Saturday, January 25, 2025
Saturday, January 25, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमग्राउंड रिपोर्ट

ग्राउंड रिपोर्ट

चुनार पॉटरी उद्योग : कभी चमचमाता कारोबार अब एक भट्ठी की आस लिए बरबादी के कगार पर  

किसी ज़माने में चुनार के चीनी मिट्टी के बर्तनों की धाक बहुत दूर-दूर तक थी लेकिन आज वह अंतिम साँस ले रहा है। यहाँ के ज़्यादातर व्यवसायी खुर्जा से माल मंगाकर कर बेचते हैं। चुनार पॉटरी उद्योग के खत्म होने के पीछे एक अदद आधुनिक भट्ठी है जो बरसों की मांग के बावजूद नहीं लगाई जा सकी। नौकरशाही की अपनी अलबेली चाल है और व्यवसायियों की अपनी आर्थिक सीमाएं हैं। इन्हीं स्थितियों के कारण महज़ तीन-चार करोड़ की लागत वाली भट्ठी नहीं बन पाई जबकि भारत सरकार पूर्वांचल के विकास के लिए हजारों करोड़ की योजनाएँ घोषित कर चुकी है। एक भट्ठी के अभाव ने एक शहर की कारोबारी पहचान और हजारों लोगों की आजीविका छीन ली है। चुनार से लौटकर अपर्णा की रिपोर्ट

वाराणसी में नट समुदाय : अभी भी दूर है साफ पानी का सपना

सरकार योजनाएँ लाती है और इसके लिए करोड़ों रुपए का बजट पास करती है। योजना की घोषणा के बाद लगता है कि अब सारी दिक्कतें दूर हो जाएंगी लेकिन तंत्र में बैठे लोग योजनाओं से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की जुगत लगाते हैं। ऊपर तो भ्रष्टाचार है ही नीचे वाले जो सीधे जनता से जुड़े होते हैं, वे भी गरीब मजदूर जनता को साफ-साफ ठगने का काम करते हैं। योगी सरकार का दावा है कि हर रोज 40 हजार नए नल में पानी की आपूर्ति हो रही है, गाँव में नल तो लगे हुए हैं लेकिन अधिकाशत: नलों में पानी की जगह हवा निकल रही और जो दावे की पोल खोल रही है। वाराणसी के नहवानीपुर नट बस्ती से अपर्णा की ग्राउंड रिपोर्ट

जौनपुर : ऐतिहासिक धरोहरों का शहर, लेकिन पर्यटन के नक्शे पर नहीं

जौनपुर की धरोहरें केवल इतिहास का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि वे एक जीवंत संस्कृति का प्रतीक भी हैं। अगर इन स्थलों को सहेजने और प्रचारित करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं, तो यह शहर न केवल अपनी पहचान बचा सकता है, बल्कि पर्यटन के माध्यम से विकास की नई कहानी भी लिख सकता है। जौनपुर शहर की पहचान जिन ऐतिहासिक धरोहरों से होती है, वे देखरेख के अभाव में लगातार खंडहर में तब्दील हो रही हैं। लगभग 600 साल पुरानी इस विरासत होने के बावजूद यह स्थान पर्यटन स्थल के रूप में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया है। पढ़िए आनंद देव की ग्राउंड रिपोर्ट

नट समुदाय : पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के दावे के बीच पूरा समुदाय आदतन अपराधी के तौर पर उत्पीड़न झेलने को अभिशप्त

जैसे ही नट समुदाय की बात होती है, वैसे ही सभी के जेहन में या जुबान पर उनके चोर होने व उनसे सतर्क रहने का भाव या बात सामने आती है। यह बात आज नहीं बल्कि 150 वर्ष पहले लागू की गई थी, जब ब्रिटिश सरकार ने 1871 से 1952 के बीच, वीजेएनटी जनजातियों पर 'जन्मजात अपराधी' माना, लेकिन स्वतंत्रता के बाद, विभिन्न जनजातियों में पुनर्वर्गीकरण होने के बाद, उनके सामाजिक बहिष्कार व बुनियादी सुविधाओं से वंचित होने के साथ 'आदतन अपराधी' के कलंक का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उसके बाद भारतीय संविधान में 1952 में संशोधन कर इसे 'आदतन अपराधी' माना गया। पुलिस-प्रशासन कैसे इसे उपयोग में लाते हुए नट बस्तियों में रहने वाले लोगों को प्रताड़ित करते हैं, पढ़िये प्रेम नट की ग्राउंड रिपोर्ट 

तमनार : बेकाबू कॉर्पोरेट ताकतों ने आदिवासी समुदाय को जरूरी संसाधनों से किया बेदखल

भूमि अधिग्रहण अधिनियम कहता है कि बिना उचित सहमति और उचित मुआवज़े के सार्वजनिक या औद्योगिक उद्देश्यों के लिए भूमि नहीं ली जा सकती, लेकिन गारे के ग्रामीणों को अपनी भूमि और संपत्ति के अधिकार की रक्षा के लिए शक्तिशाली कंपनियों के खिलाफ लड़ाई में अकेला छोड़ दिया गया है। पढ़िए राजेश त्रिपाठी की तमनार से ग्राउंड रिपोर्ट

एक किलो राशन चूहे खा जाते हैं इसलिए बीस नहीं उन्नीस किलो लीजिये

एक किस्सा बनारस के हुकुलगंज इलाके में सामने आया है। एक वायरल वीडियों में दुकानदार पूरी दबंगई से कह रहा है कि बीस किलो में एक किलो राशन चूहे खा जाते हैं इसलिए अनाज एक किलो कम देते हैं। इससे यह समझना कोई मुश्किल नहीं रह जाता कि जनता के अधिकारों को सरकारी गल्ले के दुकानदार खैरात समझते हैं और खुलेआम खाद्य सुरक्षा अधिनियम का मज़ाक उड़ाते हैं।

नदियों के बहने से ही जीवन का प्रवाह अविराम होगा !

देवरिया जनपद में बिहार राज्य की सीमा पर स्थित ‘स्याही नदी’ अपने नाम और वर्तमान स्थिति के कारण एक अनोखी नदी है। सन1916-17 में अंग्रेजों के जमाने में की गयी चकबंदी में बीस किमी लम्बाई में लगभग 300 मीटर चौड़ाई वाली महानदी स्याही के समस्त प्रवाह क्षेत्र को एक राजस्व ग्राम ‘मोहाल स्याही नदी’ के रूप में दर्ज कर उसके भीतर किसानों के कृषि कार्य हेतु चक आवंटन करना आश्चर्यचकित करने वाली घटना है।

एक दिहाड़ी मजदूर का जीवन

सहरता को साल तो याद नहीं है लेकिन वो बताते हैं कि जम्मू और बाकी जगहों पर जब दिहाड़ी तीन रुपया थी तब वो बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के एक गाँव से अपने माँ-बाप के साथ जम्मू में ईंट के भट्ठे पर काम करने के लिए गए थे। घर पर खेती के लिए कोई जमीन नहीं थी इसलिए माता-पिता जम्मू और पंजाब में काम के लिए आते थे और सहरता के अनुसार अपने माता-पिता की तरह ही काम करने की उम्र होते ही उन्होंने भी ईंट भट्ठे पर काम करना शुरू कर दिया था। कुछ सालों में जब माता-पिता वापस गाँव में रहने के लिए चले गए तो सहरता भी जम्मू से चंडीगढ़ कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरी का काम करने के लिए आ गए।

मनरेगा: रोजगारसेवक को खर्चा-पानी दिए बिना भुगतान नहीं

2010 में गाँव सैदपुर में उनका एनरोलमेंट मनरेगा में हुआ और तब से औसतन प्रतिवर्ष दो महीने का काम मिलता रहा है । 2010 में उन्हें 65 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिलती थी जो अब बढ़कर 120 रुपये हो गई है। मनरेगा के अपने अनुभवों को साझा करते हुए रामचंद्र बताते हैं कि उन्होंने अब तक गाँव के आस-पास पुलिया लगाने, सड़क और नाली की मरम्मत करने और नई नालियां बनाने के काम में लगे रहे। उनका अब कोई बकाया नहीं है लेकिन तमाम मनरेगा मजदूरों की तरह वे भी कहते हैं कि जब भी वे बैंक से पैसा निकालते हैं तो तुरंत ही प्रधान का आदमी आकर अपना हिस्सा ले जाता  है।