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चिकित्सा विज्ञान और संवेदना के अंतर्द्वंद्व का सिनेमाई संसार

बॉलीवुड दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला बहुभाषी और बहुक्षेत्रीय सिनेमा उद्योग है। विशाल विविधता वाले इस देश में बनने वाले सिनेमा के विषयों में भी भारी विविधता है। वर्ष 2023 के ऑस्कर पुरस्कारों में भी भारतीय फिल्मों और गीतों ने जीतने का आगाज किया है। द एलीफेंट व्हिसपर्स और आल दैट ब्रीदस जैसी […]

बॉलीवुड दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला बहुभाषी और बहुक्षेत्रीय सिनेमा उद्योग है। विशाल विविधता वाले इस देश में बनने वाले सिनेमा के विषयों में भी भारी विविधता है। वर्ष 2023 के ऑस्कर पुरस्कारों में भी भारतीय फिल्मों और गीतों ने जीतने का आगाज किया है। द एलीफेंट व्हिसपर्स और आल दैट ब्रीदस जैसी डाक्यूमेंट्री फिल्मों ने ऑस्कर में नामांकन पाया। ये दोनों ही फ़िल्में हमारे जलवायु और जंगल, जमीन से जुड़ी हुई हैं साथ ही आने वाले पर्यावरणीय खतरों से हमें आगाह कर रही हैं। बिगड़ता हुआ पर्यावरण हमें गंभीर और लाइलाज बीमारियों की तरफ धकेल रहा है। इस लेख में हम फिल्मी परदे पर दिखने वाले डॉक्टरों के कार्यों पर चर्चा करेंगे।

भारत में अनेक तरह की चिकित्सा पद्धतियाँ विद्यमान रही हैं। सरलीकृत ढंग से देखें तो हमारे डॉक्टर दो प्रकार के होते हैं। पहले डिग्री वाले और दूसरे बिना डिग्री वाले (जिन्हें हम बड़े प्यार से झोलाछाप भी कहते हैं)। बिना डिग्री वाले नीम-हकीम और सड़क किनारे टेंट डालकर लाउडस्पीकर पर चिल्ला-चिल्लाकर शर्तियां इलाज करने वाले खानदानी दवाखाना वाले डॉक्टर भी इस देश के कोने-कोने में पाए जाते हैं लेकिन इनके ऊपर उंगली कम उठती है। झोलाछाप डॉक्टर की शिकायत ज्यादा होती है और उनके खिलाफ कार्यवाहियाँ भी ज्यादा होती हैं जिनका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि वे एलोपैथी यानी कि अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति से उपचार करते हैं, जिसका डिग्री वाले डॉक्टर साहब अपने पेशे में दखल से होनेवाले आर्थिक नुकसान के कारण खिलाफत करते हैं। दूसरा कारण है कि कभी-कभी कुछ अतिउत्साही टाइप झोलाछाप डॉक्टर मरीजों की गंभीर बीमारियों का इलाज और सर्जरी तक करके उनकी जान जोखिम में डाल देते हैं, इसलिए लोग उनके पीछे पड़ जाते हैं। सही और गलत की बहस को छोड़ दें तो सच यही है कि झोलाछाप डॉक्टरों ने गाँव-देहात के ‘रिमोट इलाकों’ में गरीब जनता के उपचार की बहुत बड़ी जिम्मेदारी उठा रखी है। तत्काल प्राथमिक उपचार उपलब्ध कराने में तो झोलाछाप स्थानीय डॉक्टर ही काम आते हैं। डिग्री वाले डॉक्टर और बिना डिग्री वाले डॉक्टर में एक और फर्क होता है- डिग्री वाले डॉक्टर अपने नाम के पहले अपनी उपाधि लगाते हैं जैसे कि डॉ. रमेश, डॉ. अज़ीम, डॉ. रश्मि इत्यादि-इत्यादि और बिना डिग्री वाले डॉक्टर को नाम के पीछे लगाकर बुलाया जाता है सीताराम डॉक्टर, मार्कंडे डॉक्टर, दशरथ डॉक्टर। सम्बोधन का यह फर्क ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के आधार पर भी पाया जाता है। अपने पड़ोस-गाँव के डॉक्टर को तो डागडर या डागडर बाबू कहकर भी काम चल जाता है।

फिल्म ऑल डैट ब्रेथेस और द एलीफेंट व्हिसपर्स

भारत देश में आस्तिक लोग डॉक्टर को भगवान का दूसरा रूप मानते हैं। फिल्म हिमालय की गोंद में के उस दृश्य को देखिए जब विदेश से पढ़कर लौटा डॉक्टर सुनील मेहरा शहर के नर्सिंग होम को छोड़कर सुदूर हिमालय के एक पहाड़ी गाँव में जाकर लोगों का इलाज करने का प्रण लेता है। गाँव में महामारी फैली है, डॉक्टर एक बीमार महिला का इलाज कर रहा है। बाहर झाड़-फूँक से इलाज का काम करने वाला घोंघर बाबा अपने परंपरागत धंधे पर आते खतरे को देख गाँव वालों को भड़काने का काम करता है। नायिका का पिता (डेविड) मेहमान डॉक्टर को घर आए भगवान का रूप बताकर विरोध को शांत कराता है। डॉक्टरी का पेशा सम्मानित होने के साथ अच्छी आय का जरिया माना जाता है। अपने देश मे विद्यमान परिस्थितियों के सापेक्ष देखें तो डॉक्टरी पेशे में कई तरह की बायनरी विद्यमान है। जैसे कि शहरी डॉक्टर-ग्रामीण डॉक्टर, सरकारी डॉक्टर-प्राइवेट डॉक्टर, एलोपैथ-अन्य डॉक्टर और इनके साथ मान-सम्मान, आय, सुविधाएं कई मानकों पर बहुत ज्यादा अंतर और भेदभाव विद्यमान हैं। डॉक्टरों को महान और भगवान मानने वाली बातें भी अब गुजरे जमाने की बात हो गईं। अब मरीजों के परिजन मरीजों के साथ कुछ अनापेक्षित घटित होने पर डॉक्टरों के साथ मारपीट पर उतर आते हैं और मुकदमे तक दर्ज करवा दिए जाते हैं। समय के साथ डॉक्टरों की सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा बनता जा रहा है।

[bs-quote quote=”डॉक्टर बनने के पहले जरूरी है कि नीट जैसी प्रवेश परीक्षा पास की जाए। पहले सीबीएसई, सीपीएमटी, बीएचयू, एएमयू और अन्य विश्वविद्यालयों के अपने अलग-अलग एन्ट्रेंस एक्जाम हुआ करते थे अब सबको समाप्त कर नीट के माध्यम से केन्द्रीय और राज्यस्तरीय संस्थानों में एडमिशन होते हैं। नीट परीक्षा में आरक्षण के मुद्दे को लेकर अदालतों में लंबे समय तक मुकदमे चले और सन 2022 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपना अहम फैसला दिया जिसके माध्यम से आरक्षित वर्ग के छात्रों को प्रवेश में लाभ मिलना आरंभ हुआ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

जनसेवा की वचनबद्धता 

अपनी पहली क्लास में ही मेडिकल स्टूडेंट एक शपथ कैडेवरिक ओथ लेते हैं कि वे बिना किसी भेदभाव के हर मरीज का सम्मान के साथ इलाज करेंगे: I do solemnly pledge that I will always treat you with respect and dignity of highest order as you are my first anatomy teacher. I will always respect your privacy and confidentiality. I will use this knowledge for the service of the society in all my deed from now onward. I will do justice to your great sacrifice my heart fills with gratitude as I realise your kind and courageous act of donating your body for the purpose of our learning. I will be grateful to you and family for this act of ‘Living after death.

वास्तविकता में सभी डॉक्टर्स अपने व्यावहारिक जीवन में इस शपथ का कितना पालन करते हैं नितांत व्यक्तिगत विषय हो जाता है। बॉलीवुड फिल्मों में डॉक्टर्स और उनके पेशे को आरंभिक दौर से ही प्रस्तुत करने का काम किया गया है। डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी (1946) फिल्म बनाकर महान फिल्मकार वी. शांताराम ने इसकी शुरुआत की। एक महान नेता के भाषण से प्रभावित होकर डॉ. कोटनिस अपने माता-पिता के पास रहकर अस्पताल चलाने की जगह चीन जाना पसंद करते हैं, जहां युद्ध के घायलों के इलाज के लिए डॉक्टरों की ज़रूरत है। जापान द्वारा चीन पर आक्रमण के कारण चीन में तबाही का मंजर था। डॉ. द्वारकानाथ कोटनिस ने युद्ध में घायलों की सेवा करते हुए अपनी महान शहादत दी थी। उसके बाद कई फ़िल्मकारों ने डॉक्टरों के निजी और पेशेवर ज़िंदगी पर फिल्में बनाई जिन्हें दर्शकों ने बहुत पसंद भी किया। हिमालय की गोंद में का डॉक्टर सुनील मेहरा, अनुराधा फिल्म का डॉ. निर्मल चौधरी, एक डॉक्टर की मौत का डॉ. दीपांकर रॉय, बेमिसाल फिल्म का डॉ. प्रशांत चतुर्वेदी। ये सभी डॉक्टर ऐसे आदर्श पेश करते हैं जो उनके द्वारा ली गयी शपथ के अनुरूप है। ये डॉक्टर शहर की सुविधाओं वाली, ज्यादा पैसे कमाने वाली सोच और निजी स्वार्थ से बाहर निकलकर दूर-देहात, आदिवासी-पहाड़ी दुर्गम क्षेत्रों में जहां न्यूनतम चिकित्सा सुविधाएं अनुपलब्ध हैं वहाँ जाकर लोगों का इलाज करने का विकल्प चुनते हैं। भारत और दुनिया के कई देशों में ऐसे परोपकारी (altrustic) डॉक्टर हुए हैं जिन्होंने अपने पेशे को ऊंचाई और गरिमा प्रदान की है। डॉक्टर और उनके पेशे से जुड़ी कुछ प्रमुख फिल्में निम्न प्रकार हैं –

फिल्म डॉक्टर, दिल अपना प्रीत पराई और अनुराधा का दृश्य

 

डॉक्टरों के जीवन पर बना सिनेमा 

दुश्मन (1939), डॉक्टर (1941), दिल अपना प्रीत पराई (1960), अनुराधा (1960), प्रेम पत्र (1962), आरती (1962), दिल एक मंदिर (1963), अमन (1967) खामोशी (1970), खिलौना 1970, आनंद (1971), तेरे मेरे सपने (1971), दर्द का रिश्ता (1972), कोशिश (1972), अनुराग (1972), नैना 1973, नया दिन नई रात (1974), खुशबू (1975),  मिली 1975, अँखियों के झरोखों से (1978), मेरी बीवी की शादी (1979), काला पत्थर (1979), खूबसूरत (1980), बेमिसाल (1982), क्लर्क (1989), एक डॉक्टर की मौत (1990), डर (1993), सुहाग (1994), दिया और तूफान (1995), कोयला (1997), दीवाना मस्ताना (1997), हैलो ब्रदर (1999), डॉ. टी एण्ड वुमन (2000), दिल चाहता है 2001, ऑंखें (2002), फिलहाल (2002), कल हो न हो (2003), अरमान (2003), मुन्ना भाई एमबीबीएस (2003), मैंने प्यार क्यूँ किया (2005), सलाम नमस्ते (2005), चेहरा (2005), ब्लैक (2005),  चुपचुपके (2006), यूं होता तो क्या होता (2006), अपना आसमान (2007), यू मी और हम (2008), कमबख्त इश्क (2009), तारे जमीन पर (2007), पा (2009), गुजारिश (2010), जब तक है जान (2012), हमशकल (2014), प्लेसबो (2014), उड़ता पंजाब (2016), डियर ज़िंदगी (2016), ट्रेफिक (2016), पैडमैन (2018), हेलमेट (2021), मिमी (2021), चंडीगढ़ करे आशिक़ी (2021), मुंबई डायरीज (2021), जनहित में जारी (2022), अपरिचित 2022, डॉक्टर जी (2022), छतरीवाली (2023)।

दुश्मन (1939) तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो द्वारा प्रेरित एक प्रोपेगण्डा फिल्म थी जो ट्यूबरकुलोसिस के उपचार के लिए किंग जार्ज द्वारा दिए फंड का प्रचार करने के लिए बनाई गयी थी। इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर ने डॉक्टर और के.एल. सहगल ने मरीज की भूमिका  निभाई थी। डॉक्टर (1941) फिल्म का आदर्शवादी/ मानवतावादी डॉक्टर की कहानी है जो एक गाँव में हैजा से बीमार लोगों की सेवा करते हैं। डॉ. कोटनिस की अमर कहानी (1947) डॉ. द्वारकानाथ कोटनिस के महान जीवन और कार्यों पर केंद्रित फिल्म है जो चीन जाकर युद्ध पीड़ितों और प्लेग मरीजों की सेवा और उपचार करते हैं। डॉ. कोटनिस का जज्बा और कर्तव्यनिष्ठा, पेशे के प्रति जिम्मेदारी और ईमानदारी का भाव सबके लिए प्रेरणा का विषय है। फिल्म अनुराधा का डॉक्टर (बलराज साहनी) एक आदर्शवादी डॉक्टर है जो सायकिल से चलता है और गाँव के  गरीबों का डॉक्टर है। वह एक मशहूर गायिका/ नर्तकी अनुराधा से शादी करता है लेकिन अपने पेशे के कारण पत्नी की उपेक्षाहोने लगती है। दिल अपना प्रीत पराई का डॉक्टर अपनी नर्स से प्यार करता है लेकिन अपनी माँ के दबाव में बिना मन के दूसरी लड़की से शादी करता है। यहाँ एक प्रेम त्रिकोण बनता है और कहानी डॉक्टरी के पेशे से जुड़ी वास्तविकताओं से दूर निजी जीवन के झगड़ों में उलझी रहती है। दिल एक मंदिर का डॉक्टर (राजेन्द्र कुमार) इतना आदर्शवादी है कि अपनी पूर्व प्रेमिका के पति (राजकुमार) को कैंसर से बचाने में अपनी जान गंवा बैठता है। ये फिल्में इतनी ज्यादा आदर्शवाद या मूल विषय से भटकाव परोसती हैं कि कोफ्त होने लगती है।

हिमालय की गोद में (1965) विजय भट्ट निर्देशित यह फिल्म शांति के लिए नोबल पुरस्कार विजेता जर्मन मिशनरी सर्जन अल्बर्ट स्केवेट्ज़र के जीवन की वास्तविक घटनाओं पर आधारित है। डॉ. अल्बर्ट ने अफ्रीकन जनजातियों के बीच रिमोट क्षेत्र में हॉस्पिटल बनाकर कई बीमारियों से उनको बचाने का महान कार्य किया था। हिमालय की गोंद में विदेश से डॉक्टरी शिक्षा प्राप्त कर लौट रहे एक भारतीय नौजवान डॉक्टर की कहानी है जिसका जहाज संयोग से हिमालय की पहाड़ियों में उतर जाता है। एक पहाड़ी परिवार और स्थानीय ओझा घोंघर बाबा के देखभाल से डॉक्टर सुनील मेहरा (मनोज कुमार) ठीक होते हैं। परिवार की लड़की (माला सिन्हा) की निःस्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर डॉक्टर को उससे लगाव हो जाता है। वे शहर वापस लौटते हैं अपनी पुरानी दुनिया में जहां उनकी मंगेतर, जो खुद डॉक्टर है, शादी करके एक साथ क्लिनिक चलाना चाहती है। उसके जीवन का उद्देश्य है खूब पैसा कमाना और सुविधापूर्ण जीवन जीना और साल के अंत में कार बदल देना। लेकिन डॉ. सुनील को अपने डॉक्टरी पेशे की जिम्मेदारी और मानवता की सेवा के लिए ली गई शपथ फिर से पहाड़ मे खींच ले जाती है जहां डॉक्टरों की अनुपलब्धता के कारण ईश्वर की इच्छा मानकर नीम-हकीम बीमार लोगों को मरने के लिए छोड़ देते हैं। यह एक आदर्शवादी फिल्म है जो मानवता की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देने वाले डॉक्टरों के जीवन और कार्यों से प्रेरित है जिनकी चर्चा फिल्म का नायक स्वयं एक दृश्य में करता है।

फिल्म खामोशी और डॉ कोटनीस की अमर कहानी

 असित सेन निर्देशित फिल्म खामोशी (1970) में वहीदा रहमान (राधा) ने नर्स की भूमिका की थी। इस फिल्म में एक मेडिकल प्रोफेशनल के मानवीय पहलू को परदे पर प्रस्तुत करने का काम किया गया। एक डॉक्टर की मौत (1990) में आई तपन सिन्हा निर्देशित फिल्म है जो रामपद चौधरी की अभिमन्यु शीर्षक कहानी पर बनाई गयी है। यह कहानी भारतीय फिजीशियन डॉ. सुभाष मुखोपध्याय के जीवन पर केंद्रित है जिन्होंने इनविटरो फर्टलिज़ैशन ट्रीट्मेंट की खोज की थी। यह फिल्म एक जुनूनी और बेहद प्रतिभावान डॉक्टर की कहानी है जो अपने सरकारी अस्पताल की ड्यूटी के बाद अपने घर में बने प्रयोगशाला में कोढ़ का वैक्सीन विकसित करने में खुद को समर्पित किए रहता है। दस साल की मेहनत और निजी जीवन को दांव पर लगाने के बाद जो रिजल्ट डॉ. दीपांकर राय को मिलते हैं वे लेप्रोसी (कोढ़) का वैक्सीन बनाने के करीब पहुँचते हैं लेकिन सरकारी व्यवस्था में व्याप्त वैमनस्य, लाल फ़ीताशाही, प्रोटोकॉल और सीनियरिटी काम्प्लेक्स एक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक और डॉक्टर की जान ले लेती है। अमेरिका और यूरोप के लोग उस डॉक्टर की मौलिक खोज को महत्व देते हैं। उसे अपने संस्थानों में बुलाकर उसे काम, पहचान और सम्मान देना चाहते हैं लेकिन भारत के लोग उसका मजाक उड़ाते हैं। उसके काम और प्रतिभा पर शक करते हैं, अपमानित करते हैं, दूर-देहात में ट्रांसफर करके उसके लैब और परिवार से दूर कर देते हैं। वह चाहकर भी समय-सीमा में अपना शोधपत्र पूरा नहीं कर पाता। जॉन एन्डर्सन फाउंडेशन के पत्र को स्वास्थ्य विभाग का डायरेक्टर अपने पास दबाकर रख लेता है।

अवसर खोकर, हारकर, निराश होकर डॉ. दीपांकर अपने प्रयोगशाला और उसमें पाले गये जीवों को मार डालता है। वह घोर निराशा में डूब जाता है लेकिन उसे जान एंडरसन फाउंडेशन के अग्रणी वैज्ञानिकों और डॉक्टरों के साथ अन्य बीमारियों पर काम करने का निमंत्रण मिलता है और वह वहाँ जाने को तैयार हो जाता है क्योंकि देशभक्ति के नाम पर भारत में रहना और काम न कर पाने की जगह मानवता की सेवा के लिए अपनी प्रतिभा को लगाने को वह ज्यादा बेहतर समझता है और विदेश चला जाता है। वास्तविकता में डॉक्टर मुखोपध्याय को उनकी प्रतिभा की उपेक्षा और उनके शोध को फ्रॉड बताने के कारण आत्महत्या करनी पड़ी थी लेकिन इस फिल्म में निर्देशक ने उम्मीद और भरोसे को कायम रखते हुए डॉ. दीपांकर को आगे के शोध के लिए विदेश भेजकर उसकी संभावनाओं को बचा लिया है। अपनी पत्नी के द्वारा यह कहने पर कि तुम अपने देश के लोगों के लिए शोध करना छोड़कर विदेश चले जाओगे? प्रत्युत्तर में डॉक्टर का जवाब होता है कि वह मानव जाति को बीमारियों से छुटकारा दिलाने के लिए काम करना चाहता है केवल अपने देश के लोगों के लिए ही नहीं। उसके जवाब में रवीन्द्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद का प्रभाव दिखता है जो देशों के बीच भौतिक सीमाओं को अस्वीकार कर सम्पूर्ण मानवता के हित में सोचने और काम करने का पक्षधर है। पंकज कपूर, शबाना आज़मी, इरफान खान, दीपा शाही, अनिल चटर्जी जैसे भारतीय सिनेमा के मंझे हुए कलाकारों ने इस फिल्म में शानदार काम किया है।

फिल्म मर्द और मुन्ना भाई एमबीबीएस

बुरे डॉक्टर बनाने वाली व्यवस्थाएं और मनोवैज्ञानिक संवेदना की महत्ता 

सुभाष घई की फिल्म कर्मा (1986) का डॉक्टर डैंग तो भारत देश के खिलाफ षड्यन्त्र रचते हुए दिखता है। मर्द फिल्म के अंग्रेजी डॉक्टर कमजोर मजदूरों के शरीर से खून निकालकर बोतलों मे भरते दिखते हैं। किडनी और शरीर के अन्य अंग बेच देने वाले, मरने के बाद भी वेंटीलेटर पर मरीज को रख बिल बढ़ाने वालों से लेकर कोरोना जैसी महामारी में बीमार लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर ढेरों पैसे वसूलने वाले डॉक्टर भी देखे गए। मुन्ना भाई एमबीबीएस (2003) फिल्म डॉक्टरों के जीवन के कई पहलुओं को सामने लाने का काम करती है। परीक्षा और परीक्षार्थी के बीच एक विश्वास भरा पवित्र रिश्ता हुआ करता था अब भारत के प्रत्येक राज्य से प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होने की खबरें आती रहती हैं। तैयारी करने वाले अभ्यर्थियों का समय-संसाधन बर्बाद होते हैं और भरोसा भी टूटता है। मुन्ना भाई एमबीबीएस फिल्म भारतीय माँ-बाप की अपने बच्चों के इंजीनियर, डॉक्टर और आईएएस और प्रशासनिक अफसर बनने की इतनी गहरी अपेक्षाएं पाले रहते हैं कि उस दबाव में उनके बच्चे अनुचित माध्यमों का प्रयोग करके भी सफल होना चाहते हैं। यह फिल्म ऐसे ही माँ-बाप और बच्चों की कहानी है। यह फिल्म अपने विषय और प्रस्तुति के कारण इतनी लोकप्रिय हुई कि परीक्षा की शुचिता को प्रभावित कर किसी भी तरह कॉम्प्टीशन को पास करने वाले अभ्यर्थियों के लिए मुन्ना भाई एक रूपक (मेटाफर) बन गया। मीडिया तक ने इस शब्द को अवधारणा की तरह प्रयोग करना शुरू कर दिया। डियर ज़िंदगी (2016) फिल्म की निर्देशक गौरी शिंदे ने आधुनिक व्यस्त शहरी परिवारों में बिना माँ-बाप के देखभाल के पले-बढ़े बच्चों के मनोवैज्ञानिक समस्याओं को एक युवा लड़की कायरा (आलिया भट्ट) एवं साइकालाजिस्ट (शाहरुख खान) के बीच बात-चीत और ज़िंदगी के प्रति एक सकारात्मक समझ विकसित करने के विषय पर प्रस्तुत किया है। यह फिल्म सिखाती है कि अपने जीवन की मुश्किलों के लिए दूसरों को दोषी ठहराने की जगह हमें समाधान खोजने और जीवन जैसा है वैसे ही स्वीकार कर आगे बढ़ना चाहिए फिर सब कुछ ठीक होने लगता है। डॉक्टर और मरीज के बीच के रिश्ते को यह फिल्म प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। मरीज लड़की कायरा (आलियाभट्ट) ठीक होने के बाद अपने डॉक्टर जहांगीर ‘जुग’ (शाहरुख खान) को शादी करने का प्रस्ताव देती है लेकिन डॉक्टर जुग उसे डॉक्टर और मरीज के बीच के रिश्ते को समझाकर उसे विदा करता है। एक डॉक्टर के जीवन में ढेर सारे मरीज आते हैं और उनके बीच एक पेशेवर एवं भरोसे का रिश्ता बनता है। यह जरूरी नहीं कि डॉक्टर इन रिश्तों को अपने निजी ज़िंदगी के रिश्तों में शामिल कर ले।संयोगवश ऐसा हो भी सकता है।

फिल्म मर्सल और कबीर सिंह का दृश्य

मर्सल (2017) अपने मरीजों के इलाज के लिए केवल 5 रुपये फीस लेने वाले डॉक्टर वी. मारनकी की कहानी है जो बिना किसी भेदभाव के सभी का बेस्ट उपचार करने की कोशिश करता है। उड़ीसा के सम्बलपुर जिले के डॉ. शंकर रामचन्दानी अपने क्लिनिक (वन रूपी क्लिनिक) में मरीजों का उपचार एक रुपया फीस लेकर करते हैं। डॉ. वी. नारायण (केरल), डॉ. शिव शंकर प्रसाद (नालंदा बिहार), डॉ. वी. रमन राव (बेंगलुरू) में गरीबों के लिए मुफ़्त में या एक, पाँच या दस रुपये में इलाज कर मानव सेवा का आदर्श स्थापित कर रहे हैं। कबीर सिंह (2019)  फिल्म कबीर सिंह नाम के एक प्रतिभावान डॉक्टर की कहानी है जो बहुत गुस्सैल है। उसकी इस आदत के कारण कालेज के जूनियर्स उससे बहुत डरते हैं। वह शराबी है और ड्रग लेने से भी उसे परहेज नहीं है। अपनी गर्लफ्रेंड से शादी न कर पाने के कारण वह शराब और गम में डूब जाता है। यह फिल्म एक डॉक्टर के टैलेंट और उसकी पेशेवर ज़िंदगी की बजाय उसकी निजी ज़िंदगी और प्यार-मोहब्बत पर ज्यादा फोकस करती है जो हिन्दी फिल्मों की पुरानी लाइलाज बीमारी है। मेडिकल पेशे को लेकर बनी यह फिल्म दिशाहीन और उद्देश्यविहीन लगती है।

चिकित्सा शिक्षा के संस्थान और मुद्दे

डॉक्टर बनने के पहले जरूरी है कि नीट जैसी प्रवेश परीक्षा पास की जाए। पहले सीबीएसई, सीपीएमटी, बीएचयू, एएमयू और अन्य विश्वविद्यालयों के अपने अलग-अलग एन्ट्रेंस एक्जाम हुआ करते थे अब सबको समाप्त कर नीट के माध्यम से केन्द्रीय और राज्यस्तरीय संस्थानों में एडमिशन होते हैं। नीट परीक्षा में आरक्षण के मुद्दे को लेकर अदालतों में लंबे समय तक मुकदमे चले और सन 2022 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपना अहम फैसला दिया जिसके माध्यम से आरक्षित वर्ग के छात्रों को प्रवेश में लाभ मिलना आरंभ हुआ। प्रवेश परीक्षा व्यवस्था में सेंध लगाकर प्रवेश लेने के मुद्दे पर मुन्ना भाई एमबीबीएस जैसी फिल्में बनीं। प्रश्न-पत्रों का लीक होना और मुन्ना भाइयों का दूसरों के स्थान पर परीक्षा देते पकड़े जाना आए दिन मीडिया की सुर्खियां बनते हैं। मेडिकल कालेजों में रैगिंग एक गंभीर मुद्दा रहा है। विद्यार्थियों से अंडरटेकिंग लेने और रैगिंग के विरुद्ध एक्ट बनने के बाद भी मेडिकल कैम्पसों मे रैगिंग की शिकायतें आती रहती हैं जो कभी-कभी हिंसक विवादों और आत्महत्या तक का कारण बनती हैं। मेडिकल कालेजों और विश्वविद्यालयों के डिपार्टमेंट्स के अंदर कमजोर पृष्ठभूमि से आए अध्यापकों के प्रमोशन और अन्य महत्वपूर्ण कार्यों के आवंटन मे जातीय भेदभाव और गुटबाजी बहुत बड़ी समस्या देखने को मिलती है। बॉलीवुड की फिल्में इन विषयों पर प्रायः साइलेन्ट रहती हैं। अपनी वरिष्ठ सहकर्मियों द्वारा कथित तौर पर जातीय टिप्पणी करने और उत्पीड़न किए जाने से परेशान होकर खुदकुशी करने वाली डॉ. पायल तड़वी के मामले ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था कि समाज के तथाकथित उच्चवर्गीय लोगों के मन में आदिवासियों और अन्य पिछड़े समुदायों के लोगों के प्रति कितनी नफरत और घृणा भरी है कि वे अपने क्लासमेट या जूनीयर्स को मदद करने की जगह आत्महत्या करने को मजबूर करते हैं।

हिन्दी सिनेमा में महिला डॉक्टरों का चित्रण 

डॉ. अदिति गोवत्रिकर, डॉ. सई पल्लवी जैसी फिल्म अभिनेत्रियाँ वास्तविक जीवन में डॉक्टर हैं। फिल्मों में ग्रेसी सिंह ने मुन्ना भाई एमबीबीएस फिल्म में डॉ. सुमन अस्थाना ‘चिंकी’ और अरमान फिल्म में डॉ. नेहा माथुर की भूमिका की थी। अरमान फिल्म की डॉ. नेहा माथुर ने एक डॉक्टर के कर्तव्यबोध के साथ खुद से नफरत करने वाली लड़की का इलाज करके इस पेशे के लिए प्रशंसनीय भूमिका की थी। सन 2022 में रिलीज फिल्म डॉक्टर जी में आयुष्मान खुराना के टीचर और क्लासमेट के रोल मे शेफाली शाह (प्रोफेसर), रकुलप्रीत सिंह, श्रद्धा जैन, प्रियम साहा (मेडिकल स्टूडेंट) जैसी लड़कियां हैं जो गायनकोलाजी विभाग में एडमिशन लिए लड़के की लड़कियों और उनकी बीमारियों के बारे में धारणाओं को बदलकर एक समझदार और संवेदनशील स्त्री रोग विशेषज्ञ बनाने में मदद करती हैं। साउथ की कई फिल्मों में महिला डॉक्टर्स के लीड रोल देखने को मिलते हैं जैसे- शक्ति सेलवाराज (शालिनी अजित)- अलाईपाथी, सुभाषिनी (तमन्ना भाटिया)- धर्मा दुरई, डॉ. जानकी उर्फ पप्पू (स्नेहा)- वसूल राजा एमबीबीएस, मित्रा (सामंथा)- थेरी, काव्या (कीर्ति सुरेश)- रेमो, डॉ. जानकी (सिमरन)- पामाल के सुंदरम, मीनाक्षी शिवकुमार (अनुष्का शेट्टी)- थंडावम, लीला अब्राहम (अदिति राव हैदरी)- कातरु वेलियाडाई। हमने तीस साल पहले अपने गाँव में महिलाओं और बच्चों के इलाज एवं टीकाकरण के लिए पुरुष हेल्थ वर्कर्स के साथ मिड्वाइफ को आते और उपचार करते देखा था। गाँव की महिलायें मिडवाइफ पर बहुत भरोसा रखती थीं और सम्मान देती थीं।

फिल्म धर्मा दुरई, थेरी और कातरु वेलियाडाई का दृश्य

 

गांवों के लिए अलग डॉक्टर

सायकिल वाले डॉक्टर, बेयर फुट डॉक्टर/ रुरल डाक्टर्स का कैडर बैचलर ऑफ रुरल मेडिसिन एण्ड सर्जरी (बीआरएमएस) सन 2010 में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने गांवों में बिना स्पेशलाइजेशन के डॉक्टर तैयार करने के लिए साढ़े तीन साल की ट्रेनिंग देने की योजना बन रही थी। साइंस विषयों में (फिजिक्स, केमेस्ट्री, बाइलाजी, मैथ) 12वीं परीक्षा पास स्थानीय युवक एवं युवतियों को यह डिग्री देकर ग्रामीण जनता की सेवा में लगाना था लेकिन इसका कई कारणों से विरोध होने के कारण सरकार को इस योजना को ड्रॉप करना पड़ा। ग्रामीण और पिछड़ी जनता को दोयम दर्जे और भेदभावपूर्ण चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने, ग्रामीण और शहरी नागरिकों दो भिन्न तरह की स्वास्थ्य सेवा देने का विचार होने के कारण इसका विरोध हुआ। इस योजना के तहत प्रशिक्षित युवाओं को गांवों, पहाड़ों और आदिवासी क्षेत्रों जैसे रिमोट स्थानों पर रहने वाली जनसंख्या को गुणवत्तापूर्ण मेडिकल सेवा उपलब्ध कराना इस योजना का मुख्य उदेश्य था। उत्तर प्रदेश  सरकार ने जिला अस्पतालों को अपग्रेड करके प्रत्येक जनपद में एक मेडिकल कालेज बनाने का अति महत्वपूर्ण निर्णय लिया है और लगातार इस दिशा में कार्य हो रहा है। विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी से जूझने वाले जिला अस्पतालों में अब एक साथ सैंकड़ों की संख्या में डॉक्टर चौबीसों घंटे उपलब्ध हो सकेंगे जिससे ग्रामीण गरीब बीमार व्यक्तियों को सस्ता और सुलभ इलाज उनके अपने जिले में मिल सकेगा। डिग्री प्राप्त डॉक्टर जब प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर सेवाएं देंगे तो ग्रामीण परिवारों के लिए यह बहुत ही सुविधाजनक होगा।

सोशिओलॉजी, मेडिकल सोशियोलॉजी और सिनेमा

मेडिकल सोशिओलॉजी समाजशास्त्र की महत्वपूर्ण शाखा है जिसमें मेडिकल संगठनों और संस्थाओं, डॉक्टरों और मरीजों के बीच के आपसी संबंधों का अध्ययन किया जाता है। मेडिकल प्रैक्टिस के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों का भी अध्ययन किया जाता है। मेडिकल समाजशास्त्र डॉक्टर और मरीज के बीच की अंतःक्रियाओं और संबंधों का भी अध्ययन करता है। बीमारियों का संबंध व्यक्तियों और समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से भी होता है। जन स्वास्थ्य एक राजनीतिक मुद्दा भी है और सरकारों की स्वास्थ्य नीतियाँ इसका स्पष्ट प्रमाण हैं। मेडिकल समाजशास्त्र के क्षेत्र में प्रारम्भिक कार्य लारेंस जे. हेंडरसन ने किया जिनकी रुचि विलफरेडो परेटो और टालकट पारसंस की समाजशास्त्रीय व्यवस्था सिद्धांत में था। पारसंस मेडिकल समाजशास्त्र के संस्थापक विद्वान थे। बीमार व्यक्तियों के अन्य व्यक्तियों से संबंधों का विश्लेषण करने के लिए पारसंस ने सामाजिक भूमिका सिद्धांत का प्रयोग किया। बाद मे ईलियट फ्रीडसन कान्फ्लिक्ट सिद्धांत के आधार पर मेडिकल पेशे का विवेचन किया कि किस तरह इस पेशे से जुड़े लोग अपने हितों को सुरक्षित करते हैं। मेडिकल एथिक्स और बायोएथिक्स भी इस अध्ययन के प्रमुख अंग हैं। ब्रिटेन में सन 1944 में गुडेनबर्ग रिपोर्ट के बाद सोशिओलॉजी को मेडिकल के सिलेबस में शामिल किया गया। बीमारियों के सामाजिक कारणों को समझने और उनके प्रभावों के अध्ययन में डॉक्टर्स को इससे काफी मदद मिली। मेडिकल सोशिओलॉजी को कुछ इस तरह परिभाषित किया गया है- Medical Sociology study the social processes that influences and at times limit consent.

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प्रवास की कड़वी अनुभूतियों के बीच नई नागरिकता की खोज में बेउर सिनेमा

डॉक्टर और मरीज के बीच के संबंधों का अध्ययन मेडिकल समाजशास्त्र का मुख्य विषय है। इन संबंधों के कई माडल समय-समय पर विकसित किए गए हैं। सामाजिक संरचनावादियों का मानना है कि बीमारी एक सामाजिक रूप से निर्मित प्रघटना है। एक बीमारी का एक स्थान विशेष पर पाया जाना और दूसरे स्थान पर न पाया जाना इस बात को साबित करता है कि बीमारियों समाज के द्वारा ही सृजित और निर्मित हैं। कुछ बीमारियाँ निःसंदेह जैविक होती हैं जबकि कुछ सामाजिक कारणों से जन्म लेती हैं। बीमारियों की खोज और उनके उपचार की प्रक्रियाओं का विकसित होने का अध्ययन करना बहुत ही अर्थपूर्ण एवं महत्वपूर्ण है।

हावर्ड बेकर ने लेबलिंग सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति अच्छा है या बुरा है, सामाजिक है या समाज विरोधी है, प्रतिमानों के अनुरूप व्यवहार कर रहा है या विचलित व्यवहार कर रहा है यह सब दूसरे व्यक्तियों द्वारा परिभाषित किया जाता है। कुछ बीमारियाँ जैसे- कुष्ठ, प्लेग, हैजा, चेचक, कोरोना महामारी अपने साथ भयानक नरसंहार और घृणा लेकर आती हैं क्योंकि ये छूत से फैलने वाली महामारियाँ हैं। कुष्ठ के रोगी को सामाजिक बहिष्करण, घृणा और अपमान झेलना पड़ता है। उपचार के स्थान पर रोगी को अपमान और बहिष्कार झेलना बहुत कष्टदायी हो जाता है। रोगी ही क्यूँ उसकी कई पीढ़ियों तक उसके परिवार में कोई रिश्ता तक नहीं करना चाहता। इस बीमारी ने लोगों को बहुत पीड़ा और अपमान भोगने पर मजबूर किया। ऐसी बीमारियों से ग्रसित व्यक्ति का मनोबल बुरी तरह टूट जाता है और उसका व्यवहार बदल जाता है। समाज में उसकी प्रस्थिति और भूमिकाओं में कई परिवर्तन आ जाते हैं जो अधिकतर नकारात्मक होते हैं। मेडिकल समाजशास्त्र इन सभी पहलुओं का अलग-अलग बीमारियों के अनुसार अध्ययन करता है।

फिल्म जनहित में जारी और छतरीवाली का दृश्य

कुछ नई फिल्मों की चर्चा

ओटीटी प्लेटफार्म जी-5 पर कंडोम को विषय बनाते हुए दो फिल्में आई जनहित में जारी (2022) और छतरीवाली। इन दोनों फिल्मों में कलाकारों को छोड़ दें तो विषय सहित कई दृश्य एक जैसे हैं और दोनों ही फिल्मों में कंडोम को छतरी कहा गया है। दोनों फिल्मों में लड़कियां कंडोम क्वालिटी टेस्टर या विक्रेता बनकर इस पुरुष प्रभुत्व वाले समाज को कंडोम का उपयोग कर स्वस्थ यौन व्यवहार के प्रति पुरुषों को जागरूक बनाने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर पहली बार उठाए हुए हैं। जनहित में जारी फिल्म का लोकेल वही चँदेरी शहर है जो स्त्री (2018) फिल्म का शहर था। स्त्री फिल्म की सुपर नेचुरल स्त्री भी शोषक पुरुषों को सबक सिखाने में लगी थी और अपने अपमान का बदला लेते हुए सिनेमा के परदे पर आई थी। जनहित में जारी फिल्म की नायिका इसी दुनिया की एक सामान्य लड़की है जो सदियों के पुरुष वर्चस्व को तोड़ने और कम करने का प्रयास करती है। स्त्री फिल्म के प्रगतिशील शास्त्रीजी इस फिल्म में दकियानूस पैट्रीआर्क दादाजी बन गए हैं। शहर वही है चँदेरी जहां के पुरुषों को सबक सिखाने की फिल्मी दुनिया ने ठान रखी है। उसी चँदेरी शहर की एक बेरोजगार लेकिन पढ़ी-लिखी लड़की मनोकामना त्रिपाठी उर्फ मनु (नुसरत भरूचा) जो नौकरी करके अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है। नौकरी की तलाश में उसे एक कंडोम बनाने वाली कंपनी में सेल्स प्रतिनिधि की जॉब मिल जाती है जिसे पहले वह मना करती है लेकिन बाद में अपनी पैसे की ज़रूरत को देखते हुए स्वीकार कर लेती है। रंजन नाम के प्रगतिशील लड़के से उसकी दोस्ती और शादी नए चैलेंज लेकर आती है।

मेडिकल विषयों पर आजकल खासकर ओटीटी प्लेटफार्म पर जो फिल्में आई हैं उनका कंटेट बहुत ही स्पष्टता से अपने सन्देश को दर्शकों के सामने रखता है। मानव शरीर से जुड़ी बीमारियों और उनसे जुड़े अंगों का नाम लेने में अब फिल्मों के चरित्र हिचकते नहीं बल्कि खुलकर बात करते हैं। हाँ, इतना जरूर है कि ऐसे शब्दों के लिए वे हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे कि मिनोपाज, अबॉर्शन, वजाइना (डॉक्टर जी, छतरीवाली, चंडीगढ़ करे आशिक़ी)।

[bs-quote quote=”भारत देश में निजी अस्पतालों में इलाज बहुत महंगा है, जिसे अधिकतर नागरिक वहन नहीं कर सकते। शहर और गाँव हर क्षेत्र में अभी डॉक्टरों की कमी है, जिसके कारण गंभीर रोगों के इलाज के लिए लोगों को बड़े महानगरों में जाना पड़ता हैं जहां का खर्च उठाना आसान नहीं होता। भारतीय गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें तो हेल्थ वर्कर के रूप में उत्तर प्रदेश के तराई जनपदों में मच्छरों के प्रकोप से बचाने के लिए मलेरिया डॉक्टरों की पोस्टिंग हुई। ये हेल्थ वर्कर लोगों को ग्रामीण क्षेत्रों में दवाएं उपलब्ध कराते थे। गाँव के लोग उन्हें बहुत सम्मान देते थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

छतरीवाली (2023) विषय और संवादों की दृष्टि से एक बोल्ड फिल्म है, जिसकी मुख्य महिला पात्र अपने पति से यह कहने की हिम्मत करती है- फिल्म अगर मुझसे करना है प्यार, तो कंडोम को करो स्वीकार। माहवारी के समय मे महिलायें अस्थायी रूप से अछूत मान ली जाती हैं, उस दौरान न वे खाना पका सकती हैं, न अन्य कोई महत्वपूर्ण काम कर सकती हैं। समाज इस विषय पर खुलकर न बात करता है और न ही महिलायें अपने से जुड़े इन जरूरी मुद्दों के पक्ष में पुरुषों के सामने मुंह खोल पाती हैं। औरतों के शरीर और उनसे जुड़ी जैविक हकीकतें जाने क्यों और कब सामाजिक शर्म का विषय बन गईं और पुरुष उनके अंगों को गालियों और अपमान से जोड़ते रहे और सदियों से यह सब परंपरा के नाम पर चलता ही जा रहा है। यह फिल्म परिवार, ऑफिस, शिक्षण संस्थान, कंडोम निर्माण फैक्ट्री जैसे स्थलों यानी कि प्राइवेट स्फीयर से लेकर पब्लिक स्फीयर तक सुरक्षित यौन संबंधों के लिए, कंडोम के उपयोग के लिए अपने पात्रों के माध्यम से संघर्ष करती नजर आती हैं। साथ ही दर्शकों को यह मानसिक रूप से इस विषय पर बात करने और कंडोम को सामाजिक शर्म के विषय से निकालकर सामाजिक बहस का विषय बनाने के लिए तैयार करती है। फिल्म यह भी दिखाती है कि आधुनिक शिक्षण संस्थानों के गुरुजी भी प्रजनन अंग और उनसे जुड़े हार्मोन और अन्य प्रक्रियाओं को बिना गंभीरता से पढ़ाए आगे बढ़ जाते हैं क्योंकि उनका मानना है कि इस विषय को पढ़ने से किशोर वय के लड़के और लड़कियां बहक सकते हैं और पथभ्रष्ट हो सकते हैं। छतरीवाली में नायिका का जेठ जीव विज्ञान का अध्यापक है लेकिन वह अपनी कक्षा में प्रजनन वाले चैप्टर को बिना पढ़ाए आगे बढ़ जाता है। उसे कंडोम के नाम से चिढ़ है। उसके यहाँ धार्मिक सामग्री की दुकान है जो उनके लिए सम्मान का विषय है लेकिन बहु एक कंडोम फैक्ट्री में काम करती है यह सार्वजनिक शर्म का विषय बन जाता है।

छतरीवाली फिल्म में करनाल स्थित कंडोम कंपनी के मालिक सतीश कौशिक (रतन लांबा) का तकिया कलाम ‘यंग जेनेरेशन की यही बात मुझे पसंद है’ दर्शकों को गुदगुदाता है। रतन लांबा अपनी कंपनी में क्वालिटी टेस्टर के पद पर सान्या ढींगरा को रखना चाहते हैं जो बच्चों को केमेस्ट्री का ट्यूशन पढ़ाने वाली जीनियस लड़की है। पहले वह नाराज़ होती है लेकिन बाद में पैसों की जरूरत देखते हुए जॉब जॉइन कर लेती है। फिल्म की नायिका द्वारा अपने पति को सेक्स के पहले कंडोम यूज करने की बात पर मर्दवादी जवाब आता है कि ‘रेनकोट पहनकर कौन नहाता है’ तो नायिका का जवाब होता है कि ‘लगा लो नहीं तो नौ महीने सूखा पड़ जाएगा’। फिल्म का विषय बोल्ड है और आवश्यकतानुसार संवाद भी बोल्ड हैं जिन्हें बड़ी सहजता से रकुलप्रीत और सुमित व्यास ने अपनी भूमिकाओं से अभिव्यक्त किया है। यौन शिक्षा से जुड़ी फिल्मों के साथ समस्या यह भी रहती है कि वर्जित विषयों की तरह ये फिल्में भी समाज में वर्जित फिल्मों की श्रेणी में पहुंचा दी जाती हैं। परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठकर ऐसी फिल्में नहीं देख सकते। ऐसी मान्यता भारतीय परिवार और समाज में है लेकिन जनहित में जारी और छतरीवाली दोनों फिल्मों ने पारिवारिवारिक ताने-बाने के भीतर ही शादीशुदा महिलाओं को मैसेन्जर बनाकर इस जिम्मेदारी को उनके ही कंधे पर डाला है क्योंकि महिलायें ही असुरक्षित यौन संबंधों से होने वाली बीमारियों की ज्यादा शिकार होती हैं।

निरोध एक गुब्बारा या कुछ और…

दो-तीन दशक पहले की बात है। बच्चे मलेरिया डॉक्टर से फुलौना मांगते और डॉक्टर उन्हें निरोध के चार पैकेट पकड़ा देते। इन गुब्बारों को कम उम्र के बच्चे फूँक मारकर खूब फुलाते। हवा से मन भर जाए तो नल से पानी भरकर खूब हिलाते-डुलाते। होली में रंग और पानी भरकर फेंकने की शुरुआत गांवों में इसी निरोध गुब्बारे से हुई। महिलायें इस गुब्बारे का ऐसे प्रयोग देखकर आपस में बातें करके इशारों मे हँसतीं। पुरुष समझते सब थे लेकिन सार्वजनिक रूप से कहते कुछ नहीं थे। इस तरह सरकार और स्वास्थ्य विभाग के प्रयासों में पानी भरकर (फेरकर) रात के बजाए दिन के उजाले में खूब दुरुपयोग होता।

फिल्म विकी डोनर और गब्बर इज बैक का दृश्य

डॉक्टरी के पेशे को लोगों ने कम समय में ज्यादा पैसा कमाने का माध्यम बना और समझ रखा है। बेमिसाल (1982) बहुत ही पढ़े-लिखे शहरी समाज के लोगों पर केंद्रित फिल्म है। फिल्म में एक साहित्य के डॉक्टर हैं (ए.के. हंगल) और दो मेडिकल की पढ़ाई किए नौजवान डॉक्टर हैं (अमिताभ और विनोद मेहरा)। वर्ष 2022 में रिलीज हुई फिल्म आयुष्मान खुराना की फिल्म डॉक्टर जी के पहले बेमिसाल फिल्म में एक पुरुष गाएन्कोलाजिस्ट डॉक्टर की भूमिका को परदे पर चित्रित किया गया है। डॉक्टरी के पेशे से बाइ हुक या क्रुक पैसा कमाने का माध्यम बनाकर विनोद मेहरा अवैध गर्भपात कराने लगता है और बाद में पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है। इस फिल्म की कहानी थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ डॉ. राही मासूम रजा के उपन्यास टोपी शुक्ला पर आधारित है। उन्होंने ही इस फिल्म की पटकथा भी लिखी है।

राजेश खन्ना और अमिताभ, अभिनीत आनंद कोलोन कैंसर की बीमारी के उपचार के माध्यम से सभी धार्मिक मतावलंबियों को बीमार से जोड़कर उन्हें उसके लिए दुआ और प्रार्थना करने का एक नेशन बिल्डिंग प्रोजेक्ट की तरह है। बाबू मोशाय ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं!

डॉक्टरों और उनके पेशे का नकारात्मक चित्रण

सन 2011 से 2020 तक मेडिकल प्रोफेशन के नकारात्मक पक्षों को प्रमुखता से फिल्मों में उठाया गया है। इसी बीच विकी डोनर और उड़ता पंजाब के डॉक्टरों (अन्नू कपूर, करीना कपूर) ने डॉक्टरी पेशे के सकारात्मक पक्ष को दिखाया जो जनहित की भावना से काम करते हैं। अंकुर अरोड़ा मर्डर केस (2013) में मेडिकल नेगलिजेंस के कारण हुई मौत को विषय बनाया गया है जो इस बात पर फोकस करती है कि एक अच्छा डॉक्टर जरूरी नहीं है कि एक अच्छा इंसान भी हो। अक्षय कुमार की फिल्म गब्बर इज बैक (2015) वैसे तो रियल स्टेट सहित कई सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाती है इसी क्रम में वह एक मृत व्यक्ति को जीवित बताकर वेंटीलेटर पर रखकर अपने बिल बढ़ाने को भी चित्रित करती है। कुछ डॉक्टर और अस्पताल ऐसा कृत्य करते हुए पकड़े भी जाते हैं जिनकी खबरें मीडिया में आती रहती हैं। वेटिंग (2015) भी ऐसे ही विषय को उठाती फिल्म है। आयुष्मान खुराना और तब्बू की फिल्म अंधाधुन (2018) का एक डॉक्टर मरीजों की किडनी निकालकर महंगे दामों पर बेचते हुए दिखाया गया है। क्राइम थ्रीलर वन डे जस्टिस डिलिवर्ड  (2019) में एक डॉक्टर दंपति को एक टेरर केस के गवाह को मारने के लिए घूस लेते दिखाया गया है। कबीर सिंह (2019) फिल्म का डॉक्टर बेहद टैलेंटेड युवा है लेकिन इतना गुस्सैल, शराबी, ड्रग एडिक्ट है कि ऐसे चरित्र पर विश्वास करना मुश्किल होता है।

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पानी की ‘ब्यूटी’ का इस्तेमाल करने वाला सिनेमा पानी के प्रति ड्यूटी’ कब निभाएगा

भारतीय सिनेमा में डॉक्टरों के चित्रण को देखें तो वह डॉक्टर कोटनिस से लेकर कबीर सिंह तक एक पूरा इतिहास समेटे हुए है और बदलते समाज के साथ बदलते हुए डॉक्टर चरित्र यहाँ देखे जा सकते हैं। हर क्षेत्र के सकारात्मक और नकारात्मक पहलू होते हैं। कुछ गिने-चुने जिम्मेदार और ईमानदार लोगों ने अपने समर्पण से इस पेशे की साख को संभाल रखा है।

हर दौर में बदलती रही है डॉक्टरों की तस्वीर 

बॉलीवुड में डॉक्टरों और बीमारियों पर बनी फिल्मों की चर्चा करें तो यह यात्रा आदर्शवाद, रोमांटिसिज़्म से होते हुए यथार्थवाद तक पहुँचती है। सन 1946 में डॉ. कोटनिस की अमर कहानी आदर्शवाद और कर्तव्यनिष्ठा से प्रेरित है जिसका डॉक्टर देश के एक बड़े नेता के भाषण से प्रभावित होकर युद्धग्रसित चीन देश जाकर घायलों की सेवा करने का काम करता है। दिल एक मंदिर, अनुराधा जैसी फिल्मों के डॉक्टर अपने निजी जीवन और पेशे के बीच रोल कान्फ्लिक्ट को लेकर सिनेमा के परदे पर आते हैं। एक डॉक्टर की मौत का डॉक्टर (पंकज कपूर) निश्चित रूप से एक डॉक्टर और आविष्कारक के जीवन पर बनी एक सर्वश्रेष्ठ फिल्म है जिसे एक डॉक्टर के जुनून, सरकारी व्यवस्था की प्रक्रियाओं और संवेदनहीन अफसरों, प्रतिभाओं को कुचलने के कुत्सित प्रयासों जैसे विषयों को समझने और समाधान की तरफ बढ़ने लिए देखना चाहिए। मुन्ना भाई एमबीबीएस ने डॉक्टरों के जीवन के अलहदा पहलू पर एक नई बहस छेड़ने का काम किया और ट्रेसपासर के लिए मीडिया और आमजन को मुन्ना भाई जैसी नई अवधारणा देने का काम किया। पिछले तीन-चार वर्षों मे ओवर द टॉप (ओटीटी फ्लेटफ़ार्म) के विश्वस्तरीय तीव्र प्रसार ने ओरिजिनल स्टोरी की तलाश के साथ इस क्षेत्र में दुनिया भर के अरबपतियों को पूंजी निवेश के लिए प्रेरित किया है। भारत और यहाँ का सिनेमा उद्योग इनके लिए एक बड़े अवसर के तौर पर सामने आया है। इन्ही कारणों से अछूते और बोल्ड विषयों पर ओटीटी प्लेटफार्म पर लगातार फिल्में आ रही हैं। हेलमेट, जनहित में जारी, छतरीवाली और डॉक्टर जी ऐसी ही फिल्में हैं जिनमें कंडोम, गर्भ निरोधक और यौन विषयों को मनोरंजक ढंग से पेश किया गया है। इस लिहाज से भारतीय सिनेमा में नए दौर का आगाज है।

भारत देश में निजी अस्पतालों में इलाज बहुत महंगा है, जिसे अधिकतर नागरिक वहन नहीं कर सकते। शहर और गाँव हर क्षेत्र में अभी डॉक्टरों की कमी है, जिसके कारण गंभीर रोगों के इलाज के लिए लोगों को बड़े महानगरों में जाना पड़ता हैं जहां का खर्च उठाना आसान नहीं होता। भारतीय गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें तो हेल्थ वर्कर के रूप में उत्तर प्रदेश के तराई जनपदों में मच्छरों के प्रकोप से बचाने के लिए मलेरिया डॉक्टरों की पोस्टिंग हुई। ये हेल्थ वर्कर लोगों को ग्रामीण क्षेत्रों में दवाएं उपलब्ध कराते थे। गाँव के लोग उन्हें बहुत सम्मान देते थे। बच्चे दूर से ही डॉक्टर साहब की आती सायकिल पहचान लेते थे और कुछ तो सूई के डर के मारे घरों मे छिप जाते थे। हमारे पड़ोस के गाँव में बने हेल्थ सेंटर में एक मलेरिया डॉक्टर परिवार सहित रहते थे और जीवन भर रहे। वहीं से बच्चों का शादी-ब्याह किया और उसी हेल्थ सेंटर-कम घर में उनकी मृत्यु भी हुई। एक हेल्थ वर्कर से आगे जाकर अब प्रत्येक जनपद में एक मेडिकल कालेज बनाने और सबको उच्चस्तरीय चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने का प्रयास किया जा रहा है। सरकारी के साथ-साथ प्राइवेट मेडिकल कालेज भी खुल रहे हैं जिनमे मेरिट, आरक्षण और फीस को लेकर अलग सवाल हैं। अस्पतालों में डॉक्टर और अन्य सपोर्टिंग स्टाफ की नियुक्तियाँ, मेडिकल कालेजों में प्रोफेसरों की नियुक्तियाँ जैसे मुद्दों पर अभी बहुत काम करना बाकी है। देश में चिकित्सा के संस्थानों, नई बीमारियों, महामारियों के सापेक्ष संसाधनों को विकसित करने की निरंतर आवश्यकता होगी। शोध एवं शोधार्थी को बढ़ावा देकर उपचार सुविधाओं को अपडेट करना होगा। भारतीय सिनेमा भी बीमारियों और इलाज के बारे में जनता और दर्शकों को जागरूक करने का काम जिम्मेदारी से करता रहे तो एक स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में सहयोग मिलेगा।

संदर्भ
Tyagi, Satyendra (2022) Changing portrayal of doctors in Bollywood films, 1940–2020: Is it time for introspection? In Medicine and Society, vol 34(4), on 29-01-2022.
Kapoor, V.K.(2016) Surgeon explains how Hindi movies have made medicine into a farce, on https//www.dailyo.in on May 11, 2016.
Chattopadhyay, Sohini (2019) How Hindi cinema taught a medical reporter to see doctors without their halos,  in thehindu.com, on June 22, 2019.

राकेश कबीर प्रसिद्ध कवि-कथाकार और सिनेमा के समाजशास्त्रीय अध्येता हैं।

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5 COMMENTS
  1. फ़िल्म के माध्यम से चिकित्सा जगत को बड़े विस्तृत और सारगर्भित तरीके से समझाया गया है। इस लेख को पढ़ने पर फ़िल्म और चिकित्सा विज्ञान के समय परिस्थितियों के साथ तालमेल और समझ में विस्तार से जानकारी प्राप्त होती है। चिकित्सा में डाइवर्सिटी नितांत आवश्यक है व फीस कम से कम होनी चाहिए इसके खर्चे को सरकार वहन करे जिससे देश समाज को चिकित्सक सस्ते फीस वाले मिल सकें। मुझे डर है कि चिकित्सा कही पूंजीवाद के कारण शोषण का केन्द्र न बन जाये। धन्यवाद इस शानदार लेख के लिए🙏

  2. हमेशा की तरह सामाजिक यथार्थ को चरितार्थ करता हुआ शोधपरक लेख। लेखनी चलती रहे और हम सभी का मार्गदर्शन होता रहे। लेख के लिए आपको सादर साधुवाद सर।🌻

  3. कभी -कभी अच्छी रचनाएं पढ़कर मन प्रफुल्लित हो जाता है। कुछ ऐसा ही हुआ ये लेख पढ़कर।
    बेहतरीन
    अभिभूत हूं इस सटीक अभिव्यक्ति पर

    आभार🙏🙏🙏🙏🙏

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