Saturday, July 27, 2024
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चन्द्र किशोर जायसवाल रेणु के बाद के सबसे महत्वपूर्ण उपन्यासकार हैं

पहला भाग : चंद्रकिशोर जायसवाल आठवें दशक से हिंदी कथा साहित्य में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कराये हुए हैं। कथा सम्राट  प्रेमचंद की परंपरा के संवाहक और फणीश्वरनाथ रेणु की तरह गंवई माटी से गहरे जुड़े कथाकार जायसवाल जी के अब तक 11 उपन्यास यथा- गवाह गैरहाजिर, पलटनिया, चिरंजीव, शीर्षक, जीबछ का बेटा बुद्ध, माँ, […]

पहला भाग :

चंद्रकिशोर जायसवाल आठवें दशक से हिंदी कथा साहित्य में अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज कराये हुए हैं। कथा सम्राट  प्रेमचंद की परंपरा के संवाहक और फणीश्वरनाथ रेणु की तरह गंवई माटी से गहरे जुड़े कथाकार जायसवाल जी के अब तक 11 उपन्यास यथा- गवाह गैरहाजिर, पलटनिया, चिरंजीव, शीर्षक, जीबछ का बेटा बुद्ध, माँ, दाह, सात फेरे, मणिग्राम, भट्ठा और दुखग्राम प्रकाशित हुए हैं। साथ ही इनकी लगभग 120 कहानियाँ और 6 नाटक और 6 एकांकियाँ भी प्रकाशित हुई हैं। हमारे समय के एक सशक्त किन्तु कम चर्चित  चंद्रकिशोर जायसवाल किसी विशेष वाद या राजनैतिक विचारधारा से मुक्त सामाजिक सरोकारों से जुड़े प्रखर कथाकार हैं। इनके उपन्यासों एवं कहानियों में आज के समय के हमारे देश-समाज और घर-परिवार की स्थिति का यथार्थपरक और आशावादी चित्रण मिलता है। विस्तार की सीमा को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत आलेख में जायसवाल जी के उपन्यासों के आधार पर संक्षेप में चर्चा की जा रही है।

कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य समाज का अभिन्न अंग होता है और अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक समाज में ही रहता है। मनुष्य अपने आचार-विचार, रहन-सहन, भाषा-बोली और व्यवहार के आधार पर अपने सामाजिक संबंधों एवं दायित्वों को निभाते हुए अपना जीवन व्यतीत करता है। हम मानव के बिना समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। मनुष्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है। मनुष्य समाज में रहते हुए परस्पर सहयोग से अपनी समस्याओं को सुलझाता है और विपदाओं से निपटने का प्रयास करता है। सत्यकेतु विद्यालंकार के शब्दों में, ‘मनुष्यों में जो शक्ति व क्षमता होती है, उनका जो व्यक्तित्व होता है, समाज उसे केवल नियंत्रित व मर्यादित ही नहीं करता, अपितु उन्हें प्रोत्साहन भी देता है। यद्यपि हमारे विचारों, नैतिक धारणाओं, विश्वासों, आदर्शों और वृत्तियों को वह सूक्ष्म रूप से प्रभावित करता रहता है, पर हमारे व्यक्तित्व का वह पूर्णतया अंत नहीं कर देता। इसीलिए व्यक्ति भी समाज पर अपना प्रभाव डालते रहते हैं, और प्रत्येक नई संतति के साथ सामाजिक विरासत में भी अंतर पड़ता जाता है।’1

[bs-quote quote=”हमारे समय के एक सशक्त किन्तु कम चर्चित  चंद्रकिशोर जायसवाल किसी विशेष वाद या राजनैतिक विचारधारा से मुक्त सामाजिक सरोकारों से जुड़े प्रखर कथाकार हैं। इनके उपन्यासों एवं कहानियों में आज के समय के हमारे देश-समाज और घर-परिवार की स्थिति का यथार्थपरक और आशावादी चित्रण मिलता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

समाज सतत परिवर्तनशील है। मानव जीवन समाज से पूरी तरह बंधा हुआ है। सामाजिक व्यवस्था के नियमों एवं आदर्शों का पालन करना प्रत्येक मनुष्य के लिए अनिवार्य होता है और इन्हें ध्यान में रखते हुए उसे अपने जीवन को नियंत्रित और अनुशासित रखना पड़ता है। वस्तुत: यही जीवन आदर्श एवं निर्धारित नियम ही सामाजिक मूल्य के रूप में अभिहित किए जाते हैं। सामाजिक मूल्य सदैव स्थिर न होकर देशकाल एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति ने दुनिया के अधिकांश देशों के समाज को गहराई से प्रभावित किया है जिसके फलस्वरूप आधुनिकता के मायने बदल गए हैं और आधुनिकता की आँधी में हमारे सामाजिक मूल्यों में भी तेजी से परिवर्तन हुए हैं। डॉ. विनय कुमार चौधरी के मतानुसार, ‘विश्व बाजार के उदारीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति की दौड़ में आज अनुशासन और नैतिकता की बात बेमानी हो गई है। भाई-भतीजावाद, जातीयता और धर्मांधता ने व्यक्ति के आभ्यंतरिक चरित्र को कुंद कर दिया है। सीधे-सीधे कहें तो हम मनुष्य रह गए हैं, शंका होती है। आज मनुष्य जाति के सामने सबसे बड़ी चुनौती मानवता को बचाने, उसे खोजने की है।’2

कथाकार चन्द्र किशोर जायसवाल के साथ लेखक गुलाबचंद यादव

आधुनिकता बोध ने हमारे भारतीय समाज के रहन-सहन और ताने-बाने को गहरे तक प्रभावित किया है। आधुनिकता ने हमारे प्राचीन मूल्यों को लगभग व्यर्थ साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आधुनिकता के चलते मानव के सोच-विचार और दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आए हैं। इन परिवर्तनों ने बदलते हुए सामाजिक मूल्यों की मुखर अभिव्यक्ति में सहायक की भूमिका निभाई है। आधुनिकता से प्रेरित और प्रभावित इस बदले हुए परिवेश में रचा गया साहित्य अपने युग की सापेक्ष परिस्थितियों को अभिव्यक्त करता है। आधुनिक युग में रचित साहित्य मध्यकालीन साहित्य के बरक्स व्यापक रूप से भिन्न है क्योंकि आधुनिक काल में हमारे जीवन-मूल्यों में बहुव्यापी परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तित जीवन-मूल्यों से न केवल हमारा शहरी जीवन प्रभावित हुआ है बल्कि हमारे ग्रामीण समाज पर भी इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है। किसानों, मजदूरों और ग्रामीण स्त्रियों की मानसिकता पर बदले हुए जीवन मूल्यों ने अपना रंग जमा लिया है जिसकी वजह से समकालीन समाज में नए परिदृश्य की निर्मित हुई है। आधुनिकता मानव को लगातार अपने मोहपाश में जकड़ने का प्रयत्न कर रही है और अपने प्रयासों में काफी हद तक सफल भी हो रही है।

चंद्रकिशोर जायसवाल मूलत: ग्रामीण चेतना के कथाकार हैं, अत: इनके कथा-साहित्य में, विशेष रूप से उपन्यासों में, बदलते सामाजिक मूल्यों की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की गई है।

[bs-quote quote=”संयुक्त परिवार को छिन्न-भिन्न करने में घर की स्त्रियों की निर्णायक भूमिका होती है। उनकी निगाह में उनके पति तथा बच्चों को छोड़कर अन्य सभी स्वार्थी और बेईमान होते हैं। गवाह गैरहाजिर में लेखक ने इस ओर संकेत करते हुए लिखा है, ‘घर के मालिक की नजर से अब तक ओझल ढेर सारे गृह-छिद्रों की जानकारी घर के मर्दों तक पहुंचाई गई।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज से दो-तीन दशक पहले गांवों में संयुक्त परिवार की मजबूत परंपरा प्रचलन में थी। सभी भाई अपने माता-पिता और अपने बाल-बच्चों के साथ एक ही छत के नीचे रहते थे। चूल्हा भी साझा होता था। खेती या अन्य प्रकार का व्यवसाय सब मिलजुलकर करते थे। आपस में भाई चारा, प्रेम, स्नेह और लगाव बना रहता था। सबके सुख और दुख साझे थे, इसलिए व्यक्ति अकेलेपन की मार और संकटकाल में असहायता की आशंका से मुक्त था। किन्तु अब शहरों के साथ-साथ गांवों में भी भाई-भाई में अलगाव, दुराव और कटुता बढ़ती जा रही है। देवरानियों और जेठानियों में अब नहीं पटती है। परिणामस्वरूप अब हर कोई बंटवारा या अलगौझी कराने पर आमादा है। चंद्रकिशोर जायसवाल के गवाह गैरहाजिर उपन्यास का यह चित्र दृष्टव्य है, ‘जिस कार्य को किशुन साह अब तक अनावश्यक समझ समझ रहे थे और बेटों ने दुष्कर मान लिया था, उसी के संपादन में पतोहुओं ने पूरी-पूरी सफलता प्राप्त कर ली। घर को घर बनाकर रखने की कार्रवाई में वे मन-प्राण से जुटी थीं। इस विश्वास के साथ कि वह घर कैसा जिस अकेले घर में छकेला न मारा जाए।’3

 संयुक्त परिवार को छिन्न-भिन्न करने में घर की स्त्रियों की निर्णायक भूमिका होती है। उनकी निगाह में उनके पति तथा बच्चों को छोड़कर अन्य सभी स्वार्थी और बेईमान होते हैं। गवाह गैरहाजिर में लेखक ने इस ओर संकेत करते हुए लिखा है, ‘घर के मालिक की नजर से अब तक ओझल ढेर सारे गृह-छिद्रों की जानकारी घर के मर्दों तक पहुंचाई गई। गुहाछीछी में हर एक ने दावा किया कि केवल उसके मर्द की करधन में ही बूता है, और सब तो जोगी के बैल हैं। बड़े बेटे रामलगन को अब इस बात का दु:ख सताने लगा कि उसने व्यर्थ ही इन नालायक भाइयों की जिंदगी बनाने-संवारने में अपना जीवन स्वाहा कर दिया।’4

अब किंडल पर भी पढ़ें:

गवाह गैरहाजिर में घर के बँटवारे के समय जब बूढ़े बाप को अपने साथ रखने की बात आती है तो कोई बेटा आगे नहीं आता है। जिस पिता ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया वह बुढ़ापा आने पर उनके लिए बोझ बन गया और हर बेटा उसकी ज़िम्मेदारी लेने से भाग खड़ा होता है। ‘बाप को भी दौलत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानकर जब उसके बँटवारे का सवाल उठाया गया तो रामलगन ने चुप्पी साध ली।… बाप जो अभी फुंसी भी नहीं था, पर जिसके शीघ्र भगंदर बन जाने की सारी संभावनाएँ प्रकट हो रही थीं, उसके किसी काम का नहीं था क्योंकि उसके अपने बेटे तेजी से जवान होते चले जा रहे थे। इसी से मिलती-जुलती स्थिति अजोधी की भी थी। बाप के हाथ-पैर तो वह अपने हिस्से में रख सकता था, पर उनके मुंह-पेट को भरने की क्षमता उसमें अब नहीं बची थी। जोड़-घटाव करने के बाद भी समूचा बाप बिलकुल घाटे का सौदा था।’5

हमारे समाज में वृद्ध माता-पिता को अब बोझ समझा जाने लगा है। गवाह गैरहाजिर में किशुन साह के मित्र माधो भगत कहते हैं, ‘अब बेटे-पतोहू से बहुत उम्मीद मत रखिए साहजी… बाप रूई का बोझ होता है, भारी नहीं लगता शुरू-शुरू में। पर ढलती उम्र का हर क्षण उसे भिगोता चलता है और बूढ़ा बाप पानी खाए गट्ठर की तरह हो जाता है, जिसे हर बेटा कंधे से उतारकर फेंकना चाहता है।’6 गाँव में जब किसी परिवार में झगड़ा होता है तो आस-पास के लोग तमाशबीन की भांति जुट जाते हैं। उपदेशों और नैतिक वचनों की मानो बरसात होने लगती है और मन ही मन विवाद का खूब मजा लिया जाता है। गवाह गैरहाजिर में किशुन साह के घर हुए झगड़े के बाद यही दृश्य सामने आता है। ‘इस झगड़े में ढेर सारे लोगों के पाप धुल गए और ढेर सारे कपूत जिनका खुद भी अपने कपूत होने का विश्वास जड़बद्ध हो चुका था, अब डंके की चोट पर अपने को सपूत घोषित करने के लिए कुलबुलाने लगे। जिन्होंने कभी अतीत में बाप को बुरा-भला कहा था, डांट-डपट की थी, मरने से पहले ही हाथ-पैर तुड़वा देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो चुके थे, उन सबने अपने को तत्काल मन ही मन पापमुक्त घोषित कर दिया। …उस दिन ढेर सारे कपूत अकस्मात् सपूत हो गये और हत भाग्य पिता अकस्मात् भाग्यवान।’7

जीबछ का बेटा बुद्ध  उपन्यास का केन्द्रीय पात्र दीपक बचपन से सत्य की राह पर चलने का संकल्प लेता है। किन्तु जब वह गाँव की देहरी पार कर बाहर की दुनिया में कदम रखता है तो वहाँ की सच्चाइयाँ जानकार स्तब्ध रह जाता है। दीपक की कल्पना में आकर उसकी बालपोथी के भगवान कहते हैं- ‘इस नई दुनिया में अब मैं तुमसे अलग हो जाऊंगा। मैं बच्चों का भगवान हूँ, बाल पोथी का भगवान, यहाँ नहीं टिक सकता। यहाँ ढेर सारे दूसरे भगवान हैं। चोर-डाकुओं का अप है यहाँ, वे मुझसे भला क्या पाएँगे। हत्यारे जिस भगवान से अपनी सफलता के लिए प्रार्थना करते हैं, वह मैं नहीं हो सकता। वकील अपने भगवान से कहकर लोगों के बीच लड़ाई-फसाद करवाते हैं यहाँ। हैजा जोर आवे, इसके लिए वैद्य-हकीम अपने अपने भगवान को प्रसन्न करते हैं।’8

गाँवों में स्वार्थपरता इतनी बढ़ गई है कि हर कोई सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों को त्यागकर येन-केन प्रकारेण अपना ही हित साधना चाहता है। जीबछ का बेटा बुद्ध उपन्यास का जगलाल काफी समय से अपनी ससुराल में जा टिका है और अपने पिता की खोज-खबर नहीं लेता है। इस अवसर को भुनाते हुए बिलटा जगलाल के बाप को बहकाने की कोशिश करते हुए कहता है, ‘काका, आपके मकान पर गाँव के कई लोगों की नजर गड़ गई है। मुझे डर है कि कोई आपको बहला-फुसलाकर ठग न ले और मकान अपने नाम न लिखवा ले। अच्छा हो, काका कि आप मकान मेरे नाम लिख दें। एक बेटा गया, तो दूसरा हाजिर है आपके लिए। क्या सोच रहे हैं?’9

हमारे भारतीय समाज में भले ही कन्याओं/ स्त्रियों को देवी का दरजा दिए जाने का आदर्श बघारा जाता हो किन्तु सच्चाई तो यह है कि समाज में आज भी बेटियों को बोझ या कर्ज समझे जाने की प्रवृत्ति कम होती नजर नहीं आ रही है। चंद्रकिशोर जायसवाल के कथा साहित्य, विशेष रूप से, उपन्यासों में सामाजिक मूल्यों और रिश्तों में आ रहे परिवर्तनों की गहरी पड़ताल की गई है। चिरंजीव उपन्यास में नायक शशांक इन्हीं कष्टों एवं प्रताड़नाओं की आशंका से आजीवन कुँवारा रहने का विचार मन में बिठा लेता है। उसका मानना है कि, ‘है कोई ऐसा बेटी वाला जिसकी पगड़ी न उतरी हो? दर-दर की ठोकरें खाओ, बेटी का ‘शेर बाप’ होकर भी बेटा के ‘बकरा बाप’ की दुतकारें सुनो और तब भी कातर-कंपित स्वर में अनुनय-विनय करते जाओ, ‘मेरा उद्धार कीजिए, मेरी बेटी का उद्धार कर दीजिए।’10

चिरंजीव का शशांक आज की पत्नियों के स्वभाव और गुणों-अवगुणों को लेकर भी भयभीत और आशंकित रहता है। उसका मानना है कि अब पहले जैसा समय नहीं रहा और समाज के कायदे-कानून और परंपराएँ भी दरकती जा रही हैं। ‘पहले का जमाना कुछ और था। औरतें सती सावित्री होती थीं। पति अंधा हो, बहरा हो, लूला हो, लँगड़ा हो, रोगी हो, अपाहिज हो, पत्नी का एकमात्र धर्म था उनकी सेवा, एकमात्र लक्ष्य था उनका सुख।’11 स्त्रियाँ अपने पति के लिये हर तरह का त्याग करती थीं। ‘औरत अपने पति पर अपनी हर दौलत न्यौछावर कर देती, अपनी बाकी बची उम्र तक। मिट्टी पत्थर के भगवानों से कम पूजा नहीं होती थी उसकी। औरत की सारी प्रार्थनाएँ और व्रत-उपवास पति के कल्याण के लिए होते थे।’12

शशांक ने देखा था कि सामाजिक मूल्यों में लगातार गिरावट आ रही है और रिश्तों की मर्यादाएं और लिहाज भी कमजोर होता जा रहा है। ‘जमाना अचानक बहुत तेजी से खराब हुआ है। आज की बीवी पति की जेब टटोलती है, पति का जिस्म निचोड़कर एक-एक बूँद सुख गाड़ लेती है अपने लिए, आँख दिखाती है बात-बात पर, और जरूरत-बेजरूरत सड़क पर निकलकर हंगामा मचाने की धमकी भी देने से बाज नहीं आती। उँगली पर नाचता है बेचारा पति, पर इतने पर भी खैर कहाँ उस बेचारे की। कभी-कभी अचानक खबर फूटती है, ‘लो सुनो, उसकी बीवी नौकर के साथ भाग गई।’13

समय ने ऐसी करवट ली है कि अब लोग महापुरुषों के कथनों/उपदेशों पर भी तत्काल भरोसा नहीं करते हैं और अपने अनुभवों और मान्यताओं की कसौटी पर अच्छी तरह से कसने के बाद ही निर्णय लेते हैं। चिरंजीव का शशांक अपनी पत्नी दिव्या से कहता है, ‘मैं तो अब महापुरुषों के कथन को भी जाँचकर देख लेता हूँ। उनकी बात भी बगैर सोचे-समझे नहीं मान लेता। हर आदमी अपने लिए, महापुरुष है, हर महापुरुष दूसरों के लिए बच्चा है। जीवन की गाड़ी में जो बैल जुटे हैं, उन्हें महापुरुषों की शक्तियों की टिटकारी से नहीं हाँका जा सकता, उन्हें जमाना देखे हुए गँवई-गँवार की अनगढ़ उक्तियों की छड़ी सटकार से ही आगे बढ़ना होता है’14

आज के युग में समाज में अपराधियों और गुंडों का बहिष्कार नहीं किया जा रहा है बल्कि उनकी पूछ बढ़ गई है और समाज में उन्हें नायक का दर्जा दिया जा रहा है। चिरंजीव उपन्यास में शशांक अपनी पत्नी दिव्या से कहता है, ‘रहती हो चहारदीवारी में बंद, तो जानोगी कैसे कि दुनिया कहाँ से कहाँ चली गई। किसी जमाने में सुन लिया कि गुंडा होना बुरी बात है, और उस बात को आज तक गिरह बाँधकर बैठी हुई है। कान खोलकर सुन लो कि आज गुंडों के पास जो इज्जत है, दौलत है, वह भले आदमियों के पास नहीं। आज जो लोग इज्जतदार कहलाते हैं, दौलतमंद बने हुए हैं, बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं, उन सबके पीछे गुंडई की ताकत है।’15

क्रमशः

संदर्भ सूची:
  1. समाजशास्त्र – सत्यकेतु विद्यालंकार, पृ. 137
  2. चंद्रकिशोर जायसवाल का रचना-संसार- डॉ विनय कुमार चौधरी, पृ. 40
  3. गवाह गैरहाजिर – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 8
  4. गवाह गैरहाजिर – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 8-9
  5. गवाह गैरहाजिर – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 9-10
  6. गवाह गैरहाजिर – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 51
  7. गवाह गैरहाजिर – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 139
  8. जीबछ का बेटा बुद्ध – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 1
  9. जीबछ का बेटा बुद्ध – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 57
  10. चिरंजीव – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 21
  11. चिरंजीव – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 21
  12. चिरंजीव – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 21
  13. चिरंजीव – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 21
  14. चिरंजीव – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 46
  15. चिरंजीव – चंद्रकिशोर जायसवाल, पृ. 567

    गुलाबचंद यादव बैंक में सेवारत हैं और फिलहाल मुंबई में रहते हैं ।

गाँव के लोग
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2 COMMENTS

  1. सर अगर आप गुलाब चंद जी हैं। तो मुझे आपसे आपसे बात करनी है । चिरंजीव के बारे में । कृपया मुझे अपनी ईमेल बताने का कष्ट करें। tarachandkumawat0495@gmail.com

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