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मत पढ़िए, अगर आप संवेदनशील नहीं हैं (डायरी 11 अगस्त, 2022)

यह केवल भारत का मसला नहीं है। पूरी दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक वे हैं जिनके पास जीने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं और दूसरे वे, जिनके पास जीने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। पर्याप्त संसाधन की परिभाषा अलग-अलग हो सकती है और इसी आधार पर किसी भी समाज में […]

यह केवल भारत का मसला नहीं है। पूरी दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक वे हैं जिनके पास जीने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं और दूसरे वे, जिनके पास जीने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। पर्याप्त संसाधन की परिभाषा अलग-अलग हो सकती है और इसी आधार पर किसी भी समाज में उच्च आय वर्ग, मध्य आर्य वर्ग और निम्न आय वर्ग का निर्धारण होता है। मैं पटना को याद कर रहा हूं, जहां मैंने पहली बार इस तरह का वर्गीकरण जमीन पर देखा। तब एक राजनीतिक सवाल को लेकर मैं जाबिर हुसेन के घर गया था। जाबिर हुसेन बिहार के वरिष्ठ साहित्यकार हैं और इसके अलावा वे राज्यसभा सांसद व बिहार विधान परिषद के सभापति भी रह चुके हैं।
तो उस दिन हुआ यह कि उनका पता मिला और पते में एमआईजी लिखा था। उनके घर गया और जिस उद्देश्य से गया था, उसकी पूर्ति हुई। अगले दिन दैनिक ‘आज’ के दूसरे पन्ने पर एक दो कॉलम की मेरी खबर भी छपी। तब बात आई-गई हो गई होती अगर जाबिर हुसेन के घर के पते में एमआईजी नहीं शामिल होता। यह एक नया तरह का शब्द था, जिससे मैं नावाकिफ था। हालांकि मेरा ससुराल उसी इलाके के कंकड़बाग में है और इसके बावजूद मैं इस बात से अनभिज्ञ था कि जिस पटना शहर में मैं रहता हूं वहां इस तरह के मुहल्ले भी हैं। मजे की बात यह कि जाबिर हुसेन के घर के पते में लोहिया नगर भी शामिल है। लोहिया से तब बहुत खास परिचय नहीं था। बस इतना ही जानता था कि वे बड़े समाजवादी नेता थे और नेहरू के समकालीन थे। उन्होंने ही यह नारा दिया था– संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ।

[bs-quote quote=”मैं यह देख रहा था कि आय के आधार पर लोगों का बसने का मतलब क्या है? किसकी योजना रही होगी ऐसी? मतलब यह कि जिसके पास जितना पैसा है, वह उतना ही अधिक बड़े भूखंड पर अपने लिए मकान बनवा सकता है। तो उस समय मुझे बड़ी हैरानी हुई थी। वजह भी थी  हैरान होने की। तब राजनीति और समाजशास्त्र की बारीकियों की जानकारी नहीं थी।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तो एमआईजी शब्द मेरे लिए नया था। अगले दिन अपने एक वरिष्ठ पत्रकार साथी से पूछा तो उन्होंने कहा कि वह एलआईजी के इलाके में रहते हैं। उन्होंने एमआईजी और एलआईजी का अंतर समझाया मिडिल इनकम ग्रुप और लोअर इनकम ग्रुप के रूप में। ऐसे ही कंकड़बाग के इलाके में एचआईजी भी है। एचआईजी मतलब हाई इनकम ग्रुप। मतलब यह कि सब कुछ इनकम के आधार पर तय था। महत्वपूर्ण यह कि कंकड़बाग के इलाके में इस तरह आय के आधार पर कालोनियों का निर्माण 1990 के दशक के पहले ही हो चुका था। यदि 1990 के दशक में होता तो यह माना जा सकता था कि यह ग्लोबलाइजेशन का प्रभाव था। लेकिन यह तो तब हुआ जब वैश्वीकरण भारत में प्रारंभ ही हुआ था और समाजवाद  की राजनीति अंगड़ाई ले रही थी।
वैसे वर्गीकरण मेरे गांव में भी है। लेकिन पूरा गांव मूल रूप से ब्रह्मपुर के नाम से ही जाना जाता है। कुल मिलाकर चार टोले हैं। एक टोले में कोइरी, दूसरे में हम यादव जाति के लोग, तीसरे टोले कहार (अति पिछड़े) और चौथे टोले में कुछेक घर दलित। लेकिन यह वर्गीकरण जाति के आधार पर था। आय का कोई लेना-देना नहीं था। चूंकि मेरा गांव 1914 में बसा तो जिसे जहां जमीन मिली, वहीं बस गया। इसलिए पूरा गांव एक समुच्चय जैसा है। यादव टोले में भी अन्य जातियों के लोग मिल जाते हैं और ऐसे ही दूसरे टोले में भी कई जातियों के लोग। हम गांवों के लोगों के बीच में रिश्ते बड़े प्यारे होते हैं। अब होते हैं या नहीं, नहीं कह सकता। लेकिन मेरे लिए सभी के साथ रिश्ता है। बूढ़े बुजुर्ग चाचा-चाची, हमउम्र या मुझसे बड़े भैया-भौजाई और मुझसे छोटे और कई तो मुझसे बहुत बड़े भी भतीजे।

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खैर, मैं यह देख रहा था कि आय के आधार पर लोगों का बसने का मतलब क्या है? किसकी योजना रही होगी ऐसी? मतलब यह कि जिसके पास जितना पैसा है, वह उतना ही अधिक बड़े भूखंड पर अपने लिए मकान बनवा सकता है। तो उस समय मुझे बड़ी हैरानी हुई थी। वजह भी थी  हैरान होने की। तब राजनीति और समाजशास्त्र की बारीकियों की जानकारी नहीं थी।

[bs-quote quote=”जिनका जवाब केवल और केवल न्यायाधीशगण ही दे सकते हैं। लेकिन मैं यह सोच रहा हूं कि इनकम यानी पूंजी ही सबकुछ का निर्धारण करता है। यदि आपके पास पैसा है तो सुप्रीम कोर्ट में आपके मामले की सुनवाई जल्दी होगी और यदि आपके पास पैसा नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट में आपके मामले की सुनवाई लटका दी जाएगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लेकिन अब तो मैं यह हर जगह पाता हूं। अब एक उदाहरण सुप्रीम कोर्ट का ही देख लें। कल सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायाधीश जेबी पारदीवाला ने एक झटके में अपने चालीस दिन पहले के फैसले को बदल दिया। यह मामला नुपूर शर्मा से संबंधित है। गत 1 जुलाई, 2022 को ही उपरोक्त न्यायाधीशद्वय ने अपनी टिप्पणी और अपने फैसले से पूरे देश को एक सकारात्मक संदेश दिया था कि इस्लाम धर्म के खिलाफ भड़काऊ बयान देनेवाली नुपूर शर्मा के खिलाफ देश भर में दर्ज मामलों की सुनवाई अलग-अलग ही होगी। तब यह भी कहा गया कि नुपूर शर्मा अलग-अलग अदालतों द्वारा की जा रही सुनवाई में शामिल हों। लेकिन कल यानी 10 अगस्त, 2022 को उपरोक्त न्यायाधीशद्वय ने ही नुपूर शर्मा के खिलाफ सभी मामलों को दिल्ली स्थानांतरित करने का आदेश दिया। साथ ही जांच की जिम्मेदारी दिल्ली पुलिस को दे दी।

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अब इसे क्या कहा जाएगा? क्या 1 जुलाई, 2022 को दिया गया फैसला वाजिब था या फिर कल जो फैसला दिया गया, वह वाजिब है? एक सवाल यह भी उठता है कि आखिर 40 दिन के बाद फैसले को पलट देने की जरूरत क्या थी? क्या किसी तरह का कोई दबाव था? यदि था भी तो किसने यह दबाव बनाया था?
जाहिर तौर पर ये ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब केवल और केवल न्यायाधीशगण ही दे सकते हैं। लेकिन मैं यह सोच रहा हूं कि इनकम यानी पूंजी ही सबकुछ का निर्धारण करता है। यदि आपके पास पैसा है तो सुप्रीम कोर्ट में आपके मामले की सुनवाई जल्दी होगी और यदि आपके पास पैसा नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट में आपके मामले की सुनवाई लटका दी जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे बथानी टोला, बाथे, नगरी आदि नरसंहारों के मामले को अगस्त, 2012 से सुप्रीम कोर्ट ने लटकाकर रखा है, क्योंकि इन नरसंहारों के आरोपी एचआईजी या फिर एमआईजी के रहवासी हैं और पीड़ितगण का कोई ग्रुप ही नहीं है। उन्हें तो लोअर इनकम ग्रुप में भी जगह नहीं दिया जा सकता है।
खैर, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी पारदीवाला के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। करने की जरूरत भी नहीं है। सबकुछ एकदम स्पष्ट है।
मैं जाबिर हुसेन की एक कविता पढ़ रहा हूं–
सब कुछ
नदी इस पार है
खेत मकान स्कूल अस्पताल
जंगल पहाड़ झरना तालाब
यहां तक कि घाट भी।
फूल पत्ते गुलाब और बेले
रंग प्रकाश अंधकार
धुंध बादल बारिश
आशा निराशा सत्य असत्य
गीत संगीत ढोल मृदंग
बांसुरी वायलिन ध्वनि मौन
धोखा छल ग्लानि स्पर्द्धा
युद्ध और शास्त्र
हार जीत मूर्छा मृत्यु
यहां तक कि ईश्वर भी
सब इसी पार
नदी उस पार 
सिर्फ रेत और शून्य।
(जाबिर हुसेन की कविता का एक अंश, जो उनके ही द्वारा संपादित पत्रिका दोआबा के अप्रैल-जून 2022 के अंक में संकलित है)
और मैं नदी के उस पार के बारे में सोच रहा हूं। क्या वाकई उस पार केवल रेत और शून्य है? मुझे लगता है कि इस सवाल का जवाब जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी पारदीवाला के पास जरूर होगा। आखिर वे सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशगण हैं।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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