Tuesday, December 3, 2024
Tuesday, December 3, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारक्या एनडीटीवी को खरीदकर अडानी ने जनता की आवाज खरीद ली

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

क्या एनडीटीवी को खरीदकर अडानी ने जनता की आवाज खरीद ली

NDTV की लगभग 29 प्रतिशत हिस्सेदारी अडानी समूह ने ख़रीद ली है, ख़रीदने के लिए जो तरीक़ा अपनाया गया, उसे फ़िलहाल ग़लत कहा जा रहा है, मुमकिन है मामला कोर्ट में जाये, ऐसा होने पर फैसला किसके पक्ष में होगा, इसका अनुमान आप लगा सकते हैं। ये भी भारतीय न्याय व्यवस्था का अद्भुत विकास है […]

NDTV की लगभग 29 प्रतिशत हिस्सेदारी अडानी समूह ने ख़रीद ली है, ख़रीदने के लिए जो तरीक़ा अपनाया गया, उसे फ़िलहाल ग़लत कहा जा रहा है, मुमकिन है मामला कोर्ट में जाये, ऐसा होने पर फैसला किसके पक्ष में होगा, इसका अनुमान आप लगा सकते हैं। ये भी भारतीय न्याय व्यवस्था का अद्भुत विकास है कि हाई-प्रोफाइल केस के फ़ैसलों का आप अपने तौर पर अनुमान लगा लेते हैं, न्याय देने के मामले में पारदर्शिता का ये भी एक स्टेज़ है जिसका बहुत से लोग सम्मान करते हैं और जिससे बहुत से लोगों को सम्मान मिलता है।

NDTV बिक गया या बिक जाएगा, इन दोनों ही तरह की ख़बरों से सोशल मीडिया में अजीब-सी प्रतिक्रिया होती है, कुछ लोग ऐसे खुश हो जाते हैं जैसे उनकी अपनी ज़िंदगी में बहुत कुछ अच्छा हो गया है और इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे दुखी हो जाते हैं जैसे उनकी आख़िरी उम्मीद का क़त्ल कर दिया गया। दरअसल, ये दोनों ही तरह की प्रतिक्रियाएं हमारे समाज के बारे में बहुत कुछ कहती हैं। खुश होने वाले वो लोग हैं जो हर हाल में सत्ताधारी दल के साथ खड़े हैं, इनकी नौकरी चली जाए, इलाज के बिना घर में किसी की मौत हो जाये, बच्चों के लिए तालीम ख़रीदना इनकी औक़ात से बाहर की बात हो जाए, लेकिन सत्ताधारी दल के प्रति इनके प्रेम या यूँ कहें दीवानगी में कोई कमी नहीं आती।

प्रिंट मीडिया का तो पूरा कांसेप्ट ही यही है कि पत्रकार सूचनाओं पर काफ़ी शोध करके उन्हें प्रिंट के तल पर लाते हैं। इस तरह के मीडिया संस्थान पत्रकारों और दूसरे कर्मियों को तनख्वाह देते हैं, जिसका खर्च विज्ञापन से निकाला जाता है। लेकिन पिछले लगभग 40 सालों में ‘सबसे तेज़’ मार्का ख़बरों ने शोध के महत्व को नाकारा है, इसी तरह विज्ञापन रिश्वत में बदल गया और सूचनाओं की पवित्रता को भंग करने लगा।

इनके प्रेम का आधार न तो कोई उपलब्धि है और न ही ऐसी कोई उम्मीद जिसके पूरा होने पर इनके जीवन में कुछ अच्छा हो जाएगा, बल्कि एक धार्मिक समूह के प्रति इनकी नफ़रत ही इस प्रेम का आधार है, ये बड़ी अजीब बात है कि प्रेम का आधार नफ़रत हो। लेकिन जो लोग NDTV बिकने से दुखी हैं, उनके दुःख का कारण जेनुविन है, सूचना प्रसारण के सभी संसाधनों पर सत्ताधारी दल के समर्थक पूँजीपतियों के कब्ज़े के बाद NDTV और रवीश कुमार ‘निष्पक्ष या जनपक्ष’ सूचना के स्रोत बने हुए थे, अब ये इकलौता स्रोत भी जनता के विरुद्ध सत्ता के पक्ष में खड़ा हो जायेगा जैसा कि दूसरे चैनल कर रहे हैं या बंद हो जायेगा, लेकिन NDTV अपनी मौलिकता में तो अस्तित्व में नहीं रहेगा। हालांकि NDTV के अलावा रवीश कुमार स्वयं में भी एक ब्रांड बन चुके हैं और वो जब तक NDTV में हैं उनसे वाबस्ता उम्मीदें ज़िन्दा रहेंगी।

अडानी समूह आज इतना अमीर हो चुका है कि वो चाहे तो देश के सारे मीडिया संस्थान खरीद सकता है, उन्हें अपने गुणगान में लगा सकता है या बंद भी कर सकता है, इससे उसके ऊपर कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ेगा, लेकिन देश की जनता एवं नागरिक के तौर पर क्या हमें ऐसे मीडिया संस्थानों की ज़रुरत है जिन पर सरकारों का कब्ज़ा न हो और जो जनता की भी सुनें !

इस सवाल पर मुझे यकीन है कि सबकी राय अलग-अलग होगी, लेकिन सूचनाओं के महत्व पर ज़रूर सोचने की ज़रुरत है। अफ़सोस हमारे देश में अभी इस पर बहुत कम विचार हो रहा है जबकि आपके मोबाइल में ऐसे कम से कम 20 ऐप हैं जो आपकी सूचनाएँ ‘आपकी मर्जी’ से हासिल कर रहे हैं और उन्हें अपनी मर्जी से बेच रहे हैं, इन्हें कौन और कितने कीमत में खरीद रहा है, ये तो पता नहीं, लेकिन इतना तो साफ़ है कि आज सूचनाओं का बहुत महत्व है, इनका इस्तेमाल किसी घातक हथियार से भी घातक हो सकता है और इसका उल्टा भी। सूचनाओं को ज्ञान निर्माण के एक टूल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और इस टूल को भोथरा करके ज्ञान निर्माण के मार्ग को अवरुद्ध भी किया जा सकता है, यही नहीं ज्ञान को अंधविश्वास में भी बदला जा सकता है। सूचनाओं को कब्ज़ाने, उन्हें मनमाफ़िक ढालने और लक्षित लोगों को तक पहुँचाने में आज पहले के किसी भी समय से बहुत ज़्यादा ख़र्च किया जा रहा है।

यह भी पढ़ें…

कुछ यादें, कुछ बातें (डायरी 1 मई, 2022)

ये सूचनाओं का ही इस्तेमाल है कि आज पीले चेहरे, आक्रोश से भरे और मरियल से दिखने वाले हथियारबंद नौजवान धर्म मिटाने और धर्म बचाने निकलते हैं, जबकि इनकी ज़रुरत एक अदद नौकरी और दो वक्त का ढंग का खाना है, लेकिन ये रोटी और रोज़ी के लिए नहीं बल्कि धर्म की रक्षा के लिए अपने ही जैसे दूसरे धार्मिक समूहों से लड़ते हैं। ये लड़ते हैं, लड़ते जाते हैं और अमीर इन्हें बेख़ौफ़ लूटते रहते हैं।

यह लूट इतनी व्यवस्थित है कि बैंकों का लगभग 38 अरब डॉलर एक राजदुलारे पूँजीपति के पास क़र्ज़ के रूप में पहुँच जाता है और इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं होती, इतने रुपये से देश में एम्स के टक्कर के लगभग 140 अस्पताल खोले जा सकते हैं, यही नहीं पिछले लगभग 5 सालों में दस लाख करोड़ रुपया बट्टेखाते में चला गया है। सूचनाओं के विभिन्न स्रोतों पर कब्ज़ा इसीलिए ज़रूरी है कि राजसत्ता की मर्जी के बिना कोई सूचना आप तक न पहुँचे।

सूचनाओं से ही वो जनमत भी बनता है जो अपनी ज़रुरतों के आधार पर नहीं बल्कि धर्म और जाति के नाम पर उन्हें वोट देता है जो हत्या, बलात्कार जैसे अपराधों में शामिल होते हैं, लेकिन ये विडंबना ही है कि आज महिलाएं ही बलात्कारियों का टीका लगाकर स्वागत करती हैं।

रवीश कुमार के लिए फ़िक्रमंद लोग कह रहे हैं कि वो Youtube पर आ जाएँगे और फिर लाखों लोग उन्हें सुनेंगे, बिलकुल ऐसा हो सकता है और इससे कम से कम रवीश कुमार या उनके जैसे लोगों को रोज़ी-रोटी का कोई संकट नहीं होगा। लेकिन Youtube क्या मीडिया संस्थानों का विकल्प हो सकता है! आप गौर कीजियेगा कि Youtube पर भी जो लोग बोलते हैं वो भी अपना कंटेंट किसी प्रिंट मीडिया की दी हुई सूचनाओं के आधार पर ही तैयार करते हैं। अधिकतर यूट्यूबर अमूमन अकेले काम करते हैं, एक वीडियो बनाने के लिए अक्सर एक पूरा दिन लग जाता है और अगर कंटेंट ज़्यादा शोध की मांग करे तो कई दिन भी लग सकता है। ऐसे में Youtube मीडिया संस्थानों का विकल्प नहीं हो सकता।

अगोरा प्रकाशन की किताबें Kindle पर भी…

प्रिंट मीडिया का तो पूरा कांसेप्ट ही यही है कि पत्रकार सूचनाओं पर काफ़ी शोध करके उन्हें प्रिंट के तल पर लाते हैं। इस तरह के मीडिया संस्थान पत्रकारों और दूसरे कर्मियों को तनख्वाह देते हैं, जिसका खर्च विज्ञापन से निकाला जाता है। लेकिन पिछले लगभग 40 सालों में ‘सबसे तेज़’ मार्का ख़बरों ने शोध के महत्व को नाकारा है, इसी तरह विज्ञापन रिश्वत में बदल गया और सूचनाओं की पवित्रता को भंग करने लगा। ये सब तब हो रहा था जब सूचना संसाधनों पर सत्ताएं सीधे क़ाबिज़ नहीं हो रही थीं। लेकिन अब वक्त बदल रहा है। राजसत्ता, पूँजी सत्ता और धर्म सत्ता ने मिलकर लूट की जो अन्धेरदर्दी मचाई है उसके लिए ज़रूरी है कि जनता तक ‘व्यवस्थित एवं सकारात्मक’ सूचना ही पहुँचे, ये ‘देश हित’ में है, ‘देश हित’ से बड़ा कुछ भी नहीं, न लोकतंत्र, न जनमत, न न्याय और न आज़ादी। देशहित में NDTV बिकेगा, देशहित में देश के तमाम संस्थान बिकेंगे, देशहित में पूँजीपतियों की मर्जी से हुकूमत होगी और देशहित में लोग एक-दूसरे का गला भी काटेंगे, देशहित ही आज सर्वोपरि है। हाँ, कभी समय मिले तो ये ज़रूर जाँच लीजियेगा कि ‘देश’ क्या है और कौन है और इसी तरह ‘हित’ किसका सध रहा है?

सलमान अरशद स्वतंत्र पत्रकार हैं।

यह भी पढ़ें…

फासिस्ट और बुलडोजरवादी सरकार में दलित की जान की कीमत

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here