बिहार के प्रसिद्ध गया ज़िले का कैशापी पुरानी डीह गांव इसका एक उदाहरण है। जिला मुख्यालय से 32 किमी और डोभी प्रखंड से करीब 5 किमी दूर इस गांव के छोटे स्तर के किसान कृषि संबंधी विभिन्न समस्याओं से परेशान हैं। इसका प्रभाव उनकी फसल पर पड़ रहा है। समय पर सिंचाई नहीं होने के कारण अक्सर छोटे स्तर के किसानों की फसल सूख जाती है। इससे उन्हें कृषि में लगातार घाटा का सामना करना पड़ रहा है। इस संबंध में 50 वर्षीय किसान सिकंदर पासवान कहते हैं कि ‘बिहार के अन्य ज़िलों की तुलना में गया गर्मी में सबसे अधिक गर्म और ठंड में सबसे अधिक ठंडा जिला होता है। इसका सीधा प्रभाव कृषि पर पड़ता है। हालांकि सावन (जुलाई-अगस्त) में वर्षा की पर्याप्त मात्रा कृषि संबंधी रुकावटों को दूर कर देती है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में बदलते पर्यावरण का प्रभाव कृषि पर भी पड़ने लगा है। अब पहले की तुलना में वर्षा कम या अनियमित होने लगी है। जबकि फसलों को समय पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है। लेकिन आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि सिंचाई का खर्च उठाया जा सके। इसकी वजह से फसल सूख जाती है। उसमें दाने ही नहीं लगते हैं। खेती में जितना पैसा लगाते हैं उससे कम आमदनी होती है। लगातार हो रहे घाटे से अब बच्चे खेती किसानी छोड़कर फैक्ट्रियों में मज़दूरी करने निकल रहे हैं।’
एक महिला किसान पार्वती पासवान कहती हैं कि ‘कृषि मेरे लिए घाटे का सौदा बन गया है। साहूकार से पैसे लेकर एक बीघा ज़मीन खेती के लिए लीज़ पर लिया था। सोचा था कि पूरी मेहनत से खेती करूंगी तो अच्छी फसल होगी, जिससे अच्छी आमदनी होगी और साहूकार का पैसा भी समय पर लौटा दूंगी। लेकिन सिंचाई की बेहतर व्यवस्था नहीं होने के कारण पूरी फसल सूख गई है। अब तो लागत का पैसा भी निकलना मुश्किल हो रहा है।’ वह कहती हैं कि अनियमित बारिश के कारण अब हर साल खेतों में सिंचाई आवश्यक हो गई है। इसके लिए पंप और डीज़ल का खर्च बहुत अधिक हो जाता है। यह हमारे पूरे बजट से बाहर की बात होती है। घर में पैसे का इंतज़ाम करने के लिए बेटा मज़दूरी करने सूरत की कपड़ा फैक्ट्री में काम करने चला गया है। गांव के एक अन्य किसान राधो पासवान की पत्नी राखी देवी कहती हैं कि उनके पास कृषि के लिए पांच कट्ठा ज़मीन है। लेकिन अब उनके पति खेती से अधिक मज़दूरी पर ध्यान केंद्रित करने लगे हैं। वहीं उनके दोनों बेटे भी कृषि का काम छोड़कर नोएडा की फैक्ट्री में काम करते हैं। वह कहती हैं कि ज़मीन पर सिंचाई की बेहतर व्यवस्था नहीं है। भाड़े पर सिंचाई के लिए पंप लाना पड़ता है। फिर उसमें डीज़ल भरवाने का खर्चा लगता है। इसके बाद भी यदि किसी कारण फसल खराब हुई तो सब कुछ बर्बाद हो जाता है। इसलिए बच्चों ने पहले ही खेती करने से मना कर दिया था। अब अकेले पति से खेती का काम नहीं हो पाता है. इसलिए वह भी मज़दूरी करने निकल जाते हैं।
पंचायत में दर्ज आंकड़ों के अनुसार अनुसूचित जाति बहुल कैशापी पुरानी डिह गांव में 633 परिवार आबाद हैं। जिनकी कुल आबादी लगभग 3900 है। इनमें करीब 1600 अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग परिवार रहता है। जो अधिकतर कृषि कार्यों से जुड़े हुए हैं। गांव में पासवान और महतो समुदायों की संख्या अधिक है। कुछ ही मकान उच्च जाति के लोगों की है। जो आर्थिक रूप से संपन्न होने के कारण बड़े पैमाने पर कृषि कार्यों से जुड़े हुए हैं। उन्हें सिंचाई से लेकर अनाज को मंडियों तक पहुंचाने की सभी सुविधा उपलब्ध है। जबकि बड़ी संख्या में आबाद अनुसूचित जाति के किसानों को कृषि से बहुत अधिक लाभ नहीं हो रहा है। इस संबंध में राजेंद्र पासवान कहते हैं कि कृषि से इतना अधिक घाटा होने लगा है कि अब वह इसे छोड़ने की सोच रहे हैं। उनके पास ज़मीन का छोटा टुकड़ा है, जिससे परिवार का गुज़ारा संभव नहीं हो रहा है। अब उन्हें बाजार से ही खाने के लिए अनाज खरीदना पड़ता है। वह कहते हैं कि जो लोग सिंचाई के लिए पंप की व्यवस्था करने में सक्षम हैं वह केवल अपने ही खेत में सिंचाई करते हैं। उनकी या उनके जैसे छोटे किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। वह बताते हैं कि समय पर बीज भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। वहीं सूखे का मुआवज़ा लेने ब्लॉक मुख्यालय जाते हैं तो अधिकारी यह कह कर उनका फॉर्म निरस्त कर देते हैं कि मुआवज़े की प्रक्रिया पंचायत के अंतर्गत आने वाले गांवों के किसानों को मिलता है जबकि कैशापी पुरानी डिह गांव को नगर परिषद में शामिल कर लिया गया है। इसलिए वह मुआवज़े के हक़दार नहीं हैं।
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कैशापी पुरानी डिह गांव बड़ी आबादी होने के कारण करीब 12 टोलों (बस्तियों) में विभाजित है। जिसमें पासवान टोला, महतो टोला और पोखरा टोला प्रमुख है। इसी पोखरा टोला में ज़मीन के छोटे से टुकड़े पर लहसुन का बीज लगा रही 60 वर्षीय कलपतिया कंवर बताती हैं कि उन्होंने यह ज़मीन बटइया (लीज़) पर लिया है। जिसमें होने वाली फसल का एक भाग ज़मीन के मालिक को अदा करनी होती है। वह बताती हैं कि उनकी काफी बड़ी ज़मीन थी। लेकिन कृषि में हो रहे लगातार घाटे, बेटी की शादी और पति के मृत्यु भोज में एक एक कर ज़मीन बिक गई। अब उनके दो बेटे कोलकाता जाकर कर मज़दूरी करते हैं जबकि वह बटइया पर ज़मीन का छोटा टुकड़ा लेकर उसमें लहसुन जैसी छोटी छोटी सब्ज़ियां उगाती हैं ताकि परिवार का भरण पोषण हो सके। वह बताती हैं कि उनके समुदाय की अधिकतर नई पीढ़ी कृषि कार्य से विमुख होकर रोज़गार के अन्य क्षेत्रों में पलायन करने लगी है। कलपतिया कहती हैं कि हम जैसे छोटे किसानों की कृषि में दयनीय हालत देखकर नई पीढ़ी भला इसमें अपना समय क्यों बर्बाद करे? बीज लगाने और सिंचाई करने से लेकर मंडियों तक पहुंचाने में इतनी समस्या है तो हम भी अब उन्हें कृषि से जुड़ने पर ज़ोर नहीं देते हैं।
वार्ड सदस्य राजेश भी मानते हैं कि कैशापी पुरानी डिह गांव में छोटे स्तर के किसानों के सामने कृषि एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। वह कहते हैं कि पिछले कुछ सालों से गांव में कृषि के लायक पर्याप्त वर्षा नहीं हो रही है। ऐसे में किसानों के लिए पंप के माध्यम से सिंचाई करना एकमात्र रास्ता रह जाता है। यदि किसान इसके माध्यम से सिंचाई नहीं करेंगे तो उनकी फसल सूख जाएगी। वह बताते हैं कि गया और उसके आसपास की ज़िलों और उसके गांवों में भूजल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। ऐसे में सिंचाई के लिए पंप में डीज़ल भी अधिक खर्च हो रहा है। जिससे छोटे किसानों की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा है। इसकी वजह से आर्थिक रूप से कमज़ोर किसान परिवार की नई पीढ़ी अब कृषि कार्य को छोड़कर रोज़गार की तलाश में दिल्ली, कोलकाता, पंजाब, मुंबई, सूरत और मुरादाबाद की फैक्ट्रियों में कारीगर के रूप में जाने लगी है। नई पीढ़ी का कृषि से विमुख होना चिंता का विषय है लेकिन यदि वह ऐसा नहीं करेंगे तो परिवार का पेट कैसे पालेंगे? राजेश कहते हैं कि सरकार की ओर से किसानों के हितों में मुआवज़े के साथ साथ कई योजनाएं भी हैं। लेकिन जागरूकता की कमी और अन्य कारणों से छोटे स्तर के ये किसान इसका लाभ नहीं उठा पाते हैं। इसके लिए कृषि विभाग को ब्लॉक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने की ज़रूरत है। आर्थिक रूप से कमज़ोर और छोटे स्तर के किसानों तक विभाग को पहुँचने की ज़रूरत है ताकि उन्हें समय पर मुआवज़े और अन्य ज़रूरी सहायता मिल सके. जिससे कि नई पीढ़ी में कृषि के प्रति उत्साह बढ़ना मुमकिन हो सकता है।
इस बार के बजट में देश के 400 जिलों में डीपीआई का उपयोग करते हुए खरीफ फसलों का डिजिटल सर्वेक्षण करने की बात भी की गई है। वहीं सब्जियों की सप्लाई चेन को मजबूत करने के लिए एफपीओ यानी फार्मर प्रोड्यूसर्स कंपनियों की मदद ली जाएगी। साथ ही स्टोरेज और मार्केटिंग पर फोकस करने की बात भी की गई है। बजट में वित्त मंत्री राज्यों के साथ भागीदारी करके खेती, किसानों के लिए डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर पर काम करने की भी घोषणा की है। इसके अतिरिक्त 6 करोड़ किसानों की जानकारी लैंड रजिस्ट्री पर लाने की घोषणा भी इस बजट में की गई। दरअसल भारत को कृषि प्रधान देश माना जाता है। देश का एक बहुत बड़ा वर्ग कृषि क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। कृषि का संबंध केवल खेत में अनाज उगाने तक ही सीमित नहीं होता है बल्कि खाद, बीज से लेकर इसे मंडी तक पहुंचाने और बाजार में बेचने से लेकर आम आदमी की रसोई तक जुड़ा होता है। यही कारण है कि केंद्र सरकार प्रतिवर्ष अपने वार्षिक बजट में कृषि पर विशेष फोकस करते हुए कई अहम घोषणाएं करती है। लेकिन बजट के ये फायदे ज़मीनी स्तर पर कैशापी पुरानी डिह जैसे देश के दूर दराज़ इलाकों के छोटे स्तर के किसानों को कितना मिल रहा है? इसके निगरानी की व्यवस्था भी होनी चाहिए ताकि नई पीढ़ी का रुझान कृषि की ओर फिर से बढ़ सके। (साभार-चरखा फीचर)