Saturday, November 8, 2025
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पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

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ग्राउंड रिपोर्ट

बिहार : ईंटों के बीच दबे भट्ठा मजदूरों की व्यथा

ईंट भट्ठों में काम करने वाले मजदूर हमारी सभ्यता की नींव हैं। वे हमारी इमारतें बनाते हैं, हमारे घरों को खड़ा करते हैं, लेकिन उनके अपने घर रहने लायक नहीं होते। अगर हमें एक विकसित समाज बनाना है, तो हमें इन मजदूरों की स्थिति सुधारने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। वरना उनकी गरीबी की ये ईंटें हमेशा उनकी तरक्की का रास्ता रोकती रहेंगी।

रामपुर गांव : ‘क्राफ्ट हैंडलूम विलेज’ में बुनकरों का अधूरा सपना और टूटती उम्मीदें

रामपुर गांव की कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं है, बल्कि यह उन लाखों कारीगरों और बुनकरों की कहानी है, जो सरकारी योजनाओं के अधूरे वादों और बाजार की बेरुखी के बीच फंसे हुए हैं। यह समय है कि सरकार और समाज मिलकर इनके सपनों को साकार करने के लिए कदम उठाए। अगर समय रहते इनकी मदद नहीं की गई, तो यह अद्वितीय कला और कौशल हमेशा के लिए खो जाएगा। पढ़िए नाजिश महताब की ग्राउंड रिपोर्ट।

बिहार में ‘हर घर नल का जल’ की हकीकत : बरमा गांव की प्यास

पिछले कई वर्षों से हर घर नल जल योजना की धूम मची हुई है और इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट के रूप में प्रचारित किया जा रहा है लेकिन वास्तविकता प्रचार के बिलकुल उलट है। लगातार बढ़ते साफ पानी के संकट के मद्देनज़र यह योजना एक मज़ाक बनकर रह गई है। बिहार के लाखों ग्रामीण गंदे और ज़हरीले पानी का इस्तेमाल करने को विवश हैं। गया जिले के बरमा गांव में पानी का कैसा संकट है और सरकार की योजना किस हालत में है इस पर नाज़िश मेहताब की रिपोर्ट।

अवधी में गानेवाली यूट्यूबर महिलाएं : कहीं गरीबी से रस्साकसी कहीं वायरल हो जाने की चाह

पिछले कुछ ही वर्षों में अवधी भाषी महिलाओं ने बड़ी संख्या में यूट्यूब पर अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है। यह ऐसी महिलाओं की कतार है जो निम्न मध्यवर्गीय और खेतिहर परिवारों से ताल्लुक रखती हैं और घर-गृहस्थी की व्यस्त दिनचर्या के बावजूद अपने गीतों से एक बड़े दर्शक समूह को प्रभावित किया है। इनमें से कई अब पूर्णकालिक और स्टार यूट्यूबर बन चुकी हैं। अपने बचपन में सीखे गीतों को वे बिना साज-बाज के गाती हैं और लाखों की संख्या में देखी-सुनी जाती हैं। यू ट्यूब पर गाना उनके लिए न केवल अपनी आत्माभिव्यक्ति है बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता भी है। इसके लिए उन्होंने कठिन मेहनत किया है। परिवार के भीतर संघर्ष किया है। जौनपुर, आजमगढ़ और अंबेडकर नगर जिलों के सुदूर गांवों की इन महिलाओं पर अपर्णा की यह रिपोर्ट।

पॉल्ट्री उद्योग : अपने ही फॉर्म पर मजदूर बनकर रह गए मुर्गी के किसान

भारत में पॉल्ट्री फ़ार्मिंग का तेजी से फैलता कारोबार है। अब इसमें अनेक बड़ी कंपनियाँ शामिल हैं जिनका हजारों करोड़ का सालाना टर्नओवर है लेकिन मुर्गी उत्पादक अब उनके बंधुआ होकर रह गए हैं। बाज़ार में डेढ़-दो सौ रुपये बिकनेवाला चिकन पॉल्ट्री फार्म से मात्र आठ रुपये किलो लिया जाता है। अब मुर्गी उत्पादक स्वतंत्र इकाई नहीं हैं। कड़े अनुबंध शर्तों पर वे कंपनियों के चूजे और चारे लेकर अपनी मेहनत से उन्हें पालते हैं और कंपनी तैयार माल उठा लेती है। मुर्गी उत्पादक राज्य और केंद्र सरकार से यह उम्मीद कर रहे हैं कि सरकारी नीतियाँ हमारे अनुकूल हों और हमें अपना उद्योग चलाने के लिए जरूरी सहयोग मिले। लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? पूर्वांचल के पॉल्ट्री उद्योग पर अपर्णा की रिपोर्ट।

मिर्ज़ापुर में टी बी का इलाज : दवाओं से ज्यादा पाखंड का डोज़

सरकार टीबी मुक्त भारत अभियान चला रही है ताकि 2025 तक देश से इसका समूल नाश हो सके। इसके लिए तरह-तरह के कार्यक्रम और योजनाएं लाई जा रही हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के मिर्जापुर जिले में टीबी के मरीजों की संख्या देखते हुए नहीं लगता कि 2025 तक इसका अंत हो पाएगा। मिर्जापुर जिले में पाँच साल में 636 टीबी मरीजों की मौत हो चुकी है। गाँव के लोग की ओर से पत्रकार संतोष देव गिरि ने इस पूरे मामले की छानबीन की और यह पाया कि जिले में टीबी मरीजों की संख्या लगातार बढ़ी है जबकि उनका इलाज समुचित रूप से नहीं हो रहा है। कहीं दवा का अभाव है तो कहीं भ्रष्टाचार और अराजकता का बोलबाला है। निःशुल्क सरकारी इलाज उपलब्ध होने के बावजूद डॉक्टर बाहर की दवाएँ लिखते हैं। उनका ज़ोर इस बात पर होता है कि मरीज़ उनकी बताई दुकानों से ही दवा खरीदे।

Bhadohi : सरकार की अलबेली चाल, न नहर में पानी, न सड़क की व्यवस्था

भदोही जिले के भुर्रा गांव के लोगों का कहना है कि आजादी के बाद से उनके गांव में कोई विकास कार्य नहीं हुआ है. नहर का निर्माण 20 साल पहले हुआ था और पानी केवल एक बार आया था। गांव का संपर्क मार्ग एक नहर से होकर गुजरता है जिसमें गड्ढे ही गड्ढे हैं और बरसात के दिनों में इससे गुजरना बहुत मुश्किल होता है।

राबर्ट्सगंज घसिया बस्ती : जगह खाली करने का फरमान लेकिन पुनर्वास का कोई ठिकाना नहीं

अपनी जड़ों से कटकर विस्थापित होना इस देश के आदिवासियों की नियति बन चुकी है क्योंकि तथाकथित विकास अब जंगलों से होता हुआ उन हिस्सों में पहुँच चुका है, जहां आदिवासी कम संसाधनों में ही अपना जीवनयापन कर रहे हैं। रॉबर्ट्सगंज के चुर्क इलाके में घसिया बस्ती में रहने वाले आदिवासियों को दूसरी बार विस्थापित करने की तैयारी सरकार कर चुकी है। फिलहाल वे सरकारी जमीन पर ही पिछले 35 वर्षों से रह रहे हैं लेकिन विस्थापन की सूचना आते ही वे डरे और घबराए हुए हैं। पढ़िये, उनकी स्थिति का जायज़ा लेने पहुंचे अमरनाथ अजेय की ग्राउंड स्टोरी

Banaras : बांसफोर समाज की स्थिति में कब स्थायित्व आएगा!

विकसित भारत के तमाम दांवो की पोल तब खुलने लगते हैं जब हम हाशिये पर जीवन गुजारने वाले असंख्य समुदायों को देखते हैं जिनके...
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