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बिहार में खेल के क्षेत्र में सुधार की कवायद

एक समय था जब कहा जाता था, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब। मगर बदलते समय के साथ इस कहावत के मायने बदल गये हैं। अब खेल-खेल में पढ़ाई पर जोर दिया जाने लगा है। खेल के क्षेत्र में करियर की बढ़ती संभावनाओं को देखते हुए युवा इसकी ओर आकर्षित होने लगे हैं। ग्लैमर, पैसा […]

एक समय था जब कहा जाता था, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब। मगर बदलते समय के साथ इस कहावत के मायने बदल गये हैं। अब खेल-खेल में पढ़ाई पर जोर दिया जाने लगा है। खेल के क्षेत्र में करियर की बढ़ती संभावनाओं को देखते हुए युवा इसकी ओर आकर्षित होने लगे हैं। ग्लैमर, पैसा एवं सरकारी नौकरियों में खिलाड़ियों के लिए उपलब्ध अवसरों के कारण गांव के युवाओं-छात्राओं में भी खेल के प्रति रूचि बढ़ी है। छोटे-बड़े शहरों से लेकर स्कूल-काॅलेजों के स्पोर्ट्स ग्राउंड एवं गांवों के खेत-खलिहान में युवाओं को क्रिकेट, फुटबाॅल, कबड्डी, कुश्ती आदि खेलते देखे जा सकते हैं। अन्य राज्यों की तरह बिहार के सुदूर देहाती इलाकों में भी क्रिकेट-फुटबॉल क्लब आदि का गठन कर खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन होता रहता है। सरकार भी खेलकूद को बढ़ावा देने की कवायद में जुटी हुई है, लेकिन इन खिलाड़ियों के सामने कई चुनौतियां भी हैं, जो उन्हें नेशनल-इंटरनेशनल टूर्नामेंट तक पहुंचने में बाधक बनी हुई है।

वैशाली जिले के अरनिया जंदाहा निवासी नीतीश कुमार स्नातक के छात्र हैं। वे पिछले कई सालों से क्रिकेट के मैदान पर बेहतरीन बॉलर के तौर पर पसीने बहा रहे हैं। ऑल इंडिया नेशनल यूनिवर्सिटी के क्रिकेट खिलाड़ी के रूप में नीतीश ने दूसरे स्टेट में जाकर भी टूर्नामेंट खेला है। लेकिन अब तक उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। नीतीश का कहना है कि पहले की तुलना में अब प्रदेश में खेलकूद का माहौल बदला है। सरकार अपनी योजनाओं में खेलों को बढ़ावा देने में प्राथमिकता दे रही है। कोचिंग भी मिल रही है, लेकिन अभी और ध्यान देने की जरूरत है. मुजफ्फरपुर के खेल संघ से जुड़े रहे एक पदाधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि निःसंदेह बिहार में खेल के क्षेत्र में बदलाव आए हैं, लेकिन खेल संघों की राजनीति, जातिवाद-पैरवी, खेलकूद के लिए आवंटित पैसों में गड़बडी, खिलाड़ियों को समय पर पैसे न मिलना आदि कुछ ऐसी चीजें हैं, जो खेल प्रतिभाओं को आगे बढ़ने में बाधक बनती हैं।

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यह ज़रूर है कि सरकारी प्रयासों के बाद अब बिहार के खिलाड़ी भी नेशनल-इंटरनेशनल टूर्नामेंटों में भाग ले रहे हैं। खेल संघों को भी मान्यता मिली है, लेकिन सवाल है कि पटना में जन्में ईशान किशन, गोपालगंज में जन्में मुकेश कुमार और रोहतास में जन्में आकाशदीप सिंह जैसे क्रिकेट के दिग्गज खिलाड़ियों को बिहार की जगह दूसरे प्रदेशों की टीमों का हिस्सा क्यों बनना पड़ता है? कुछ तो कमियां होंगी, जिस पर खेल विभाग, खेल संघों एवं खेल मंत्रालय को ध्यान देने की जरूरत है। उधर, मुजफ्फरपुर जिलान्तर्गत राजकीय कन्या मध्य विद्यालय, मोहम्मदपुर, मुरौल के प्रधानाध्यापक बैजू कुमार रजक ने बताया कि सरकारी स्कूलों में खेलकूद सामग्री उपलब्ध करायी तो जाती है, लेकिन परेशानी यह है कि बहुत सारे स्कूलों के पास न कैंपस है और न ही खेल के मैदान हैं। ऐसे में खेल सामग्री उपलब्ध रहने के बावजूद छात्र-छात्राएं खेल नहीं पाते हैं।

झारखंड से अलग होने के बाद बिहार खेल संसाधनों की कमी से जूझता रहा है। विभाजन के बाद तीरंदाज सेंटर झारखंड में चला गया। बिहार में हॉकी का एक भी एस्ट्रोटर्फ मैदान की सुविधा उपलब्ध नहीं करायी गयी। जबकि बिहार का एकमात्र क्रिकेट स्टेडियम पटना में मोइनुल हक स्टेडियम है, जिसकी हालत खस्ता है। हालांकि, हाल के वर्षों में राज्य सरकार ने प्रदेश में खेल का माहौल बनाने को लेकर कई प्रयास किये हैं। जानकारी के अनुसार, राजगीर में 740.82 करोड़ की लागत से 90 एकड़ में राज्य खेल अकादमी व अंतर्राष्टीय क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण किया जा रहा है। राजगीर में ही 2021 में बिहार खेल विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी है। मुख्यमंत्री खेल विकास योजना के तहत सूबे में अब तक 211 आउटडोर स्टेडियमों का निर्माण किया जा चुका है। जानकारी के मुताबिक, सरकार की योजना राज्य के 534 प्रखंडों में स्टेडियम बनाने की है। बीस जिलों में खेल भवन सह व्यायामशाला का निर्माण कार्य पूरा हो चुका है।

कुछ दिनों पहले राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करते हुए घोषणा की थी कि ‘इंटरनेशनल स्तर के टूर्नामेंट में मेडल जीतकर लाओ और डीएसपी की नौकरी पाओ। खेल को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उत्कृष्ट खिलाड़ियों की सीधी नियुक्ति नियमावली 2023 के तहत प्रथम चरण की नियुक्ति की पहली सूची रिलीज में की जा चुकी है, जिसमें फुटबाॅल, नेटबाॅल, कबड्डी, एथलेटिक्स, रग्बी, वेटलिफ्टिंग, ताइक्वांडो, कुश्ती, पॅचक सिलाट, सेपक टाकरा एवं वूशु के खिलाड़ियों को चयनित किया गया है। बिहार राज्य खेल प्राधिकरण के महानिदेशक रविंद्रन शंकरन (आईपीएस) का कहना है कि ग्रामीण क्षेत्रों की खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए बगहा, छपरा, सिवान, आरा, बक्सर, भागलपुर में स्पोर्ट्स एकेडमी खोली जाएगी। इसके अलावा खेलों में टेक्नोलॉजी के प्रयोग पर खास ध्यान दिया जा रहा है। पटना में हॉकी का एस्ट्रो टर्फ मैदान बनाने का कार्य भी शीघ्र शुरू किया जाएगा। वहीं, बिहार कला, संस्कृति एवं युवा विभाग की अपर मुख्य सचिव हरजोत कौर ने कहा कि राज्य सरकार खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के लिए तमाम तरह की सुविधाएं मुहैया करा रही है। खेल संरचना में आमूलचूल बदलाव को लेकर भी सरकार गंभीर है। जिला स्तर पर खेल स्टेडियम में सुविधाएं व संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। एकलव्य सेंटर अभी सिर्फ स्कूलों में चल रहे हैं। इसे महाविद्यालय स्तर पर भी शुरू करने की जरूरत महसूस की जा रही है। विभाग इन सब चीजों पर गंभीरतापूर्वक काम कर रहा है।

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बहरहाल, सरकार एवं खेल विभाग के तमाम दावों के बावजूद बिहार को खेल के क्षेत्र में मणिपुर व हरियाणा-पंजाब तक पहुंचने में कई दशक लग जाएंगे। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। लेकिन करप्शन, खेल संघों में राजनीति, जातिवाद, पैरवी और पैसों का खेल बहुत सारी प्रतिभाओं को आगे बढ़ने नहीं दे रहा है। ट्रायल के दौरान ही बहुत सारे वाजिब खिलाड़ियों को टूर्नामेंट में भाग लेने से रोक दिया जाता है और ऐसे खिलाड़ियों को चुन लिया जाता है, जिनमें खेल को छोड़कर उपर्युक्त सभी गुण होते हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि यदि बिहार में भी खेलों को बढ़ावा देना है और यहां के खिलाड़ियों को अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंटों तक पहुंचना है तो सबसे पहले चयन में पारदर्शिता लानी होगी। खेल संघों को राजनीति, जातिवाद और पैरवी करने वालों से मुक्त करना होगा। एक खिलाड़ी ही खेल के महत्व और खिलाड़ियों की प्रतिभा को पहचान सकता है। इसलिए ज़रूरी है कि खेल संघों की कमान केवल राज्य का प्रतिनिधित्व कर चुके खिलाड़ियों के हाथों में होनी चाहिए।

(सौजन्य से चरखा फीचर)

रिंकु कुमारी मुजफ्फरपुर (बिहार) समाजसेवी हैं।

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