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ग्राउंड रिपोर्ट

ईवीएम कॉर्पोरेट का राजनीतिक हथियार है जिसके बल पर वह जब चाहे जिसकी सरकार बनवा सकता है- डा. रत्नेश कातुलकर

ईवीएम अपने आरम्भ से ही विवादों के घेरे में रही है। इसको लेकर भिन्न-भिन्न पार्टियां और कार्यकर्ता (जिनमें जन सरोकार वाले कार्यकर्ता से लेकर साफ्टवेयर प्रोफेशनल तक शामिल रहे हैं) बार-बार कहते रहे हैं कि ईवीएम से चुनाव करवाना नुकसानदायक है, क्योंकि इससे मतदान के नतीजे प्रभावित किये जा सकते हैं। मशीन में छेड़छाड़  की […]

ईवीएम अपने आरम्भ से ही विवादों के घेरे में रही है। इसको लेकर भिन्न-भिन्न पार्टियां और कार्यकर्ता (जिनमें जन सरोकार वाले कार्यकर्ता से लेकर साफ्टवेयर प्रोफेशनल तक शामिल रहे हैं) बार-बार कहते रहे हैं कि ईवीएम से चुनाव करवाना नुकसानदायक है, क्योंकि इससे मतदान के नतीजे प्रभावित किये जा सकते हैं। मशीन में छेड़छाड़  की जा सकती है। वोटों को रिमोट कंट्रोल या किसी अन्य विधि से बदला जा सकता है और चुनाव के रिजल्ट को मनचाहा किया जा सकता है। ईवीएम के विरोध में हैदराबाद के साफ़्टवेयर इंजीनियर वी नरहरि ने गम्भीर रिसर्च भी किया है और अपने एक्सपेरिमेंट के माध्यम से साबित भी किया है कि ईवीएम में कितनी आसानी से छेड़छाड़ की जा सकती है। अभी पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव ने एक बार फिर ईवीएम पर शक को मज़बूत किया है। कुछ प्रभावित पार्टियों ने एक बार फिर ईवीएम के खिलाफ फिर आवाज़ उठाई है। एक बार फिर दिग्विजय सिंह और कुछ नेता ईवीएम के खिलाफ मुखर हुए हैं। सोशल मीडिया पर भी ईवीएम के खिलाफ एक गुस्सा दिखने लगा है। लेकिन आज की हमारी चर्चा का विषय है कि बिना टेम्परिंग की ईवीएम भी कितनी घातक है? ईवीएम के तकनीकी पक्ष के अतिरिक्त दूसरा पहलू भी अत्यंत गम्भीर है। उसका यह अनदेखा घातक पक्ष वोटर की गोपनीयता का है जो लोकतंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण पक्ष है। चुनाव में वोटर किसी भी पार्टी को वोट द सकता है लेकिन एक बार जब सरकार बनती है तो वह सबकी होती है। कोई भी सरकार या नेता वोटर को इसके लिए प्रताड़ित या परेशान नहीं कर सकता कि उसने उन्हे वोट नहीं दिया। दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के साथ उनके वोटिंग पैटर्न को लेकर अक्सर नेता धमकाने वाली बातें कहते हैं।

हम डा. रत्नेश कातुलकर से बातचीत कर रहे हैं। रत्नेश एक अम्बेडकरवादी चिंतक हैं और पिछले दस साल से इस बात को उठाते रहे हैं और समाज के सरोकारों से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। अभी हाल भी में इनकी एक चर्चित किताब ‘Outcasts on the Margins: Exclusion and Discrimination of Scavenging Communities in Education’ प्रकाशित हुई है।

सबसे पहले हम जानना चाहते हैं कि आखिर ईवीएम टेम्परिंग के अलावा इस मशीन में क्या दोष है?

ईवीएम पर टेम्पर होने का आरोप एक लम्बे समय से लग रहा है, और हम जानते ही हैं कि इसके चलते अमरीका और जापान जैसे विकसित देश इस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा चुके हैं। लेकिन जैसा कि आपने कहा आज की हमारी चर्चा  इस विषय पर नहीं है बल्कि इसके इतने ही घातक एक अन्य पहलू पर है।

ईवीएम का एक बड़ा दोष जो उसमें अंतर्निहित है वह यह है कि यह मशीन मतदाता की वोटिंग को गुप्त नहीं रहने देती। ईवीएम सीधे-सीधे गुप्त मतदान व्यवस्था की विरोधी है।

अब आप कहेंगे कैसे? तो बता दें कि हम यह नहीं कह रहे कि इस मशीन में कोई कैमरा लगा होता है जो हरेक वोटर की फोटो खींचता रहता है। या यह भी नहीं कि यह वोट की बटन दबाते से फिंगर प्रिंट कैच कर लेता है या कोई अन्य तकनीक से वोटर की पहचान कर लेता है। बिल्कुल नहीं।

इस मशीन में ऐसी किसी तकनीक होने का दावा हम नहीं कर रहे हैं, लेकिन फिर भी कैसे यह  एक मतदाता की पहचान उजागर कर देती है इसे समझने के लिये हमें अपनी वोटिंग़ व्यवस्था को समझना होगा। चाहे वह लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का या कोई और चुनाव। मतदान के लिये एक लोकसभा या विधानसभा के लिये केवल एक  बूथ तो नहीं होता, बल्कि एक विधानसभा या लोकसभा के लिये अनेक वोटिंग बूथ होते हैं जो कि कुछ कालोनी और बस्तियों के क्लस्टर में होते हैं।

अब आपको यह भी समझना होगा कि हमारे देश की बसाहट आज भी सिर्फ जाति और धर्म पर ही केंद्रित है। अब देश की राजधानी दिल्ली को देखिये। इसकी बसाहट शुद्ध रूप से जाति केंद्रित है। यहाँ 207 बस्तियां जाट बहुल हैं, जिनमें शाहपुर जाट, अधचिनी, महरोली प्रमुख हैं। 70 बस्तियां गुर्जरों की हैं। बाल्मीकि, सैनी, चमार जाति के अपने-अपने इलाके हैं। बात सिर्फ दिल्ली की नहीं, बल्कि हर शहरों में तमाम सवर्ण और कथित उच्च जाति की पॉश कालोनियों के साथ-साथ दलितों के भीम नगर, आम्बेडकर नगर, वाल्मीकि नगर सामान्य रूप से बसे होते हैं। मुस्लिमों की बसाहट तो हिंदुओं से अलग होती ही है। जैसे भोपाल का नया शहर जहाँ हिंदू बहुल हैं वहीं पुराना भोपाल मुसलमानों का इलाका है। कई शहरों में ईसाई, सिख, जैन जैसे धर्म अनुयायी और सिंधी, बंगाली, पंजाबी जैसे समुदाय अलग बस्तियों में रहते हैं। आदिवासी शहरों में ही अलग नहीं रहते, बल्कि इनके गांव भी अलग होते हैं।

ऐसे में जब हर पोलिंग बूथ की ईवीएम गिनती के लिये एक-एक कर खोली जाती है तो एक अदने से पोलिंग एजेंट के लिये यह जानना बेहद आसान हो जाता है कि किस जाति, सम्प्रदाय समूह के वोटर ने किस पार्टी को वोट दिया।  इस कारण स्पष्ट है कि प्रत्येक ईवीएम की गिनती पोलिंग बूथ के आधार पर ही होती है। जिसे राजनीतिक पार्टी एजेंटों द्वारा आसानी से डिकोड कर लिया जाता है। राजनीतिक दलों के स्थानीय चुनाव एजेंट इतने चतुर होते हैं कि वे किसी विशेष बूथ पर वोटों की गिनती के आधार पर किसी भी समुदाय के मतदान-पैटर्न का पता लगा लेते हैं। इनकी ज़मीनी समझ एसी रूम में बैठे विद्वानों से काफी अच्छी होती है। इस तरह ईवीएम से वोटों की गणना सीधे तौर पर गुप्त मतदान के हमारे संवैधानिक प्रावधान को तोड़ देती है।

निश्चित ही आपने यह एक अनोखी बात उजागर की है। चलिये मान भी लिया कि ईवीएम से वोटर की पहचान नहीं छिप पाती लेकिन इससे लोकतंत्र को क्या नुकसान होने वाला है? इतनी सी बात पर इस पर प्रतिबंध लगाने की बात करना कहाँ तक उचित है?

अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो भारी भूल कर रहे हैं। मतदाता की पहचान से एक नहीं बल्कि कई किस्म के खतरे हैं। इनमें दो प्रमुख खतरों की बात करें तो सबसे पहली बात यह कि किसी पार्टी विशेष को वोट नहीं देने पर एक बस्ती विशेष का जाति समूह उस पार्टी के गुंडों के सीधे निशाने पर आ जाता है। ऐसे समूह पर हमला, जिसमें गम्भीर मारपीट से लेकर जानलेवा हिंसा तक हो सकती है, लोकतंत्र के लिये शर्मनाक घटना है। लेकिन बात यहीं नहीं रुकती। पोलिंग़ एजेंट को पता चल जाने के डर से कमज़ोर तबके के लोग, जिनमें दलित, आदिवासी, मज़दूर, मुसलमान और महिलाएं होती हैं, अपनी मर्जी से अपने पसंद के उम्मीदवार को वोट नहीं दे पाते हैं। इस तरह ईवीएम चुनावों को निष्पक्ष नहीं रहने देती। यह सिर्फ दबंग जाति और पार्टी के वोटों को प्रभावित करने का यंत्र बन गई है।

दूसरा कि जीता हुआ जनप्रतिनिधि जब यह जान चुका होता है कि अमुक समूह ने उसे वोट नहीं दिया है तो वह उस समूह के साथ सौतेला व्यवहार करने से नहीं चूकता। जबकि एक विधायक या सांसद अपने वोटरों का नहीं बल्कि अपने पूरे निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधि होता है।

डा. रत्नेश कातुलकर की चर्चित किताब Outcasts on the Margins: Exclusion and Discrimination of Scavenging Communities in Education

मतदाता की गोपनीयता का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। इससे दलित आदिवासी और अल्पसंख्यक कैसे प्रभावित होते हैं। थोड़ा और विस्तार से बताएँ?

आप जानते ही हैं कि दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक शोषण और ज्यादती का शिकार होते रहे हैं। इन तबकों को डरा-धमका कर और कभी-कभी पैसे देकर भी ताकतवर पार्टियां अपने पक्ष में वोट करवाती रही हैं। अगर मतदान शेषन विधि के अनुसार गुप्त हो तो ये तबके बिना डर और लालच के अपना वोट कर पाएंगे। लेकिन इनके वोट को ईवीएम आसानी से डिकोड कर लेती है इसलिये ये अपने विवेक से वोट नहीं दे पा रहे हैं।अगर आप फैक्ट चाहें तो मैं गुजरात का उदाहरण दे सकता हूँ जहाँ दंगों के बाद कैम्पों में रह रहे मुस्लिमों के एकमुश्त वोट बीजेपी को गये थे। ऐसा क्यों? क्या जिस पार्टी से वे पीड़ित थे उसे उन्होंने मर्जी से वोट दिया होगा! नहीं, बिल्कुल नहीं। बल्कि ईवीएम की वजह से उनका वोट आसानी से डिकोड होना तय था इसलिये उन्होंने मुसीबत से बचने के लिये ये वोट दिये। यही पैटर्न आप उत्तर प्रदेश और हरियाणा में देख सकते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय हमले से बचने के लिये अपनी विरोधी पार्टी को ही वोट देने पर मज़बूर होता रहा है।

आदिवासियों के लिये परेशानी यह है कि सत्ताधारी दल का विरोध करने पर उन्हें नक्सलवादी करार दिया जा सकता है। ऐसे में गुप्त मतदान का नहीं होना उन्हें अपनी विरोधियों को वोट देने पर विवश करता है। दलितों का भी यही हाल है।

लेकिन मामला यहीं नहीं रुकता। ये तबके अपने वोट देने से भले भी मारपीट का शिकार न बने लेकिन जीता हुआ प्रत्याशी जब ईवीएम की कृपा से यह जान जाता है कि फलां समुदाय ने उसे वोट नहीं दिया है तो वह अगले पांच साल तक इस समुदाय के साथ सौतेला व्यवहार करने से नहीं चूकेगा। मध्य प्रदेश के एक वार्ड में एक पार्षद ने खुले तौर पर एक बस्ती के दलितों को यह कहकर अपने घर से भगा दिया था कि जब उन्होंने उसे वोट नहीं दिया तो अब अपने काम लेकर क्यों आये हैं? यह सब खुले आम हो रहा है। लेकिन एसी रूम में बैठने वाले हमारे पत्रकार और बुद्धिजीवी इससे अबतक अनजान हैं। हर दलित, आदिवासी और मुस्लिम, जो एक बस्ती विशेष में रहता है, न सिर्फ इस सच को जानता है बल्कि वह इससे पीड़ित भी है।  दु:ख की बात है कि वह अपनी इस पीड़ा को किसे बताए?

लेकिन यहां सवाल है कि क्या पुराने बैलेट पेपर (मतपत्र) से एक मतदाता वोटर की पहचान छिपी रहती थी? उस समय भी तो पोलिंग बूथ वैसे ही होते थे जैसे कि आज। फिर आप ईवीएम पर इसका दोष क्यों मढ़ रहे हैं?  और यह शेषन विधि क्या है जिसका आपने ऊपर उल्लेख किया?

इसमें कोई शक नहीं कि बैलेट पेपर की गिनती भी अगर सीधे बूथ आधार पर हो तो वोटरों की पहचान जाहिर होगी ही। दु:ख की बात है कि एक लम्बे समय तक मतपत्रों की गिनती भी बूथ आधार पर ही होती रही थी। लेकिन इससे मतदाता की पहचान के खतरे को भांपते हुए इस प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने किया था। उन्होंने प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के संपूर्ण बूथ से प्राप्त मतपत्रों को अलग-अलग गिनने की प्रथा पर अंकुश लगाते हुए हर निर्वाचन क्षेत्र के सारे बूथों से प्राप्त बैलेट पेपर को एक ड्रम में मिलाना शुरू करवाया।

उनकी ईज़ाद की गई इस तकनीक में ऐसा ड्र्म डिज़ाइन किया गया था जिसमें एक ओर बीचो- बीच एक संलग्न हैंडल लगा हुआ करता था। इस ड्र्म के भीतर समस्त पोलिंग बूथों के मतपत्रों को डाल दिया जाता था। फिर इसे बंद कर इसके हैंडल को कई बार घुमाया जाता था। नतीजतन दलित बस्ती, मुस्लिम बस्ती, पॉश कालोनी के बैलेट पेपर अपने-अपने बूथ की पहचान मिटा कर केवल एक निर्वाचन क्षेत्र विशेष के मतपत्र बन जाते थे। अब चुनाव परिणाम आने पर लाख कोशिशों के बावज़ूद पार्टी के पोलिंग एजेन्ट और अन्य कार्यकर्ता इन्हें समुदाय के आधार पर डिकोड नहीं कर पाते थे। नतीजतन वोटरों पर कोई दबाव नहीं होता था और वे निश्चिंत होकर अपना वोट दिया करते थे। साथ ही चुने हुए प्रतिनिधि भी वोटिंग से अनजान रहने के कारण किसी समुदाय से भेदभाव नहीं किया करते थे।

किंतु ईवीएम की शुरुआत के साथ, हमारे चुनाव आयोग ने फिर बेशर्मी से वही बूथ-वार गिनती के पुराने मॉडल का पालन करना शुरू कर दिया, जिससे मतदाताओं की पहचान आसानी से उजागर होने लगी। इस प्रकार ईवीएम देश के संविधान के खिलाफ एक उपकरण साबित हुआ जो लोकतंत्र का सीधा विरोधी है। इसलिये बिना देरी किये हर कीमत पर ईवीएम पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना बेहद ज़रूरी है।

डा. रत्नेश कातुलकर पिछले दस साल से ईवीएम के मुद्दे पर आवाज उठा रहे हैं

क्या हमारे संविधान में गुप्त मतदान का प्रावधान है? खुद डा. आम्बेडकर के इस पर क्या विचार थे?

भारत के संविधान निर्माता खुले मतदान की जमीनी हकीकत से भली-भांति परिचित थे, इसलिए उन्होंने हमारे देश में गुप्त मतदान की अवधारणा पेश की थी। वे जानते थे कि यदि मतदान के दौरान मतदाताओं की पसंद को छिपाया नहीं जाएगा तो जबरन मतदान की संभावना हमेशा बनी रहेगी। दबंग समुदाय आसानी से कमजोर समुदायों को अपने दबाव में वोट डालने के लिए मजबूर कर सकता है। इसलिये इसके पक्ष में डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में बहस के दौरान गुप्त मतदान की प्राचीन बौद्ध परंपरा का उल्लेख किया था और सभा में एक बहस के दौरान श्री आर.के.सिधवा ने स्पष्ट शब्दों में कहा: ‘चुनाव में गुप्त मतपेटी की भी व्यवस्था की जानी चाहिये …यदि हम संविधान में यह प्रावधान नहीं करते हैं और इसे संसद पर छोड़ देते हैं, तो यह एक बड़ा जोखिम होगा।[1]

अंतत: हमारी संसद ने सैद्धांतिक रूप से गुप्त मतदान प्रणाली को अपनाया। किंतु ईवीएम के उपयोग ने हमें इस महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित कर दिया।

इस बातचीत से दो बातें तो एकदम साफ होती हैं। पहली कि ईवीएम वाकई हमारे मतदान को गुप्त नहीं रहने देता। दूसरा कि गुप्त मतदान किसी भी लोकतंत्र के लिये क्यों ज़रूरी है। इन दोनों ही बातों में हल्का सा भी संदेह नहीं बचा है। अपनी इस बात को आपने कब से और किन-किन मंचों पर उठाया है? और क्यों इतनी महत्वपूर्ण बात मेनस्ट्रीम के मीडिया डिबेट में नहीं आई?

देखिये मैं उन गिने-चुने लोगों में हूँ जिन्होंने भारत में सबसे पहले ईवीएम को देखा और उसमें वोट डाले। क्योंकि भारत में इसका सबसे पहला उपयोग मध्य प्रदेश के चुनाव में हुआ था। तब मैं भोपाल में था। इसके इंट्रोडक्शन के समय ही इसकी इतनी तारीफ कर दी गई थी कि कोई इसका विरोध नहीं कर पाया था। इससे कागज़ की बचत और समय की बचत होती है…लेकिन चूँकि इसके उपयोग के साथ ही शेषन मॉडल का अंत हो गया था, इसलिये मैं व्यक्तिगत रूप से खुश नहीं था। उन दिनों मैं कालेज में पढ़ता था और कुछ खास लिखना शुरू नहीं किया था। तब वेबसाइट्स और फेसबुक आदि भी नहीं थे कि कोई आम इंसान अपनी बात लोगों तक पहुंचा सके। इसलिये मैं अपना यह विरोध अपने परिवार और कुछ खास दोस्तों को ही जता पाया और बात मन ही में रह गई।

लेकिन 2013 में मैंने अपना यह तर्क ईपीडब्ल्यू और तहलका में छपने के लिये भेजा। यहां आप को बता दूँ कि इतने सालों बाद यह तर्क दोबारा मन में जीवित होने का कारण यह था कि उन दिनों सरकार ने एक नया आप्शन नोटा भी इंट्रोड्युस किया, जिसका मतलब यह है कि वोटर को यदि कोई भी उम्मीदवार अपने वोट के लायक नहीं लग रहा है तो वह असहमति में इसे दबा सकता है।  हालांकि यह बटन वोटरों का मज़ाक बनाने के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि भले ही नोटा को सबसे अधिक वोट मिल जाए उसकी कोई अहमियत नहीं। इसके बाद मिले वोट वाले  उम्मीदवार को ही जीता माना जाएगा।

खैर इससे मुझे यह फायदा हुआ कि अंग्रेज़ी के कुछ अखबारों ने छापा कि नोटा को नक्सल प्रभावित इलाके में मिले भारी वोटों से जाहिर होता है कि वहाँ के आदिवासी माओवाद के समर्थक हैं।

इस न्यूज़ ने मुझे झकझोर दिया कि ईवीएम कितनी आसानी से आदिवासियों के वोट को डिकोड करने में कामयाब हुई जो कि शेषन मॉडल की काउंटिंग में असम्भव था। फिर मुझे अपना वह पुराना तर्क याद आ गया और मैंने बिना समय गंवाए तुरंत ही एक छोटा-सा आलेख लिख डाला कि ईवीएम लोकतंत्र के लिये कितनी घातक है।

मैंने तुरंत यह आलेख ईपीडब्ल्यू और तरुण तेजपाल की पत्रिका तहलका में भेज दिया। ये दोनों ही पत्रिकाएं नामी-गिरामी थीं, इसलिये मुझे बहुत उम्मीद नहीं थी। फिर भी मुझे अपने तर्क पर भरोसा था। दूसरे ही दिन मुझे तहलका के आफिस से मेल आया कि हम इसे छाप रहे हैं आप अपना फोटो भी भेज दीजिए। मैं खुश हुआ और तत्काल अपना फोटो मेल कर दिया, लेकिन थोडी ही देर बाद उनका अगला मेल आया कि आपका यह आलेख तो ईपीडब्ल्यू में पहले ही छप चुका है इसलिये हम इसे नहीं छाप सकते। इस मेल के बाद मैंने तुरंत ईपीडब्ल्यू देखी तब वाकई खुशी हुई कि उन्होंने इसे वाकई छापा था। मुझे लगा था कि ईपीडब्ल्यू में छपने से यह मुद्दा गम्भीर विमर्श में तब्दील हो जाएगा। इसे पढ़कर मुझसे कई लोगों ने सम्पर्क किया। बधाई दी। इसे अद्भुत बताया, लेकिन दु:ख की बात है कि इतने बडे प्लेटफार्म पर छपने के बाद भी बुद्धिजीवी तबके में विमर्श नहीं बन पाया।

मैं थोडा दुखी हुआ, लेकिन हार नहीं मानी। मैंने इसे और संशोधित करके राउंड टेबल इंडिया में छपवाया, फिर काउंटर करेंट में और अन्य जगह भी। लोगों ने इसे सराहा। मैं उन दिनों इंडीयन सोशल इंस्टीच्यूट में रिसर्चर था इसलिये मैंने लीगल न्यूज़ एंड व्यूज़ में भी छपवाया। चूँकि यह वकीलों के द्वारा सम्पादित होता है इसलिये सुप्रीम कोर्ट के वकीलों ने इसे पढकर मुझसे गम्भीर सवाल किये जिसका मैंने उन्हें सफलता से उत्तर भी दिया। मैंने उनसे अनुरोध भी किया कि इस आधार पर वे ईवीईम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल डालें। उन्होंने हामी भी भरी, लेकिन कोई कदम नहीं उठाया। कुल मिला कर इतना जायज़ मुद्दा अपना कोई असर नहीं छोड पाया और सबके द्वारा भुला दिया गया। मैं खुद भी समय के साथ इसे भूल गया या सच कहूँ तो मुझे भूलना पड़ा।

अब सवाल है कि यदि ऐसा है तो हमारे देश की पार्टियां इस मुद्दे पर क्यों खामोश है? क्यों मानवाधिकार कार्यकर्ता चुप हैं?

जाहिर है कि वे सब लोकतंत्र की रक्षा का ढोंग कर रहे हैं वर्ना क्या कारण है कि मतदान के गुप्त नहीं रह पाने की इतनी घिनौनी साज़िश पर वे चुप हैं? उनकी नीयत पर सवाल उठाना जायज़ है। खासकर दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों की हितैषी कही जाने वाली पार्टियों की चुप्पी वाकई खतरनाक है।

निश्चित ही यह बेहद गम्भीर बात है? वाकई इससे समझ में आता है कि न सिर्फ मुख्यधारा के बुद्धिजीवी बल्कि दलित, बहुजन, मूलनिवासी नेता और बुद्धिजीवी तक चुप्पी साधे हुए हैं? चलते-चलते …क्या आप भी मानते हैं कि ईवीएम से छेड़छाड़ होती है? इस पर आपके क्या विचार हैं?

इस विषय पर मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि विश्व के सबसे विकसित राष्ट्र ईवीएम पर विश्वास नहीं रखते।अमरीका और जापान जैसे देश इसे गलत मानते हैं। दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेता और सैम पित्रोदा और गौहर रज़ा जैसे वैज्ञानिक भी ईवीएम को टेम्पर प्रूफ नहीं मानते। वे कहते हैं कि इससे छेड़छाड़ कर वोटों की अदला-बदली की जा सकती है।

लेकिन वे ब्यूरोक्रेट और लोग जो ढंग से कम्प्यूटर और मोबाइल तक भी चलाना नहीं जानते ईवीएम को सही मानते हैं। इससे बड़ा मज़ाक और कुछ नहीं हो सकता।

आज पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी को एक कार्यक्रम में सुना और उन्होंने कहा कि ईवीएम फूल प्रूफ है। उनका कहना था कि आखिर कर्नाटक का इलेक्शन बीजेपी इतनी बुरी तरह से कैसे हार गई जबकि वहाँ तो प्रधानमंत्री ने बहुत कैम्पैन किया था। अभी भी लोग यह बात कह रहे हैं कि तेलंगाना में काँग्रेस कैसे जीती?

देखिये, मेरा फोकस इस बात पर नहीं है कि ईवीएम टेम्पर-प्रूफ नहीं है, बल्कि मैं इस बात पर ही जोर देना चाह रहा हूँ कि ईवीएम अपने आप में लोकतंत्र के लिये घातक है क्योंकि इससे मतदाता की पहचान उजागर होती हैं। रही बात टेम्परिंग के आरोप की और उस पर पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी की टिप्पणी की तो इसका तार्किक जवाब यह है कि तेलंगाना में भी बीजेपी बहुमत क्यों नहीं पा सकी तो इसका जवाब साफ है कि कोई मूर्ख ठग ही ऐसी ठगी करेगा कि वह अपनी किसी टुच्ची हरकत से पकड़ा जाए। अगर कर्नाटक और तेलंगाना सहित सभी प्रदेशों में ईवीएम से गड़बड़ की जाएगी तो साफ है कि फिर बेवकूफ से बेवकूफ व्यक्ति भी ईवीएम की असलियत को जान जाएगा। वैसे हम यह क्यों भूलते हैं कि ईवीएम पर सबसे पहला इल्ज़ाम खुद बीजेपी ने ही लगाया था। उनके एक कार्यकर्ता ने एक किताब लिखी थी जिसका विमोचन लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। ईवीएम की टेम्परिंग को लेकर यह कहना सही नहीं कि इसे सिर्फ बीजेपी ही करती है, बल्कि इस पर यह संदेह है कि इसे कोई भी दल जो ऊपर तक पकड़ रखता हो इसके साथ गड़बड़ कर सकता है। चूँकि मैं तकनीकी विशेषज्ञ नहीं हूँ इसलिए मैं इस मामले पर अपना निजी मत नहीं देते हुए वैज्ञानिक गौहर रज़ा को कोट करना चाहता हूं कि ईवीएम की टेम्परिंग कोई एक पार्टी नहीं बल्कि किसी और बाहरी ताकत के द्वारा की जा रही होगी। उनका कहना है पंजाब विधानसभा जहाँ आम आदमी पार्टी का कोई संगठन तक नहीं था, वहाँ उसे बहुमत मिल गया। इस पर रज़ा सवाल उठाते हैं। उनके इस तर्क में दम है। इस विषय में मैं उस ताकत के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि हाँ निश्चित ही कोई कार्पोरेट समूह या अंतरराष्ट्रीय ग्रुप इस टेक्निकल तरीके से भारत के लोकतंत्र को खोखला कर सकता है।

ईवीएम पर आपके प्रश्न क्या केवल मतदाता की गोपनीयता को लेकर ही हैं या आप भी यह कह रहे हैं कि यह हैक की जा सकती है। क्या आप इस बात से सहमति रखते हैं कि वीवीपैट पर्चियों की गिनती होनी चाहिए ताकि किसी प्रकार की शंका की कोई गुंजाइश न रहे? इस संबंध में पूर्व चुनाव आयुक्त कुरैशी कह रहे हैं कि सवाल टेक्नॉलॉजी का नहीं लोगों की नीयत और प्रशासन की निष्पक्षता का है और उसके लिए वीवीपैट पर्चियों की गणना होनी चाहिए। 

मैं कोई टेक्निकल एक्स्पर्ट नहीं कि दावे के साथ टेम्परिंग पर कुछ कह सकूं लेकिन मेरी ही तरह पूर्व और वर्तमान चुनाव आयुक्त भी टेक्निकल एक्स्पर्ट नहीं हैं। अंतर इतना है कि वे दावा करते हैं कि ईवीएम टेम्परप्रूफ हैं। यह वाकई हास्यास्पद है। इस विषय पर अधिकारपूर्वक कोई साफ़्टवेयर इंजीनियर या हैकर ही बोल सकता है और  वे बोल भी रहे हैं, लेकिन उनकी बातों को कोई गम्भीरता से नहीं लेता, जबकि तकनीक के मामले में अनपढ़ अधिकारियों के मत लोगों को ईश वचन लगते हैं।

असल सवाल न टेक्नोलाजी का है, न प्रशासन की निष्पक्षता का। मुद्दा यह है कि ईवीएम अपने आप में ही घातक है क्योंकि इससे मतदाता की पहचान उजागर होती है। वीवीपैट की गिनती से इस समस्या का कोई हल नहीं हो सकता, इसलिये ईवीएम पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना ही समस्या का एकमात्र हल है।

इसमे कोई संदेह नहीं कि ईवीएम पर लोगों में अब बहुत संदेह है लेकिन क्या यह बात सही नहीं है कि विपक्ष के चुनावों में बुरे प्रदर्शन के पीछे उनकी अपनी अकर्मण्यता भी है। समाज में धर्म के नाम पर हुए ध्रुवीकरण ने इसमें और योगदान दिया है। हमारी पार्टियाँ धार्मिक ध्रुवीकरण के उत्तर नहीं ढूंढ पाई हैं।

आप बिल्कुल सच कह रहे हैं। ऐसा कुछ पार्टियों के मामले में साफ दिखता है। उनके नेताओं ने अपने आपको महलों में कैद कर लिया है और संगठन पर उनका कोई ध्यान नहीं है। वे बिना मेहनत के फल खाना चाहती हैं। सच तो यह है कि बीजेपी के अलावा आज कोई भी ऐसा दल नहीं हैं जो बिना चुनाव के भी अपना प्रचार कार्य करता हो। लेकिन यहाँ हम उनकी इस अकर्मण्यता से ज्यादा इस बात से पीड़ित हैं कि चुनाव हारने के बाद वे कुछ दिनों तो ईवीएम को खूब गाली देते हैं लेकिन इसके खिलाफ चुनाव आयोग और संसद में अपना मुंह तक नहीं खोलते। इनकी इस हरकत से ही ऐसा लगता है कि शायद ये सभी पार्टियां ईवीएम की समर्थक हैं। उनका विरोध सिर्फ दिखावटी है। आखिर हम कैसे भूल सकते हैं कि ईवीएम के बाद कांग्रेस, आप, बीएसपी, सपा, आरजेडी, जेडीयू, डीएमके सभी को तो अपने अपने राज्यों में बहुमत मिला है। ऐसे में यह कहना कि ईवीएम सिर्फ बीजेपी की ही मददगार है सही नहीं होगा। इसने हर पार्टी को मौका दिया है। इसलिये हमें गौहर रज़ा का शक ज्यादा मज़बूत लगता है कि ईवीएम को बाहरी ताकत नियंत्रित कर रही है, जो शायद कार्पोरेट लॉबी हो या कोई और। लेकिन हमारा आरोप तो इससे बढ़कर है कि ईवीएम से वोटरों की पहचान उजागर होती है। इस विषय पर सब चुप हैं। यह एक रहस्य है।

यह वाकई एक बडी सच्चाई है कि अब तक ईवीएम का विरोध संसद और चुनाव आयोग के सामने ढंग से किसी भी पार्टी ने नहीं किया है। न ही किसी ने यह शर्त रखी कि वह ईवीएम वाले चुनाव का बहिष्कार करेगी। उनका विरोध बहुत हल्का और दिखावटी रहा है।

आप राजनैतिक दलों से क्या उम्मीद करते हैं ?

 इनसे हल्की-सी भी उम्मीद रखना बेमानी है। जैसा कि मैंने कहा कि वे सभी कभी न कभी इससे फायदा ले चुके हैं इसलिये वे सच्चाई को जानते हुए भी चुप रहने के लिये मजबूर हैं। लेकिन इनसे बड़ी जिम्मेदारी आम नागरिकों की है। उन्हें लोकतंत्र की रक्षा के लिये आगे आना होगा।

अम्बेडकरी बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी इस विषय मे क्या करें? ईवीएम एक हकीकत है।

 आप देख ही रहे हैं आज कि अम्बेडकरी बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता गड़े मुर्दे उखाड़ने में ताकत लगा रहे हैं। उनके लिये मुख्य मुद्दा आर्य और अनार्य संघर्ष का है। कोई बीएसपी की भक्ति में तल्लीन है और उसे लग रहा है कि बस अब बहनजी प्रधानमंत्री बनने वाली हैं। कोई पूना पैक्ट के पीछे पड़ा है। मैंने खुद कितने ही अम्बेडकरवादी वकीलों से सम्पर्क किया कि वे ईवीएम के इस दोष पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करें लेकिन किसी ने भी इस बात को तवज्जो नहीं दी। मैंने तो फेसबुक पर मुखर रहने वाले बहुजनों को भी मैसेज किया लेकिन उनका कोई रिस्पांस नहीं आया। ऐसे में इनसे क्या उम्मीद की जाए? हाँ, मेरी ओर से कमी यह रही कि मैंने ईवीएम की इस समस्या के विरोध पर अपना आलेख अंग्रेज़ी में लिखा। शायद इस वजह से व्यापक अम्बेडकरी बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी इसे नहीं पढ़ पाए हों, लेकिन आपका यह इंटरव्यू इस कमी को पूरा करने में कामयाब होगा। मझे ऐसी उम्मीद है।

सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग इस पर विशेष कुछ करने वाले नहीं हैं। सरकार के पास भी अपने तर्क हैं। ऐसी स्थिति मे क्या किया जाना चाहिए ताकि लोगों के वोट की गोपनीयता का अधिकार और उसकी स्वायत्तता बनी रहे और लोकतंत्र बचा रहे

उनके सारे तर्क इसी बात पर केंद्रित हैं कि ईवीएम टेम्पर प्रूफ है। उहोंने इस चैलेंज को स्वीकारा भी था कि आओ और इसे बिना छुए छेड़छाड़ कर दिखाओ। लेकिन जैसा मैंने कहा कि ये सब काम हैकरों का है। हमारे जैसे एक्टिविस्ट का नहीं। हमारा विरोध तो सिर्फ इसी बात को लेकर है कि इससे मतदाता की पहचान उजागर होती है। इस विषय पर अगर चाहें तो हम किसी से भी बहस के लिये तैयार हैं। कम से कम इस इंटरव्यू के बाद सुप्रीम कोर्ट को स्वत: संज्ञान लेते हुए ईवीएम पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की दिशा में काम करना चाहिये। लोकतंत्र की रक्षा का सबसे अहम दायित्व तो सुप्रीम कोर्ट का है या फिर नागरिकों का। शायद आम नागरिकों को ही सामने आना होगा। हमें उम्मीद रखनी चाहिये।

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[1]http://www।eci।nic।in/eci_main/eci_publications/books/miscell/Debate_in_Constituent_Assembly_On_Elections।pdf

गाँव के लोग
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