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कुछ घरानों के हाथ में सबकुछ सौंपकर कैसे मिलेगी आर्थिक असमानता से निजात 

 कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रायः पूरी तरह ध्वस्त कर चुकी वर्तमान सरकार क्या अपने नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवा, मुफ्त शिक्षा, चाइल्ड केयर, गारंटीड पेंशन जैसी अच्छी गुणवत्ता वाली सेवाएँ प्रदान करने की मानसिकता से पुष्ट है? राष्ट्र की लाभजनक कंपनियों सहित रेल, बस और हवाई अड्डे, अस्पताल और शिक्षण संस्थान इत्यादि सारा कुछ निजी हाथो में देने पर आमादा हमारी सरकारों में क्या समाजवादी चरित्र रह गया है?

भारत में आर्थिक असमानता की खाई और चौड़ी हो गई है। यह बात स्विट्जरलैंड के दावोस में चल रहे वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम के सालाना बैठक के पहले दिन प्रकाशित ऑक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट 2023 में उभर कर आई है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1% अमीरों के पास देश की 40% सम्पत्ति, टॉप की 10% के पास 72% जबकि नीचे की 50% आबादी के पास सिर्फ 3 फीसदी संपत्ति है। इसमें चौकाने वाला यह तथ्य भी उभरकर आया है कि भारत के 10% सबसे अमीर लोगों का जीएसटी में योगदान सिर्फ 3% है, जबकि 64% टैक्स कम आय वाले 50% लोगों ने भरा है। ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने कहा कि भारत के दस सबसे अमीरों पर 5 प्रतिशत कर लगाने से बच्चों को स्कूल वापस लाने के लिए पूरा पैसा मिल सकता है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत के गरीब अधिक टैक्स चुका रहे हैं। वे अमीरों की तुलना में आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं पर अधिक खर्च कर रहे हैं। अब समय आ गया है कि अमीरों पर टैक्स लगाया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि वे अपने उचित हिस्से का भुगतान करें।

ऑक्सफैम इंटरनेशनल की सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट शीर्षक के रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर भारत के अमीरों की संपत्ति पर 2 फीसदी की दर से एक बार टैक्स लगाया जाए, तो इससे देश में अगले तीन साल तक कुपोषित लोगों के भोजन के लिए 40,423 करोड़ रुपये की जरूरत को पूरा किया जा सकेगा। वहीं, देश के 10 सबसे अमीर अरबपतियों पर 5 प्रतिशत का एक बार का टैक्स लगाने से 1.37 लाख करोड़ रुपये मिलेंगे। यह स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (86,200 करोड़ रुपये) और आयुष मंत्रालय द्वारा अनुमानित धन से 1.5 गुना अधिक है (3,050 करोड़ रुपये)। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में लैंगिक असमानता अभी भी कायम है। यहां  महिला श्रमिकों को एक पुरुष मजदूर द्वारा कमाए गए प्रत्येक 1 रुपये के मुकाबले केवल 63 पैसे मिलते हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में अरबपतियों की कुल संख्या 2020 में 102 से बढ़कर 2022 में 166 हो गई। ऑक्सफैम ने कहा कि महामारी से लेकर नवंबर 2022 तक, भारत में अरबपतियों की संपत्ति में वास्तविक रूप से 121 प्रतिशत या 3,608 करोड़ रुपये प्रति दिन की वृद्धि हुई है।

बहरहाल, ऑक्सफेम इंटरनेशनल की 2023 की रिपोर्ट में आर्थिक असमानता का जो और विकराल रूप सामने आया है, वह अनायास नहीं है। वर्तमान सरकार की नीतियों से ऐसा होना ही था। कारण, 2014 में हर वर्ष 2 करोड़ नौकरियां; तीन महीने के अन्दर विदेशों से काला धन लाकर प्रत्येक के खाते में 15 लाख जमा कराने जैसे लोक लुभावन नारे के साथ आंधी-तूफ़ान की तरह केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हुए मोदी की नीतियाँ आजादी का समस्त सुफल जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथ में सौपने पर केन्द्रित रहीं, जिसका सही प्रतिबिम्बन पहली बार जनवरी, 2018 में आई ऑक्सफाम की ही रिपोर्ट में हुआ था। उसमें बताया गया था कि देश की सृजित दौलत का 73% हिस्सा टॉप की 1% आबादी वाले अर्थात वर्ण-व्यवस्था के सुविधाभोगी लोगों के हाथ मे चला गया है! यह महज संयोग नहीं, बल्कि सुनियोजित तरीके से मोदी की नीतियों से ऐसा हुआ था, इसका अनुमान पूर्व की रिपोर्टो से लगाया जा सकता है। पूर्व की रिपोर्टों के मुताबिक़ 2001 में टॉप के एक प्रतिशत वालों के हाथ में सृजित धन-दौलत का 37 प्रतिशत पहुंचा, जबकि 2005 में बढ़कर 42%, 2010 में 48%, 2012 में 52% तथा 2016 में 58.5% चली गयी थी।इससे जाहिर है कि 2000 से 2016  अर्थात 16 वर्षों में 1% वालों की दौलत में 21% का इजाफा हुआ, जबकि 2016 से 2017 में 73% प्रतिशत पहुँचने का अर्थ यह हुआ कि एक वर्ष में उनकी दौलत में 15% प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गयी। है न यह आश्चर्य!

यह आश्चर्य इसलिए घटित हुआ क्योंकि मोदी सरकार ने सुविधाभोगी वर्ग के हाथ में अधिक से अधिक धन-दौलत पहुचाने की नीतियों पर काम किया था। 2018 में ऑक्सफाम की स्तब्धकारी रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद बहुत से अखबारों ने लिखा- ‘गैर-बराबरी अक्सर समाज में उथल-पुथल की वजह बनती है। सरकार और सियासी पार्टियों को इस समस्या को गंभीरता से लेनी चाहिए। संसाधनों और धन का न्यायपूर्ण बंटवारा कैसे हो, यह सवाल प्राथमिक महत्त्व का हो गया है।’ लेकिन मोदी सरकार इन सब बातों से निर्लिप्त रही और 2018 की स्तब्ध कर देने वाली उस रिपोर्ट के बाद ऑक्सफाम की जितनी भी रिपोर्टें आई हैं, स्थिति बाद से  स्थिति और बदतर होती गयी। इसका साक्ष्य इस बार की रिपोर्ट का यह तथ्य है कि नीचे की 50% आबादी 3% धन पर गुजर बसर करने के लिए अभिशप्त है। हाल के वर्षों में ऑक्सफेम के अतिरिक्त प्रकाशित विश्व असमानता, ग्लोबल जेंडर गैप, ग्लोबल हंगर इंडेक्स इत्यादि तमाम रिपोर्टों में ही आर्थिक विषमताजन्य स्थिति बद से बदतर से बदतर होती गयी है। किसी भी रिपोर्ट में सुधार का लक्षण मिलना मुश्किल है। आज लैंगिक समानता के मोर्चे पर भारत दक्षिण एशिया में नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार से भी पीछे चला गया है और भारत की आधी आबादी को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने हैं, इसकी खुली घोषणा ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 में हो चुकी है। आज अगर भारत नाईजेरिया को पीछे धकेल कर ‘विश्व गरीबी की राजधानी’ का खिताब अपने नाम कर चुका है; घटिया शिक्षा के मामले में मलावी नामक अनाम देश को छोड़कर टॉप पर पहुँच चुका है तो इसलिए कि मोदी राज में सारा कुछ जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में सौपने के जुनून में आर्थिक विषमता जन्य समस्यायों की लगातार बुरी तरह अनदेखी की गयी। ऐसे जो ताकतें विस्फोटक रूप अख्तियार करती आर्थिक असमानता की समस्या से चिंतित हैं, उन्हें इसके खात्मे के उपायों के संधान में जुट जाना चाहिए।

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वैसे तो आर्थिक असमानता जन समस्याओं से पार पाने के लिए ऑक्सफाम की भांति तमाम अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टें ही एक से बढ़कर सुझाव देती रही हैं, किन्तु सारे उपाय अबतक व्यर्थ रहे हैं और यह समस्या दिन-ब-दिन विकराल रूप धारण करती रही है। इसे देखते हुए गत वर्ष लुकास चांसल द्वारा लिखीत और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुएल सेज और गैब्रियल जुकरमैन द्वारा समन्वित ‘विश्व असमानता रिपोर्ट- 2022’ में जो सुझाव आया था, उसे बेहद महत्वपूर्ण माना गया था। वह सुझाव था- नॉर्डिक इकॉनोमिक मॉडल अपनाने का। इस विषय में रिपोर्ट में कहा गया है कि धन के वर्तमान पुनर्वितरण को अधिक न्यायसंगत बनाने के लिये वर्तमान नव-उदारवादी मॉडल को ‘नॉर्डिक इकोनॉमिक मॉडल’ द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। इस मॉडल में सभी के लिये प्रभावी कल्याणकारी सुरक्षा, भ्रष्टाचार मुक्त शासन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा का मौलिक अधिकार, अमीरों के लिये उच्च कराधान आदि शामिल हैं। नॉर्डिक इकॉनोमिक मॉडल के बाद रिपोर्ट में धन के पुनर्वितरण के लिए एक सुझाव अरबपतियों पर एक उपयुक्त/ प्रगतिशील संपत्ति कर (प्रोग्रेसिव वेल्थ टैक्स) अधिरोपित करने का दिया गया है। वंचितों के राजनीतिक सशक्तिकरण पर जोर देते हुए कहा गया है कि यह निर्धनता उन्मूलन का पहला प्रमुख घटक है। राजनीतिक सक्षमता वाले लोग बेहतर शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा की माँग कर सकेंगे और इसे प्राप्त कर सकेंगे। यह समाज में व्याप्त संरचनात्मक असमानता और सांप्रदायिक विभाजन को भी मिटाएगा। स्टैंडअप इंडिया की धनराशि में इजाफा कर एससी/ एसटी में उद्यमिता को बढ़ावा देना भी इसके महत्वपूर्ण सुझावों में एक रहा। विषमता के खात्मे के लिए रिपोर्ट में रोज़गार सृजन और स्वास्थ्य एवं शिक्षा में निवेश को बढ़ावा देकर महिलाओं में उद्यमिता की वृद्धि करने की भी हिदायत दी है। इनके अतिरक्त सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा लाभ, रोज़गार गारंटी योजनाओं जैसी सार्वजनिक वित्तपोषित उच्च गुणवत्तायुक्त सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित कर असमानता को काफी हद तक कम किया जा सकता है, ऐसा विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 का कहना रहा है।

बहरहाल भारत से भयावह असमानता के खात्मे के लिए विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 में जो उपाय बताये गए हैं, उनमें ‘नॉर्डिक इकॉनोमिक मॉडल’ के अतिरिक्त जितने भी उपाय बताएं गए हैं, सरकारें कमोवेश उनको अमल  में लाने का प्रयास करती ही रही हैं, बावजूद इसके यह स्थिति है कि जहाँ नीचे की 50 प्रतिशत आबादी औसतन 3  प्रतिशत धन-दौलत पर गुजर-बसर करने के लिए विवश हैं, वहीं आधी आबादी को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में ढाई सौ से तीन सौ लगना तय सा दिख रहा है। अब जहाँ तक ‘नॉर्डिक इकॉनोमिक मॉडल’ को लागू करने का सवाल है, भारत जैसे देश में इसको लागू करना एक सपना ही है। कारण, दुनिया के ढेरों अग्रसर देश, जिनमें अमेरिका भी है नॉर्डिक मॉडल अपनाने में व्यर्थ हो चुके हैं। भारत में यह मॉडल लागू करने में कहाँ है समस्या जरा इसका जायजा लिया जाय!

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डेनमार्क, फ़िनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, स्वीडेन, ग्रीनलैंड इत्यादि जैसे क्षेत्र मिलकर उत्तरी यूरोप में नॉर्डिक क्षेत्र बनाते हैं। बड़े भूमि क्षेत्र और तुलनात्मक रूप से समरूप आबादी वाले इन देशों को दुनिया के सबसे विकसित देशों में गिना जाता है। ये देश आर्थिक विकास, पर्यावरण और शांति के लिहाज से सर्वाधिक अग्रसर देशों में शुमार किये जाते हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्था और शासन का मॉडल, जिसे ‘ नोर्डिक मॉडल’  कहा जाता है, को बड़े पैमाने पर आर्थिक विकास और सामाजिक संतुष्टि के बीच आदर्श संतुलन के रूप में स्वीकार किया जाता है। नॉर्डिक मॉडल एक मिश्रित आर्थिक प्रणाली है जो मुक्त बाजार व्यवस्था को सामाजिक लाभों के साथ मिश्रित करती है। इनकी राजनीति एक वामपंथी दृष्टिकोण की ओर झुकती है, जिसका अर्थ है कि सरकार नॉर्डिक आबादी के मध्य धन और संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करना पसंद करती है। नॉर्डिक देश खुद को समाजवादी कहते हैं और वे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को अपनाते हैं। सरकारें अपने नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवा, मुफ्त शिक्षा, चाइल्ड केयर, गारंटीड पेंशन जैसी अच्छी गुणवत्ता वाली सेवाएँ प्रदान करती हैं। इस मॉडल में करों के माध्यम से धन-पुनर्वितरण के सरकार के प्रयासों के कारण नागरिक एक-दूसरे के साथ आर्थिक जोखिम साझा करते हैं, इसलिए संकट के समय में सभी नागरिक एक समान सीमा तक प्रभावित होते हैं, न कि एक समूह दूसरे की तुलना में अधिक प्रभावित होता है, जैसा कि अक्सर होता है। एक अन्य कारण जिससे हर कोई नॉर्डिक मॉडल के अपनाये जाने की कामना करता है, वह है प्रशासन में पारदर्शिता का स्तर। मसलन स्वीडिश कानून अपने सभी नागरिकों को सभी आधिकारिक दस्तावेजों तक पहुँच प्रदान करते हैं। सरकार के उच्च स्तर के विश्वास के कारण इन देशों के नागरिक स्वेच्छा से अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा करों और संघी निधियों में समाज में अधिक समृद्धि लाने के लिए योगदान करते हैं- बदले में सरकार इन निधियों का इस्तेमाल मुफ्त प्रशिक्षण, चाइल्ड केयर, मुक्त शिक्षा, पेंशन योजनाओं इत्यादि के लिए आवंटित करने में करती है। बहरहाल, एक ड्रीम मॉडल होने के बावजूद बड़े-बड़े विकसित देशों के लिए जब नॉर्डिक मॉडल अपनाना मुश्किल है तब भारत में ही इसकी कितनी सम्भावना है!

क्या भारत के नागरिक स्वेच्छा से अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा समाज में समृद्धि लाने के लिए करों के रूप में दे सकते हैं? क्या यहाँ का जमीन और जनसंख्या का असंतुलित अनुपात इस मॉडल को अपनाने के अनुकूल है? कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रायः पूरी तरह ध्वस्त कर चुकी वर्तमान सरकार क्या अपने नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवा, मुफ्त शिक्षा, चाइल्ड केयर, गारंटीड पेंशन जैसी अच्छी गुणवत्ता वाली सेवाएँ प्रदान करने की मानसिकता से पुष्ट है? राष्ट्र की लाभजनक कंपनियों सहित रेल, बस और हवाई अड्डे, अस्पताल और शिक्षण संस्थान इत्यादि सारा कुछ निजी हाथो में देने पर आमादा हमारी सरकारों में क्या समाजवादी चरित्र रह गया है? वर्तमान सरकार का चाल-चरित्र देखते हुए ऐसा लगता है कि अभूतपूर्व मजबूती से सत्ता पर काबिज यह सरकार वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए जहां एक ओर राजसत्ता का इस्तेमाल शक्ति के समस्त स्रोत जन्मजात सुविधाभोगी हाथ में देने के लिए कर रही है, वहीं दूसरी ओर यह सुपरिकल्पित तरीके से वंचित वर्गों को जीविकोपार्जन के समस्त अवसरों से दूर धकेल रही है। सरकार की इन नीतियों से बुरी तरह असमानता का शिकार बना बहुसंख्य वर्ग उस स्टेज में पहुँच गया है, जिस स्टेज में पहुँचने पर सारी दुनिया के वंचितों को मुक्ति-संग्राम छेड़ना पड़ा था! ऐसे हाल में क्या भारत में व्याप्त बेहिसाब विषमता का शमन करने में नॉर्डिक मॉडल सफल होगा? सारी बातों का उत्तर ‘ना’ है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि नॉर्डिक मॉडल के देशों के कल्याणकारी कार्यक्रम गरीबों पर लक्षित नहीं, बल्कि पूरी आबादी को कवर करने के लिए हैं, जबकि भारत में व्याप्त भीषणतम विषमता से पार पाने के लिए जरुरी है कि सरकारों का कार्यक्रम गरीबों- दलित, आदिवासी,पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबको के साथ महिलाओं को लक्षित हो! इसके लिए जरुरी है कि हम नॉर्डिक मॉडल का मोह विसर्जित कर अमेरिका और खासतौर से दक्षिण अफ्रीका के डाइवर्सिटी मॉडल से प्रेरित बहुजन डाइवर्सिटी मिशन (बीडीएम) के विविधता फार्मूले को अंगीकार करें!

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आखिर क्यों नहीं बनतीं गिरमिटिया पूर्वजों पर फ़िल्में

बीडीएम वंचित वर्गों के लेखकों का संगठन है और मिशन से जुड़े लेखकों का यह दृढ़ मत रहा है कि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी ही मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या है तथा शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक-शैक्षिक) में सामाजिक और लैंगिक विविधता के असमान प्रतिबिम्बन से ही सारी दुनिया सहित भारत में भी इसकी उत्पत्ति होती रही है, इसलिए ही बीडीएम ने शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का वाजिब प्रतिबिम्बन कराने की कार्य योजना बनाया। इसके लिए इसकी ओर से निम्न दस सूत्रीय एजेंडा जारी किया गया है।

1- सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों अर्थात पौरोहित्य

2- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप

3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी

4-सड़क-भवननिर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन

5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन, प्रवेश व अध्यापन

6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि

7-देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को दी जानेवाली धनराशि

8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों

9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खाली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं

10-ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि में लागू हो सामाजिक और लैंगिक विविधता!

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धरती पर मासूमियत को जिंदा रखने का संघर्ष

भारत में विषमताजन्य समस्या इसलिए विकराल रूप धारण की क्योंकि आजाद भारत के शासक वर्ग ने, जो जन्मजात सुविधाभोगी से रहे, अपनी वर्णवादी सोच के कारण विविध सामाजिक समूहों के स्त्री और पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों के वाजिब बंटवारे से परहेज किया, जिसकी मोदी राज में इन्तेहां हो गयी है। इस कारण ही टॉप की 10% आबादी, जो जन्मजात सुविधाभोगी से है, का धन-दौलत पर 72% कब्जे के साथ अर्थ-राज-ज्ञान और धर्म सत्ता के साथ फिल्म-मीडिया इत्यादि पर औसतन कब्ज़ा हो गया है। बीडीएम का दस सूत्रीय एजेंडा इस ऐतिहासिक भूल का गारंटी के साथ सुधार करता है। बहरहाल, बेकाबू हो चुकी असमानता जन्य समस्या से भारत की समताकामी ताकतें चिंतित है तो उन्हें अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में अनिवार्य रूप से दो उपायों पर अमल करना होगा। सबसे पहले यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को, जिनकी आबादी बमुश्किल 7-8 प्रतिशत होगी, उनको उनकी संख्यानुपात पर लाना होगा ताकि उनके हिस्से का औसतन 70 प्रतिशत अतिरक्त (सरप्लस) अवसर वंचित वर्गों, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्तहो। अवसरों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को उनके संख्यानुपात में सिमटाने के बाद दूसरा उपाय यह करना होगा कि अवसर और संसाधन प्राथमिकता के साथ पहले प्रत्येक समुदाय की आधी आबादी के हिस्से में जाय। इसके लिए प्राथमिकता के साथ क्रमशः सर्वाधिक वंचित तबकों की महिलाओं को अवसर सुलभ कराने का प्रावधान करना होगा। इसके लिए अवसरों के बंटवारे के पारंपरिक तरीके से निजात पाना होगा। पारंपरिक तरीका यह है कि अवसर पहले जनरल अर्थात सवर्णों के मध्य बंटते हैं, उसके बाद बचा हिस्सा वंचित अर्थात आरक्षित वर्गों को मिलता है। यदि हमें 257 वर्षों के बजाय आगामी कुछ दशकों में लैंगिक समानता अर्जित करनी है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के रिवर्स पद्धति का अवलंबन करना होगा अर्थात सबसे पहले एससी/ एसटी, उसके बाद ओबीसी, फिर धार्मिक अल्पसंख्यक और इनके बाद जनरल अर्थात सवर्ण समुदाय की महिलाओं को अवसर निर्दिष्ट करना होगा। इसके लिए एससी/एसटी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यकों और सवर्ण समुदाय की अगड़ी-पिछड़ी महिलाओं को इनके समुदाय के संख्यानुपात का आधा हिस्सा देने के बाद फिर बाकी आधा हिस्सा इन समुदायों के अगड़े-पिछड़े पुरुषों के मध्य वितरित हो। यदि विभिन्न समुदायों की महिलाएं अपने प्राप्त हिस्से का सदुपयोग करने की स्थिति में न हों तो उनके हिस्से का बाकी अवसर उनके पुरुषों के मध्य ही बाँट दिया जाय। किसी भी सूरत में उनका हिस्सा अन्य समुदायों को न मिले।

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यदि हम बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे में उल्लिखित- सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों, पौरोहित्य, डीलरशिप; सप्लाई, सड़क-भवननिर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन; शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ को बंटने वाली राशि, ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद-राज्यसभा; राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल में क्रमशः दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग प्राथमिकता के साथ सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत 257 वर्षों के बजाय 57 वर्षों में लैंगिक समानता अर्जित कर विश्व के लिए एक मिसाल बन जायेगा तथा पलक झपकते आर्थिक विषमताजन्य समस्त समस्यायों से निजात पा जायेगा!

गाँव के लोग
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