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कांग्रेस, राहुल गांधी की सामाजिक न्यायवादी छवि को सामने लाने का दम नहीं दिखा पायी

कांग्रेस देश की सबसे महत्वपूर्ण पार्टी है, जिसके नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई लड़कर ब्रितानी हुकूमत से देश को आज़ादी मिली। यूं तो कांग्रेस के इतिहास में एक से एक बढ़कर महत्वपूर्ण तिथियां हैं, पर 28 दिसंबर का विशेष महत्त्व है। 28 दिसंबर 1885 को थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख सदस्य रहे एओ ह्यूम की […]

कांग्रेस देश की सबसे महत्वपूर्ण पार्टी है, जिसके नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई लड़कर ब्रितानी हुकूमत से देश को आज़ादी मिली। यूं तो कांग्रेस के इतिहास में एक से एक बढ़कर महत्वपूर्ण तिथियां हैं, पर 28 दिसंबर का विशेष महत्त्व है। 28 दिसंबर 1885 को थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख सदस्य रहे एओ ह्यूम की पहल पर बम्बई के गोकुलदास संस्कृत कॉलेज मैदान में कांग्रेस की स्थापना हुई थी! 19 वीं सदी के आखिर में अपनी स्थापना के शुरुआत से लेकर 20वीं सदी में के मध्य तक, कांग्रेस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में, अपने 1,5 करोड़ से अधिक सदस्यों और 7 करोड़ से अधिक प्रतिभागियों के साथ, ब्रिटिश औनिवेशिक शासन के विरोध में एक केन्द्रीय भागीदार बनी और 15 अगस्त, 1947 को देश को अंग्रेजों से आजादी दिलाया। यूं तो इसका स्थापना दिवस हर वर्ष बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है, किन्तु लोकसभा चुनाव 2024 के मद्देनज़र इस बार नागपुर में आयोजित स्थापना दिवस अलग से दृष्टि आकर्षित किया। बहरहाल बहुत सोच-समझकर इस बार इसका स्थापना दिवस समारोह नागपुर में आयोजित हुआ। इसी नागपुर में 1920 में महात्मा गांधी ने ब्रितानी सरकार के खिलाफ असहयोग आन्दोलन का आह्वान किया था। इसी नागपुर के कस्तूरचंद पार्क से इंदिरा गांधी ने आपातकाल के बाद 1978 में बड़ी रैली करके अपनी दूसरी पारी की शुरुआत की थी। इस बार कांग्रेस के 139 स्थापना दिवस पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के शब्दों में,’ कांग्रेस ने राष्ट्र के नाम यह सन्देश देने के लिए नागपुर को चुना कि कांग्रेस पार्टी अपनी विचारधारा से कभी रुकने वाली नहीं है और विचारधारा से आगे बढ़ेगी।’ यह सन्देश प्रभावी तरीके से प्रसारित करने के लिए ‘हैं तैयार हम’ नाम से महा रैली निकाली गयी, जिसमें लाखों लोगों ने शिरकत किया।

इसमें कोई शक नहीं कि आगामी लोकसभा चुनाव को को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस की ओर से पार्टी के 139 वें स्थापना दिवस को भव्यतर तरीके से आयोजित करने का सफल प्रयास हुआ।  इस अवसर पर स्वाधीनता संग्राम से लेकर आजादी के बाद देश के नवनिर्माण में कांग्रेस के योगदान पर इसके छोटे-बड़े नेताओं की ओर से प्रकाश डाला गया, पर क्या वह पर्याप्त था! मुझे लगता है,’नहीं’! दरअसल कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या है कि देश की युवा पीढी ही नहीं, खुद कांग्रेस की नीतियों से सर्वाधिक लाभान्वित होने वाले दलित– आदिवासी समुदाय के जागरूक लोग तक विविध कारणों से देश निर्माण में कांग्रेस के भूमिका की उपलब्धि को व्यक्त करने में असमर्थ हैं। और तो और खुद आज के ढेरों कांग्रेसियों तक को शायद आजादी के बाद के भारत निर्माण में कांग्रेस के योगदान की पर्याप्त जानकारी नहीं है। सबसे शोचनीय स्थिति तो पार्टी की सामाजिक न्याय के मोर्चे पर है। मंडल उत्तरकाल में जब भी बात सामाजिक न्याय की चलती है, कांग्रेस के लोग बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं, जबकि नई सदी में सामाजिक न्याय के मोर्चे पर सर्वाधिक प्रभावी भूमिका कांग्रेस की रही है। ऐसे में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी जरुरत यह है कि वह देश के नवनिर्माण के साथ दलित आदिवासियों के उत्थान में अपने ऐतिहासिक योगदान तथा सामाजिक न्याय के मोर्चे पर अपनी उल्लेखनीय भूमिका को लेकर आत्म-विश्वास के साथ लोगों के बीच जाए!

पिछ्ले 50 सालों में हमने बहुत तरक्की की है: वाजपेयी  

आजादी के बाद के भारत की उपलब्धियों पर राय देते हुए कभी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी संसद में ने कहा था, ‘पिछ्ले 50 सालों में हमने बहुत तरक्की की है और इससे कोई इनकार नहीं कर सकता! मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो देश की 50 सालों की उपलब्धियों पर पानी फेर दें। ऐसा करना देश के पुरुषार्थ पर पानी फेरना होगा!’ वास्तव में अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने के बाद अपने योग्य नेताओं के नेतृत्व में कांग्रेस ने देश में असंख्य स्कूल-कॉलेज- विश्वविद्यालय, अस्पताल, अनुसन्धान केंद्र, सरकारी उपक्रम खड़े करने एवं हरित के साथ श्वेत क्रांति(ऑपरेशन फ्लड) घटित करने के साथ जिस तरह राजाओं के प्रिवी पर्स के खात्में, बैंकों ,कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण इत्यादि का साहसिक काम अंजाम दिया, उससे कुछ ही दशकों के अंतराल में काफी हद देश की शक्ल ही बदल गयी। यह अपने आप में भारतीय उपमहाद्वीप की एक अद्भुत घटना रही, जिसका वर्तमान की जमीन पर खड़े होकर यदि कोई दुराग्रह मुक्त भाव से सिंहावलोकन करे तो उसका उदगार वाजपेयी से बहुत भिन्न नहीं होगा।

आजादी के वादों को पूरा करने के जुनून में कांग्रेस ने बदल कर रख दी, देश की शक्ल

जिस देश को अंग्रेजो ने लूट खसोट कर इस देश की बाग़डोर कांग्रेस को सौंपी थी, 1947 में उस देश में सुई तक नही बनती थी; सारा देश राजा- रजवाड़ों के झगड़ो में बटा हुआ था; देश के मात्र पचास गाँवों में बिजली थी! किसी गाँव में नल नही थे। पूरे देश में मात्र दस बाँध थे। सीमाओं पर मात्र कुछ सैनिक, चार विमान और बीस टैंक थे ! देश की सीमाएँ चारों तरफ़ से खुली थी और खजाना ख़ाली था, ऐसे बदहाल दशा में भारत कांग्रेस को मिला था ! ऐसे बदहाल देश में  कांग्रेस ने देखते ही देखते कुछ हीं दशकों में विश्व की सबसे बड़ी ताक़त वाली सैन्य शक्ति तैयार कर दी; हज़ारों विमान – हज़ारो टैंक, अनगिनत फैक्ट्रियाँ खड़ी करने के साथ लाखों गाँवों में बिजली; सैकड़ों बाँध, लाखों किलोमीटर सड़कों का निर्माण; परमाणु बम; हर हाथ में फ़ोन; हर घर में मोटर साइकिल वाला मजबूत देश बना कर दिखा दिया। स्वास्थ्य सेवाओं का बहुत बुरा हाल था। 1943 में सिर्फ 10 मेडिकल कॉलेज थे, जो प्रति वर्ष सिर्फ 700 डॉक्टर तैयार करते थे। साथ ही 27 मेडिकल स्कूल थे जो 7000 स्वास्थ्य कर्मचारी तैयार करते थे। 1951 में सिर्फ 18,000 डॉक्टर थे , जिनमें अधिकांश शहरों में ही रहते थे। अस्पतालों की संख्या 1,915 थी, जिनमें 1,16, 731 विस्तरों की व्यवस्था थी। इसके अलावा 6,589 डिस्पेंसरी थी जहां 7, 072 बिस्तरों की व्यवस्था थी। अधिकांश भारतीय शहरों में सफाई एवं मल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं थी और जिन शहरों में ऐसा इंतजाम था, वहां भी अधिकांश भारतीयों को इसका कोई फायदा नहीं मिलता था, क्योंकि ये सभी सुविधाएँ उन्हीं इलाकों तक सिमित थीं, जहां यूरोपीय और धनी भारतीय लोग रहते थे। गावों में आधुनिक जल आपूर्ति व्यवस्था का तो किसी ने नाम भी नहीं सुना था, ज्यादातर शहरों में भी इसका अभाव था। आज चिकित्सा क्षेत्र की उस छवि में क्रान्तिकारी बदलाव आ चुका है। आज जब पहले की उस स्थिति पर नजर दौडाते हैं तो कल्पना जैसी लगती है।

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आजादी के समय सिर्फ डेढ़ लाख स्कूल थे। आज देश में स्कूलों की संख्या 15 लाख से ज्यादा हो गयी है। आजादी के वक्त देश में सिर्फ 20 यूनिवर्सिटीज और 404 कॉलेज थे। आज देश में 1043 यूनिवर्सिटीज और 42303 डिग्री कॉलेज हैं। 1948 में देश में सिर्फ 30 मेडिकल कॉलेज थे, आज 541 मेंडिकल कॉलेज हैं। आजादी के वक्त देश में 36 इंजीनियरिंग कॉलेज थे, जिनमें सालाना सिर्फ 2500 छात्रों को दाखिला मिलता था।  आज देश में 2500 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं, 1400 पॉलि  टेक्निक और 200 प्लानिंग और आर्किटेक्टर कॉलेजेज हैं।  यानी करीब 4100 इंजीनियरिंग कॉलेज और यूनिवर्सिटीज हैं। आज पूरा विश्व विज्ञान व प्रौद्योगिकी के दौर में जी रहा है। समय बीतने के साथ विज्ञान व प्रौद्योगिकी ने बहुत ही ज्यादा तरक्की की है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के नए-नए आविष्कारों ने मानव जीवन को बेहद सरल एवं सुगम बना दिया है। भारत भी विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में धीरे-धीरे उल्लेखनीय विकास किया। आज हम भले ही अनुसन्धान के कारण विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व से प्रतियोगिता करने की स्थिति में हैं, पर ब्रिटेन से आजादी पाते समय इस मामले में हमारी स्थिति अत्यंत कारुणिक थी। लेकिन आजादी के बाद भारत ने उस स्थिति से खुद को उबारा। आजादी के बाद भारत ने सिर्फ विज्ञानं व प्रोद्योगिकी के लिए विभिन्न अनुसन्धान संस्थानों की स्थापना नहीं की, बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों का जाल भी फ़ैलाने का काम किया। 1951 में भारत में सरकारी क्षेत्र के स्वामित्व वाले 5 सार्वजनिक निगम थे, लेकिन आज ऐसे सार्वजनिक निगमों की संख्या 365 है।  ऐसा ही चमत्कार बैंकिंग के क्षेत्र में भी घटित हुआ है। 1947 में जहां 664 निजी बैंकों की लगभग 5000 शाखाएं थीं, वहीँ पिछले वर्ष तक के आंकड़ों के मुताबिक़ देश में 12 सरकारी बैंकों, 22 निजी क्षेत्र के बैंकों , 43 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और 46 विदेशी बैंकों की लगभग 1 लाख, 40 हजार शाखाएं कार्यरत हैं।

आजादी के बाद के वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों में जो चमत्कारिक विकास हुआ, उसमें गैर-कांग्रेसी सरकारों का योगदान अधिक से अधिक 10% हो सकता है, जबकि कांग्रेस सरकारों का योगदान 90% से अधिक का रहा! बहरहाल सवाल पैदा होता है आजादी के समय जो भारत शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्यान, अनुसंधान और उद्योग– धंधों के लिहाज से प्रायः शून्य की स्थिति में रहा, उस भारत में कांग्रेस क्यों प्रत्येक क्षेत्र में चमत्कार घटित करने में सफल हो गयी? इसका सटीक जवाब है स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा करने की तीव्र ललक! जी हां, भारत के आजादी के आन्दोलन को नेतृत्व देने वाली कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत को एक नई शक्ल देने का वादा किया था और उन वादों को पूरा करने के जुनून में उसने भारत की शक्ल बदल कर रख दिया ।

15, अगस्त, 1947 से देश के नव-निर्माण में आगे बढे, पंडित जवाहरलाल नेहरु

कांग्रेस के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने भारत के औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की मुख्य विशिष्टताओं, खासतौर पर इसकी ब्रिटिश अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुरूप अधीनस्थता और उसके परिणामस्वरूप भारत के पिछड़ापन आदि के विषय में एक उन्नत और जटिल आलोचना विकसित की थी। 1930 के दशक में राज्य द्वारा आर्थिक नियोजन और सार्वजनिक क्षेत्र का तीव्र विकास बड़े पैमाने पर स्वीकृत हो चुके थे। 1931 में ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के करांची अधिवेशन में पारित आर्थिक मौलिक अधिकारों और आर्थिक कार्यक्रम पर प्रस्ताव में यह घोषणा की गयी थी कि ‘राज्य आधारभूत उदद्योगों और सेवाओं , खनिज संसाधनों, रेलवे, जलमार्गों, जहाजरानी और सर्वजनिक यातायात के अन्य साधनों का स्वामी और नियंता होगा।’ ये तथ्य बतलाते हैं कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान कांग्रेस ने आजाद भारत की डिजाइन तैयार कर ली थी, जिसे आकार देने के लिए 15 अगस्त, 1947 से जवाहरलाल नेहरु भारत निर्माण की यात्रा में निकल पड़े। लेकिन वह अकेले नहीं निकले, उन्होंने साथ में लिया उच्च क्षमता संपन्न उन नेताओं को जिनके पास भारत निर्माण का विराट स्वतंत्र विजन और संकल्प था।

जवाहरलाल नेहरु खुद में निर्विवाद रूप से एक महान नेता तो थे ही, परन्तु उनके पीछे ऐसे नेताओं का विशाल समूह था, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में यादगार भूमिकाएं निभाई थीं एवं जो असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी थे। साथ में उप-प्रधान मंत्री सरदार पटेल दृढ इच्छाशक्ति के स्वामी तथा प्रशासनिक कार्यों में निपुण थे। इसके अलावा विद्वान अब्दुल कलाम आजाद, पांडित्य से भरपूर राजेन्द्र प्रसाद और तीक्ष्ण बुद्धि संपन्न सी राजगोपालाचारी और फिर उसके नीचे राज्य स्तर पर भी कई महत्वपूर्ण नेता थे, जैसे- उत्तर प्रदेश में गोविन्द बल्लभ पन्त, पश्चिम बंगाल में बी सी राय, बम्बई में बी जी खेर और मोरारजी देसाई आदि का नाम भी लिया जा सकता है। ये सभी अपने-अपने प्रदेशों के निर्विवाद नेता थे और पर्याप्त राजनीतिक शक्ति रखते थे। इन सभी नेताओं को आधुनिक और जनवादी प्रशासन चलने के लिए पर्याप्त कुशलता प्राप्त थी। उन्होंने जन आंदोलनों के संगठन, राजनीतिक पार्टी के निर्माण और औपनिवेशिक विधान मंडलों में दशकों तक भाग लेने के कारण यह कुशलता हासिल की थी। इन लोगों में सर्वसम्मति बनाने की भी प्रतिभा मौजूद थी। जिस राष्ट्रीय आन्दोलन का उन्होंने नेतृत्व किया था, वह भिन्न-भिन्न क्षेत्रों, सामाजिक तबकों और विचारधाराओं को एक संयुक्त राजनीतिक कार्यक्रम के इर्द-गिर्द ले आया था।  कांग्रेस के बाहर आचार्य नरेंद्र देव और जय प्रकाश नारायण, कम्युनिस्ट पी सी जोशी और अजय घोष, उत्तर संप्रदायवादी श्यामा प्रसाद मुखर्जी और महान दलित नेता डॉ आंबेडकर थे। थोड़े बाहरी दायरे में थे– प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ एस राधाकृष्णन, शिक्षाविद डॉ जाकिर हुसैन और ब्रिटेन में भारत के लिए संघर्ष करने वाले वी के कृष्णमेनन तथा अनेकानेक अन्य समर्पित गांधीवादी नेता। जवाहरलाल नेहरु ने इन्हीं बेशकीमती रत्नों को लेकर भारत निर्माण की यात्रा शुरू की जिसमें बाद में एक-एक करके लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गाँधी, पीवी नरसिम्हा राव और डॉ मनमोहन सिंह जैसी महान प्रतिभाएं अपने- अपने स्तर पर योगदान करती गईं।

आजादी के बाद कांग्रेस की नीतियों से सर्वाधिक लाभान्वित हुए दलित और आदिवासी

भारतीय समाज विश्व का सर्वाधिक विषमतापूर्ण समाज है, जिसके लिए जिम्मेवार रही है वर्ण– व्यवस्था। धर्म के आवरण में लिपटी वर्ण-व्यवस्था सदियों से ही शक्ति के स्रोतों(आर्थिक, राजनीतिक,शैक्षिक और धार्मिक) के वितरण-व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही है। इसमें बहुत ही सुपरिकल्पित रूप से अध्ययन-अध्यापन,पौरोहित्य, भूस्वामित्व,राज्य-संचालन, सैन्य-वृत्ति, उद्योग- व्यापार इत्यादि सहित शक्ति के समस्त स्रोत ही सिर्फ ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के मध्य वितरित हुए। स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे हिन्दू आरक्षण- व्यवस्था कहा जाता है। हिन्दू-आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत सिर्फ सवर्णों के लिए आरक्षित्त रहे। हिन्दू आरक्षण के कारण ही देश में सदियों पूर्व सामाजिक अन्याय की धारा प्रवाहमान हुई। इस कारण ही सवर्ण समाज जहां चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित, आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए। भारत के गुलामों में सबसे बदतर स्थिति दलितों (अस्पृश्यों) की रही। ये गुलामों के भी गुलाम रहे। इन्हीं गुलामों के गुलामी से मुक्ति दिलाने की चुनौती इतिहास ने डॉ आंबेडकर के समक्ष पेश की, जिसका उन्होंने न्यायोचित अंदाज में निर्वहन किया। अगर जहर की काट जहर हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट किसी वैकल्पिक आरक्षण से ही हो सकती थी, जो आंबेडकरी आरक्षण से हुई।

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आंबेडकर के संघर्षों से पूना पैक्ट से जो आरक्षण वजूद में आया तथा परवर्तीकाल में जिसकी भारतीय संविधान में स्थाई व्यवस्था हुई, उस आरक्षण के फलस्वरूप जिन मानवेतरों के लिए विगत साढ़े तीन हजार सालों से कल्पना करना दुष्कर था, वे झुण्ड के झुण्ड एमएलए, एमपी, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, आईएएस-आईपीएस इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे।  आंबेडकरी आरक्षण से उनका हजारो साल से चला आ रहा शक्ति के स्रोतों से बहिष्कार का दूरीकरण होने लगा। लेकिन आंबेडकर के प्रयासों से दलितों के जीवन में जो चमत्कारिक बदलाव आया, वह कतई मुमकिन नहीं होता, यदि आजाद भारत में कांग्रेस सरकारों ने जमींदारी उन्मूलन के साथ भूरि-भूरि स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल और सरकारी उपक्रम नहीं खड़े किये होते। इन स्कूल, कॉलेजों, राष्ट्रीयकृत बैंकों, कोयला खदान, बीमा क्षेत्र और नवरतन कंपनियों सहित कांग्रेस राज में स्थापित की गयी अन्य सैकड़ों सरकारी कंपनियों में जॉब पाकर ही दलित शक्ति के उन स्रोतों में हिस्सेदारी पाने लगे, जिनसे हिन्दू-आरक्षण के तहत वे सदियों से बहिष्कृत रहे। दलित और आदवासी कांग्रेस राज में उपलब्ध अवसरों का सदुपयोग कर सकें, इसके लिए खुद कांग्रेस नेताओं द्वारा विशेष अभियान चलाया गया। इस मामले में इन्दिरा गांघी का प्रयास कबीले तारीफ रहा।

इंदिरा गांधी के प्रयास से आपातकाल के दौरान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पदों पर आरक्षण के लिए सहमति दी। श्रीमती गांधी ने उसी समय में केन्द्रीय विद्यालयों में अनुसूचित जाति/ जनजाति के बच्चों को आरक्षण देने का निर्णय लिया। आपातकाल के दौरान ही उनके लिए आईआईटी  के द्वार खुले। इसी समय में ठोस दलित मध्यम वर्ग की जड़ें गहरी हुईं। अन्य मुद्दों जैसे न्यायालयों में उच्च स्तर पर अनुसूचित जाति/जनजाति के न्यायधीशों की नियुक्ति की समस्या को इंदिरा गांधी ने ही सुलझाया। इंदिरा गाँधी के विशेष प्रयासों का परिणाम भी धीरे-धीरे सामने आने लगा।

बहरहाल कांग्रेस राज में सृजित अवसरों से दलित, आदिवासी समाजों से जब भूरि-भूरि सांसद-विधायक, लेखक, डॉक्टर, इंजीनियर्स,प्रोफ़ेसर इत्यादि निकलने लगे तो यह हिंदुत्ववादी भाजपा को रास नहीं आया। क्योंकि हिन्दू धर्म शास्त्रों में जिन दलितों के लिए लोहे के गहनों , जूठे – भोजन, दूसरों के छोड़े फटे-पुराने वस्त्रों पर जीवन यापन करना ही धर्म बताया गया है, जिनके लिए मंदिरों में प्रवेश व हथियार स्पर्श के साथ शिक्षा-ग्रहण दंडनीय अपराध व अधर्म घोषित किया गया, वैसे समाज के लोग जब आजादी के बाद कांग्रेस-राज में आंबेडकरी आरक्षण के जरिये एमएलए-एमपी, डॉक्टर प्रोफ़ेसर, इंजीनियर, आईएएस-पीसीएस,लेखक इत्यादि बनने लगे, तब हिंदुत्ववादी संघ और जनसंघ से भाजपा बना उसका राजनीतिक संगठन ‘आरक्षण’ को हिन्दू धर्म पर हमले के रूप में लेने लगा। आरक्षण से हिन्दू धर्म की ऐसी हानि होते देख हिंदुत्ववादी मन ही मन घुटते तथा सही मौके की तलाश में लगे रहे। और 7 अगस्त ,1990 को अंततः मंडल रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद उन्हें उस आरक्षण के खात्मे का अवसर मिल गया, जिससे हिन्दू धर्म की अभ्रान्तता पर सवाल खड़े हो रहे थे, मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही भारत की राजनीति मंडल और कमंडल में बंट गयी, जिसमे कांग्रेस का स्पेस काफी कम हो गया।

मंडल उत्तरकाल में मंडल और कमंडलवादियों के निशाने पर रही कांग्रेस

 मंडल रिपोर्ट प्रकाशित होने के सामाजिक न्याय का जो झंझावात उभरा उससे कांग्रेस की स्थिति दयनीय हो गयी। मंडलवादियों ने जहां फिजा में सन्देश फैला दिया कि कांग्रेस दालित- बहुजन विरोधी पार्टी है और यह मंडल के खिलाफ रही है।  दूसरी और राम मंदिर आन्दोलन के सहारे राजनीति में स्पेस बनाने में जुटी भाजपा ने अपने विपुल प्रचार माध्यमों के जरिये देश में यह बात फैला दिया दी कि कांग्रेस रामविरोधी पार्टी है, इसी के चलते राम मंदिर अबतक नहीं बन पाया है। भाजपा के इस प्रचार से जहां सवर्ण मतदाता इससे दूर हो गए, वहीँ बहुजनवादी दलों के कारण दलित-आदिवासी, पिछड़े इससे दूर छिटक गए। सबसे आश्चर्य जनक रहा दलितों के नजरिये में आया बदलाव। वे भूल गए कि कांग्रेस राज में उनकी स्थित सरकारी दामाद की रही। इसी कांग्रेस राज में जो आर्थिक- सामाजिक परिवेश मिला, उसमें कँवल भारती, बुद्ध शरण हंस, जय प्रकश कर्दम जैसे राष्ट्रीय स्तर के लेखकों के उदय का आधार बना। सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि मंडल और कमंडलवादियों के युग्म प्रयास से लोग यह भूल गए कि स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग धंधे हर मामले पर कारुणिक स्थिति में पड़े भारत में कांग्रेस ने एक सुखद बदलाव घटित कर दिया। इसी दौर में दलित पार्टियों ने नागनाथ और सांपनाथ की थ्योरी विकसित कर आजादी के बाद भारत निर्माण का असाधारण अध्याय रचने वाले कांग्रेस के मुकाबले देश-बेचवा भाजपा को कांग्रेस की बराबरी में खड़ा कर दिया। उनका यह अभियान आज भी जारी है।

सोनिया एरा में कांग्रेस ने सामाजिक न्याय के मोर्चे पर किया असाधारण काम

मंडलवादियों के अपप्रचार के दौरान बहुजन समाज के बुद्धिजीवी तक यह न बता सके कि मंडल उत्तरकाल में कांग्रेस को जितना भी अवसर मिला, सवर्णवादी पार्टी होकर भी इसकी भूमिका भाजपा की तरह वर्ग-शत्रु की न होकर वर्ग मित्र की रही। बहुजन बुद्धिजीवी आज भी बहुजनों के वर्ग मित्र के रूप कांग्रेस की भूमिका का आंकलन करने में पूरी तरह व्यर्थ हैं। सबसे कारुणिक बात तो यह रही कि सोनिया एरा में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में कंग्रेस ने सामाजिक न्याय का जो इतिहास रचा, उसे बहुजन बुद्धिजीवी वर्ग अज्ञानता वश समझने में पूरी तरह विफल रहे ही; कांग्रेस भी इसे अवाम के मध्य पहुँचाने का साहस न जुटा सकी। इसी दौर में कांग्रेसी दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में भोपाल से डाइवर्सिटी का क्रन्तिकारी विचार निकला, जिसके फलस्वरूप आज ठेकों, सप्लाई, डीलरशिप, मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में आरक्षण लागू होने के साथ बहुजनों में संख्यानुपात में हर क्षेत्र में हिस्सेदारी की आकांक्षा पनपी। इसी दौर में वाजपेयी के विनिवेश नीति पर अंकुश लगाने के साथ उच्च शिक्षा में ओबीसी को आरक्षण मिला।  इसी दौर में 2012 में ओबीसी को पेट्रोलियम प्रोडक्ट के डीलरशिप में आरक्षण मिला। इसी दौर में मनमोहन सिंह ने अमेरिका के डाइवर्सिटी पैटर्न पर निजी क्षेत्र में आरक्षण देने का बलिष्ठ प्रयास किया। इस दौर में दलित-आदिवासियों को एमएसएमई के प्रोडक्ट की सप्लाई में 4% आरक्षण मिलने के साथ राजीव गाँधी फ़ेलोशिप मिलना शुरू हुआ, जिससे भारी संख्या में एससी-एसटी वर्ग के युवाओं को कॉलेज/ यूनिवर्सिटीओं में शिक्षक बनने का मौका मिला। सोनिया एरा के इसी काल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 23 पीएसयू का निर्माण करने के साथ 6 एम्स और 8 आईआईटी और 202 केन्द्रीय विद्यालय की स्थापना किये। सोनिया एरा में ही कई कांग्रेस शासित राज्यों में उस पुरानी पेंशन व्यवस्था की बहाली हुई, जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 में ख़त्म कर दिया था।

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काँग्रेस को सोचना पड़ेगा कि लड़ने के मौके पर आरामतलबी खतरनाक होती है

उपरोक्त तथ्य स्पष्ट गवाही देते हैं कि सोनिया एरा में बिना सामाजिक न्याय का ढिंढोरा पीटे, इस दिशा में बड़ा काम हुआ है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सोनिया के ज़माने में कांग्रेस की प्रायः समस्त गतिविधियाँ सामाजिक अन्याय का शिकार रहे भारत के जन्मजात वंचितों, दलित ,आदिवासी और पिछड़ों को शक्ति के स्रोतों में उनका प्राप्य दिलाने पर ही केन्द्रित रही। अब यदि यह पता लगाने का प्रयास हो कि सोनिया एरा में कांग्रेस की अघोषित सामाजिक न्यायवादी नीतियों से सर्वाधिक लाभान्वित होने वाला वर्ग कौन रहा तो उत्तर होगा, दलित और आदिवासी, जो हिन्दू धर्माधारित वर्ण- व्यवस्था उर्फ़ हिन्दू आरक्षण के आज भी सामाजिक अन्याय के दलदल में बुरी तरह फंसे हुए हैं और जिन्हें भाजपा गुलामों की स्थिति में पहुचाने में सारी शक्तियाँ लगा दे रही है। बहरहाल लम्बे समय से सामाजिक न्याय की खुली घोषणा न करने वाली कांग्रेस की भूमिका अघोषित रूप से एक प्रो- सामाजिक न्यायवादी दल की रही है। किन्तु सामाजिक न्याय की दिशां में लम्बे समय से सकारात्मक काम कर रही, काग्रेस की सामाजिक न्यायवादी भूमिका का देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री इत्यादि बुरी तरह अनदेखी करते रहे।  ऐसे में इन अंधों की आँखें खोलने के लिए कांग्रेस ने फ़रवरी, 2023 के शेष में आयोजित अपने 85वें अधिवेशन में सामाजिक न्याय का पिटारा खोलने के मन बनाया। रायपुर से सामाजिक न्याय की राजनीति का जो पिटारा खुलने के बाद जिस तरह राहुल गांधी ने कर्नाटक  चुनाव को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित कर भाजपा को गहरी शिकस्त दिया, जिस तरह जाति-जनगणना कराकर जितनी आबादी-उतना हक़ लागू करने का संकल्प लिया, उससे आज वह सामाजिक न्याय के राजनीति के नए आइकॉन बन चुकें हैं, पर भारी अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि खुद कांग्रेस के प्रवक्ता तक राहुल गांधी की सामाजिक न्यायवादी छवि को सामने लाने का आत्म-विश्वास संचय नहीं कर पाए हैं। इसका कारण यही है कि वे सामाजिक न्याय के मोर्चे पर कांग्रेस की अनुकरणीय भूमिका की उपलब्धि करने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए जरुरत इस बात की है कि कांग्रेस के नेता बाकी काम छोड़कर देश के नवनिर्माण; दलित-बहुजनों के उत्थान तथा सामाजिक न्याय के मोर्चे पर कांग्रेस की भूमिका को समझने तथा उसे जनता के बीच ले जाने में सर्वशक्ति लगायें। जिस दिन देश के युवा तथा दलित, अदिवासी,पिछड़े तथा अल्पसंख्यक समुदाय के लोग कांग्रेस की भूमिका को ठीक से समझ लेंगे, उस दिन कांग्रेस खुद के बूते सत्ता पर काबिज हो जाएगी।

 

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