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पारंपरिक खेती छोड़कर खस और जड़ी-बूटियों की खेती कर रहे हैं शाहजहाँपुर के किसान

शाहजहाँपुर (भाषा)। प्रगतिशील खेती का केंद्र बन रहे शाहजहाँपुर के कई किसानों के जीवन में ‘खस’ की खेती खुशहाली की खुशबू लेकर आई है। रामगंगा और गंगा नदी की कटरी में लहलहा रही सोंधी महक वाली ‘खस’ की खेती यहां के किसानों को कुछ इस तरह रास आ रही है कि वे अब परंपरागत कृषि […]

शाहजहाँपुर (भाषा)। प्रगतिशील खेती का केंद्र बन रहे शाहजहाँपुर के कई किसानों के जीवन में ‘खस’ की खेती खुशहाली की खुशबू लेकर आई है।

रामगंगा और गंगा नदी की कटरी में लहलहा रही सोंधी महक वाली ‘खस’ की खेती यहां के किसानों को कुछ इस तरह रास आ रही है कि वे अब परंपरागत कृषि छोड़कर इसी सुगंधित जड़ी-बूटी की ही पैदावार करने लगे हैं।

वकालत के पेशे को छोड़कर खस की खेती को अपना चुके जितेंद्र अग्निहोत्री सरकार से इसकी खेती को प्रोत्साहन दिए जाने की वजह से भी इस औषधीय जड़ी के कारोबार में एक खुशहाल भविष्य देखते हैं।

शाहजहांपुर जिले के मिर्जापुर इलाके में स्थित गाजीपुर चिकटिया गांव के निवासी एक प्रगतिशील किसान अग्निहोत्री ने को बताया कि कुछ नया करने की धुन में उन्होंने पहले औषधीय पेड़ ‘अकरकरा’ की खेती की थी लेकिन ज्यादा लाभ नहीं होने के चलते उन्होंने अकरकरा की खेती का विचार छोड़ दिया। बाद में उन्होंने जब खस की खेती शुरू की और बेहतर मुनाफा पाया तो उन्होंने इसी को अपना लिया।

अग्निहोत्री ने बताया कि वह चार साल से 25 एकड़ भूमि में खस की खेती कर रहे हैं। एक एकड़ में लगी फसल से 10 से 15 किलोग्राम तक तेल निकलता है। इस तेल का मूल्य प्रति किलोग्राम 30 हजार रुपये से लेकर 60 हजार रुपये तक होता है। इसके अलावा जड़ के ऊपरी पौधे से कलम बनाई जाती है। उसका भी अपना बाजार है।

उन्होंने बताया कि खस के तेल से महंगे इत्र, सौंदर्य प्रसाधन और दवाएं वगैरह बनाई जाती हैं। इसके अलावा इसकी जड़ें गर्मियों में कूलर की घास के तौर पर और छाया के लिए शेड बनाने में भी इस्तेमाल की जाती हैं।

अग्निहोत्री ने बताया कि खस के कारोबार की व्यापक संभावनाओं को देखते हुए उन्होंने इस जड़ी का तेल निकालने का कारखाना लगा लिया है। कुल 25 एकड़ क्षेत्र में लगी फसल से लगभग 250 किलोग्राम तेल निकाल लेते हैं।

इस तेल को कहां बेचा जाता है इस बारे में पूछे जाने पर अग्निहोत्री ने बताया कि उन्हें इसके लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। दिल्ली, राजस्थान और कन्नौज के तमाम व्यापारी उनसे फोन पर पूछते हैं और उनके यहां से ही खरीद कर ले जाते हैं।

बंडा इलाके के रहने वाले प्रगतिशील किसान अरविंद जैन भी औषधीय पौधों की खेती लंबे समय से कर रहे हैं और अब खस की फसल के प्रति उनका लगाव खासतौर पर बढ़ गया है।

जैन लगभग पांच एकड़ इलाके में खस की खेती करते हैं। उनका मानना है कि इस जड़ी बूटी के कारोबार में तरक्की की व्यापक संभावनाएं हैं।

उन्होंने कहा कि इस खेती की सबसे खास बात यह है कि सैकड़ों की तादाद में घूम रहे छुट्टा पशु भी इसे नहीं खाते हैं और इसमें किसी भी खाद का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

जैन ने कहा कि अच्छी फसल पाने के लिए जरूरत के मुताबिक सिंचाई करनी पड़ती है। बोआई के 18 से 24 माह के बाद खस की जड़ों की खुदाई की जाती है। ठंड के मौसम में खुदाई करने से अच्छी गुणवत्ता का तेल निकलता है।

सरकार भी इस औषधीय सुगंधित जड़ी बूटी की खेती को लेकर ज्यादा से ज्यादा काश्तकारों (किसानों) को प्रोत्साहित कर रही है।

अपर जिलाधिकारी (प्रशासन) संजय कुमार पांडे ने कहा कि खस की खेती के लिए सरकार छह लाख रुपये की लागत पर तीन लाख रुपये की सब्सिडी देने के साथ-साथ फसल के रखरखाव के लिए हर साल 60 हजार रुपये भी देती है। उन्होंने कहा कि इस खुशबूदार जड़ी की खेती के प्रति किसानों को जागरूक करने के लिए सरकारी स्तर पर कई प्रयास किए जा रहे हैं।

पांडे ने बताया कि जिले में ‘हर्बल गार्डन’ की एक योजना है जिसमें डिग्री कॉलेज तथा बड़े अस्पतालों के पास खस सहित औषधीय खेती की जा सकती है।

जिला उद्यान अधिकारी राघवेंद्र सिंह ने बताया कि खस की खेती मुनाफे का सौदा है। इसमें कम देखरेख के साथ-साथ मुनाफा अधिक होता है और बाढ़ आने पर या सूखा पड़ने पर भी इसकी फसल को कोई नुकसान नहीं होता है।

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