Saturday, July 27, 2024
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प्रेमचंद को याद करते हुये मणिपुर को कैसे भुलाया जा सकता है

आज के लोग कार्पोरेट से मिलकर या उनकी तरह काम कर रहे हैं : चौथीराम यादव  साम्प्रदायिकता प्रेमचंद के समय से नहीं अपितु कबीर के समय से ही है। रैदास और कबीर दोनों ही साम्प्रदायिकता पर प्रहार कर रहे थे। इसमें  रैदास की अपेक्षा कबीर ज्यादा प्रहार कर रहे थे। उस समय मंदिर-मस्जिद को लेकर […]

आज के लोग कार्पोरेट से मिलकर या उनकी तरह काम कर रहे हैं : चौथीराम यादव 

साम्प्रदायिकता प्रेमचंद के समय से नहीं अपितु कबीर के समय से ही है। रैदास और कबीर दोनों ही साम्प्रदायिकता पर प्रहार कर रहे थे। इसमें  रैदास की अपेक्षा कबीर ज्यादा प्रहार कर रहे थे। उस समय मंदिर-मस्जिद को लेकर दोनों समुदायों में जो लोग भी भ्रान्तियां पैदा कर रहे थे, उस समय के संत इसे कम या ख़त्म करने का प्रयास कर रहे थे कि दोनों समुदाय आपस में प्रेमपूर्वक और धार्मिक सहिष्णुता के साथ जीवनयापन करें,  यह साम्प्रदायिकता उसी समय से शुरू हुई जो आज भी चलती आ रही हैं

साम्प्रदायिकता पर प्रहार करने वालों में संत रचनाकार भी रहे हैं। सगुण भक्त के जो लोग रहे हैं वो वैदिक पौराणिक परम्परा को लेकर चलने वाले लोग हैं, उनके यहाँ  साम्प्रयिकता को लेकर कोई मतभेद या सवाल नहीं है न ही जाति व्यवस्था को लेकर कोई सवाल था।

मुंशी प्रेमचंद ने साम्प्रदायिकता को लेकर काफी अच्छे लेख लिखे हैं, जिनमें उन्होंने उस समय के धार्मिक और सामाजिक परिवेश का ताना-बाना बुना और अपने उपन्यासों के माध्यम से ही उन पर भरपूर कटाक्ष भी किया। आज की परिस्थिति को लेकर क्या कहा जाये। आज के लोग कार्पोरेट से मिलकर या उनकी तरह काम कर रहे हैं।

आज और भी कठिन स्थिति हो गई है। प्रेमचंद ने बहुत पहले ही लक्षित कर दिया था कि ये पूंजीवाद भयंकर रूप में आयेगा इसलिए उन्होंने महाजनी सभ्यता के नाम पर बानगी दे दी थी। प्रेमचंद के समय में जब एक तरह से सामंतवाद खत्म हो रहा था, उस समय देश के भीतर ऐसी स्थितियाँ बन रही थीं। उनमें महाजनी सभ्यता या पूंजीवाद का बड़ा योगदान रहा। ग्रामीण परिवेश में किसान का जीवन बड़ा कठिन रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में उस समय पूंजी का विलोप हो रहा था। ग्रामीणों को उनकी भूमि गिरवी रख कर ब्याज पर महाजन ऋण देते थे। उनके उपन्यासों में दातादीन पंडित, दुलारी सहुआइन आदि पात्र ग्रामीणों को सूद पर ऋण देते थे जो उस समय के ग्रामीण परिवेश को चित्रित करता थ। पूरे समाज को महाजनी सभ्यता ने जकड़ रखा था। अभी तो साम्प्रदायिकता और ब्राहमणवाद का नंगा नाच हो रहा है और पूंजीवाद से उसके मेल का कहना ही क्या, जिसे हम अडानी के रूप में देख ही रहे हैं। वह ब्राह्मणवाद सत्ता और सांप्रदायिक सत्ता के साथ इतना जुड़े हुए हैं कि पूरी दुनिया में इसके खिलाफ बात हो रही है लेकिन उसके बाद भी साथ नहीं छोड़ रहे हैं। देखा जाए तो आज तो ज्यादा जकड़ा हुआ रूप है। इसी महाजनी सभ्यता के बारे में प्रेमचंद शुरू से ही कहते आ रहे हैं। वही महाजनी सभ्यता आज के पूंजीवादी व्यवस्था में इतनी ज्यादा मारक हो गई है कि सांप्रदायिक-फासीवाद के रूप में बराबर हमारे सामने आ रही है। इसे खत्म करना नामुमकिन हो गया है।

[bs-quote quote=”वह ब्राह्मणवाद सत्ता और सांप्रदायिक सत्ता के साथ इतना जुड़े हुए हैं कि पूरी दुनिया में इसके खिलाफ बात हो रही है लेकिन उसके बाद भी साथ नहीं छोड़ रहे हैं। देखा जाए तो आज तो ज्यादा जकड़ा हुआ रूप है। इसी महाजनी सभ्यता के बारे में प्रेमचंद शुरू से ही कहते आ रहे हैं। वही महाजनी सभ्यता आज के पूंजीवादी व्यवस्था में इतनी ज्यादा मारक हो गई है कि सांप्रदायिक-फासीवाद के रूप में बराबर हमारे सामने आ रही है” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज के दौर के लेखक साम्प्रदायिकता जैसे सवालों से बचते हैं। अभी रामजी राय आये थे तो बात होने लगी कि सभी मार्क्सवादी लोग अपना काम बच-बच के कर रहे हैं। जब मैं बोलता हूँ तो सम्हलकर बोलता हूँ। पर सच्चाई मुंह से निकल ही जाती है। रामजी राय ने कहा कि देखिये दो तरह की बातें हैं – एक तो यह कि कुछ लोग भयभीत रहते हैं और दूसरे वे लोग जो कुछ बोले भी तो वे जानते हैं कि इससे उन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, तो नाजायज बोलने का कोई मतलब नहीं रह जाता है।

इस सरकार की ये जो सत्ता व्यवस्था है वह उसको तत्काल नोटिस कर, उस पर एफआइआर दर्ज करना या जेल भेजना इस तरह के कार्य करती है, तो कोई भी सामने से इसके खिलाफ़ आवाज नहीं उठाना चाहता है। इसका मतलब यह तो नहीं है कि जो मार्क्सवादी हैं या उसके विचारों का समर्थन करते हैं वे एकदम शांत ही हैं। मणिपुर हादसे में राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों फेल हैं। इतने लोग मारे जा रह हैँ। यह सरकार हिन्दू-मुस्लिम करती है लेकिन वहाँ मसला हिन्दू-ईसाई का हो गया। संघ के सबसे बड़े दुश्मन मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट रहे हैं। यूरोपीय यूनियन ने एक शिकायत भी दर्ज की थी कि मणिपुर में चर्च जलाए जा रह हैं। ईसाइयों को मारा जा रहा है। नरसंहार हो रहा है लेकिन सरकार ध्यान नही दे रही है लेकिन दुनिया नोटिस ले रही है। वहाँ जमीनों को हथिया लेने की पूरी साजिश है और ये जमीनें अदानी-अंबानी को दे दी जाएंगी। यही होंने वाला है। सरकार का  इस तरह चुप रहना और कोई एक्शन नहीं लेने का मतलब है कि संघ और बीजेपी का इस हमले में पूरा सपोर्ट है। हिन्दुत्ववाद को बढ़ावा देना है। संघ का एजेंडा है।

प्रेमचंद डीकास्ट और डीक्लास हुये थे और आज का लेखक अपनी जाति और वर्ण में वापसी कर रहा है: वीरेंद्र यादव

प्रेमचंद उन दिनों की समसामायिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों को दृष्टिगत करते हुए लेखन कर रहे थे। लेकिन उनके समक्ष हमेशा एक आदर्श था और प्रेमचंद ने कहा था कि एक पराधीन देश का जो साहित्य होता है वह वैसा नहीं होता जैसे स्वाधीन देश का या एक विकसित देश का होता है। पराधीन देश के साहित्यकार का लेखन अलग होता है। प्रेमचंद ने कहा था कि वह अपने समाज को कुछ संदेश दे और उस समाज को कुछ रास्ता दिखाए। इसको दृष्टिगत करते हुए प्रेमचंद अपनी कहानियों, उपन्यासों और अन्य लेखन में एक आदर्श उपस्थित करते थे। प्रेमचंद का यह आदर्श प्रासंगिक था। प्रेमचंद के भीतर भारतीय समाज को एक बेहतर समाज बनाने का जो संकल्प था, वह आज भी प्रासंगिक है। यह बात दूसरी है कि भारतीय समाज में बहुत सी विकृतियाँ आ गईं हैं और गिरावट आई हैं। विकृतियाँ या गिरावट आ जाने से उनके मूल्य, उनका साहित्य, उनका लेखन अप्रासंगिक नहीं हो जाता बल्कि मैं समझता हूं, आज सौ साल के बाद (जैसे आपने पंच परमेश्वर का जिक्र किया)  भी न जाने कितनी उनकी कहानियां हैं जो आज फिर से याद आ रही हैं, चाहे वह हिंदू-मुस्लिम संबंध को लेकर हों, चाहें दलित समाज को लेकर हों या चाहे स्त्री प्रसंग को लेकर हों। उन्होंने सौ साल पहले भारतीय समाज की स्थितियों को लेकर जो लेखन किया था,  भारतीय समाज की स्थितियां बदलने के बावजूद अपने मूलस्वरूप में वह आज भी कायम हैं, क्योंकि सांप्रदायिकता देश की सबसे बड़ी समस्या है। सांप्रदायिकता से आगे जाकर हिन्दू-मुस्लिम संबंधों में जो विकार आया है,  मुस्लिम को अन्य रूप में मानकर के हिन्दू राज्य की अवधारणा विहित की जा रही है। प्रेमचंद ने अपने समय में इस खतरे को देखा था। उन्होंने बाकायदा पचास से अधिक टिप्पणियाँ हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर लिखी थीं। यह अनायास नहीं था। वे जानते थे कि आने वाले समय में भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता एक बड़ी समस्या बनेगी, इसलिए उन्होंने साम्प्रदायिकता को केन्द्रित करके उस पर अनेक लेख लिखे।  कर्बला जैसा नाटक लिखा और कई कहानियां भी लिखीं। उनके उपन्यासों में भी हिन्दू-मुस्लिम संबंधों का चित्रण दिखाई पड़ता है।

एक लेखक में प्रतिबद्धता, निडरता और जोखिम उठाने का साहस होना चाहिए और प्रेमचंद जिस समय लेखन कर रहे थे उस समय वे सरकारी नौकरी में थे। उन्होंने नौकरी से इस्तीफ़ा दिया था। गांधी जी के साथ स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल होने के लिए गए और अपने लेखन के द्वारा हस्तक्षेप किया। उन्होंने अपने लेखन और जीवन में भी बहुत जोखिम उठाए।

आज भारतीय समाज के समक्ष जितनी विकराल स्थिति और चुनौतियां हैं, इन चुनौतियों का उल्लेख करके हिन्दू लेखक समुदाय को जिस तरह से एक हस्तक्षेप का लेखन करना चाहिए, उस तरह का लेखन वह नहीं कर रहा है। और दूसरी बात यह भी है कि जो लेखन किया भी गया है, जैसे दूधनाथ सिंह का उपन्यास आखिरी कलाम, लेकिन इस तरह के लेखन की चर्चा बहुत ही कम होती है। या इन दिनों जिस तरह से मणिपुर कि स्थितियां हैं, मणिपुर में जिस तरह से स्त्रियों को निशाना बनाया जा रहा है, उनके साथ जिस तरह से दैहिक अत्याचार किया गया है, मुझे बार-बार याद आता है यशपाल का उपन्यास झूठ सच, जिसमें विभाजन के दौरान की विभीषका में स्त्री इसी तरह की स्थितियों से गुजरी थी। विभाजन के समय उसे इसी तरह से निशाना बनाया गया था।  तो अब सवाल यह है कि यशपाल का झूठा-सच स्त्रियों के संदर्भ में कितना याद किया जाता है। आज का लेखकीय समुदाय आगे बढ़कर जोखिम के इलाके का लेखन नहीं कर रहा है। यह चिंता की बात है क्योंकि चुनौतियां बड़ी हैं। और इन चुनौतियों के लिए प्रतिबद्धता के साथ लेखन किया जाना चाहिए था, वह नहीं हो रहा है।

[bs-quote quote=”प्रेमचंद ने अपने समय में इस खतरे को देखा था। उन्होंने बाकायदा पचास से अधिक टिप्पणियाँ हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर लिखी थीं। यह अनायास नहीं था। वे जानते थे कि आने वाले समय में भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता एक बड़ी समस्या बनेगी, इसलिए उन्होंने साम्प्रदायिकता को केन्द्रित करके उस पर अनेक लेख लिखे।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”वीरेंद्र यादव ” author_job=”” author_avatar=”https://gaonkelog.com/wp-content/uploads/2023/07/Virendra-yadav.jpg” author_link=””][/bs-quote]

लेखक समुदाय ज्यादातर मध्यवर्ग से आता है। प्रेमचंद्र स्वयं मध्यवर्ग से आए थे लेकिन उस मध्यवर्ग की संरचना और गठन भिन्न तरीके से थी। लेकिन आज मध्यवर्ग उपभोक्तावादी संस्कृति का एक हिस्सा बन गया है। और वह सामूहिकता में कम, व्यक्तिवाद में ज्यादा विश्वास करता है यानी खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ, सुखवाद की संस्कृति में डूबा हुआ है। जो लेखक मध्यवर्ग से आये हुए हैं, उन्हें अपने को वर्गीय स्थिति से मुक्त होकर अपने वर्गीय स्थिति की आलोचना करना होगा। यह उसका दायित्व है। प्रेमचंद और प्रेमचंद की परम्परा के जो लेखक थे, उन्होंने अपने को वर्ग से भी मुक्त किया और वर्ण से भी मुक्त किया। अंग्रेजी में जिसे कहते हैं डीकास्ट होना, डीक्लास होना। प्रेमचंद के साथ राहुल सांस्कृतयायन, नागार्जुन, यशपाल, फणीश्वरनाथ रेणु यानी एक बड़ी पांत है लेखकों की, वे इन चीजों से मुक्त हुए। आज जो बात हो रही है कि लेखक केवल मध्यवर्ग से ही नहीं आ रहा है, मध्यवर्ग के साथ वह मध्यवर्गीय मानसिकता को भी लेकर आ रहा है। और यहाँ मैं रेखांकित करना चाहता हूँ कि मध्यवर्गीय मानसिकता के साथ जो लेखन किया जाएगा वह बहुत सुरक्षित लेखन होगा। बहुत बच-बच कर लेखन होगा।

सांप्रदायिकता की बात की पर भी विचार करना चाहिए कि सांप्रदायिकता को लेकर जो हम कहते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई, सब प्रेम से रहें, सांप्रदायिकता बुरी चीज है, तो हम कहते हैं कि जोखिम के इलाके के लेखन में जाति के प्रश्नों को, दलित प्रश्नों को अर्थात इन प्रश्नों और मुद्दों की तरफ हिन्दी के लेखकों का ध्यान कम है। पहले भी मैंने कहा और लिखा है कि इस दौर में हिन्दी के लेखन की जो मुख्यधारा है, उसका बड़ा हिस्सा जो इसमें है अपनी जाति और वर्ण में वापस चला गया है और वह समाज के ज्वलंत मुद्दों से किनाराकशी कर रहा है।(वीरेंद्र यादव सुप्रसिद्ध आलोचक हैं।) 

जातिवाद और सांप्रदायिकता एक दूसरे से जुड़े हुये सवाल हैं : अनीता भारती

भारत में सांप्रदायिकता या जातिवाद हमेशा की समस्या है। अगर किसी लेखक की इन मुद्दों पर समझ है और उसके लिए वह थोड़ा भी संवेदनशील है। और वह अपने लेखकीय दायित्व के प्रति थोड़ा भी जागरूक है कि उसे मालूम होगा कि उसे क्या लिखना है? क्यों लिखना है? और यह भी कि वह जो लिख रहा है, उसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा? अगर ऐसा है तो निश्चित तौर पर लेखक सांप्रदायिकता और जातिवाद जैसी सब चीजों के खिलाफ होगा।  प्रेमचंद इन चीजों के खिलाफ थे। उनके लेखन में यह बात देखी जा सकती है। सांप्रदायिकता का सवाल हो या जातिवाद का, स्त्री की अस्मिता का सवाल हो या दलित प्रश्नों का, इन सबको लेकर वे एक तरह से अपने समय में बहुत प्रगतिशील थे। (दलित मुद्दों को लेकर कुछ कहानियाँ जरूर कंट्रोवर्सियल हैं) लेकिन दलित मुद्दों को लेकर बहुत सारी कहानियां सामने आईं जो बहुत ही संवेदनशील और बहुत अच्छी थीं।

सांप्रदायिकता के सवाल को लेकर हमारे बहुत सारे प्रगतिशील लेखक बहुत मुखर रहे हैं, सांप्रदायिकता के मुद्दे पर वह निकलकर आते हैं लेकिन लेकिन जाति मुद्दों या सवालोंपर सामने नहीं आते। प्रेमचंद की परम्परा को लोग आगे तो बढ़ रहे हैं सांप्रदायिकता के खिलाफ, लेकिन यह लोग ये नहीं समझ पाते कि जातिवाद और सांप्रदायिकता एक दूसरे से जुड़े हुये सवाल हैं, इनको अलग करके नहीं लिख सकते हैं।

जब तक इन दोनों सवालों को जड़ों से नहीं समझेंगे, तब तक हम न सांप्रदायिकता से लड़ सकते हैं न जातिवाद से लड़ सकते हैं। इन दोनों पर बहस उस तरीके से नहीं हुई है, क्योंकि जब भी कोई जातिवाद का शिकार हुआ है, वह दलित हुआ है। सांप्रदायिकता के शिकार गरीब मुसलमान हुए हैं। इन दोनों सवालों को देखा जाना चाहिए। यहाँ भी सांप्रदायिकता पीड़ित जो है, वे निम्नवर्ग के पसमांदा मुसलमान हैं। दोनों चीजों को जरूर देखना चाहिए। प्रेमचंद इस पर आवाज उठाते थे लेकिन उस समय पसमांदा मुस्लिमों को लेकर इस तरह की कोई राय नहीं थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में पसमांदा मुस्लिमों को लेकर आवाज आई है और उन्होंने सांप्रदायिकता के सवालों को उठाया है और एक अलग तरीके से उठाया है, जो प्रगतिशील, सवर्ण, कम्युनिस्ट या हिन्दू उठाते हैं, उससे अलग उठा रहे हैं। मुझे लगता उस समाज को हमें देखना चाहिए।

[bs-quote quote=”प्रेमचंद की परम्परा को लोग आगे तो बढ़ रहे हैं सांप्रदायिकता के खिलाफ, लेकिन यह लोग ये नहीं समझ पाते कि जातिवाद और सांप्रदायिकता एक दूसरे से जुड़े हुये सवाल हैं, इनको अलग करके नहीं लिख सकते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मुझे ऐसा लगता है प्रेमचंद की आँखों में जरूर कि ऐसा सपना था कि हम ऐसे समाज की रचना करें, जिसमें न्याय सबको मिले। चाहे बूढ़ी काकी हो। वह कल्पना करते हैं। मुझे लगता है यह एक लेखक का दायित्व है।  जैसे पंच परमेश्वर में न्याय पहले रखा, चाहे इससे दोस्ती टूट जाए। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि आजादी के 75 वर्ष होंने के बाद भी न्याय व्यवस्था और न्याय की उम्मीद धूमिल हुई है। न्याय मिलना मुश्किल हुआ है। खासकर वंचित तबके को। हम तमाम तरह के उदाहरण देखते हैं, बहुत तरह की घटनाओं को देखते हैं, जिनमें अत्याचार और उत्पीड़न के केस आते हैं, उनमें कभी न्याय नहीं मिलता। पहले कोई घटना होती थी तब मीडिया में शोर होता था लेकिन अब मीडिया भी उन घटनाओं सनसनी बना देती है। मेनस्ट्रीम की मीडिया में संवेदनशीलता नहीं बची है।  वंचित समुदाय में जो घटना होती हैं, उसमें न तो मीडिया ही, न ही न्यायपालिका कोई संवेदनशीलता दिखाती है। हमारे संविधान में समता की जो बात की गई है, उसी तरह की समता प्रेमचंद चाहते थे। लेकिन आज की स्थिति में यह बहुत मुश्किल होता जा रहा है। इसके लिए कुछ चर्चा-विमर्श होना चाहिए।(अनीता भारती सुप्रसिद्ध कवियत्री-कहानीकार और दलित लेखक संघ की अध्यक्ष हैं।)

लोग बोल रहे हैं : संजय श्रीवास्तव

सांप्रदायिकता का सवाल बहुत ही खतरनाक सवाल है, ख़ासकर तब जब देश में लोकतंत्र की दुहाई दी जा रही है कि हम आजादी के 75 वें साल में हैं। ये जो तंत्र है  इसमें धर्म की  राजनीति है, उग्र हिन्दुत्व की राजनीति है और मंदिर के नाम पर, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर, तमाम मुद्दों के नाम पर उन्होंने जिस तरह से लोगों को गुमराह किया है वह बहुत संगीन है।  इस सबके कारण बहुत से लोग बच रहे हैं। एक उद्दंड किस्म की, लुंपेन तरीके की संस्कृति सामने आई है। बीजेपी, आरएसएस जैसी पार्टियां जिनको तरजीह देती हैं। इस  तरह के युवाओं की भीड़ सामने आई है। एक कल्चर आया है कि लोग बोलने से हिचक रहे हैं। लेकिन उन्हें हिचकना नही चाहिये।  उन्हें अपनी बात सांफ-तौर से करनी चाहिए।  हमें हर तरह के खतरे उठाने चाहिए। बिना खतरा उठाये अपनी बात नही रखी जा सकती  है और लोग उठा रहे हैं,  बड़े पैमाने पर लोग अपनी बात बेहिचक कह रहे हैं। पत्रकार भी हैं, साहित्यकार भी हैं,  जो इस बारे में गंभीर व चिंतित हैं।  वे बोलने से कतई नहीं हिचक रहे हैं।

प्रेमचन्द्र का कैनवास बहुत बड़ा था इसलिए आपको उनका विरोध  दिखाई देता है।  वे उच्चकोटि के कथाकार थे, वे अच्छे संपादक थे, जिन्हें लोग गंभीरता से पढ़ते थे। उन लोगों का ध्यान आकर्षित होता था कि वे क्या लिख रहे हैं। आज के दौर में भी ऐसे पत्रकार हैं, जैसे रवीश कुमार के साथ और भी ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्हें अपनी नौकरी में पत्रकारिता के दौरान मुश्किलें उठानी पड़ रही हैं लेकिन फिर भी वे बोल रहे हैं और विरोध कर रहे हैं। नवीन कुमार हैं, उर्मिलेश हैं और इसी तरह बहुत से साहित्यकार और कवि हैं। ये सब लगातार विरोध कर रहे हैं, बोल रहे हैं। देवीप्रसाद मिश्र प्रतिरोध के बड़े कवि हैं। कभी बोलने से नहीं बचे। युवा कवियों में विहाग वैभव, नीलू सोनकर,कफील दरवेश, बच्चा लाल उन्मेष हैं। नरेश सक्सेना इतने वरिष्ठ कवि, जो आज भी उसी रौ में लिख रहे हैं।  बनारस के जितने कवि हैं उसमें व्योमेश की कविता में देख सकते हैं,  हालांकि उनमें वह बात नहीं है जो बात नए तरीकों से, साहसी तरीकों से कहनी चाहिए। बच्चा लाल उन्मेष की भी कविताएँ हैं, जो  विरोध और प्रतिरोध करती हैं,  विष्णु खरे ने भी कविता लिखी थी।  विष्णु नागर ने भी सीधे-सीधे कविता लिखी विरोध करते हुए। और हमारे सामने उदाहरण है कि उन्होंने लगातार अपने खुद को कहने से रोका नहीं है। पूरी आजादी के साथ अपनी बात लोगों बीच रखी है।  कलाकार भी हैं, संस्कृतिकर्मी  व सिनेमाकर्मी भी हैं, उन्हें धमकियाँ और चेतावनी भी दी जाती हैं लेकिन उन्हें फर्क नही पड़ता था। बोलने के लिए किसी ने जबान रोका नहीं है, सभी ने बेलाग अभिव्यक्ति के खतरे उठाए हैं और अपनी बात कह रहे हैं।(संजय श्रीवास्तव वर्तमान साहित्य के संपादक हैं। )

अविश्वसनीय हो गए हैं आज के लेखक : सुरेंद्र प्रताप

आज के लेखक किसी विचारधारा में विश्वास नहीं रखते, न ही उनकी किसी आइडीयालॉजी के प्रति कोई  प्रतिबद्धता है। इस कारण उनकी कोई दृष्टि विकसित नहीं हो पा रही है। इसलिए वह सांप्रदायिकता के खिलाफ चलताऊ लेखन कर रहे हैं। अगर कहा जाए तो यह गलत नहीं होगा कि वे अधिकतर सांप्रदायिकता के साथ रहते हुए मौकापरस्त हो गए हैं। वे सत्ता के साथ हैं और वह सत्ता से बहुत कुछ पाना चाहते हैं। उनके अन्दर कोई कमिटमेंट नहीं है।

इस कारण उनको कुछ दिखाई भी नहीं देता है और जो दिखाई दे भी रहा हो तब भी वे सत्ता के साथ हैं। वे समझौतापरस्त आइडीयालॉजी वाले हो गए हैं। ये जो मध्यवर्ग के लेखक हैं इनमें जोखिम लेने की क्षमता नहीं है इसलिए वे मौजूदा हालात से डरे हुए हैं और इस कारण वो सत्ता के साथ हैं।

न्याय की बात करें तो आज की जो न्यायपालिका है वह बिकी हुई है। न्यायपालिका की जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं रह गई है। प्रेमचंद की शुरुआती कहानियों में महान आदर्श था। वह महान आदर्श दिखाई देता है पंचपरमेश्वर में। आदर्श के नाते ही जुम्मन शेख और अलगू चौधरी एक-दूसरे के खिलाफ होते हुए भी न्याय करते हैं।  प्रेमचंद के साथ एक बड़ा आदर्श एवं मूल्य था, उनकी नैतिकता। आज लेखकों में नैतिकता  का अभाव है इसलिए आज का लेखक सांप्रदयिकता के खिलाफ न लिख पा रहा है न ही न्यायपालिका न्याय कर पा रही है।(सुरेन्द्र प्रताप जाने-माने समाजवादी चिंतक, लेखक और आलोचक हैं।)

गाँव के लोग
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