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विद्रोही का आक्रोश छाती पीटने वाला आक्रोश नहीं है

वह मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से शीर्षक कविता के माध्यम से स्त्री-अस्मिता के सवालों से साहस के साथ टकराते हैं। वह दिखलाते हैं कि जिन साम्राज्यवादी सभ्यताओं पर हम गर्व करते हैं वह स्त्रियों और आम इंसानों की लाशों पर खड़ी हुई हैं। वह एक तरह से दुनिया की सारी सभ्यताओं को कटघरे में खड़ा करते हुए सवाल उठाते हैं कि आखिर क्या बात है कि हर सभ्यता के मुहाने पर औरत की जली हुई लाश और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियाँ मिलती हैं। यह अमानवीयता केवल मोहनजोदड़ों तक सीमित नहीं है; यह बेबीलोनिया से लेकर मेसोपोटामिया तक, सीथिया की चट्टानों से लेकर सवाना के जंगलों तक फैली हुई है।

विगत दिनों प्रोफेसर चौथीराम यादव ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके जाने से बहुजन वैचारिकी का एक योद्धा विचारक और वक्ता चला गया। वे ऐसे धुरंधर वक्ता थे जिन्होंने अपनी जिंदगी के अंतिम दिन तक सोचा और लिखा। उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप युवा कवि रामबचन यादव द्वारा उनसे जनकवि रमाशंकर विद्रोही के व्यक्तित्व और कृतित्व पर की गई  बातचीत पुनः प्रकाशित की जा रही है। 

आप विद्रोहीजी और जेएनयू के बीच संबंध को किस रूप में देखते हैं?
देखिए, उनके कविता संग्रह नयी खेती के प्रकाशन से पहले मैं उनके बारे में बहुत अधिक नहीं जानता था। हाँ! नाम जरूर सुना था और जेएनयू के कुछ छात्रों द्वारा उनके कवि व्यक्तित्व की प्रशंसा भी सुनी थी। यू-ट्यूब पर मैंने उनकी कुछ कविताएँ सुनीं। याद में जब नयी खेती संग्रह प्रकाशित हुआ और उनकी कविताओं को मुकम्मल पढ़ा तो अंचभित रह गया। आज का एक ऐसा कवि जो मुझे कबीर का सच्चा वारिस लगा। उनकी कविता में एक व्यापक विश्व-दृष्टि मिलती है। खैर यह सही है कि वह कहा करते थे कि ‘गंगा ढाबे पर नूर बरसाता है।’ लेकिन यह कहने के पीछे उनका क्या मतलब रहा होगा यह भी जानना जरूरी है। इसे लेकर मैंने अपने लेख में लिखा भी है। नयी खेती के दोनों संपादक – बृजेश यादव और प्रणय कृष्ण ने भी इस प्रसंग पर विस्तार से भूमिका में लिखा है।
विद्रोहीजी की कविताओं से गुजरते हुए मुझे जो लगा उसके आचार पर कह सकता हूँ कि मौत का बिस्तर बिछाकर/जलते हुए समंदर की बड़वाग्नि में विद्रोही की कविता का लोकल है तो गंगा ढाबा उसका एक प्रकार से भाष्य है। यह जेएनयू और जेएनयू का गंगा ढाबा ही है जिसने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा है, माँजा है और एक पराजित योद्धा को विकट और अपराजेय बना दिया है। गंगा ढाबे पर नूर क्यों बरसता है यह जेएनयू में रहने वाला छात्र ही जान सकता है। कारण यह है कि यह अकादमिक विमर्श का एक ऐसा अनुभव है जिसे दूसरे लोग नहीं समझ सकते हैं। उसकी तासीर का अनुभव यही कर सकता है जो उस वैचारिक विमर्श में कभी शामिल हुआ हो। गंगा ढाबा कोई चाय की दुकान पर गपशप करने का अड्डा नहीं है बल्कि वह वाद-विवाद और अन्तर्राष्ट्रीय संवाद का केन्द्र है। वहाँ पर बैठकर छात्र तमाम तरह के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, सांस्कृतिक मुद्दों और ज्वलंत समस्याओं पर सार्थक बातचीत करते हैं। इस तरह विद्रोही के सृजनात्मक व्यक्तित्व के निर्माण में गंगा ढाबे की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ऐसे में उनका कहना है कि ‘गंगा ढाबे पर नूर बरसता है’ बिल्कुल जायज है। मैं तो यह भी कहता हूँ कि इसकी शिनाख्त करने वाले कवि विद्रोही के चेहरे पर भी नूर बरसता है।
जिस जेएनयू से विद्रोही को इतना गहरा लगाव था और जेएनयू को वैचारिक रूप से भारत सबसे समृद्ध विश्वविद्यालय माना जाता है, वहाँ उनके साथ भेदभाव भी किया गया।
यह सत्य बात है कि विद्रोहीजी के साथ जेएनयू के कुछ प्रोफेसरों ने भेदभाव किया और उनके द्वारा विद्रोहीजी का करियर खराब करने की कोशिश की गई। आप देखें तो वर्तमान समय में वंचित समाज के छात्रों के साथ लगभग सभी विश्वविद्यालयों में भेदभाव हो रहा है। उन्हें शिक्षा से वंचित करने का पूरा षड्यंत्र चल रहा है। उन्हें आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया जा रहा है। आप रोहित वेमुला से जोड़कर इसे देख सकते हैं। विद्रोहीजी के साथ भी ऐसी ही साजिश की गई थी। कहा जा सकता है कि विद्रोही को वंचित समाज का तेज छात्र होने की सजा मिली। बृजेश यादव ने नयी खेती काव्य संग्रह की भूमिका में दु:ख प्रकट करते हुए कहा भी है कि विद्रोही के अध्यापकों ने उनके साथ अच्छा सुलूक नहीं किया। मानना होगा कि उनके साथ भेदभाव किया गया-जो कि गैर इरादतन नहीं था। रमाशंकर को एमए प्रथम वर्ष के सभी आठ पेपर में लगातार ‘बी ओनली’ दिया गया। विद्रोही के ही कथनानुसार करियर खराब करने के मकसद से ऐसा किया गया है। इस भेदभाव के बावजूद जेएनयू से उन्हें गहरा लगाव था। वह इसलिए था कि भले ही वहाँ के अध्यापकों ने उनके साथ भेदभाव किया, किन्तु यहाँ के छात्रों ने इनकी बौद्धिक प्रतिभा का पूरा सम्मान किया। इन्हें और इनकी कविताओं से प्यार किया। सम्मान दिया विद्रोही को वहाँ के छात्रों ने ज़िंदा रखा। जहाँ इस भेदभाव ने उनके अंदर प्रतिरोध के भाव को जन्म दिया वहीं जेएनयू के छात्रों ने उनके अंदर प्रेम को ज़िंदा रखा। जेएनयू की प्रकृति ने भी उन्हें अपना समझकर संभाला। वह तो एक कविता में वहाँ के जामुन के बिना न रह पाने की बात करते हैं –
जेएनयू में जामुन बहुत होते हैं
हम लोग तो बिना-जामुन के
न जेएनयू में रह सकते हैं
न दुनिया में ही रहना पसंद करेंगे।

विद्रोहीजी को वाचिक परंपरा का कवि कहा जाता था। वे कविता लिखते नहीं थे, कविता बोलते थे। उनके इस कवि व्यक्तित्व को आप किस रूप में देखते हैं?
असल में विद्रोही वाचिक परंपरा के ही कवि हैं। जैसे कबीर कविता लिखते नहीं थे, कविता कहते थे, कविता बोलते थे। ठीक वैसे ही विद्रोही कविता लिखते नहीं, कविता कहते हैं, कविता बोलते हैं। जिस तरह कबीर की बानियों का संग्रह, संपादन संत धर्मदास ने किया, उसी तरह आलोचक प्रणय कृष्ण और बृजेश यादव ने विद्रोहीजी की कविताओं का लिप्यंतरण कर संग्रह व संपादन किया। विद्रोही लिख सकते थे लेकिन उन्होंने लिखा नहीं। लिखने और छपने-छपवाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। विद्रोही के मानस पटल पर जो कविताएँ बनती थीं उनको बोलते जाते थे। जन-गण-मन, औरत, धर्म या मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से जैसी लंबी कविताएँ वे जबानी बोलते थे। ये इन कविताओं को बड़े ही सहज भाव से पढ़ते जाते थे। आपने यू-ट्यूब पर तो देखा ही होगा। इस तरह की स्मृति रखने वाले कवि आज के समय में न के बराबर हैं। विद्रोही ही यह विशेषता उन्हें कबीर से जोड़ती है। दूसरे अक्खड़ता, फक्कड़पन, मस्ती भरा जीवन जीने की दृष्टि से भी रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ कबीर जैसे मलंग के जितने निकट प्रतीत होते हैं, उतना कोई दूसरा नहीं। उनका प्रतिरोधी तेवर, अदम्य साहस और विद्रोही व्यक्तित्व भी उन्हें कबीर के निकट खींच लाता है। एक तरह से विद्रोही कबीर के सच्चे वारिस हैं।
विद्रोही के लिए कविता क्या है?
प्रेमचंद ने कहा है कि साहित्यकार मजदूर की तरह है। जब तक वह कुछ लिख नहीं लेता उसे सोने का हक नहीं है। प्रेमचंद यही कहना चाहते हैं कि साहित्यकार का कर्म होता है ईमानदारी से लेखन कार्य करना। अगर वह इससे जी चुराता है तो फिर वह लेखक नहीं है। ठीक ऐसे ही विद्रोही कविता करने को अपना कर्म समझते हैं। वह टाइमपास के लिए कविता नहीं लिखते वह उसे अपना पेशा समझते हैं। अपने कवि-कर्म पर उन्हें बहुत ही गर्व है। कवि-कर्म शीर्षक कविता में वह कहते हैं
जब कवि गाता है
तब भी कविता होती है
जब कवि रोता है
तब भी कविता होती है
कर्म है कविता
जिसे मैं करता हूँ।
फिर आता हूँ आपके सवाल पर कि विद्रोही के लिए कविता क्या है? वैसे इस सवाल का जवाब आपको उनकी कविताओं में मिल जाएगा। उनकी नज़र में कविता क्या है, इसे जानने के लिए आप कविता और लाठी या परिभाषा जैसी कविताओं को पढ़कर समझ सकते हैं। हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल या हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर बाद तक के आलोचकों ने कविता को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। हिन्दी कविता में भी हिन्दी के प्राचीन कवियों से लेकर समकालीन कवियों तक कविता को अपने-अपने ढंग से समझने की एक लंबी परंपरा रही है। धूमिल ने कविता की अनेक परिभाषाएँ दी हैं। लेकिन इन सबके बरक्स विद्रोही की परिभाषा शास्त्रीयता और आलंकारिक शब्दों के वाग्जाल से बिल्कुल मुक्त है। वह बहुत ही सहज-सरल शब्दों में कविता को परिभाषित करते हैं जिसे आम आदमी भी समझ सकता है। ऐसा इसलिए भी है कि वह किसानी जीवन जीने वाले कवि हैं। उनके लिए खेती करने और कवि-कर्म करने में कोई अंतर नहीं है। विद्रोही को लोक जीवन की गहरी समझ थी। वह कविता को लोक की करुणा, त्याग और संघर्ष से जोड़ते हैं। परिभाषा शीर्षक से उनकी छोटी-सी कविता है जिसमें वह कहते हैं –
कविता क्या है
खेती है
बेटा बेटी है
बाप का सूद है
माँ की रोटी है

विद्रोही सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ व्यवस्था परिवर्तन की भी बात करते हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
देखिए, जो विद्रोही है वह व्यवस्था परिवर्तन का कवि ही होगा। विद्रोही उसका प्रतीक ही है। सीधे-सीधे रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ सत्ता परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन के कवि हैं। कई बार तो वह अपनी कविताओं में कबीर की तरह आक्रामक हो जाते हैं। जहाँ तक मुझे लगता है कि वंचित समाज से होने के कारण जेएनयू में उनके साथ जो भेदभाव हुआ उस भेदभाव ने उनके व्यक्तित्व को प्रभावित किया और उनके अंदर प्रतिरोध और प्रतिशोध के भाव को पैदा किया। आगे चलकर इसे वैचारिक आधार मिला मार्क्सवादी विचारधारा से। इतना ही नहीं विद्रोहीजी के साथ मुख्यधारा की हिन्दी आलोचना ने भी अलोकतांत्रिक व्यवहार किया। जिस तरह से कभी कबीर को हिन्दी साहित्य के इतिहास से बाहर करने की साजिश की गई वैसे ही साजिश विद्रोहीजी के साथ भी हुई। वह एक ऐसे कवि हैं जो मुख्यधारा के हिन्दी साहित्य में गुमनामी का जीवन जीने को अभिशप्त रहे हैं। ऐसा कवि आक्रामक ही होगा। डर मत! बढ़ चल, नयी दुनिया, इंकलाब चाहिए और तोड़ डालो मंदिरों को, फोड़ डालो मस्जिदें जैसी कविताओं को पढ़कर उनके आक्रामक और विद्रोही व्यक्तित्व को हम अच्छी तरह समझ सकते हैं। जो अदम्य साहस और प्रखरता विद्रोही में है हिन्दी के कुछ ही कवियों में देखने को मिलती है। मैंने विद्रोही जी पर केन्द्रित लेख में ऐसे साहसिक कवियों का जिक्र करते हुए लिखा भी है कि कविता के भीतर खतरनाक ढंग से प्रवेश कर जोखिम उठाने वाले जनवादी कवियों में नागार्जुन, पाश, मुक्तिबोध, धूमिल, वेणुगोपाल, आलोक धन्वा, गोरख पांडेय, वीरेन डंगवाल, महेश्वर तथा अंबेडकरवादी कविता में वरिष्ठ कवि मलखान सिंह, ओम प्रकाश वाल्मीकि, जयप्रकाश लीलवान, सीबी भारती, असंग घोष और पंजाबी दलित कवि लाल सिंह दिल के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्हीं में से एक नाम रमाशंकर विद्रोही का भी है।
रमाशंकर विद्रोही उस विचारधारा को अपनी कविताओं के जरिए आगे बढ़ा रहे थे जो समतामूलक समाज के निर्माण की वकालत करती है। फुले, अंबडेकर, पेरियार, भगत सिंह आदि आधुनिक विचारक और चिंतक जिस नए भारत को बढ़ाने में संघर्षरत थे। विद्रोही भी कुछ वैसा ही संकल्प लेकर चल रहे थे। हजारों साल से वर्चस्ववादी सत्ता के शिकार वंचित समाज के लिए वह नयी दुनिया बनाने की बात करते हैं। वह अच्छी तरह जानते हैं कि व्यवस्था परिवर्तन ही वह प्रक्रिया है, जिससे शोषण मुक्त समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। विद्रोही ईश्वर, धर्म, छल-कपट, पाप-पुण्य, शोषण-दमन, जातिवाद, अंधविश्वास से भरी दुनिया से अलग एक नई दुनिया बनाना चाहते हैं जहाँ केवल मनुष्य हों और मनुप्यता हो। बिल्कुल रैदास के सपनों की दुनिया ‘बेगमपुरा’ सरीखे। इस संदर्भ में मुझे उनकी कविता नयी दुनिया याद आ रही है जिसमें वह नयी दुनिया बनाने की बात करते हुए लिखते हैं –
खोद कर गाड़ दूँगा मैं भगवान को
रब्बियों नब्बियों का मैं सिर काट दूँगा
ये बहारों के दिन हैं महक लेने दो
अपने हक के लिए हमको लड़ लेने दो
भाड़ में जाए तेरी दुनिया खुदा
एक दुनिया नयी हमको गढ़ लेने दो।
जहाँ आदमी, आदमी की तरह
रह सके, कह सके, सुन सके, सह सके
मौत जाए बहक तो बहक जाने दो
ज़िंंदगी ताकि आगे वहक न सके।
विद्रोही धर्मसत्ता, राजसत्ता और पितृसत्ता के हिंसक चरित्र और बहुरूपिएपन का रेखांकन बड़ी ही सूक्ष्म दृष्टि से करते हैं। इन सत्ताओं द्वारा गढ़े गए मिथकों को ध्वस्त करते हुए वह स्वयं कुछ वैकल्पिक मिथक गढ़ते हैं। मिथकों के बरक्स मिथक गढ़ने के पीछे उनका क्या उद्देश्य हो सकता है?
धर्मसत्ता, पितृसत्ता और राजसत्ता के क्रूर चरित्र को विद्रोही ने जिस तरह से नंगा किया आज के जनवादी कवियों के लिए चुनौती है। बड़ा से बड़ा कवि इस साहस के साथ नहीं लिख पाया है। जिस तरह से वह औरत, धर्म, नयी खेती और मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से जैसी कविताओं के माध्यम से पितृसत्ता, धर्मसत्ता और राजसत्ता के वर्चस्व को तार-तार करते हैं, कोई जनवादी कवि नहीं कर पाया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे कवि अपने संस्कारों से उतना मुक्त नहीं हो पाए हैं। हाँ! कुछ जनवादी कवियों ने साहस दिखाया है लेकिन जो पीड़ा, व्यथा और आक्रोश विद्रोही के यहाँ है वह। इन कवियों के यहाँ नहीं हैं और हाँ, विद्रोही का आक्रोश छाती पीटने वाला आक्रोश नहीं है। यह आक्रोश वंचित समाज का आक्रोश है। वंचित समाज का आक्रोश छाती पीटने वाला आक्रोश नहीं है बल्कि हजारों सालों के शोषण, दमन, पीड़ा व यातना की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है। उस व्यथा को भोगे हुए व्यक्ति में ही इस तरह का सर्जनात्मक आक्रोश होगा। चूँकि विद्रोही वंचित समाज से थे और उन्होंने उस दंश को झेला था इसलिए उनके यहाँ यह देखने को मिलता है।
नयी खेती कविता धर्मसत्ता की जड़ें खोदने वाली कविता है। ईश्वर के खिलाफ इस तरह का विद्रोह विद्रोही ही कर सकते थे। दरअसल ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने सामंतवादी व्यवस्था को धरती पर जमा रखा है। वर्चस्व बनाए रखने के लिए उसने ईश्वर को आगे खड़ा कर दिया है। ईश्वर उस पूरी अमानवीय सत्ता-व्यवस्था का संरक्षक है। देवी-देवता उसके सहायक हैं। धर्म के इस पूरे खेल को विद्रोही अच्छी तरह समझते हैं। उन्हें पता है कि ब्राह्मणवादी संस्कृति चमत्कारिक संस्कृति है। इस संस्कृति ने ही दलितों, किसानों, मजदूरों व स्त्रियों को मानसिक गुलाम बनाया है। यही वंचित समाज ही इस ब्राह्मणवादी संस्कृति को जिंदा रखे हुए है। इनकी जमीन पर ही ईश्वर को रोपा गया है। यह ज़मीन किसानों की है। मजदूरों की है। दलितों की है। वंचित समाज की है। रमाशंकर विद्रोही उस जमीन पर जमे ईश्वर को उखाड़ फेंकने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वह नयी खेती कविता में लिखते हैं –
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता
मैं कहता हूँ कि
गेगले-गोगले
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो
दोनों में एक होकर रहेगा-
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।
विद्रोही की यह कविता कबीर के उलटबाँसियों की याद दिलाती है। बिल्कुल वैसे ही चमत्कृत करती है। एक अलग तरह के मिथकीय प्रतीक की संरचना कवि करता है। दरअसल ब्राह्मण संस्कृति ईश्वरीय चमत्कारों से चमत्कृत करने वाली संस्कृति है। यह पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का डर दिखाकर वंचित समाज को भयभीत करने वाली संस्कृति है। इसलिए इसके मिथकीय चमत्कारों के बरक्स वैकल्पिक मिथकीय प्रतीक गढ़ने की आवश्यकता है। विद्रोही ने वही किया है। वह ईश्वर के अस्तित्व का खंडन करने के लिए किसान संस्कृति के मिथ को चुनते हैं। विद्रोही किसान कवि हैं और किसान जीवन का मिथ है – खेती जोतना, बोना। वह दृढ़ संकल्पित है कि तुमने जो हमारी ज़मीन पर ईश्वर को जमा दिया है। अब हम अपनी ज़मीन जोतकर तुम्हारे ईश्चर को उखाड़ फेकेंगे। अब उस पर धान जमेगा। इस तरह उन्होंने आसमान में धान बोने का एक चमत्कारिक मिथ गढ़ा। लोगों ने कहा अरे पगले आसमान में कहीं धान जमता है; तो उन्होंने तार्किक जबाव दिया कि जब जमीन पर ईश्वर जम सकता है तो आसमान में धान भी जम सकता है। यह विकल्प है और चुनौती भी। उस चमत्कारिक ईश्वर को अपनी ज़मीन से उखाड़ फेंकने की चुनौती एक किसान कवि ही दे सकता है।

देखिए, ब्राह्मणवादी सत्ता व्यवस्था ने अपने वर्गीय हितों को पुष्ट और सुरक्षित रखने के लिए, जाति और वर्ण श्रेष्ठता को हमेशा बनाए रखने के लिए जो मिथ गढ़ रखे हैं उसके बरक्स वैकल्पिक मिथ गढ़ना पढ़ेगा। यह साहस कबीर ने किया। जैसे, जो ब्राह्मणवादी उक्तियाँ हैं, प्रतीक हैं या उसके मिथक हैं कबीर की उलटबाँसियाँ उसका वैकल्पिक मिथक प्रतीक हैं। उसी तरह विद्रोही भी अपनी कविताओं में वही विकल्प तलाशते हैं। यह एक तरह से फुले का पुनर्पाठ है। जब तक इस तरह का विकल्प वंचित समाज के सामने नहीं आएगा तब तक उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था, धर्म और ईश्वर को चुनौती देना असंभव है। सबार्ल्टन लेखन के साथ इस तरह की पहल हुई और समाज में इसका प्रभाव भी पड़ा। उदाहरण के रूप में अगर हम देखें तो जैसे, महिषासुर का मिथक है। अब टूट रहा है। दुर्गा पूजा के विकल्प में बहुजन समाज के बहुत से लोग इसे महिषासुर की शहादत के रूप में मना रहे हैं। महिषासुर की छवि अब एक जननायक के रूप में सामने आ रही है। इस तरह से आज तमाम वैकल्पिक मिथ गढ़े जा रहे हैं।

प्रख्यात लोकधर्मी आलोचक चौथीराम यादव से विद्रोही के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बातचीत रामबचन यादव

रमाशंकर विद्रोही पूर्वजन्म और अवतारवाद जैसे मिथक को भी छिन्न-भिन्न करते हैं। हिन्दू धर्म के ठेकेदारों ने वर्ण और जाति-व्यवस्था को मजबूत और अकाट्य बनाने के लिए समय-समय पर पूर्वजन्म, भाग्यवाद, अवतारवाद जैसी अवधारणाओं का विकास किया। हिन्दू धर्म और वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा और जातिगत श्रेष्ठता को बनाए रखना ही अवतारवाद का प्रमुख उद्देश्य है। ईश्वर इस पूरे शोषण-तंत्र का रक्षक है। विद्रोही जानते हैं कि ईश्वर को चुनौती देना इतना आसान नहीं है। यह ईश्वर बड़ा चमत्कारिक है क्योंकि कभी वह सूअर का भेष बना लेता है तो कभी सिंह का। कभी कछुए के रूप में अवतरित होता है तो कभी और कोई रूप धारण कर लेता है। इस तरह वह ईश्वर के तमाम अवतारों को चुनौती देने के लिए गुरिल्ले का मिथ चुनते हैं। गुरिल्ले शीर्षक कविता के माध्यम से वह अवतारवाद के छद्म को तोड़ते हैं। यहाँ गुरिल्ला छापामार युद्ध के प्रतीक के रूप में भी आया है।
विद्रोही धर्मसत्ता के हर छल-छद्म को समझते हैं। अगर वह धर्मसत्ता के अमानवीय चरित्र को इतनी गहराई से न समझते तो उस पर इतना तार्किक प्रहार न कर पाते। ये सब बातें मैं इतने विश्वास से इसलिए कह रहा हूँ कि धर्म शीर्षक कविता के जो सूक्ति-वाक्य हैं उस पर बाकायदा शोध हो सकता है। धर्मसत्ता के क्रूर और अमानवीय चरित्र को तार-तार करने के लिए वे इन सूक्तियों को रचते हैं। उदाहरणस्वरूप आप कुछ सूक्तियों को देख सकते हैं, जैसे-
1. धर्म आखिर धर्म होता है जो सूअरों को भगवान बना देता है।
2. धर्म की किताबों में घासें गर्भवती हो जाती हैं।
3. बाभन का बेटा बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
4. किसान की गाय पुरोहित की घोड़ी होती है।
5. धर्म की भीख ईमान की गर्दन होती है।
6. अदालतों के फैसले पुरानी पोथियाँ करती हैं।
7. भुसुरों के गाँव में सारे बाशिंदे किरायेदार होते हैं।
8. ऊसरों को तोड़ती आत्माएँ नरक में ढकेल दी जाती हैं।

विद्रोही स्त्री-अस्मिता के सवालों को किस रूप में उठाते हैं?
देखिए, भारतीय समाज में सारी विषमता की जड़ कास्ट एंड जेंडर है। कास्ट के आधार पर मनुष्य को मनुष्य से बाँटा गया और जेंडर के आधार पर स्त्री के ऊपर पुरुष की श्रेष्ठता स्थापित की गई। विद्रोही इस विषमता को ही जड़ से खत्म करना चाहते हैं। सारी पीड़ा उनकी स्त्री की है। वह मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से शीर्षक कविता के माध्यम से स्त्री-अस्मिता के सवालों से साहस के साथ टकराते हैं। वह दिखलाते हैं कि जिन साम्राज्यवादी सभ्यताओं पर हम गर्व करते हैं वह स्त्रियों और आम इंसानों की लाशों पर खड़ी हुई हैं। वह एक तरह से दुनिया की सारी सभ्यताओं को कटघरे में खड़ा करते हुए सवाल उठाते हैं कि आखिर क्या बात है कि हर सभ्यता के मुहाने पर औरत की जली हुई लाश और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियाँ मिलती हैं। यह अमानवीयता केवल मोहनजोदड़ों तक सीमित नहीं है; यह बेबीलोनिया से लेकर मेसोपोटामिया तक, सीथिया की चट्टानों से लेकर सवाना के जंगलों तक फैली हुई है। स्त्रियों के प्रति विद्रोहीजी के मन में गहरी संवेदना है। वे स्त्रियों पर हुए अत्याचार को याद करते हुए बेचैन हो जाते हैं और उनका खून कलकलाने लगता है और कलेजा जलने लगता है। मोहनजोदड़ों की आखिरी सीढ़ी से कविता की ये पंक्तियाँ इस बात की गवाह है –
एक औरत जो माँ हो सकती है
बहन हो सकती है
बीवी हो सकती है
बेटी हो सकती है,
मैं कहता हूँ
तुम हट जाओ मेरे सामने से
मेरा खून कलकला रहा है
मेरा कलेजा सुलग रहा है
मेरी देह जल रही है
मेरी माँ को,
मेरी बहन को,
मेरी बीवी को
मेरी बेटी को मारा गया है
मेरी पुरखिनें आसमान में आर्त्तनाद कर रही हैं।

विद्रोही स्त्री-उत्पीड़न को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। व्यापक विश्वदृष्टि और प्रखर ऐतिहासिक बोध के कवि हैं विद्रोही। सभ्यता विमर्श के आईने में विद्रोही जैसा कवि ही स्त्रियों की पीड़ा को महसूस कर सकता है। औरत कविता की आखिरी पंक्तियों में भी आप इसे देख सकते हैं।औरत और मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से शीर्षक कविताओं में विद्रोहीजी ने जिस तार्किकता और संवेदना के साथ स्त्री-अस्मिता के सवालों को उठाया है वह जनवादी कवियों के लिए एक मिसाल है।

वह केवल विद्रोह के ही नहीं प्रेम के भी कवि हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
आपने ठीक ही कहा कि विद्रोही विद्रोह के साथ-साथ प्रेम के भी कवि हैं। मैं तो कहता हूँ कि विद्रोही प्रेम के अमर गायक हैं। उनका प्रेम इंकलाबी है। जब वह कहते हैं कि तेरी सूरत मेरी शिद्दत/ इंकलाबी बात है/ इश्क़ भी सुकरात है/ हुस्न पर हो इश्क़ का रंग/ इसको कहते इंकलाब तो इसे पढ़कर कौन उन्हें मानवीय प्रेम का अमर गायक नहीं कहेगा। हाँ! यह जरूर है कि विद्रोही का प्रेम औरों से भिन्न है। उनका प्रेम स्थूलता और मांसलता के प्रति विद्रोह है। मैं इक आग का दरिया है शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियों को पढ़ना चाहूँगा। वह पंक्तियाँ हैं –
मैं तुम्हें इसलिए प्यार नहीं करता
कि तुम बहुत सुंदर हो
और मुझे बहुत अच्छी लगती हो,
मैं तुम्हें इसलिए प्यार करता हूँ
कि जब मैं तुम्हें देखता हूँ
मुझे लगता है क्रांति होगी
तुम्हारा सौंदर्य मुझे
बिस्तर से समर की ओर ढकेलता है
और मेरे संघर्ष की भावना
सैकड़ों तो क्या
सहस्त्रों गुना बढ़ जाती है।
हम देख सकते हैं कि विद्रोही स्त्री को शक्तिके रूप में, प्रेरणा के रूप में देखते हैं। उनका प्रेम उन्हें बिस्तर से उठाकर समर की ओर ले जाता है। विद्रोही का यह औदात्य प्रेम ही आगे चलकर मानवीय प्रेम का रूप लेता है।

विद्रोही की भाषा को लेकर आप क्या टिप्पणी करना चाहेंगे?
देखिए, भाषा ही रचनाकार को ज़िंदा रखती है। कबीर, रैदास आज हमारे बीच इसलिए ज़िंदा हैं क्योंकि उनकी भाषा बहते हुए नीर के समान है। वह जनता की भाषा में ही अपनी बात कहते हैं। कबीर आदि कवियों की भाषा में जो रवानगी है वह लोकभाषाओं के कारण है। जो कवि अपनी मातृभाषा को आत्मसात करते हुए काव्य रचना करेगा उसकी खड़ी बोली बहते नीर के समान होगी। कवि विद्रोही में यह बात देखने को मिलती है। जटिल से जटिल विषय को लेकर वह जिस भाषिक रवानगी के साथ हिन्दी कविताएँ लिखते हैं, उसे अपढ़ से अपढ़ आदमी भी समझ सकता है। यह इसलिए है कि वह अवधी के उतने ही मँजे हुए कवि हैं। उनका लिखा जनि जनिहा मनइया जगीर माँऽऽगताऽ जनगीत अवधी में ही है। मजदूर जीवन को लेकर लिखा गया ऐसा जीवंत गीत आपको दूसरी भाषाओं में न के बराबर मिलेगा। यह विशेषता विद्रोही में इसलिए देखने को मिलती है क्योंकि वह मातृभाषा के एक सामर्थ्यवान कवि हैं।

आपको विद्रोहीजी की कौन-सी कविता सबसे ज्यादा पसंद है?
एक पाठक और आलोचक के तौर पर मुझे लगभग उनकी सारी कविताएँ पसंद हैं; लेकिन जिन कविताओं ने मुझे ज्यादा प्रभावित किया, बेचैन किया, उनमें नयी खेती, जन-गण-मन, औरत, धर्म, गुरिल्ले, मोहनजोदड़ों की आखिरी सीढ़ी से, नूर मियाँ का सूरमा, नयी दुनिया, कन्हई कहार, कविता और लाठी, इक आग का दरिया है, हमारी दुनिया, हमारी भैंस, हम गुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे तथा अवधी भाषा में लिखा गया जनजीत जनि जनिहा मनइया जगीर माँऽऽगताऽ आदि प्रमुख हैं।

रामबचन यादव जाने माने भोजपुरी कवि और अध्यापक हैं।

गाँव के लोग
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