जीवन में संयोग जैसा कुछ होता है, इसमें यकीन नहीं है। अलबत्ता कुछ खास कारणों से कुछ खास परिस्थितियां जरूर बन जाती हैं और हमें लगता है कि जो हुआ, वह संयोग के कारण हुआ। जबकि होता यह है कि परिस्थितियां भी न्यूटन के गति के नियमों का अनुसरण करती हैं। मतलब यह कि हर परिस्थिति के पीछे गतिविधियां होती हैं। हम चाहें तो इन्हें अपना कर्म कह सकते हैं। कर्म के हिसाब से परिस्थितियां सामने आती हैं। कर्म का मतलब यह नहीं कि हम केवल अपने कर्म को ही कर्म मानें, परिस्थितियों के निर्माण में दूसरों का कर्म भी शामिल होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संयोग जैसा कुछ नहीं होता है, परिस्थितियां होती हैं और हर परिस्थिति किये कर्मों का परिणाम है। भौतिकी विज्ञान के हिसाब से कर्मों को बल माना जा सकता है।
दरअसल, कल एक परिस्थिति मेरे सामने आयी। बीते दिनों अगोरा प्रकाशन, वाराणसी द्वारा प्रकाशित एक किताब धरती भर आकाश प्राप्त हुई। इसकी लेखिका हैं- तसमीन पटेल और इस किताब को भेजकर अगोरा प्रकाशन के संस्थापक अग्रज रामजी यादव ने मुझ पर बड़ी कृपा की है। यह किताब वाकई कई मायनों में खास है। यह एक आत्मकथा है। तसमीन पटेल की मराठी में प्रकाशित आत्मकथा भाल आभाल का हिंदी अनुवाद है यह किताब। इसकी खासियत यह है कि यह आजाद भारत की मुस्लिम स्त्री की पहली आत्मकथा है।
[bs-quote quote=”किताब में विषय सूची का संयोजन बहुत खास है। यह एक अच्छा प्रयोग है। पाठों का शीर्षक और संबंधित पृष्ठ संख्या तो है लेकिन क्रम संख्या नहीं है। इसका मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है। एक असर तो यही कि ऐसा करने से किताब को किसी सीमा में नहीं बांधा जाता है। वैसे भी आत्मकथा का मतलब ही जीवन की गाथा है और इसके अध्यायों की संख्या का निर्धारण क्यों करना।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
ऐसा पहली बार हुआ कि कोई किताब मुझे प्राप्त हुई हो, और उसे पढ़ने के लिए मैंने दस दिनों का इंतजार किया। वजह अपनी प्रोफेशनल व्यस्त्तता रही। दरअसल, मैं अब किताबों को इत्मीनान से पढ़ना चाहता हूं। मुझे लगता है कि यह तरीका अच्छा है पढ़ने का। यदि हम किसी किताब को पढ़ने में एक महीना लगाते हैं तो होता यह है कि किताब में उल्लिखित विचार हमारे जेहन में एक महीने तक तो रहेंगे ही। हालांकि कम समय में पढ़ने से भी बातें जेहन में रहती हैं, लेकिन सूचनाओं की इतनी बमबारी होती है कि विचार जाते रहते हैं।
खैर, कल जैसे ही उपरोक्त किताब को पढ़ना शुरू किया, अंग्रेजी गाने सुनाने वाले रेडियो चैनल (रेडियो वन) पर एक गाना बज रहा था। गाने के बोल थे- आई ऍम अ ह्यूमैन एंड आई हॅव सेंस। गायिका, गीतकार और संगीतकार कौन हैं, नहीं कह सकता। वजह यह कि आजकल के रेडियो चैनलों में विविध भारती वाली परंपरा नहीं रह गयी है। विविध भारती तो बहुत खास है। उसके द्वारा बजाए जाने वाले गीतों के बारे में इतनी जानकारी जरूर दी जाती हे कि गायक-गायिका कौन हैं, गीतकार कौन हैं और संगीत किसने कम्पोज किया है।
किताब खोलते ही पहला सवाल जेहन में आया- तसनीम का मतलब क्या होता है। इस सवाल के पीछे भी किताब के पहले अध्याय का पहला शब्द ही है ‘तसनीम’। लेखिका प्रारंभ में ही यह शिकायत दर्ज करती हैं कि ‘मेरे नाम के हिज्जे, न बोलने में मुश्किल हैं न लिखने में, लेकिन इतनी आसानी से लिखे-बोले जाने लायक नाम को भी जब ज्यादातर लोग ठीक से बोल नहीं पाते थे तो मुझे कोफ्त होती थी।’ यही पढ़ने के बाद जेहन में आया कि तसनीम का मतलब क्या है। जवाब किताब ने ही दे दिया। किताब की भूमिका अंकुशराव ना कदम ने लिखी है। वे एमजीएम विश्वविद्यालय, औरंगाबाद, महराष्ट्र के कुलपति हैं। अपनी भूमिका में उन्होंने जिक्र किया है तसनीम का मतलब। उनके मुताबिक, तसनीम का मतलब है बहती नदियां।
[bs-quote quote=”उन्होंने एक शब्द का उपयोग किया है- एरंडी। मेरी मातृभाषा मगही में इसे रेंड़ी कहते हैं। यह एक पौधा होता है जिसके बीज से तेल निकलता है। बचपन में रेंड़ी के पेड़ खूब दिखते थे। अब तो मैं स्वयं गांव में नहीं रहता तो रेंड़ी के पेड़ कहां से दीखेंगे। तसनीम ने रेंड़ी के पेड़ की उपमा कम उम्र में ब्याह दी गयी लड़कियों के लिए किया है। यह सोचने पर बाध्य करता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
किताब में विषय सूची का संयोजन बहुत खास है। यह एक अच्छा प्रयोग है। पाठों का शीर्षक और संबंधित पृष्ठ संख्या तो है लेकिन क्रम संख्या नहीं है। इसका मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है। एक असर तो यही कि ऐसा करने से किताब को किसी सीमा में नहीं बांधा जाता है। वैसे भी आत्मकथा का मतलब ही जीवन की गाथा है और इसके अध्यायों की संख्या का निर्धारण क्यों करना।
खैर, कल देर रात तक इसके कुछ ही पन्ने पढ़ पाया हूं। तसनीम पटेल का जन्म 28 जून, 1955 को हुआ है। वह महाराष्ट्र की जानीमानी विचारक हैं और प्रधयापिका रहीं। उन्होंने आजाद और गुलाम भारत में मुसलिम महिलाओं के जीवन को चित्रित किया है। अपनी मां और मौसियों के जीवन के बहाने उन्होंने उस त्रासदी का चित्रण किया है जो महिलाओं को दस साल की उम्र में दुल्हन बनने के कारण उत्पन्न होता था। उन्होंने एक शब्द का उपयोग किया है- एरंडी। मेरी मातृभाषा मगही में इसे रेंड़ी कहते हैं। यह एक पौधा होता है जिसके बीज से तेल निकलता है। बचपन में रेंड़ी के पेड़ खूब दिखते थे। अब तो मैं स्वयं गांव में नहीं रहता तो रेंड़ी के पेड़ कहां से दिखेंगे। तसनीम ने रेंड़ी के पेड़ की उपमा कम उम्र में ब्याह दी गयी लड़कियों के लिए किया है। यह सोचने पर बाध्य करता है।
खैर, मेरे सामने दिल्ली से प्रकाशित दैनिक जनसत्ता है। इसके पांचवें पृष्ठ पर एक खबर है – उत्तराखंड सरकार 1600 वृक्ष काटने पर कितना मुआवजा देगी : अदालत ने पूछा। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने यह सवाल वहां की सरकर से पूछा है। यह सवाल 19.5 किलोमीटर लंबे देहरादून-गणेशपुर (सहारनपुर) राजमार्ग के चौड़ीकरण से जुड़ा है। इसके लिए शिवालिक रेंज के 1600 पेड़ों को काटे जाने हैं। खबर के मुताबिक पेड़ों की औसत उम्र डेढ़ सौ वर्ष है।
बहरहाल, अदालतों द्वारा ऐसे सवालों को उठाया जाना सुकून देता है। महसूस होता है कि अदालतें जिंदा हैं। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि सरकारों के लिए पेड़ मायने नहीं रखते। मैं तो पटना को देख रहा हूं। वहां सचिवालय के बगल में हजारों पेड़ काट दिए गए इको पार्क बनाने के नाम पर और राजाओं को चलने के लिए सड़क के चौड़ीकरण के नाम पर।