मेरी एक मित्र हैं पटना की। स्त्री व प्रसूति रोग विशेषज्ञ चिकित्सक हैं। इसके अलावा वह संवेदनशील हैं तथा गैर-चिकित्सकीय विषयों को भी महत्व देती हैं। कल की ही बात है। उनसे बात हो रही थी तब एक जानकारी मिली कि जैसे मां को अपनी कोख में नौ महीने के लिए पालना कठिन होता है, वैसे ही जन्म लेने के बाद नौ महीने तक बच्चों को भी परेशानी होती है। बच्चों को लगता है कि वे अभी भी अपनी मां की कोख में ही हैं। यह समझने के लिए कि वह अब अपनी मां की कोख से बाहर निकल चुके हैं, उन्हें एक पीड़ादायक प्रक्रिया से गुजरना होता है। इसी दरमियान वे बोलना शुरू करते हैं। बोलने के पीछे एक मौलिक आवश्यकता भी होती है। यही बात उनके रोने के पीछे भी है। वे ऑक्सीजन की कमी को पूरा करने के लिए भी जोर-जोर से रोते हैं। नवजात बच्चों को ऑक्सीजन की अधिक आवश्यकता होती है। इसकी वजह यह कि तब तक उनका श्वास तंत्र इतना संक्षम नहीं होता।
तो मेरी मित्र के मुताबिक होता यह है कि इसी प्रक्रिया के दौरान वे बोलना भी शुरू करते हैं। इसमें सबसे पहले वे ऐसे शब्दों का उच्चारण करते हैं जिसके उच्चारण के लिए उन्हें अधिक जोर ना लगाना पड़े और ऑक्सीजन की अच्छी खुराक मिल सके। जैसे मां, पापा, दादा आदि।

मैं अपनी मित्र की बात का विश्वास करता हूं। अविश्वास की कोई बात भी नहीं। लेकिन इस संबंध में समाजशास्त्रीय अवधारणा क्या है? यही समझने की कोशिश कल देर रात कर रहा था।
एक किताब अभी दो दिनों पहले प्राप्त हुई। किताब का नाम है– गोंडवाना की जमापूंजी। यह अनेक लेखों का संग्रह है। इसका संपादन उषाकिरण आत्राम ताराम ने किया है। यह किताब व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए इसलिए भी खास है क्योंकि मेरा भी एक आलेख इसमें शामिल है। वजह यह कि मैं भी अपवाद नहीं हूं। अपना आलेख का अहसास अतिरिक्त खुशी तो देता ही है। वैसे इस किताब में गोंडवाना समाज के अनेक बुद्धिजीवियों जिनमें आचार्य मोतीरावण कंगाली, चंद्रलेखा कंगाली, सुन्हेर सिंह ताराम, माधव मरावी और जनार्दन गोंड आदि के अलावा गैर गोंड यथा महादेव टोप्पो, वासवी किड़ो, पूजा पवार आदि के आलेख भी शामिल हैं।
मोतीरावण कंगाली गोंडी साहित्य, इतिहास और संस्कृति के अलबेले अध्येत्ता रहे। उन्होंने अपना जीवन ही गोंडी भाषा, संस्कृति और अतिहास को समर्पित कर दिया था। उनका “कोया पूनेम दर्शन” पहले ही पढ़ चुका हूं, इसका अतिविश्वास था मुझे। इसलिए मैंने उनकी जीवनसंगिनी चंद्रलेखा कंगाली का आलेख पढ़ना चाहा। मैं उनके हिसाब से गोंडवाना को समझना चाहता था।
चंद्रलेखा कंगाली के आलेख में कुछ खास बातें मिलीं। पहली तो यह कि मनुष्यों का जन्म कोया से हुआ है। गोंडी भाषा में कोया का मतलब कोख है। उनके द्वारा दी गयी यह जानकारी मेरे लिए बेहद अहम है। वजह यह कि जिस धर्म को माननेवाले परिवार में मेरा जन्म हुआ है, वह तो मनुष्यों का जन्म ही एक पुरुष का मुख बतलाता है। हालांकि मैं इस बात में विश्वास नहीं करता कि कोई मुंह से बच्चे पैदा कर सकता है। बच्चे पैदा करने के लिए गर्भाशय का होना जरूरी है और उसका किसी के साथ हमबिस्तर होना जरूरी है। फिर ब्रह्मा ने जो बच्चे पैदा किये, उसका पिता कौन था, इस सवाल का जवाब हिंदू धर्म का किसी वेद, पुराण और स्मूतियों में नहीं मिलता।

जबकि गोंडवाना की मान्यता में इसका जवाब मिलता है कि मनुष्यों जन्म कोख से हुआ है। वह लिखती हैं– “गोंडी सार के अनुसार, यह पृथ्वी दो विभगों में विभाजित है। सूत्र चर खंडों का अंडोदीप और पांच खंडों का गंडोदीप। गोंडी मूल सूत्र के अनुसार पांच खंडों के संयुक्तिकरण से एक गंडा (संच) बनकर इस धरतीमाता (गंडोदाई) की रचना हुई। गंडोदाई के गोंडजीवों (संतानों) की पहचान एक गोंदोला (समुदाय) से होती है। गोंदोलावासी गोंडवाना की भूमि से गोंडवाना बना है। गोंएन्दाडी (डमरू) की आवाज से गोंडवानी (गोंडी भाषा) की उत्पत्ति हुई है। गोंदोलावासी गोंडीवानों की उत्पत्ति दाई (माता) के कोया (कोख) से हुई है। इसलिए उनको कोयावंशीय कहते हैं।”
आगे अपने आलेख चंद्रलेख कंगाली ने सूक्ष्मता से पूरे विमर्श को समझाया है कि वेन और पेन में क्या अंतर है तथा कोया पूनेम दर्शन क्या है। इन्हें पढ़ते हुए ऊर्जा संरक्ष्ण सिद्धांत की याद आती है जो यह कहता है कि ऊजा का कभी क्षय नहीं होता, बस उसका स्वरूप बदलता रहता है। कंगाली के मुताबिक जो मनुष्य जिंदा रहते हैं, वे वेन कहलाते हैं और जो मर जाते हैं वे पेन शक्ति बन जाते हैं। हिंदू मान्यताओं के हिसाब से कहें तो पेन का मतलब देवता। लेकिन हिंदू धर्म में देवता होने का अधिकार केवल ब्राह्मण वर्गों को है। अन्य किसी को नहीं।
दरअसल, कोई भी समाज कितना समृद्ध है, यह उसकी परंपराएं बताती हैं। गोंड समाज के इतिहास और परंपराओं की अनेक तहें हैं। कंगाली ही बताती हैं कि सृष्टि के 16 खंड हैं, जिनमें पृथ्वी के नौ खंड शामिल हैं। वह एक लोकगीत को उद्धरित करती हैं, जिसे मध्य भारत के इलाके मसलन छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना आदि में गाया जाता है।
पासारू धारू पिरथी नरूं खंड धरतीरो।
धरती मालिक संभू पिरथी मालिक पेनू रो।
कंगाली इसका अर्थ भी बताती हैं–
सोलह परत सृष्टि नौ खंड पृथ्वी जी।
धरती का मालिक संभू और सृष्टि का मालिक पेनू जी।
संभूशेक गोंडवाना में अहम मिथक हैं। मुझे हमेशा परेशानी होती है यह समझने में कि पारी कुपार लिंगो अैर संभूशेक की अवधारणा में अंतर क्या है। हालांकि जो प्रतीक चिन्ह इस्तेमाल किये जाते हैं, उनसे तो यही लगता है कि आर्यों ने गोंड समुदाय की परंपरा से शंभू यानी शंकर को चुराया है। डमरू का स्रोत भी गोंड समुदाय ही है।
बहरहाल, गोंड परंपरा, साहित्य और संस्कृति के अनेकानेक आयाम हैं। इन्हें समझने के लिए में गोंडवाना की जमापूंजी किताब मदद करेगी। उषाकिरण आत्राम सहित सभी लेखकों, जिन्होंने इसे एक थाती बनाया है, को बधाई।