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विघटनकारी राजनीति का गंभीर परिदृश्य

कश्मीर फाइल्स का नकारात्मक प्रभाव इस साल (2022) अप्रैल में रामनवमी से लेकर हनुमान जयंती के बीच हुई घटनाओं ने देश को हिला कर रख दिया है। नफरत के बुलडोज़र ने अनेकानेक घरों के साथ-साथ हमारे संवैधानिक मूल्यों को भी ढहा दिया है। अब विघटनकारी राजनेता मस्जिदों में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को मुद्दा बना रहे […]

कश्मीर फाइल्स का नकारात्मक प्रभाव

इस साल (2022) अप्रैल में रामनवमी से लेकर हनुमान जयंती के बीच हुई घटनाओं ने देश को हिला कर रख दिया है। नफरत के बुलडोज़र ने अनेकानेक घरों के साथ-साथ हमारे संवैधानिक मूल्यों को भी ढहा दिया है। अब विघटनकारी राजनेता मस्जिदों में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को मुद्दा बना रहे हैं। जहां अधिकांश मुस्लिम संगठन अदालतों के निर्देशों का पालन करने को तत्पर हैं वहीं भाजपा और राज ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस), साम्प्रदायिकता को हवा देने पर आमादा हैं। एमएनएस ने सार्वजनिक स्थानों, विशेषकर मस्जिदों, के सामने हनुमान चालीसा का पाठ करने की धमकी दी है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद सन 1992-93 में मुंबई में हुए दंगों को भड़काने के लिए ‘महाआरती’ का अविष्कार किया गया था। इसी तर्ज पर हनुमान चालीसा को जूनून फैलाने का हथियार बनाया जा रहा है।

[bs-quote quote=”जो लोग नफरत और हिंसा का इस्तेमाल अपनी राजनीति को चमकाने और भारत को अधिनायकवादी, धर्म-आधारित राज्य में बदलने के अपने एजेंडा को हासिल करने के लिए करना चाहते हैं, उनके लिए यह फिल्म एक वरदान बन कर आई है। इस फिल्म की उन लोगों ने आलोचना की है जिन्हें उदारवादी कहा जाता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हनुमान चालीसा पर उठे विवाद को सुलझाने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने सर्वदलीय बैठक का आयोजन किया। परन्तु भाजपा ने उसका बहिष्कार कर अपने असली इरादे साफ़ कर दिए। राज ठाकरे इस मुद्दे को उछाल कर राज्य की राजनीति में अपना स्थान बनाना चाहते हैं। इस मामले में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए दो भाजपा नेताओं को गिरफ्तार किया गया है।

पिछले कुछ हफ़्तों (अप्रैल 2022) से, देश की फ़िज़ा में नफरत तेजी से घुलती जा रही है। नफरत को बढ़ावा देने में फिल्म कश्मीर फाइल्स ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इस फिल्म को कई राज्यों ने मनोरंजन कर से मुक्त कर दिया है और भाजपा समर्थक इस फिल्म के टिकट थोक में खरीदकर लोगों में बाँट रहे हैं। ऐसा लगता है कि भाजपा इस फिल्म की प्रायोजक बन गई है।

जो लोग नफरत और हिंसा का इस्तेमाल अपनी राजनीति को चमकाने और भारत को अधिनायकवादी, धर्म-आधारित राज्य में बदलने के अपने एजेंडा को हासिल करने के लिए करना चाहते हैं, उनके लिए यह फिल्म एक वरदान बन कर आई है। इस फिल्म की उन लोगों ने आलोचना की है जिन्हें उदारवादी कहा जाता है। ‘लिबरल’ (उदारवादी) शब्द का भी मजाक बनाया जा रहा है।

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इस फिल्म और उस विचारधारा, जिसे यह बढ़ावा देती है, के पैरोकार मानते हैं कि इस्लामिक कट्टरवाद भारत में धर्मनिरपेक्षता के लिए एक बड़ी चुनौती है और यह भी कि कश्मीर विवाद इसका सबसे प्रकट और बड़ा उदाहरण है।

श्रीश्री रविशंकर से लेकर आरएसएस मुखिया मोहन भागवत और प्रधानमंत्री मोदी तक ने ‘असली सत्य’ को लोगों के सामने लाने के लिए इस फिल्म की तारीफ की है। फिल्म के निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने स्वयं यह कहा है कि वे केवल फिल्में नहीं बनाते हैं बल्कि उनका एक एजेंडा भी है। पिछले कोई दो-तीन हफ़्तों में इस फिल्म ने समाज को नकारात्मक दिशा में धकेला है।

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उदारवादी-वामपंथी इस फिल्म के नकारात्मक प्रभाव, उसकी कमियों, उसमें आंशिक सत्य एवं घटनाक्रम का एकतरफ़ा विवरण प्रस्तुत किये जाने की ओर ध्यान आकर्षित कर चुके हैं। कश्मीर में अलगाववादी आन्दोलन 1950 के दशक में ही शुरू हो गया था परन्तु शुरुआत में उसका आधार इस्लामिक कट्टरवाद या मुस्लिम साम्प्रदायिकता नहीं थी। उसके मूल में थी कश्मीर की उस स्वायत्ता का हनन, जिसकी गारंटी कश्मीर के लोगों को संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए के तहत दी गई थी। शुरुआत में अलगाववादी कश्मीरियत की बात करते थे।

कश्मीरियत वह अनूठी संस्कृति है जो वेदांत, बौद्ध धर्म और सूफी परंपराओं के मिलन से बनी है। यह कहना कि इस्लाम में सभी धर्मपरिवर्तन तलवार की दम पर हुए, कश्मीर ही नहीं बल्कि पूरे भारत में इस्लाम के इतिहास को गलत समझना होगा। कश्मीर में इस्लाम ‘सूफी तलवार’ (फिल्म में प्रयुक्त शब्द) के बल पर नहीं फैला बल्कि नीची जातियों के लोग, ऊंची जातियों के अत्याचार से बचने के लिए मुसलमान बने। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, “धर्मपरिवर्तन मुसलमानों या ईसाईयों के अत्याचारों के कारण नहीं बल्कि ऊंची जातियों के अत्याचारों के कारण हुए।” रतनलाल हंगलू (“द स्टेट ऑफ़ मिडिवल कश्मीर”, मनोहरलाल पब्लिकेशंस, दिल्ली, 2000) भी स्वामी विवेकानंद के मत की पुष्टि करते हैं। हंगलू लिखते हैं कि कश्मीर में धर्मपरिवर्तन, दरअसल, ब्राह्मणों के अत्याचारों के खिलाफ खामोश क्रांति थी।

कश्मीरियत कोई कल्पना नहीं है. हम जानते हैं कि नन्द ऋषि (नूरुद्दीन नूरानी) और लल्लेश्वरी (लल्ल-द्यद) दोनों समुदायों की श्रद्धा के पात्र थे और घाटी के हिन्दू और मुसलमान, खीर भवानी सहित कई त्योहार एक साथ मनाते हैं। हमने अटल बिहारी वाजपेयी का वह प्रसिद्ध कथन भी सुना है कि वे कश्मीर की समस्या को इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के ज़रिये हल करना चाहते हैं।

सन 1980 के दशक से कश्मीर में अतिवाद का चरित्र बदलने लगा। और इसके पीछे था अलकायदा और तालिबान का उभार और उनके लिए लड़ाके तैयार करने के लिए पाकिस्तान के मदरसों में युवकों का प्रशिक्षण। यह अमरीका की परियोजना थी जिसे उसने अपने पिट्ठू पाकिस्तान के जरिये अमल में लाया। इन तत्वों ने घाटी में घुसपैठ कर ली और वहां कहर बरपाना शुरू कर दिया। पहले भारत-समर्थक व्यक्तियों, जिनमें नेशनल कांफ्रेंस के सदस्य शामिल थे, को मारा गया और फिर कश्मीरी पंडितों को।

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फिल्म कश्मीरी मुसलमानों और पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकियों को एक ही पलड़े में तौलती है। पाकिस्तान में प्रशिक्षित तत्वों को इस्लाम का तोड़ा-मरोड़ा गया संस्करण सिखाया गया था। उन्हें यह बताया गया था कि जो भी उनसे असहमत है वह काफिर है और उसे मारना जिहाद है।

फिल्म में पंडितों की दुर्दशा के लिए कश्मीरी मुसलमानों, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस को दोषी बताया गया है। हमें यह याद रखना होगा कि जगमोहन (जो बाद में भाजपा सरकार में मंत्री बने) ने पंडितों को घाटी छोड़ कर जाने के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाईं थीं। जिस समय यह अनर्थकारी निर्णय लिया गया था उस समय भाजपा के समर्थन से वी.पी. सिंह देश के प्रधानमंत्री थे। सरकार ने आतंकवादियों से मुकाबला करने और पंडितों को सुरक्षा प्रदान करने की बजाय, पंडितों को विस्थापित कर अपना पाला झाड़ लिया।

फिल्म इस तथ्य को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करती है कि कश्मीर में आज भी करीब 800 पंडित परिवार रह रहे हैं। फिल्म यह बताने से परहेज़ करती है कि आतंकी हमलों के चलते करीब 50,000 मुसलमानों को भी घाटी से पलायन करना पड़ा था और यह भी कि 300 पंडितों के साथ, करीब 700 मुसलमान भी आतंकियों के शिकार हुए थे।

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इस्लामिक कट्टरवाद हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को नहीं बदल रहा है। उसे तो केवल एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। भारत के प्रजातान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष चरित्र को खतरा बढ़ते इस्लामोफोबिया से है। इस इस्लामोफोबिया को बढ़ावा देने के लिए मध्यकालीन मुस्लिम शासकों के बारे में तरह-तरह की असत्य और अर्धसत्य बातें (उन्होंने मंदिर तोड़े, इस्लाम का प्रसार तलवार की दम पर हुआ आदि) कहीं जा रहीं हैं। उनकी आबादी की वृद्धि दर को भी मुद्दा बना लिया गया है। मुसलमानों के प्रति नफरत का भाव इतना ज्यादा बढ़ गया है कि मुस्लिम दुकानदारों और व्यापारियों के बहिष्कार की बातें हो रहीं हैं। धार्मिक त्योहार का उपयोग मुसलमानों को भड़काने और फिर उनके घरों पर बुलडोज़र चलवाने के लिए किया जा रहा है। हनुमान चालीसा का सार्वजनिक रूप से पाठ, इसी नफरत फैलाओ रणनीति का हिस्सा है।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) 

लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्माेनी अवार्ड से सम्मानित हैं।

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