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चुनाव से कुछ हफ्ते पहले सीएए 2019 लागू करना असंवैधानिक : पीयूसीएल

चुनाव से ठीक पहले सीएए को लागू करना कही से भी उचित नहीं जान पड़ता। जबकि इस कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट में 2 सौ से अधिक याचिकांए लंबित हैं।

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने सीएए कानून बनने के चार साल बाद 11 मार्च 2024 को इसे लागू करने के केंद्र सरकार के फैसले की कड़ी निंदा की है। पीयूसीएल ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कानून के क्रियान्वयन पर रोक लगाने के लिए आवेदन दाखिल किया है।

केंद्र की मोदी सरकार ने सोमवार 11 मार्च को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 को देश भर में लागू कर दिया है। सरकार ने जैसे ही इसकी अधिसूचना जारी की वैसे ही अधिकांश विपक्षी दलों ने इसके विरोध में अपने स्वर को मुखर कर लिया।

पीयूसीएल ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि सीएए जैसे नागरिकता कानूनों के खिलाफ वह लड़ना जारी रखेगा, यह कानून असंवैधानिक हैं और धर्म के आधार पर भेदभाव को बढ़ावा देने का काम कर रहा है। सरकार ने आधिकारिक राजपत्र में संशोधित नियमों को अधिसूचित करके नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (सीएए 2019) को लागू कर दिया है।

200 याचिकाएं शीर्ष कोर्ट में लंबित, फिर यह कैसा कदम

पीयूसीएल ने कहा कि कानून को चुनौती देने वाली 200 से अधिक याचिकाएं वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। उसके बावजूद केंद्र सरकार यह कदम कैसे उठा सकती है। यह बेहद चिंताजनक है क्योंकि इसकी घोषणा आम चुनावों से ठीक पहले की गई है। उन्होंने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि इस फैसले के पीछे की राजनीतिक मंशा क्या है? वो भी तब जब सरकार ने खुद इस अवधि में कई बार विस्तार किया और कानून को लागू करने में कोई खास तेजी नहीं दिखाई थी।

पीयूसीएल ने अपने बयानों में इस बात पर जोर देते हुए कहा है कि यह कानून धर्म और नागरिकता के बीच भेदभाव की एक लकीर खींचता है, यही कारण है कि यह कानून अवैध, संवैधानिक रूप से अनैतिक और असंवैधानिक है। यह विभाजनकारी कानून स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों के साथ विश्वासघात है। भारत के समावेशी और बहुलवादी इतिहास की उपेक्षा करता है।

भारतीय संविधान में यह बातें साफ है कि भारत अपने नागरिकता प्रावधानों (अनुच्छेद 5, 6, 7, 8, 9 और 10) और नागरिकता अधिनियम, 1955 (सीएए 2019 द्वारा लाए गए संशोधन से पहले) के माध्यम से धर्म को नागरिकता का आधार नहीं बनाता है।

अस्तित्व पर संकट के बादल

कानून पारित होने के बाद 2019-2020 में नागरिकों, विश्वविद्यालयों के युवाओं और पूरे देश की मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन और धरना आयोजित किया गया था। जनता ने इस कानून का जबरदस्त विरोध किया था। इसी बीच कई हिंसक झड़पे भी देखने को मिली थीं। इस कानून के बाद लोगों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे। यदि अपेक्षित दस्तावेज़ को देने में सक्षम नहीं होते हैं तो आपको देश छोड़कर जाना होगा।

दिल्ली में, शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शन करने वाले मुस्लिम युवाओं को अभिव्यक्ति और सभा के अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए जेल में डाला गया।  फरवरी, 2020 में दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा में कई युवाओं को झूठे मामलों में फंसाया गया है, जिसमें 54 लोग मारे गए थे, और 21 से अधिक पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया था। ऐसे में संवैधानिक तरीकों से सरकार के फैसलों को चुनौती देने वालों पर सख्त कानूनी कार्रवाई की गई।

एनपीआर और एनआरसी प्रक्रिया सीएए में निहित भेदभाव को और मजबूत कर रहा है। सीएए के तहत पात्र समुदायों के व्यक्ति कानून का लाभ उठा सकेंगे और नागरिकता के लिए आवेदन कर सकेंगे। इस बीच मुस्लिम समुदाय के जिन लोगों को सीएए के लाभ से बाहर रखा गया है, उन्हें उपचार से वंचित कर दिया जाएगा और उन्हें ‘घुसपैठिए’ करार दिया जाएगा,

जिन लोगों की नागरिकता संदिग्ध मानी जाएगी, उन्हें संभावित रूप से वोट देने के अधिकार से वंचित करने के साथ ही विदेशी माना जाएगा और उन्हें डिटेंशन सेंटर में रखा जाएगा। इस प्रकार सीएए/एनपीआर/एनआरसी के केंद्र में मौजूद मुस्लिम समुदाय के प्रति बढ़ती शत्रुता का भारतीय राजनीति के भविष्य पर गंभीर प्रभाव पड़ा है।

नागरिकता के लिए धार्मिक दृष्टिकोण कहां तक सही ?

पीयूसीएल ने सवाल भी उठाया है कि भारत में रहने वाले ‘अवैध अप्रवासियों’ को उनके धर्म के दृष्टिकोण से भारतीय नागरिकता के लिए पात्रता प्रदान कहां तक सही है? 11 मार्च, 2023 को मुसलमानों के पवित्र महीने रमजान की शुरुआत के पहले दिन, कानून के कार्यान्वयन के लिए नियमों को अधिसूचित जारी करना यह दर्शाता है कि सरकार अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति असहिष्णु है।

कानून की अधिसूचना, 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले इस बात की ओर इशारा करता है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा दे रहा है। उन्होंने कहा है कि इससे ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिलेगा। साथ ही कानून को निरस्त करने की मांग की है। पीयूसीएल ने यह साफ किया है कि इस बारे में लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए वह काम करना लगातार जारी रखेगा।

अपने विज्ञप्ति में उन्होंने यह भी कहा कि यह कानून स्पष्ट रूप से अपने दायरे से मुसलमानों को बाहर करता है, जबकि इसमें हिंदू, सिख, जैन, पारसी या ईसाई समुदाय, बौद्ध धर्म के लोगों को शामिल किया गया है। वहीं इसके अलावा केवल तीन देशों (अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान) के धार्मिक पृष्ठभूमि वाले लोग ही कानून का लाभ मिलेगा।

मनमाना और भेदभावपूर्ण रवैया है सीएए

यदि इसका उद्देश्य  सच में उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को की मदद करना है तो इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि तमिल मूल के 100,000 से अधिक श्रीलंकाई शरणार्थी है, जिनमें से कई धर्म से हिंदू हैं। उन सभी में एक बड़ा हिस्सा 40 से अधिक वर्षों से तमिलनाडु के शिविरों में रह रहा है। ये राज्यविहीन श्रीलंकाई तमिल कई पीढ़ियों से भारत में जन्में और पले-बढ़े हैं और भारत में नागरिकता की मांग कर रहे हैं। नागरिकता अधिनियम में 2019 के संशोधन द्वारा उन्हें मनमाने ढंग से नजरअंदाज कर दिया गया है जो केवल उपरोक्त 3 देशों के व्यक्तियों पर विचार करता है।

चीन, म्यांमार, श्रीलंका, भूटान, मालदीव और नेपाल सहित भारत के पूरे पड़ोस में धार्मिक और गैर-धार्मिक उत्पीड़ित लोग हैं, अगर कानून की मंशा यही थी तो उन पर भी विचार किया जाना चाहिए था। भारतीयों को पूछना होगा कि केवल तीन मुस्लिम-बहुल देशों को चुनने और मुस्लिम समुदाय से आप्रवासियों को बाहर करने का तर्क क्या है? यदि कोई सोचता है कि इससे उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता का मार्ग मिलेगा, जैसा कि गृह मंत्री ने कई भाषणों में कहा है, तो यह मुस्लिम समुदाय और गैर-मुस्लिम पड़ोसियों के भी विभेद की मनमानी प्रकृति को दर्शाता है।

इसके अलावा, रोहिंग्या मुसलमान समुदाय को दक्षिण एशिया में सबसे अधिक धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। उन्होंने दशकों से सैन्य कार्रवाई का सामना किया है और पिछले कुछ वर्षों में 1.5 मिलियन से अधिक लोगों को म्यांमार से भागने और शरणार्थी बनने के लिए मजबूर किया गया है,  उन्हें भी इस कानून के दायरा सूची से बाहर रखा गया है।

सीएए 2019 का लाभ केवल धर्म के आधार पर!

गौरतलब है कि पाकिस्तान में सताए गए लोगों में अहमदिया भी शामिल हैं जिन्हें विधर्मी माना जाता है और उन्हें अपना धर्म अपनाने और उसका पालन करने की अनुमति नहीं है। कानून के लाभों से उन्हें बाहर रखने का एकमात्र कारण यह है कि वे मुस्लिम होने का दावा करते हैं। बांग्लादेश में LGBTQI समुदाय को लगातार उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है, लेकिन कोई भी LGBTQ व्यक्ति इस कानून के लाभ का दावा नहीं कर सकता है। उन्हें बाहर रखा गया है क्योंकि सीएए 2019 का लाभ केवल धर्म के आधार पर है।

सीएए 2019 का लाभ उत्पीड़न के आधार पर नहीं है जो वर्गीकरण का संवैधानिक रूप से स्वीकार्य आधार है, बल्कि एक धर्म से संबंधित होने के आधार पर है। प्रथम दृष्टया यह भेदभावपूर्ण कानून भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के मूल मूल्य के खिलाफ है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का भी उल्लंघन करता है, जिसके तहत नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों की राज्य द्वारा सुरक्षा पर जोर दिया गया है।

जैसा कि भारत के गृह मंत्री ने संकेत दिया है, सीएए को अलग-थलग नहीं बल्कि एक कालक्रम के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए, इसके बाद राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का पालन किया जाना चाहिए। सबसे पहले एनपीआर, एक स्थान पर रहने वाले सभी व्यक्तियों का रजिस्टर तैयार किया जाना है, जिसे नागरिकता नियम, 2003 के तहत एनआरसी प्रक्रिया के बाद तैयार किया जाना है। एनआरसी के संचालन के लिए, स्थानीय रजिस्ट्रार को सत्यापन और जांच करने का अधिकार है। प्रत्येक परिवार और व्यक्ति का विवरण एकत्र किया जाएगा और ‘संदिग्ध’ नागरिकता वाले लोगों की पहचान की जाएगी। तीसरे पक्ष किसी को भी पहली सूची से ‘कुछ नामों को शामिल करने या बाहर करने पर आपत्ति’ करने की शक्ति देते हैं।

अनियंत्रित शक्ति का क्या होगा प्रभाव

एनपीआर और एनआरसी प्रक्रिया स्थानीय रजिस्ट्रार को कुछ समुदायों और व्यक्तियों को लक्षित करने की अभूतपूर्व और अनियंत्रित शक्ति देती है। राज्य ने मुसलमानों के प्रति जो शत्रुता दिखाई है, उसके आधार पर एक वैध डर भी है कि इस शक्ति का प्रयोग भेदभावपूर्ण इरादे से किया जाएगा।

एनपीआर और एनआरसी न केवल उन मुसलमानों को प्रभावित करेगा, जिनके पास दस्तावेज़ नहीं हैं, बल्कि बिना दस्तावेज़ वाले व्यक्तियों की अन्य श्रेणियां (जैसे एकल महिलाएं, अपने परिवार से अलग हुए एलजीबीटी व्यक्ति, तलाकशुदा महिलाएं, बेघर लोग, आदिवासी या गरीब लोग) के लोग भी प्रभावित होंगे। जैसा कि 2018 के असम एनआरसी के दौरान देखा गया था। यहां दस्तावेजों के आधार पर नागरिकता साबित करने की बात थी। इसके तहत 1.9 मिलियन भारतीयों को नागरिकता सूची से बाहर कर दिया गया, जिनमें से 60 प्रतिशत से अधिक हिंदू थे, जिन्हें गैर-नागरिक और अवैध प्रवासी घोषित किया गया।  (प्रेस विज्ञप्ति )

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