Saturday, December 27, 2025
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भिखारी ठाकुर के अथक राही, अन्वेषक, संपादक और आश्रम के संस्थापक महामंत्री रामदास   

रामदास राही के जीवन का सबसे बड़ा हासिल भिखारी ठाकुर थे। उन्होंने आजीवन उनके बारे में खोज की। उनकी बिखरी रचनाओं को इकट्ठा किया, सँजोया और संपादित किया। जिससे भी मिलते उसको भिखारी ठाकुर के बारे में इतनी बातें बताते कि उसके ज्ञान में कुछ ण कुछ इजाफ़ा करते। सच तो यह है कि रामदास राही ने जीवन भर भिखारी ठाकुर की पूजा की। अगर वह थोड़े चालाक होते तो भिखारी ठाकुर के नाम पर कोई एनजीओ खड़ा करते और बड़ी गाड़ियों से चलते लेकिन उनका तो सिर्फ इतना सपना था कि किसी तरह भिखारी ठाकुर पर एक किताब और छप जाये। कल यानि 4 दिसंबर को उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया। बनारस में उनके बहुत प्रिय रहे अध्यापक और कवि दीपक शर्मा उनके यहाँ आने पर गाँव के लोग के दफ़्तर में ले आते। राही जी अद्भुत व्यक्ति थे और उनसे बात करना हमेशा सुखद रहा। उनके प्रयाण पर पेश है दीपक शर्मा का श्रद्धांजलि लेख।

अभिनेता धर्मेन्द्र के प्रयाण पर उनकी फिल्मों पर कुछ बातें

वरिष्ठ कथाकार ज्ञान चतुर्वेदी का उपन्यास बारामासी एक परिवार के बहाने समय के बदलने की भी एक कहानी कहता है। उपन्यास के अंतिम दृश्य में गुच्चन के बेटे के कमरे का दृश्य है जिसमें धर्मेंद्र का एक पोस्टर लगाए लगा हुआ है। वह उस पोस्टर को उखाड़कर फेंक देता है और उसकी जगह एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन का पोस्टर लगाता है। यह समाज के बदलते ट्रेंड का रूपक है। अब नायकों के चरित्र में व्यवस्था और उसकी संरचना के खिलाफ एक गुस्सा जरूरी है ताकि नई पीढ़ी का मानस उसके साथ तादात्म्य बैठा सके और अपने कर्मों को जायज़ बना सके। धर्मेंद्र ने सत्तर के दशक के आदर्शवादी युवाओं के चरित्र को साकार किया जिसे हम नमक का दारोगा कह सकते हैं लेकिन बदलती अर्थव्यवस्था और सत्ता तंत्र ने अलोपीदीनों की दुनिया में नमक के दरोगाओं को पचा लिया और हर तरह के षडयंत्रों में महारत हासिल कर लिया है जिनसे लड़ने का माद्दा केवल एंग्री यंगमैन में है। ज़ाहिर है समाज और सिनेमा की अन्योन्यश्रित चेतना में धर्मेंद्र की प्रासंगिकता खत्म हो गई थी। पढ़िये अभिनेता धर्मेंद्र को श्रद्धांजलि देते हुये कवि और सिनेमा के अध्येता राकेश कबीर का यह लेख।

जुबीन गर्ग : लोक का दुलारा और अपना कलाकार जिसे भूल पाना असंभव है

जुबीन गर्ग को गए हुए 23 दिन बीत गए हैं। आज भी आसाम के किसी भी हिस्से में चले जाइए, हर तरफ़ बस जुबीन ही मौजूद हैं। उनकी याद में तमाम कार्यक्रम हो रहे हैं और उनको श्रद्धांजलि अर्पित की जा रही है। सोनापुर में उनकी समाधि पर कामाख्या मंदिर के बाद सबसे ज़्यादा लोग इकट्ठा हो रहे हैं और मुझे लगता है कि कुछ महीनों में ही यह एक तीर्थस्थल जैसा बन जाएगा। सचमुच यह प्यार, यह भावना अकल्पनीय है और नेपाल, भूटान तथा बांग्लादेश में भी लोग दर्द में डूबे हुए हैं। हम लोगों ने उनकी याद में पासीघाट, अरुणाचल प्रदेश, में भी पेड़ लगाए और वहाँ के लोगों ने इसमें बढ़कर भाग लिया। स्थानीय लोग तो मानते ही नहीं हैं कि ऐसा हुआ है, कहीं कहीं पोस्टर पर उनकी जन्मतिथि तो लिखी है लेकिन उसके बाद अंतिम तिथि की जगह हमेशा के लिए लिखा है। पढ़िये गुवाहटी से विनय कुमार का आँखों देखा हाल ..

नवयान दर्शन की प्रासंगिकता की पड़ताल करती एक किताब

एकदम सरल, व्यवहारिक, रोचक, किंतु तर्कशील और सकारात्मक अंदाज़ में लिखी रत्नेश कातुलकर की पुस्तक नवयान दर्शन : बुद्ध की शिक्षाओं का आधुनिक विवेचन, बौद्ध धर्म से जुड़ रहे नए पाठकों को धम्म की जानकारी मिलेगी।

वाराणसी : केदार यादव के लोरिकी गायन ने श्रोताओं का मन मोहा

लोकविद्या जनांदोलन और गाँव के लोग ने लोकगायन और प्रदर्शनकारी कलाओं के प्रस्तुतिकरण की दिशा में पहला कार्यक्रम सारनाथ में आयोजित किया। कार्यक्रम शृंखला की पहली प्रस्तुति चनैनी गायक केदार यादव ने लोरिकी गाकर दी। हर महीने होने वाला यह आयोजन लोककलाओं के माध्यम से जनता से संवाद बनाने की दिशा में एक प्रयास होगा।

अभिनेता ही नहीं, सामाजिक आंदोलनकारी भी थे नीलू फुले

नीलू फुले के पूर्वजों में महामना जोतीराव फुले और माता सावित्रीबाई फुले सबसे उल्लेखनीय हैं लेकिन वास्तव में नीलू फुले परिवार के उस हिस्से से ताल्लुक रखते थे जिसने आजीवन जोतीराव फुले का विरोध किया। वे सिनेमा में काम जरूर करते थे लेकिन उनका दिल समाज के लिए धड़कता था। वे आजीवन राष्ट्रसेवा दल के साथ रहे लेकिन बाद के दिनों में कुछ उपेक्षित महसूस करने लगे थे। मैं जब भी उनसे मिला या बात करता उनमें वही जज़्बा और जोश होता जो जवानी के दिनों में होता था। वे हर व्यक्ति के मददगार मित्र थे।

श्रद्धांजलि : ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा में याद किए गए प्रो. चौथीराम यादव

हिन्दी आलोचना को एक नयी धारा 'अम्बेडकरवादी-मार्क्सवादी' प्रो चौथीराम यादव की ही बदौलत मिली। वे आलोचना को नए ढंग से प्रस्तुत करते थे। वे आलोचना को सिर्फ साहित्य से ही नहीं, बल्कि समाज से जोड़कर देखते थे। काशी हमेशा कबीर के बाद प्रो चौथीराम यादव को याद करेगी।

प्रोफेसर चौथीराम यादव : वंचितों के व्याख्याता का महाप्रयाण

हिन्दी के शीर्षस्थ आलोचक और धुरंधर वक्ता प्रोफेसर चौथीराम यादव का महाप्रयाण बहुजन आंदोलन और साहित्य के लिए बहुत बड़ी क्षति है। वह अपने दौर के शानदार अध्यापकों में रहे हैं जिनकी याद उनके विद्यार्थियों को आज भी रोमांचित करती है। उन्होंने बड़े पैमाने पर लोगों के दृष्टिकोण को उन्नत किया जिससे आज हज़ारों लोग साहित्य के इतिहास और लोकधर्मी प्रतिरोध की परंपरा को व्यापक बहुजन समाज की मुक्ति की कसौटी पर देख रहे हैं। छद्म बुद्धिजीवियों की बढ़ती कतार के बरक्स प्रोफेसर चौथीराम यादव की उपस्थिति हमेशा एक जन-बुद्धिजीवी की उपस्थिति की आश्वस्ति देती रही है।

मिर्ज़ापुर : शायर की क़ब्र पर उगी घास और समय की मांग से बाहर होती जा रही मिर्ज़ापुरी कजरी

उत्तर प्रदेश के लोकगायन में बहुत चर्चित विधा है कजरी। कजरी की बात होने पर मिर्ज़ापुरी कजरी और लोककवि बप्फ़त का नाम आना सहज है। दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। आज भले ही कजरी गायन की रौनक कम हो रही है लेकिन कजरी लेखक बफ़्फ़्त की लिखी कजरी आज भी गाई और सुनी जाती हैं। बेशक उनकी कब्र वीरान पड़ी है, उन्हें याद करने वाले कम हो गए हों लेकिन जब-जब कजरी की बात होगी बप्फ़त की याद जरूर आएगी।

बनारस के मनोज मौर्य की बनाई जर्मन फिल्म ‘बर्लिन लीफटाफ’ फिल्म समारोह की बेस्ट फीचर फिल्म बनी

मनोज मौर्य एक युवा फ़िल्मकार हैं। गाजीपुर में जन्मे और बनारस में पले-बढ़े मनोज अपने को बनारसी कहने में फख्र महसूस करते हैं। लंबे समय से मुंबई में रह रहे मनोज की इस वर्ष दो फीचर फिल्में , हिन्दी में 'आइसकेक' और जर्मन में 'द कंसर्ट मास्टर' रिलीज हो रही हैं। 'द कंसर्ट मास्टर' बर्लिन सहित अनेक फिल्म समारोहों में दिखाई गई और तगड़ी प्रतियोगिता करते हुये बेस्ट फीचर फिल्म नामित हुई।

जनवादी लेखक संघ की ओर से सुप्रसिद्ध आलोचक चन्द्रबली सिंह की जन्म-शताब्दी मनाई गई

चंद्रबली सिंह का कहना था कि कविता मानव-मुक्ति के लिए संघर्ष करना सिखाती है। समाज की तरह साहित्य में भी सुंदर और असुंदर की लड़ाई सदा से रही है। कभी-कभी ऐसे दौर भी आते हैं,जब असुंदर की जीत होती है, लेकिन सुंदर का पक्षधर होने के कारण साहित्य और कला जीवित रहते हैं।
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