समय-समय पर मूदड़ा कांड, बोफोर्स, हवाला, चारा, बराक मिसाइल, बैंक प्रतिभूति, सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम विनिवेश, ताबूत, पेट्रोल पंप, कॉमन वेल्थ घोटाला, 2 जी स्पेक्ट्रम, सेना की कैंटीनों में घटिया सामग्री आपूर्ति, पीएफ इत्यादि घोटालों का साक्षात करने वाला भारत नामक अभागा देश अब उस ‘चुनावी बॉन्ड घोटाले’ का सामना करने के लिए अभिशप्त हुआ है, जिसने घोटालों से जुड़े अतीत के सारे रिकार्ड तोड़ दिया है। इस घोटाले को सामने लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई चंद्रचूड़ का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
चुनावी बॉन्ड के जरिए कितने बड़े घोटाले को अंजाम दिया गया है, इसका अनुमान फ़ेसबुक पर आई चंद टिप्पणियों से लगाया सकता है। फ़ेसबुक पर एक व्यक्ति ने लिखा है, ‘एक मदनलाल लिमिटेड है, जिसकी कमाई 10 करोड़ है, लेकिन चंदा दिया है 185 करोड़!’ एक व्यक्ति ने लिखा है,’ एयरटेल अपने बैलेंस शीट बताया है कि पाँच साल में उसे 300 करोड़ का घाटा हुआ, लेकिन चंदा दे दिया, 300 करोड़ चुनावी बॉन्ड के रूप मे!’ मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर ने 140 करोड़ का बॉन्ड खरीदा और उसे 14,400 करोड़ का प्रोजेक्ट मिल गया, ऐसा एक व्यक्ति ने लिखा है। फेसबुक पर किसी ने लिखा है, ‘वैक्सीन लगाने वाली कंपनी से 500 करोड़ लिए गए इसीलिए हमें और आपको वैक्सीन लगवानी पड़ी!’
एक और व्यक्ति ने लिखा है, ‘पाकिस्तान स्थित ‘हब पावर कंपनी’ ने पुलवामा हमले के बाद चुनावी बॉन्ड में दान दिया। जब पूरा देश 40 वीर जवानों की मौत का मातम मना रहा था, तब कोई पाकिस्तान से मिलने वाली फंडिंग का मजा ले रहा था!’ जो व्यक्ति विभिन्न कंपनियों से चुनावी बॉन्ड के जरिए मिले कई हजार करोड़ की फंडिंग का मजा ले रहा था वह और कोई नहीं, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रहे, इसकी खुली घोषणा करती टिप्पणियों से फ़ेसबुक पटा पड़ा है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की कड़ाई से जो चुनावी बॉन्ड घोटाला सामने आया है, उस पर राष्ट्र की भावना का मुक्कमल प्रतिबिंबन राहुल गांधी के बयान में हुआ है।
भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा चुनावी बॉन्ड का डाटा सार्वजनिक किए जाने के बाद राहुल गांधी ने इसे जबरन वसूली का खेल बताते हुए कहा है, ‘सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स जांच नहीं करते, बल्कि बीजेपी के लिए वसूली करते हैं। बीजेपी राज्यों में जो सरकारें गिरा रही है, उसके लिए पैसा कहां से आ रहा है! बीजेपी ने पूरे पॉलिटिकल सिस्टम को कैप्चर कर लिया है। जांच एजेंसियां अब जांच नहीं, बल्कि वसूली कर रही हैं। इससे बड़ी एंटी नेशनल एक्टिविटी नहीं हो सकती है। कांग्रेस सरकारों द्वारा दिए ठेकों और चुनावी बॉन्ड के बीच कोई संबंध नहीं है।
यह भी पढ़ें…
संविधान को पूरी तरह ध्वस्त करने का मन बना चुकी है मोदी सरकार
जांच एजेंसियों के इस्तेमाल के जरिए कंपनियों से वसूली की जा रही है, बड़े ठेकों का शेयर लिया जा रहा है। कान्ट्रैक्ट देने से पहले चुनावी चंदा लिया जा रहा है। ये पूरा ढांचा पीएम मोदी ने तैयार किया है।’ इस सिलसिले में उन्होंने आगे कहा है, ‘मिलिंद देवड़ा और अशोक चव्हाण बीजेपी में चले गए। इसी पैसे से एनसीपी और शिवसेना को तोड़ा गया। देश में जो संस्थाएं हुआ करती थीं, वे अब बीजेपी की हथियार हैं, इसलिए यह सब हो रहा है। अगर ये संस्थाएं अपना काम करतीं तो ये सब नहीं होता। इन संस्थाओं को सोचना चाहिए कि एक न एक दिन बीजेपी की सरकार जाएगी, फिर कड़ी कार्रवाई होगी।’
बहरहाल, चुनावी बॉन्ड के नाम पर जो देश-विरोधी कांड हुआ है, उस पर अंकुश लगाने के लिए, उसके जिम्मेवार तत्वों को सामने लाना जरूरी है। जहां तक जिम्मेवार तत्वों का सवाल है, क्या इस के लिए अकेले जिम्मेवार सिर्फ बीजेपी है! नहीं, अगर बीजेपी को ही जिम्मेवार मानकर संतुष्ट हो जाएंगे तो फिर ऐसे घपला-घोटालों पर अंकुश नहीं लगा पाएंगे। बीजेपी के सत्ता में नहीं रहने पर भी राष्ट्र को हिलाकर रख देने वाले ढेरों ऐसे कांड हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे। ऐसे में जरूरी है कि उस जिम्मेवार वर्ग की पहचान कर उस पर अंकुश लगाई जाए जो अतीत से लेकर वर्तमान के चुनावी बॉन्ड कांड के लिए जिम्मेवार है। इस वर्ग की पहचान करके ही भविष्य में भारत को हिलाकर रख देने वाले घोटालों से बचाया जा सकता है!
चुनावी बॉन्ड घटना के तीन घटक हैं, एक लाभ के लिए चन्दा देने वाला और दूसरा, चंदा पाने वाला, तीसरा घटक हैं जांच एजेंसियां, जिनके जरिए वसूली की गई है! इन तीनों घटकों के बीच कोई कॉमन वर्ग जिम्मेवार है तो वह है भारत के जाति समाज का प्रभुवर्ग अर्थात हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख-बाहु-जंघे) से जन्मा वर्ण-व्यवस्था का वह जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग, जिसका सदियों से शक्ति के समस्त स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक) पर एकाधिकार रहा है। आज भी देश के दस इस प्रभुवर्ग का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार अटूट है। चुनावी काण्ड में लाभ के लिए चन्दा देने वाले इसी प्रभुवर्ग के लोग है। जिस भाजपा पर वसूली का आरोप है, वह भी इसी प्रभुवर्ग द्वारा संचालित पार्टी है।
यह भी पढ़ें…
निजीकरण के पीछे मोदी सरकार के उद्देश्यों को समझिये
चुनावी कांड में जिन जांच एजेंसियों का इस्तेमाल किया गया है, उस ईडी, सीबीआई इनकम टैक्स पर भी इसी प्रभुवर्ग का ही प्रायः सम्पूर्ण नियंत्रण है। इसी तरह इस पूरे काण्ड में भारत के जाति समाज के जिस वर्ग की क्रियाशीलता है, वह जन्मजात प्रभुवर्ग ही है। अगर भारत में भ्रष्टाचारी वर्ग की पहचान करनी हो तो साफ नजर आएगा कि भारत का जन्मजात प्रभुवर्ग ही भ्रष्टाचारी वर्ग है। कॉमन वेल्थ घोटाले में जिन ललित भनोट, वीके शर्मा, संजय महेंद्र, टी एस दरबारी का नाम आया; आदर्श सोसाइटी घोटाले में जिनका नाम प्रमुखता से उछला वे जयराम पाठक, रमानंद तिवारी, पीवी देशमुख, सीमा व्यास, प्रदीप व्यास, आरजेड कुंदन, डीके शंकरन; इसरो-देवास मल्टी मीडिया करार में जिस बड़े वैज्ञानिक का नाम आया वह डॉ. एम. जी. चंद्रशेखर; सेना की कैन्टिनों में घटिया सामग्री सप्लाई घोटाले में जिनका नाम उछला वह सेनाध्यक्ष वीके सिंह, वायु सेना प्रमुख पीवी नाईक और नौ सेना प्रमुख निर्मल वर्मा वे प्रायः प्रभुवर्ग से ही रहे। इसी तरह अतीत से लेकर आज तक जितने भी घपला-घोटाले हुए, उनसे जुड़े नामों की तफ्तीश की जाए तो 99 प्रतिशत नाम ही प्रभुवर्ग से मिलेंगे! चर्चित घोटालेबाज हर्षद मेहता, रामालिंगम राजू, केतन पारीख, सी आर भंसाली, किडनी कारोबारी डॉ. अमित, इच्छाधारी बाबा शिवकुमार द्विवेदी इत्यादि इसी वर्ग से रहे।
जहां तक भ्रष्टाचार सवाल है यह एक सार्वदेशिक समस्या है और दुनिया के तमाम देश ही इसे एक बड़ी सामाजिक बुराई मानकर इसके खात्मे के लिए प्रयासरत रहे। लेकिन जो भ्रष्टाचार बड़े सामाजिक बुराई के रूप में चिन्हित होता रहा है, उसके पृष्ठ में आम से लेकर खास लोग धन-तृष्णा की क्रियाशीलता को प्रधान कारण बताते रहे हैं । इस धन तृष्णा के कारण ही भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम समाजों में ही भ्रष्टाचार की व्याप्ति रही है, फर्क सिर्फ मात्रा का रहा।
बहरहाल, जिस धन-तृष्णा को भ्रष्टाचार की जड़ माना जाता है, समाज मनोविज्ञानियों के अनुसार उसका संपर्क आकांक्षा-स्तर(लेवल ऑफ ऐस्परैशन) है और आकांक्षा– स्तर का नाभि-नाल का संबंध सामाजिक विपन्नता(सोशल डिसएडवांटेज) से है। विपन्नता और आकांक्षा स्तर के परस्पर संबंधों का अध्ययन करते हुए समाज मनोविज्ञानियों ने साबित किया है कि विपन्न लोगों में आकांक्षा-स्तर निम्न हुआ करता है, वे थोड़े में ही संतुष्ट हो जाते हैं। इनमें उपलब्धि-अभिप्रेरणा(अचिवमेंट मोटिवेशन) निम्न हुआ करती है। विपरीत स्थिति सामाजिक संपन्नता वाले समूहों की रहती है। ऐसे समूहों में आकांक्षा–स्तर और उपलब्धि अभिप्रेरणा उच्च हुआ करती है।
इनमें भी उच्च वर्गीय की तुलना में मध्यम वर्गीय लोगों की उपलब्धि-प्रेरणा उच्चतम हुआ करती है। इस सच्चाई के आईने में भारत के सामाजिक समूहों का अध्ययन करने पर पाते हैं कि वर्ण-व्यवस्था के वितरणवादी सिद्धांत की परिणति स्वरूप शुद्रातिशूद्र सामाजिक रूप से विपन्न श्रेणी में हैं। वर्ण-व्यवस्था में शक्ति के समस्त स्रोतों से दूर धकेले जाने के कारण चिरकाल के लिए ही ये विपन्न होने के लिए अभिशप्त हुए। इस कारण इनकी आकांक्षा-स्तर और उपलब्धि अभिप्रेरणा निम्न स्तर की है। यह थोड़े में संतुष्ट रहने वाला समूह है। यही कारण है इसकी धन-तृष्णा कम है, जिस कारण बड़े-बड़े घपला-घोटालों में दलित, आदिवासी और पिछड़ों की संलिप्तता अपवाद रूप से ही दिखती है।
वर्ण-व्यवस्थाजन्य कारणों से भारत के प्रभु वर्ग की प्रस्थिति सामाजिक–सम्पन्न वर्ग के रूप में है। इसमें आकांक्षा स्तर उपलब्धि अभिप्रेरणा का स्तर उच्च है। आकांक्षा-स्तर और उपलब्धि अभिप्रेरणा के कारण ही सामान्यतया बड़े-बड़े घोटालों में इसकी ही संलिप्तता रहती है। वर्ण-व्यवस्था जन्य कुछ अन्य तत्व भी प्रभुवर्ग की संलिप्तता के पीछे क्रियाशील रहते हैं। वर्ण-व्यवस्था में देश का प्रभुवर्ग परजीवी वर्ग में तब्दील रहा। उत्पादन से पूरी तरह दूर रहकर भी यह उत्पादन के सम्पूर्ण सुफल का भोग करता रहा। चूंकि यह बिना उत्पादन किए उत्पादन के सुफल का भोग करने का अभ्यस्त रहा, इसलिए यह अधिकतम सुख भोगने की लालसा में शॉर्टकट रास्ता अपनाने की जुगत भिड़ाते रहता है। इस समूह की अपार भौतिक आकांक्षा में वर्ण-व्यवस्था से जुड़ा एक और तत्व अहम रोल अदा करता है। वह है मानव- सृष्टि में हिन्दू धर्म का दैवीय–सिद्धांत(डिवाइन थ्योरी)।
चूंकि वर्ण-व्यवस्था ईश्वर सृष्ट रही और इसमें शक्ति के समस्त स्रोत कथित ईश्वर के उत्तमांग के लिए पीढ़ी दर आरक्षित रहे, इसलिए तमाम संपदा-संसाधनों को अपने अधीन करना यह अपना दैवीय-अधिकार समझता है। यह दैवीय अधिकार की भावना भी उसे बड़े-बड़े आर्थिक घोटालों जैसे अपराध अंजाम देने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन अपराधी सम्पन्न हो या विपन्न समूह का, अपराध करने के पहले पकड़े जाने का भय उसके अवचेतन में क्रियाशील रहता है। किन्तु भारत के सम्पन्न तबके के अपराधी कुछ हद तक भयमुक्त रहते हैं। वे कहीं न कहीं इस बात के प्रति आश्वस्त रहते हैं कि जांच एजेंसियों, पुलिस प्रशासन और न्यायपालिका में छाए उनके सजाति लोग बचा लेंगे। इसलिए वे बड़ा से बड़ा घोटाला करने की जोखिम उठा लेते हैं। उसके विपरीत पुलिस-प्रशासन और न्यायपालिका इत्यादि में उच्च जातियों की जबरदस्त उपस्थिति बहुजनों के शिराओं में बराबर भय का संचार करती रहती है, इसलिए वे राष्ट्र को हिलाकर रख देने वाले घपला- घोटालों से दूर रहते हैं। बहरहाल, चुनावी बॉन्ड कांड ने सिर्फ यही साबित नहीं किया है कि भारत का प्रभुवर्ग भ्रष्टाचारी वर्ग है वरन यह भी साबित किया है कि उसमें पर्याप्त सामाजिक विवेक भी नहीं है।
यह सही है कि चुनाव, खासकर लोकसभा चुनाव बहुत मंहगे हो गए गए हैं। लोकसभा क्षेत्र का भौगोलिक विस्तार काफी बड़ा होता है और इसमें कहीं-कहीं मतदाताओं की संख्या 15- 20 लाख तक की होती है। ऐसे में इतने मतदाताओं तक अपनी नीतियों, घोषणापत्र और कार्यक्रमों की जानकारी पहुँचाने के लिए बड़े पैमाने पर धनराशि की जरूरत होती है। तकनीकी विकास के साथ चुनाव प्रचार के कई नए माध्यम भी विकसित हो गए हैं, पर ये खर्चीले होते हैं। ऐसे हालात में सिर्फ पार्टी समर्थकों के आर्थिक सहयोग पर निर्भर होकर चुनाव जीतना प्रायः असंभव है, इसलिए राजनीतिक दल उद्योगपतियों से मिले आर्थिक सहयोग पर निर्भर रहते हैं और उद्योगपति देते भी है, भले उसके पीछे पार्टी से लाभ उठाने की मंशा हो। लेकिन बड़े ताज्जुब की बात है कि प्रभु वर्ग द्वारा संचालित दलों को करोड़ों–करोड़ों का चंदा देने वाले भारतीय उद्योगपति दलित-पिछड़ों या सामाजिक बदलाव की बड़ी लड़ाई लड़ने वाली वामपंथी पार्टियों को चंदा नहीं देते। यह सच्चाई चुनावी बॉन्ड घोटाले की हकीकत जनसमक्ष आने के बाद एक बार फिर सामने आई है। चंदा पाने वाले दलों की जो लिस्ट सामने आई है, उसमें साफ नजर आ रहा है कि दलित–पिछड़ों वाली पार्टियों को चुनावी बॉन्ड योजना का लाभ नहीं मिला है।
इस मामले में देश की तीसरी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बहुजन समाज पार्टी को कोई चंदा न मिलना चर्चा का बड़ा विषय बन गया है। देश के राजनीति की दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश में चार बार सत्ता में रही बहुजन समाज पार्टी को बॉन्ड खरीदने वाली कंपनियों ने पूरी तरह चंदे से महरूम कर दिया है। बसपा की तरह समाजवादी पार्टी का खाता जीरो तो नहीं है, पर उसे मात्र 14 करोड़ से संतोष करना पड़ा है। इनके विपरीत जिस प्रभु वर्ग की हितैषि भाजपा से सपा-बसपा का मुकाबला है, वह भाजपा अप्रैल 2018 से लेकर अबतक उद्योगपतियों से 6,986.5 करोड़ रुपये पा चुकी है। ऐसे में मंहगे चुनाव के दौर में सामाजिक बदलाव की लड़ाई के प्रति प्रतिबद्ध सपा-बसपा जैसी पार्टियां चुनाव में कैसे मुकाबला कर पायेंगी !
यह भी पढ़ें…
भाजपा की नफरती राजनीति का विपक्ष को ढूँढना होगा ठोस जवाब
अब सवाल पैदा होता है दबे-कुचले लोगों की लड़ाई लड़ने वाली बसपा को उद्योगपतियों ने चंदे से क्यों महरूम किए? इसका जवाब यह है कि भारत के प्रभुवर्ग में सामाजिक विवेक का अभाव है, इसलिए वह न तो दबे-कुचले लोगों की भलाई के लिए अपना खजाना खोलता है और न ही इनकी लड़ाई लड़ने वाले संगठनों/दलों को कोई आर्थिक सहयोग करता है। इस बात का खुलासा वर्षों पहले बाबा साहब डॉ. अंबेडकर कर गए है। उन्होंने हिन्दू प्रभुवर्ग के सामाजिक विवेक की तुलना अमेरिकी प्रभुवर्ग से तीन कसौटियों पर करते हुए लिखा है ‘अमेरिका का प्रभु वर्ग ने वहां के नीग्रो लोगों के उत्थान के लिए भूरि-भूरि साहित्य रचा और बेशुमार धन खर्च किया।
जबकि हिंदुओं ने अस्पृश्यों के लिए वैसा नहीं किया। सवाल है अमेरिकी नीग्रो लोगों के उत्थान के लिए इतनी सेवा और त्याग क्यों करते हैं? इसका एक ही उत्तर है कि अमेरीकियों में सामाजिक विवेक है, जबकि हिंदुओं में इसका सर्वथा अभाव है। ऐसी बात नहीं कि हिंदुओं में उचित-अनुचित, भला-बुरा या नैतिकता का विचार नहीं है। हिंदुओं में दोष यह है कि अन्य के संबंध में उनका जो नैतिक विवेक है, वह सीमित वर्ग, अर्थात अपनी जाति के लोगों तक ही सीमित है (बाबा साहब डॉ.अंबेडकर सम्पूर्ण वांगमय, खंड -9, पृष्ठ-156)। अर्थात भारतीय प्रभु वर्ग की दानशीलता, सेवा भाव इत्यादि अपने उच्च वर्ण तक सीमित है।
बहरहाल, चुनावी बॉन्ड घोटाला सामने आने के बाद सवाल पैदा होता है कि भारत के भ्रष्टाचारी वर्ग को कैसे नियंत्रित किया जाए ताकि वह राष्ट्र को हिलाकर रख देने वाले घपला-घोटाले को अंजाम न दे सके? इस सवाल जवाब का ढूंढते समय ध्यान में रखना होगा कि जिन हिन्दू धर्म शास्त्रों के चलते वह सामाजिक विवेक से दरिद्र है और उसे बड़े-बड़े घोटाले अंजाम देने में कोई भय नहीं, वह न तो सुधरने वाला है और न ही कोई भी कानून उसके आकांक्षा स्तर को सीमित नहीं कर सकता है, लेकिन एक उपाय है, जिसके जोर से उसके भ्रष्टाचार के प्रभाव को सीमित किया जाता है। वह है शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक और धार्मिक) में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिंबन। ऐसा होने पर शक्ति के स्रोतों का बंटवारा भारत के पाँच सामाजिक समूहों- एससी, एसटी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यक और सामान्य वर्ग–के स्त्री–पुरुषों के संख्यानुपात में बंटवारा। इससे जिस उच्च वर्ण का उद्योग-व्यापार, सेना के उच्च पदों, न्यायपालिका, फिल्म-मीडिया, मंत्रालयों के सचिव आदि पदों पर 80-90 प्रतिशत कब्जा है, एवं जहां का भ्रष्टाचार ही राष्ट्र की विराट समस्या है, वहां इस वर्ग के पुरुष 7-8 प्रतिशत अवसरों पर सिमटने के लिए बाध्य होंगे। इससे निश्चित रूप से देश को झकझोरने वाले भ्रष्टाचार की मात्रा गिरावट आएगी। स्मरण रहे भ्रष्टाचार उच्च वर्ण के पुरुष ही करते हैं, उनके महिलाओं की संलिप्तता अपवाद रूप से ही देखी जाती है। कारण, हिन्दू धर्म शस्त्रों के कारण उच्च वर्ण की महिलाओं में भी दलित, आदिवासी, पिछड़ों की भांति आकांक्षा स्तर निम्न होती है। अतः शक्ति के स्रोतों में विविधता नीति लागू होने पर भ्रष्टाचार तो खत्म नहीं होगा पर उसके प्रभाव क्षेत्र में 80-85 प्रतिशत की गिरावट आ जाएगी।
भ्रष्टाचार की व्यापकता को कम करने में विविधता नीति एक और रूप में प्रभावी हो सकती है। वह इस तरह की जब भ्रष्टाचारियों का संरक्षण व बचाव करने वाली जांच एजेंसियों, पुलिस प्रशासन इत्यादि में प्रभुवर्ग के लोग 7-8 प्रतिशत पर सिमटेंगे तब इस वर्ग के लोगों में मनोवैज्ञानिक सुरक्षा की कमी आ जाएगी और वे घपला- घोटाला करने के पहले सौ बार सोचने के लिए बाध्य होंगे। आज जबकि देश चुनावी बॉन्ड घोटाले से स्तब्ध है, वैसे समय में एक भारी सुकून की बात है कि जननायक राहुल गांधी जितनी आबादी-उतना हक के मुद्दे पर चुनाव लड़ने जा रहे है। ऐसे में अगर कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन सत्ता में आता है तो शक्ति के समस्त स्रोतों में जितनी आबादी-उतना हक की नीति लागू हो सकती है। इससे भ्रष्टाचार का जिम्मेवार प्रभुवर्ग प्रत्येक क्षेत्र में 7-8 प्रतिशत अवसरों पर सिमटने के लिए बाध्य होगा। ऐसा होने पर भारत में समतामूलक समाज तो आकार लेगा ही, साथ में राष्ट्र को हिलाकर रख देने वाले भ्रष्टाचार और अपराध में 80-85 प्रतिशत तक की गिरावट आना तय है।