज भी देश के परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्वपूर्ण है, जब संविधान पर लगातार हमले हो रहे हैं और लोग लगातार शिकायतें करते हैं कि आखिर संविधान के होने के बावजूद भी दलितों के खिलाफ शोषण क्यों हैं? आइए, पहले बाबासाहब कि उस ऐतिहासिक चेतावनी को याद कर लें। वह कहते हैं- संविधान चाहे कितना भी अच्छा या बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह से उसकी प्रकृति पर नहीं है। संविधान केवल राज्य के अंगों जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर है वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं तथा राजनीति को संतुष्ट करने के उपकरण के रूप में उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल।
बाबासाहब की यह चेतावनी आज बिल्कुल सही साबित हो रही है क्योंकि संविधान की भावना की अनदेखी कर भारत देश के राजनीतिक दल उसके ‘ढांचे’ की तो आरती उतार रहे हैं लेकिन उसकी मूल भावनाओं के विरुद्ध जा रहे हैं। यदि हम संवैधानिक मूल्यों को अपना सामाजिक सांस्कृतिक मूल्य भी बना लें तो भारत में सामुदायिक झगड़ों के लिए कोई जगह नहीं रह पाएगी, लेकिन शायद ऐसा संभव नहीं है। ये बात बाबासाहब को भी पता थी, क्योंकि उन्हें पता था कि हमारा समाज भयंकर अंतर्विरोधों पर जीने वाला समाज है और हम सभी अपनी-अपनी अस्मिताओं और संस्कृति का डंका पीट कर एक-दूसरे के प्रति पूर्वाग्रहों को न केवल बढ़ा रहे हैं अपितु आज एक अलग स्थिति में आ चुके हैं जबकि ये पूर्वाग्रह समाज और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं। मैं इन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि पूर्वाग्रहों के ज़रिए यदि किसी भी समाज विशेष के प्रति नफ़रत की भावना को मजबूत किया जाएगा तो उसका अंत हिंसक ही होगा। पूर्वाग्रहों के ज़रिए समाज को विकृत मानसिकता का बनाकर, हिंसा का महिमामंडन कर हम एक खतरनाक भविष्य की ओर इशारा कर रहे हैं। ऐसे अंतर्विरोध अंततः हमारे एक राष्ट्र बनने की दिशा में सबसे बड़ा ‘रोड़ा’ हैं। बाबासाहब कहते हैं कि यदि हमने अपने सामाजिक अंतर्विरोधों को नहीं समझा तो ये हमारे संविधान को ही खत्म कर डालेंगे। आज देश की नीतियों के भटकाव के सिलसिले में भी ये बात कही जा सकती है कि बाबासाहब राज्य के ज़रिए आर्थिक लोकतंत्र की बात कर रहे थे। वह यह मान रहे थे कि राजनीतिक लोकतंत्र ही हमको उस ओर ले जाएगा जहाँ दलितों और हासिए के अन्य समुदायों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने का काम करेगा ताकि वह भी देश के विकास से जुड़ सके और अपना योगदान कर सके।
[bs-quote quote=”आज सभी राजनीतिक दल बाबासाहब की विचारधारा पर चलने का दावा कर रहे हैं। इसलिए इस सवाल हम सभी से पूछ सकते हैं कि क्या वे बाबासाहब के इन सिद्धांतों को मानते हैं? बाबासाहब के नाम पर भवनों, मूर्तियों को बनने की होड़ हर एक पार्टी में लग गई है। कई लोग इसे अच्छा मानते हैं लेकिन बहुत से लोग अब ये भी कह रहे हैं कि बाबासाहब की मूर्तियां तो लगाए लेकिन अनुसूचित जाति के बच्चों को विदेश भेजने के लिए क्यों स्कालरशिप नहीं दे रहे हैं?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
19 नवम्बर, 1948 को इस पर प्रकाश डालते हुए बाबासाहब ने कहा था- इस संविधान में हमने एक राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना क्यों की है, इसका कारण ये है कि हम किसी भी प्रकार किसी भी समूह की स्थायी तानाशाही स्थापित नहीं करना चाहते। यद्यपि हमने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की है मगर साथ ही हमारी ये भी कामना है कि हम आर्थिक लोकतंत्र को भी अपना आदर्श बनाएं। लोगों की नज़र में हमारे सामने आज कई ऐसे रास्ते हैं जिन पर चलकर आर्थिक लोकतंत्र का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। ऐसे लोग भी हैं जो व्यक्तिवाद को आर्थिक लोकतंत्र का सर्वश्रेष्ठ प्रकार मानते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो एक समाजवादी किस्म के राज्य को ही आर्थिक लोकतंत्र का सबसे अच्छा रूप मानते हैं और ऐसे लोग भी हैं जो साम्यवादी विचारों को आर्थिक लोकतंत्र का सबसे परिष्कृत रूप मानते हैं। ऐसे हालात में हमने सोच-समझकर नीति-निर्देशक सिद्धान्तों की भाषा में एक ऐसी चीज़ पेश की है जो स्थिर या कठोर नहीं है। हमने अलग-अलग सोच रखने वाले लोगों के लिए इस बात की काफी गुंजाइश छोड़ दी है कि आर्थिक लोकतंत्र के आदर्श तक पहुंचने के लिए वे किस रास्ते पर चलना चाहते हैं और वे अपने मतदाताओं को इसके लिए प्रेरित कर सकें कि आर्थिक लोकतंत्र तक पहुंचने के लिए सबसे अच्छा रास्ता कौन-सा है।
बाबासाहब ये जानते थे कि लोकतंत्र के रास्ते में बहुत-सी चुनौतियां हैं और ये केवल संविधान के बनने से खत्म नहीं होंगी। राजनीतिक दल और लोग लोकतंत्र का डंका तो पीटेंगे लेकिन उसके मूल्यों के विपरीत आचरण करेंगे जिससे ये खतरा बना रहेगा। लोकतंत्र में जिस व्यक्तिवाद के खतरे की ओर उन्होंने इशारा कर हमें चेताया था वो दरअसल, इस दौर में और अधिक सार्थक और महत्वपूर्ण हो गया है जब एक व्यक्ति कानून और संविधान से बड़ा दिखने लगता है और लोकतंत्र के सभी ‘स्तम्भ’ उसकी चरणवंदना कर रहे हैं। बाबासाहब इस भक्ति को लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा कह रहे हैं।
किसी महापुरुष के चरणों में अपनी स्वतंत्रता को समर्पित या उस व्यक्ति पर उसमें निहित शक्ति के साथ भरोसा नहीं करना चाहिए, जो शक्ति उसे संस्थानों को अपने वश में करने में सक्षम बनाती हैं।
… हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हमें महान जिम्मेदारियां दी हैं। स्वतंत्रता के बाद से हम कुछ भी गलत होने पर अब अंग्रेजों को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं। यदि यहाँ से चीजें गलत हो जाती हैं, तो हमारे पास खुद को छोड़कर, दोष देने के लिए कोई नहीं होगा…।
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अपनी बात को और मजबूती से रखते हुए वह कहते हैं कि राजनीति में व्यक्ति पूजा या भक्ति विनाश की ओर ले जाती है लेकिन उनकी सबसे बड़ी चिंता इस लोकतंत्र को बचाने की थी क्योंकि वह राष्ट्र राज्य की नई धारणायें गढ़ रहे थे कि यह मात्र ‘भूगोल’ का एक टुकड़ा नहीं है और यदि हमारे मध्य समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की भावना नहीं होगी तो राजनैतिक लोकतंत्र के कोई मतलब नहीं होंगे और इसके असफल होने की पूरी संभावना है। मतलब ये कि यदि हमारे लोकतान्त्रिक संस्थान लोगों को न्याय नहीं दे पाएंगे तो लोगों का उन पर से विश्वास उठ जाएगा और वे स्वयं के न्याय में विश्वास करेंगे जो लोकतंत्र में सबसे खतरनाक स्थिति होगी। बाबासाहब ने इसीलिए हमारे समाज के अंतर्विरोधों को खत्म करने की बात की। जहाँ वह राजनीतिक लोकतंत्र से आर्थिक लोकतंत्र लाने की बात कह रहे थे वहीं राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता सामाजिक लोकतंत्र से ही संभव है।
26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में उनके भाषण में इस बात को बेहद संजीदगी से रखा गया। बाबासाहब कहते हैं, ‘हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक कायम नहीं रह सकता जब तक कि उसकी बुनियाद सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ जीवन का एक तरीका है जो जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को पहचानता है। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के इन सिद्धांतों को त्रिमूर्ति यानी अलग-अलग मदों के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। वे इस अर्थ में त्रिमूर्ति को एक संघ बनाते हैं कि एक को दूसरे से अलग करना लोकतंत्र के मूल उद्देश्य को विफल करना है। स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता, समानता को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता। न ही स्वतंत्रता और समानता को बंधुत्व से अलग किया जा सकता है। समानता के बिना, स्वतंत्रता बहुतों पर कुछ लोगों की सर्वोच्चता उत्पन्न करेगी। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्तिगत पहल को खत्म कर देगी। बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता चीजों का एक स्वाभाविक क्रम नहीं बन सकता। इसे लागू करने के लिए एक कांस्टेबल की आवश्यकता होगी। हमें इस तथ्य को स्वीकार करते हुए शुरुआत करनी चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीजों का पूर्ण अभाव है। इनमें से एक समानता है। सामाजिक धरातल पर, हमारे पास भारत में श्रेणीबद्ध असमानता के सिद्धांत पर आधारित एक समाज है जिसमें हमारे पास एक ऐसा समाज है जिसमें कुछ ऐसे हैं, जिनके पास अत्यधिक धन है जबकि बहुत से लोग घोर गरीबी में रहते हैं। 26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता दे रहे होंगे। हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम करेंगे, हमारी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारना जारी है। हम कब तक विरोधाभासों का यह जीवन जीते रहेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता से इनकार करते रहेंगे? अगर हम इसे लंबे समय तक नकारते रहे तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डालकर ही ऐसा करेंगे। हमें जल्द से जल्द इस विरोधाभास को दूर करना चाहिए, वरना जो लोग असमानता से पीड़ित हैं वे राजनीतिक लोकतंत्र की उस संरचना को ध्वस्त कर देंगे जिसे इस विधानसभा ने इतनी मेहनत से बनाया है। हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डालकर ही ऐसा करेंगे। हमें जल्द से जल्द इस विरोधाभास को दूर करना चाहिए वरना जो लोग असमानता से पीड़ित हैं वे राजनीतिक लोकतंत्र की उस संरचना को ध्वस्त कर देंगे जिसे इस विधानसभा ने इतनी मेहनत से बनाया है। हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डालकर ही ऐसा करेंगे। हमें इस विरोधाभास को जल्द से जल्द दूर करना चाहिए वरना जो लोग असमानता से पीड़ित हैं वे राजनीतिक लोकतंत्र की उस संरचना को ध्वस्त कर देंगे जिसे इस विधानसभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।
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इसलिए आज यह समझने की आवश्यकता है कि आखिर हम सामाजिक जीवन में लोकतान्त्रिक क्यों नहीं हो रहे और वो बराबरी कैसे आएगी? अभी कुछ दिन पूर्व दिल्ली के मयूर विहार क्षेत्र के एक अपार्टमेंट के सामने श्रीराम अवतार वर्मा जूते-चप्पल बनाने का काम करते थे। अपनी छोटी-सी दुकान में उन्होंने अपने नाम और मोबाईल नंबर की एक तख्ती लगाकर रखी हुई थी जिसमें लिखा था- राम अवतार वर्मा, मोबाईल नंबर। अब उनकी इस ‘तख्ती’ से अपार्टमेंट में रहने वाले किसी संभ्रांत वर्मा को इतनी परेशानी हुई कि उसने राम अवतार वर्मा से झगड़ा किया और उससे अपने नाम के आगे से वर्मा हटाने के लिए कहा। उस व्यक्ति को ये मंजूर नहीं था कि चमड़े का काम करने वाला कोई व्यक्ति भी अपने नाम के आगे वर्मा लगा सकता है। राम अवतार बताते हैं कि उनके आधार कार्ड से लेकर सभी प्रकार के पहचान पत्रों में वर्मा ही लिखा हुआ है। वैसे भारत में सरनेम के आधार पर जाति का विश्लेषण कर देना खतरनाक है। बहुत से सरनेम अनेक जातियों में हैं वो सवर्ण भी हो सकते हैं, पिछड़े और दलित भी। दूसरा और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण सवाल ये है कि किसी के कोई भी सरनेम लिखने से आपको क्यों आपत्ति। यही जाति की ‘शुद्धता’ का मामला आता है।
जाति के सवाल हमारे समाज में आज भी इतने बड़े हो गए हैं कि हर व्यक्ति अपनी ‘जाति’ की महानता के कसीदे पढ़ रहा है। जातियों को खत्म करने के बाबासाहब के विचार को अब पार्टियों ने जातिगत सम्मेलन और उपजातियों में खेल करके और गहरा कर दिया है। दिल्ली में अभी आयोजित हुए चमार सम्मेलन के नाम पर जो हुआ और जिस प्रकार से लोगों ने उसका पर्दाफाश किया वह एक अच्छा उदाहरण है। चमार सम्मेलन के नाम पर बाबासाहब को चमारों से दूर करने के प्रयास कभी सफल नहीं होंगे क्योंकि उत्तर भारत में यदि बाबासाहब के आंदोलन को सबसे अधिक आगे कोई बिरादरी ले गई है तो वह चमार समुदाय ही है और इसलिए बहुत से लोग इन बातों से खुश नहीं रहे होंगे और उन्होंने सोचा कि जाति की बात कर वो समाज से बाबासाहब को दूर कर लेंगे लेकिन ये प्रयास विफल हो गए। लेकिन ऐसी सोच को बहुत से नेताओं का संरक्षण होता है और वो अभी असफलता के डर से आगे काम नहीं करेंगे, ऐसे नहीं हो सकता। खैर, चमार समाज ने तो बाबासाहब के विचारों से अपने को जोड़ा तो ऐसे काम सफल नहीं होंगे लेकिन ऐसा करने वाले अभी चुप नहीं बैठेंगे क्योंकि बाबासाहब के विचार से ही लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुई हैं और बहुत से लोगों को इसी बात से परेशानी है।
देश में कैसे आएगा सामाजिक लोकतंत्र?
आज सभी राजनीतिक दल बाबासाहब की विचारधारा पर चलने का दावा कर रहे हैं। इसलिए इस सवाल हम सभी से पूछ सकते हैं कि क्या वे बाबासाहब के इन सिद्धांतों को मानते हैं? बाबासाहब के नाम पर भवनों, मूर्तियों को बनने की होड़ हर एक पार्टी में लग गई है। कई लोग इसे अच्छा मानते हैं लेकिन बहुत से लोग अब ये भी कह रहे हैं कि बाबासाहब की मूर्तियां तो लगाए लेकिन अनुसूचित जाति के बच्चों को विदेश भेजने के लिए क्यों स्कालरशिप नहीं दे रहे हैं? अभी भी सरकारों ने दलित समाज के लिए कृषि भूमि का आबंटन नहीं किया? आज भी अधिकतर लोगों के पास अपने घर नहीं हैं। अगर दलितों का अधिकतर वर्ग कृषि, श्रमिक और भूमिहीनता की स्थिति में है तो उसे न्याय कैसे मिलेगा? आज कुछ सवालों पर हम सभी पार्टियों और सरकार से पूछे तभी ये मान पाएंगे कि वे बाबासाहब की विचारधारा को मानते हैं।
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भारत सरकार हो या राजनीतिक दल, शायद इन प्रश्नों पर बात करना भी नहीं पसंद करेंगे। भूमि आबंटन के सवाल तो लगभग खत्म ही हो गए हैं और अब तो दलित आदिवासियों की जमीन ‘विकास’ के नाम पर छीनी जा रही हैं। शिक्षा तो निजी क्षेत्र मे सौंपी जा रही हैं ताकि वो आम आदमी की पहुँच से बाहर हो और जो भी शिक्षा के अच्छे संस्थान थे उनको खत्म कर दिया गया है ताकि ये पूँजीपतियों के हाथ में रहे। शिक्षा के सिलेबस का संघीकरण हो गया है। खेती के सवाल पर तो किसान लड़ते रहे लेकिन सरकार को जरा भी खयाल न आया। आज खेती भी दो-चार बड़े मुनाफाखोरों को सौंपने की ओर अग्रसर है। सार्वजनिक क्षेत्र के ज़रिए दलितों का एक बहुत बड़ा वर्ग देश की मुख्यधारा में आया और अपना योगदान भी दिया लेकिन आज यह खत्म हो गया है। इंडियन आयल, एलआईसी, विभिन्न राष्ट्रीय बैंक आदि सभी तो निजी हाथों में दिए जा रहे हैं। मतलब बाबासाहब कहते थे कि हम एक कल्याणकारी राज्य बने लेकिन वर्तमान में सत्ताधारी उद्योगपतियों के कल्याण की योजना बनाते फिर रहे हैं और उसके लिए लोगों को असहाय बना देने की तैयारी है। यदि आप कुछ कहेंगे या विरोध करेंगे तो आपको राष्ट्रविरोधी करार दे दिया जाएगा। सोशल मीडिया पर आपकी बाते आगे ही नहीं जाएगी और ज्यादा कहोगे तो जेल में होंगे। अल्पसंख्यक, पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों को सत्ता में भागीदारी का साधन राजनैतिक आरक्षण और सेवाओं में आरक्षण से था। सेवाओं में आरक्षण को तो बहुत चतुराई से खत्म कर दिया गया है।
[bs-quote quote=”हम सभी जानते हैं कि स्वाधीनता आंदोलन में नेताओं ने आपस में मिलकर भी लड़ाई लड़ी लेकिन ऐसा नहीं था कि उनमें मतभेद नहीं थे लेकिन उन मतभेदों को आज इस्तेमाल कर और मसाला लगाकर जनता के सामने प्रस्तुत कर हम किसी भी लड़ाई को नहीं लड़ सकते, जीतना तो बहुत दूर की बात है। दूसरे बाबासाहब का सपना जाति निर्मूलन और उसके ज़रिए प्रबुद्ध भारत का था। बहुत से लोगों ने बुद्ध धम्म की ओर रुख किया लेकिन अधिकतर लोग नहीं कर पाते। जिन्होंने उनके सांस्कृतिक दर्शन को अपनाया उनका आभार लेकिन जो लोग किसी और सांस्कृतिक दर्शन में हैं उनसे भी सम्मानपूर्वक या प्यार से बात करें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
सत्ता में भागीदारी के दो सबसे बड़े हथियार थे। गांवों के लिए भूमि सुधार ताकि लोग आर्थिक रूप से सशक्त होकर अपनी राजनीतिक भागीदारी एवं स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सके और दूसरे था आरक्षण ताकि सरकारी सेवाओं के ज़रिए नीतियों के क्रियान्वयन में वंचित वर्ग के लोगों की सम्मानपूर्वक भागीदारी हो। ये दोनों ही बातें अब लगभग समाप्त हो गई हैं। इसलिए लोगों का ध्यान भटकाने के लिए बाबासाहब की बड़ी-बड़ी मूर्तियों को लगाकर ये बताने की कोशिश की जा रही है कि सरकार उनके प्रति कितनी ‘निष्ठावान’ है। यह एक ढोंग है, क्योंकि आज भी दलित मंदिरों में प्रवेश नहीं कर पा रहे हैं, अपनी शादियां अपने तरीकों से नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि लोगों को परेशानी है। क्या सामंतवाद और प्रभुत्ववाद खत्म हो गए हैं तो उत्तर है नहीं। जब तक भूमि का पुनर्वितरण नहीं होगा ये सामंती वर्चस्व गांवों में बना रहेगा।
बाबासाहब भारत के गांवों के चरित्र को पहचानते हैं। हालांकि गांवों की व्यवस्था को गांधीजी ने बेहद ‘महान’ बताया लेकिन बाबासाहब जानते थे गांवों में जिसकी लाठी उसकी भैंस है और इसके चलते दलितों को कभी भी न्याय नहीं मिल पाएगा। दरअसल, बाबासाहब गानों के विरोधी नहीं थे वह ग्रामीण भारत में पनप रही जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ थे जिसके कारण दलितों पर अत्याचार होते आ रहे हैं। वो इसका विश्लेषण करते हुए लिखते हैं-
ये ग्राम पंचायतें भारत की बर्बादी का कारण रही हैं। इसीलिये मुझे आश्चर्य होता है कि लोग प्रांतीयता और साम्प्रदायिकता की निंदा करते हैं, वहीं गाँवों की इतनी प्रशंसा कर रहे है। हमारे गाँव हैं क्या? ये कूप मंडूकता के परनाले हैं। अज्ञान, संकीर्णता एवं साम्प्रदायिकता की काली कोठारियां हैं। मुझे प्रसन्नता है कि विधान के मसौदे में ग्राम को अलग फेंक दिया गया है और व्यक्ति को राष्ट्र का अंग माना गया है।
डाक्टर आंबेडकर कलम का कमाल : भाग 2 सम्पूर्ण वांग्मय का सार : खंड 13)
आज गाँव में चुनी हुई पंचायतें हैं लेकिन इन पंचायतों से अधिक ताकत गांवों की ‘खाप’ या ‘जाति पंचायतों’ की होती है, जो किसी भी ‘दुश्मन’ का हुक्का पानी बंद कर सकती हैं, किसी की हत्या कर सकती है और किसी को भी गाँव से बाहर कर सकती है। जातिगत सम्मान के लिए की जा रही हत्याएं आज भी जारी हैं और हमारी जातिगत पंचायतों के घिनौने रूप को दिखाती हैं। बाबासाहब की इन जातिगत पंचायतों के विषय में दी गई चेतावनी आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना पहले थी।
पूंजीवाद और पुरोहितवाद देश के सबसे बड़े दुश्मन
बाबासाहेब आंबेडकर ने बहुत साफ़ किया कि राजनीतिक शक्ति किसी भी समाज के लिए बहुत ज़रूरी है। वह कहते है – जिसके पास सत्ता होती है, उसी के पास स्वतंत्रता। स्वतंत्रता पाने और सभी कठिनाईयों से मुक्त होने का एकमात्र रास्ता है सत्ता। धार्मिक और आर्थिक शक्ति अधिक न होने के बावजूद भी राजनीतिक शक्ति ही वास्तविक शक्ति है।
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आदिवासियों के जल जंगल ज़मीन की स्वायत्तता का सम्मान ही बिरसा मुंडा का सही सम्मान
बाबासाहेब आंबेडकर ने बहुत साफ़ किया कि मजदूर समाज का दुश्मन कौन है? अपने भाषण में वह कहते हैं- मेरी राय में इस देश के मजदूरों को अपने दो दुश्मनों से मुकाबला करना होगा। ये दुश्मन हैं- ब्राह्मणशाही और पूंजीवाद।
मैं ब्राह्मणशाही शब्द का अर्थ इस प्रकार से करता हूँ जिसमें स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के सिद्धांतों का अभाव है। इसी अर्थ में उसने सभी क्षेत्रों में विषमता पैदा की है और ब्राह्मण लोग ही उसके जन्मदाता हैं। अब यह बात ब्राह्मणों में ही हो ऐसी बात नहीं है, बल्कि यह ब्राह्मणशाही सभी और दूर-दूर तक फ़ैल गयी है। उसने सभी वर्गों के आचार-विचार को भी नियंत्रित कर लिया है।
डाक्टर बाबा साहेब आंबेडकर : सम्पूर्ण वांग्मय : खंड 17 : भीम पत्रिका पब्लिकेशन, पेज 389)
पूंजीवाद के खतरे के बारे में वह कहते हैं- अंग्रेजों के यहाँ से चले जाने के बाद भी इस देश में ज़मींदार, मिल मालिक और साहूकारों की ज़मात बनी रहेगी और लोगों का उत्पीड़न होता रहेगा। साम्राज्यशाही के समाप्त होने के बाद भी आज की तरह मजदूरों को इन पूंजीपतियों से संघर्ष करना पड़ेगा। इस बात को समझने के लिए बौधिक चतुराई की आवश्यकता है, ऐसी बात नहीं है।
डाक्टर बाबा साहेब आंबेडकर : सम्पूर्ण वांग्मय : खंड 17 : भीम पत्रिका पब्लिकेशन, पेज 399
आज देश में जो हालात हैं वो बाबासाहब की बातों को सही साबित कर रहे हैं। इसलिए हम सभी के लिए आवश्यक है कि संविधान की मूलभावना की रक्षा करें और एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के प्रति कटिबद्ध रहे क्योंकि उसी में सबकी भलाई है। बाबासाहब ने राज्य धर्म के बारे में साफ तौर पर कहा है कि हिन्दू या मुस्लिम राष्ट्र कभी वंचित समुदायों के लिए न्याय नहीं कर पाएंगे?
राज्य का धर्म
हिन्दू राष्ट्र को देश के लिए एक भयानक खतरा बताते हुए वह इसका मुकाबला करने के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों को एक होने को कहते है। उनका साफ़ मानना था कि हिन्दू साम्प्रदायिकता का मुकाबला मुस्लिम साप्रदायिकता से नहीं किया जा सकता। आंबेडकर कहते हैं- यदि हिन्दू राज वाकई में एक हकीकत बनता है, तो यह निसंदेह देश के लिए एक बहुत बड़ी आपदा होगी क्योंकि हिंदुत्व स्वंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इस आधार पर प्रजातंत्र के लिए अनुपयुक्त है और इसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।
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वह आगे कहते हैं- हिन्दू राज को दफ़न करने का एक ही प्रभावी रास्ता है कि मुस्लिम लीग को भंग करके हिन्दुओं और मुसलमानों की एक मिलीजुली पार्टी गठित की जाए। विभाजन हिन्दू राज से निपटने का ठीक समाधान नहीं है। विभाजन हिन्दू राज की स्थापना के विरुद्ध बेकार समाधान ही नहीं अपितु बदतर है।
डाक्टर आंबेडकर : सम्पूर्ण वांग्मय : खंड 8
आज बाबासाहब के 132वें जन्मदिन पर उनके महत्वपूर्ण बातों को समझने की ज़रूरत है। अम्बेडकरवादियों और समान विचारधारा के दूसरे लोगों को साथ खड़े होने की ज़रूरत है ताकि हम अपने सामने खड़ी चुनौतियों का सामना कर सके। एक बात साफ है कि अब लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती। देश और संविधान को बचाने की लड़ाई में जुड़े लोग समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बाबासाहब के दर्शन को स्वीकारते हैं क्योंकि ये बात साफ है कि कोई भी संघर्ष तब तक कामयाब नहीं होगा जब तक उसकी कोई विचारधारा नहीं होगी। यदि हम लोगों की धार्मिक आस्थाओं के प्रश्नों और उनके निजी विचार को अगर छोड़ दे तो महत्वपूर्ण सवालों पर एकता हो सकती है लेकिन बहुत से लोग व्यक्तिगत सवालों को इतना बड़ा कर देते हैं कि आगे बढ़ने कि गुंजाइश नहीं होती। हम सभी जानते हैं कि स्वाधीनता आंदोलन में नेताओं ने आपस में मिलकर भी लड़ाई लड़ी लेकिन ऐसा नहीं था कि उनमें मतभेद नहीं थे लेकिन उन मतभेदों को आज इस्तेमाल कर और मसाला लगाकर जनता के सामने प्रस्तुत कर हम किसी भी लड़ाई को नहीं लड़ सकते, जीतना तो बहुत दूर की बात है। दूसरे बाबासाहब का सपना जाति निर्मूलन और उसके ज़रिए प्रबुद्ध भारत का था। बहुत से लोगों ने बुद्ध धम्म की ओर रुख किया लेकिन अधिकतर लोग नहीं कर पाते। जिन्होंने उनके सांस्कृतिक दर्शन को अपनाया उनका आभार लेकिन जो लोग किसी और सांस्कृतिक दर्शन में हैं उनसे भी सम्मानपूर्वक या प्यार से बात करें। आज बाबासाहब को देश का हर दबा-कुचला वर्ग स्वीकार कर रहा है और करे भी क्यों न, क्योंकि इसके अलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं है। बाबासाहब का दर्शन मुक्ति और प्रगति का दर्शन है जिस पर हम सभी को गर्व होगा। हम दुनिया के न केवल सबसे बड़े लोकतंत्र होंगे अपितु सबसे बेहतरीन भी होने का दावा कर सकते हैं, लेकिन उसका रास्ता सामाजिक लोकतंत्र से होकर ही गुजरता है। सामाजिक लोकतंत्र के अभाव में हमारे राजनैतिक लोकतंत्र पर खतरा हमेशा बना रहेगा। क्योंकि सामंती, जातिवादी शक्तियां लोकतंत्र के नाम पर सत्ता में होंगी और उसकी जड़ों पर प्रहार करती रहेंगी ताकि वंचित समुदायों के लोग अपनी सामाजिक ‘हैसियत’ से आगे न बढ़ पाए।
विद्या भूषण रावत जाने-माने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।