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ग्राउंड रिपोर्ट

रासायनिक खेती से निजात पाना संभव है ? कॉर्पोरेट, बाजार और मुनाफे के खेल में धूमिल हो रहीं जैविक खेती की संभावनाएं

1960 के दशक तक आत्मनिर्भर भारतीय किसान आज पूरी तरह से रासायनिक खाद, कीटनाशक, बीज, कृषि उपकरण, सिंचाई के यंत्र, बांध, बिजली बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऊपर निर्भर हो गया है। जैविक खेती का सीधा संबंध बीज और पशुपालन से है। बिना बीज, पशुपालन और बागवानी के जैविक खेती की कल्पना करना ख्याली पुलाव पकाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

आपने अरुण सिंह द्वारा रासायनिक खेती पर लिखित पिछले दो लेखों में जैविक खेती से रासायनिक खेती की ओर जाने तथा रासायनिक खेती के विस्तार और दुष्प्रभावों के बारे में जाना। उसी शृंखला में आज प्रस्तुत है अरुण सिंह का तीसरा लेख। जिसमें, किसानों पर थोपी गई रासायनिक खेती से वापस जैविक खेती की ओर लौटा जा सकता है ? जैविक खेती के लिए क्या संभावनाएं और चुनौतियाँ हैं? क्या रासायनिक खेती से निजात मिल सकती है ? जैसे सवालों की पड़ताल की गई है।

रासायनिक खेती से निजात पाने का सीधा मतलब है, खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आधिपत्य से निजात, मौजूदा कृषि नीति से निजात, खाद्यान्न उत्पादन के हर क्षेत्र में कंपनियों से निजात, तो क्या यह संभव है? जिस तरह से बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने खेती को अपने नियंत्रण में ले लिया है उस हिसाब से दुनिया में सभी लोगों को घातक जानलेवा रसायन मुक्त खाद्यान्न उपलब्ध हो सके, वर्तमान में ऐसी उम्मीद करना केवल शुभेच्छा ही हो सकती है।

जो लोग केवल जैविक खेती के द्वारा रसायन मुक्त खाद्यान्न मिलने की अपेक्षा रखते हैं उन्हें यह भी जानकारी रखनी चाहिए कि खाद्यान्नों में शायद ही कोई भोज्य पदार्थ हो जिसमें रसायन न मिलाया जाता हो। होटलों, रेस्टोरेंटों, ढाबों, फुटपाथों पर मिलने वाले भोजन में रंगों का जो इस्तेमाल किया जाता है वह भी जानलेवा होता है। बाजारों में मिलने वाले अनाज विभिन्न प्रकार के रंगों से रंगे जाते हैं। चीनी, ब्रेड, पैकेट बंद दूध, पैकेट बंद आटा, चावल, पिसे मसाले, जैम, शीतल पेय आदि सभी में स्वास्थ्य के लिए घातक रसायनों को मिलाया जाता है, जिससे वह लंबे समय तक खराब न हों।

खाद्य पदार्थों में मिलाए जाने वाले रसायन बेहद हानिकारक

चीनी हर घर में प्रयोग किया जाने वाला खाद्य पदार्थ है। चीनी बनाने की प्रक्रिया में सल्फर डाइऑक्साइड, फास्फोरिक एसिड, कैल्शियम हाइड्रोक्साइड, डीवाइनिल बेंजीन, जैसे रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इन रसायनों से पाचन क्रिया में दिक्कत आना, वजन बढ़ना, चिड़चिड़ापन, उदासी, रक्त में शर्करा वृद्धि, हड्डियों का कमजोर होना, किडनी के रोग, मूत्र रोग, हृदय रोग, अंधापन, गले में दर्द, त्वचा एवं आंखों में जलन, उल्टी आदि के साथ ही ये रसायन मस्तिष्क, रीढ़ की हड्डी, और तंत्रिका तंत्र को भी प्रभावित करते हैं। 

आटे में बेंजोयल पराक्साइड रसायन मिलाया जाता है, इसे फ्लोर इंप्रूअर भी कहते हैं। इसकी मात्रा प्रति किलोग्राम चार मिलीग्राम होनी चाहिए, अधिक समय तक सुरक्षित रखने के लिए कंपनियां 400 मिलीग्राम प्रति किलो तक मिलाती हैं। इस रसायन से जलन, चमड़ी पर लाल चकत्ते, सूजन और सांस लेने में परेशानी होती है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यह रसायन लीवर और किडनी पर भी घातक प्रभाव डालता है।

ब्रेड को सफेद बनाने के लिए पोटैशियम ब्रोमेट का प्रयोग किया जाता है जो स्वास्थ्य के लिए घातक है। शहरों में इसका प्रयोग सामान्यतः हर घर में किया जाता है। 1999 में इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च एंड कैंसर ने बताया कि पोटेशियम ब्रोमेट एक संभावित मानव कैंसर का कारण है। जानवरों पर किए गए परीक्षण से पता चलता है कि पोटैशियम ब्रोमेट के संपर्क में आने से यह अनुवांशिकता (डीएनए) को नुकसान पहुंचाता है और थायरॉइड हार्मोंस में असंतुलन पैदा करता है। किडनी और थायराइड में कैंसर का कारण भी बनता है।

खाद्य पदार्थों में मिलाए जाने वाले रंग लगभग 80 प्रकार के हैं। इन रंगों से अनाज और भोजन को देखने में आकर्षक बनाया जाता है। खाना, अनाज, हल्दी, चाय, हरी सब्जी, पनीर आदि को रंगने में इन रंगों का प्रयोग किया जाता है। यह रंग पेट्रोलियम से प्राप्त होता है। इन रंगों के खाने से थायराइड ट्यूमर, अस्थमा, पेट दर्द, मिचली, एक्जिमा, जैसे रोगों के साथ लीवरऔर किडनी से संबंधित कैंसर भी होता है।

भारत में रासायनिक खेती की जगह जैविक खेती करने की अवधारणा रासायनिक खेती की असफलता और उससे होने वाले दुष्परिणामों को देखकर आई। हरित क्रांति के शुरुआती दौर में कुछ भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने मैक्सिकन गेहूं और रासायनिक खादों के प्रयोग का विरोध किया था।

उनका कहना था कि भारतीय गेहूं की प्रजातियां उत्पादन में मैक्सिकन गेहूं की प्रजातियां से कतई कम नहीं है। मैक्सिकन गेहूं का ज्यादा उत्पादन बीज की गुणवत्ता के कारण नहीं बल्कि ज्यादा रासायनिक खाद की खुराक से है। उस समय उन वैज्ञानिकों को अनसुना कर दिया गया।

1980 के दशक में खेती में उत्पादन कम होने लगा तो किसानों ने रासायनिक खादों की मात्रा बढ़ानी शुरू की और उत्पादन में वृद्धि हुई। 1990 तक उत्पादन स्थिर हो गया। अब खाद की मात्रा बढ़ाने पर भी उत्पादन नहीं बढ़ रहा था। मिट्टी की उर्वरा शक्ति घटने लगी, भूजल स्तर नीचे जाने लगा, रासायनिक खादों और कीटनाशकों से स्वास्थ्य संकट बढ़ने के साथ पर्यावरण, मिट्टी, जल प्रदूषण भी बढ़ गया। लगातार कृषि में लागत बढ़ने और उत्पादन का उचित मूल्य नहीं मिलने से खेती घाटे में जाने लगी। इसके साथ ही भूमि अधिग्रहण, छोटे किसानों और खेत मजदूर का पलायन, खेती का घटता रकबा, कृषि में बढ़ती लागत, नकली खाद, बीज, आदि के चलते किसान संकट में फंस गए। यही वह समय है जब किसानों की आत्महत्या का सिलसिला शुरू हो गया।

रासायनिक खेती के बढ़ते संकट खासकर कृषि में बढ़ती लागत को कम कैसे किया जाए? इस सोच के आधार पर हरित क्रांति की जगह सदाबहार क्रांति का नारा दिया गया। 1990 में सदाबहार क्रांति का नारा हरित क्रांति के जनक स्वामीनाथन ने दिया। उन्होंने कहा कि सदाबहार क्रांति का मतलब पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाये बिना, रासायनिक खादों और कीटनाशकों के उपयोग के बिना की जाने वाली खेती है। यह सदाबहार क्रांति का नारा तब आया जब पूरी तरह से कृषि और किसान बर्बाद हो गए। यह नारा किसानों को सांत्वना देने के अलावा और कुछ नहीं था।

बीजों के मामले में आत्मनिर्भरता जैविक खेती के लिए बेहद जरूरी

जैविक खेती के मायने केवल रासायनिक खाद, कीट और खरपतवार नाशक की जगह जैविक खाद और जैविक कीटनाशक का प्रयोग करना नहीं है, यह किसानों के परंपरागत स्थानीय बीजों पर स्वयं के नियंत्रण से भी जुड़ा मामला भी है। बीज किसानों की शक्ति है। किसानों की बीज पर आत्मनिर्भरता और उस पर नियंत्रण किए बिना जैविक खेती की बात करना बेईमानी है, क्योंकि स्थानीय बीजों ने सैकड़ों सालों में अपने को स्थानीय वातावरण के अनुकूल बदल लिया है और रोगों तथा कीटों से बचाव के लिए प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित कर ली है। 

मानव स्वास्थ्य पर केवल रासायनिक खादों और कीटनाशकों का घातक प्रभाव ही नहीं हो रहा है, बल्कि अनुवांशिक रूप से संशोधित बीज भी मानव सहित सभी जीव जंतुओं पर घातक जानलेवा प्रभाव डाल रहे हैं। इतना ही नहीं जब यह बीज प्रचलन में आते हैं तो परंपरागत बीज को ही निगल जाते हैं। पिछले दो दशक में ही भारत से 94% कपास के और 60% सब्जी के परंपरागत बीज और उसकी खेती समाप्त हो गई है।

अनुवांशिक रूप से संशोधित बीजों से उत्पादित खाद्य पदार्थों का स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव होगा इसका परीक्षण फ्रांस के टाइम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक गिल्स एरिक सेरालिनी ने किया। उन्होंने जीएम बीजों से उत्पादित अनाज के प्रभाव का प्रयोग सबसे पहले चूहों पर किया। 

चूहों को 2 साल तक (चूहों की उम्र 2 साल ही होती है) जीएम बीज से उत्पादित अनाज खिलाया गया। यह अनाज खाने से चूहों के शरीर पर बड़ी-बड़ी गांठे निकल आई, उनके लीवर और किडनी में विकृतियां पाई गईं। गिल्स का यह शोध निष्कर्ष 2012 में फ्रांस के साइंस जनरल में प्रकाशित हुआ। जीएम बीज बनाने वाली कंपनियों ने इसकी काफी आलोचना की। इन कंपनियों के वेतन भोगी वैज्ञानिकों ने कहा कि शोध में ईमानदारी नहीं बरती गई। बाद में जीएम बीज उत्पादक बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसेंटो ने इस शोध को पत्रिका से बाहर निकलवा दिया।

भेड़ों पर किए गए परीक्षण के दौरान जब बीटी कॉटन के बीज भेड़ों को खिलाए गए तो भेड़ों के फेफड़े, हृदय, जननांग, किडनी, लीवर के आकार और वजन में अप्रत्याशित रूप से कमी पाई गई। 1994 में जब अमेरिका में पहली बार जीएम बीज से उत्पादित टमाटर अमेरिकी बाजार में बिक्री के लिए उतारा गया तो उस टमाटर को खाने वाले अमेरिकियों में एलर्जी में 400%, अस्थमा में 300% और आटिज्म (मानसिक विकासात्मक विकलांगता) में 500% की वृद्धि देखी गई।

भारत में बीटी कॉटन के उत्पादन की अनुमति मिलने के बाद कृषि वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, सामाजिक संस्थाओं, और किसानों द्वारा इसका जबरदस्त विरोध किया गया। विरोध के बाद यह मामला भारत के कृषि मंत्रालय की एक संसदीय समिति को सौंप दिया गया। 2009 में समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि जीएम बीजों से उगाई गई फसलों से मनुष्यों और अन्य जीव जंतुओं के स्वास्थ्य व उनके अंगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

2017 में विज्ञान व तकनीकी, पर्यावरण तथा वन मंत्रालय की संसदीय समिति ने ‘जीएम फसलों के पर्यावरण पर असर’ रिपोर्ट में कहा कि जीएम फसलों के विभिन्न खतरों को देखते हुए सरकार को इन फसलों के प्रति बहुत सावधान रहने की जरूरत है। भारत में जीएम फसलों के लिए जो लोग नियम बनाते हैं वह सामान्यतया उन जानकारियों के भरोसे बैठे हैं, जो जीएम फसलों के प्रसार की अनुमति मांगने वाली कंपनियां उपलब्ध कराती हैं।

संबंधित सरकारी अनुसंधान संस्थानों ने जीएम फसलों के मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का जरूरी अध्ययन भी नहीं किया है। समिति ने दो गंभीर सवाल भी उठाए कि 2000 से 2005 के बीच देश में कपास की फसल में बीटी कॉटन का छह प्रतिशत हिस्सा था उस दौरान कपास की उत्पादकता में 69% वृद्धि दर्ज की गई जबकि 2005 से 2015 के बीच बीटी कॉटन का हिस्सा बढ़ते हुए 94% पर पहुंच गया लेकिन उत्पादकता में वृद्धि 10% ही हुई। 

दूसरा सवाल जीएम फसलों का 90% हिस्सा मात्र 6 देश अमेरिका, कनाडा, ब्राजील, अर्जेंटीना, चीन और भारत का है तो सरकार यह जानने की कोशिश क्यों नहीं करती है कि अधिकांश देशों ने इसे अपनाने से इंकार क्यों किया?

बीज उत्पादक कंपनियों का आधिपत्य चिंताजनक

पर्यावरण एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ भारत डोगरा कहते हैं कि जीएम फसलों के बारे में विश्व के सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने बार-बार यह चेतावनियां दी हैं कि इससे कितने बड़े-बड़े खतरे हो सकते हैं लेकिन जीएम बीज की उत्पादक कंपनियों ने वैज्ञानिकों की आवाज दबाने की भरपूर कोशिश की है। नवंबर 2018 की करंट साइंस पत्रिका में स्वामीनाथन और पीसी केशवन का लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें जीएम बीज की आलोचना की गई थी। इस लेख पर जीएम बीज उत्पादक कंपनियों के वेतनभोगी वैज्ञानिकों ने आरोप लगाया कि लेख में तथ्यों को नजर अंदाज किया गया है। बाद में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में पत्रिका ने स्वामीनाथन और केशवन के लेख को हटा दिया। यह ठीक वैसा ही हुआ जैसा गिल्स एरिक के शोध के साथ हुआ था।

1960 के दशक तक आत्मनिर्भर भारतीय किसान आज पूरी तरह से रासायनिक खाद, कीटनाशक, बीज, कृषि उपकरण, सिंचाई के यंत्र, बांध, बिजली बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ऊपर निर्भर हो गया है। जैविक खेती का सीधा संबंध बीज और पशुपालन से है। बिना बीज, पशुपालन और बागवानी के जैविक खेती की कल्पना करना ख्याली पुलाव पकाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। कृषि उपकरणों ने किसानों को पशुपालन से दूर कर दिया।

जर्मनी में हुए एक शोध में पाया गया कि कम उत्पादन के कारणों में एक खेती में प्रयोग होने वाले भारी कृषि उपकरण भी हैं, इन भारी कृषि उपकरणों के कारण मिट्टी दब जाती है, जिसके कारण भी उत्पादन में गिरावट होती है। 

जैविक खेती के लिए मानव श्रम की जरूरत ज्यादा पड़ती है। फसलों की जुताई, निराई, गुड़ाई, कटाई आदि के लिए हल्के कृषि यंत्रों के प्रयोग और पशुपालन तथा खाद बनाने के लिए कृषि मजदूरों की अधिक जरूरत होगी। जबकि मनरेगा में कृषि मजदूरों से कृषि कार्यों से इतर काम लेने के कारण अब किसानों के सामने खेत मजदूर का संकट भी खड़ा हो गया है। खेती के उत्पादन का उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण किसान, मजदूरों को उनकी बढ़ी मजदूरी दे पाने में असमर्थ हैं।

कृषि नीतियों को कॉर्पोरेट की इच्छानुसार तैयार किया जा रहा

मौजूदा कृषि नीतियों के केंद्र में किसान नहीं है। कृषि उपज का उचित मूल्य, कर्ज का बढ़ता बोझ, आत्महत्या के मामले, विभिन्न परियोजनाओं के लिए कृषि भूमि का अधिग्रहण, न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी, खाद, बीज एवं सिंचाई के बढ़ते दाम जैसी समस्याओं के खिलाफ किसान आंदोलन करते रहते हैं। किसानों के इन तमाम मुद्दों को अभी तक हल नहीं किया जा सका है, इन समस्याओं को हल करने की सरकार की कोई योजना भी नहीं है।

एक तरफ जैविक खेती करने के लिए किसानों के बीच प्रचार तो दूसरी तरफ निजी पूंजी को कृषि में निवेश की छूट यह दोनों बातें एक दूसरे की विरोधी है। कारगिल, बायर, नेस्ले, आईटीसी, टाटा, रिलायंस, मैकडॉनल्ड, अमेज़न जैसी दैत्याकार कंपनियों का मुकाबला देश का साधन विहीन किसान कैसे कर सकता है, जिसके पास न तो बीज है, न ही सिंचाई के साधन पर स्वावलंबन, जो कृषि की मौलिक जरूरत है।


भारत सहित वैश्विक कृषि नीतियां जैविक खेती (रसायन मुक्त खाद्यान्न) की पक्षधर कतई नहीं है। GRAIN (ग्रीन) द्वारा किए गए अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकारों द्वारा रासायनिक खादों का प्रयोग कम करने और जैविक खेती करने के अभियान के बाद भी विश्व की 9 सबसे बड़ी खाद कंपनियों का लाभ 2020 में 13 अरब डॉलर हुआ और 2022 के अंत तक आश्चर्यजनक रूप से 440 प्रतिशत बढ़कर 57 अरब डॉलर का लाभ होने की उम्मीद है।

प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय संगठन ETC ने अपने 3 साल के अध्ययन में इस तथ्य का विस्तृत ब्योरा दिया है कि किस प्रकार कुछ गिने चुने सत्ता पोषित औद्योगिक घरानों अथवा निजी क्षेत्र के हाथों में औद्योगिक खाद्य श्रृंखला की बागडोर आने से इस व्यापार पर उनकी पकड़ निरंतर मजबूत हो रही है।

अध्ययन यह भी बताता है कि पशुधन, मत्स्य उद्योग, उपभोक्ता बाजार, खुदरा खाद्य बाजार के अधिग्रहण और विलय तथा कृषि उपकरणों के डिजिटलीकरण और स्वचालन के अंधाधुंध प्रयोग से किसानों को किस प्रकार अंततः कृषि कार्य से बाहर कर दिए जाने का खेल रचा जा रहा है।

सिंथेटिक खाद्य पदार्थों का बढ़ता बाजार जैविक खेती के लिए दिवास्वप्न

माल्थस का सिद्धांत एक बार फिर अपने नए रूप (सिंथेटिक खाद्य पदार्थ) में प्रकट हो गया है। खाद्य पदार्थों पर नियंत्रण के फिराक में बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रचार कर रही हैं कि 2050 तक दुनिया की आबादी 9 अरब हो जाएगी इतनी बड़ी आबादी को भोजन उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है, लिहाजा खाद्यान्न उत्पादन के नए तरीके अगर नहीं खोजे गए तो जमीन (प्राकृतिक) से उत्पादित अनाज केवल आठ अरब लोगों को ही उपलब्ध हो सकेगा। एक अरब आबादी भूख से मर जाएगी। इस एक अरब आबादी को अकाल मौत से बचाने की कवायद बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा शुरू कर दी गई है। अब खाद्य सामग्री का उत्पादन खेतों में नहीं बल्कि फैक्ट्रियों में होगा।

फैक्ट्रियों में उत्पादित किए जा रहे सिंथेटिक भोजन में निवेश करने वाली कारगिल, माइक्रोसॉफ्ट, नेस्ले, अमेजॉन, मेपल लीफ फूड्स, टायसन, जेबीएस जैसी सैकड़ो विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियां है। सिंथेटिक खाद्य पदार्थ को फैक्ट्री में रसायनों के द्वारा उनको हेरफेर कर तैयार किया जाता है। इस सिंथेटिक खाद्यान्न में प्रयोग होने वाले रसायनों से कैंसर, श्वसन, पाचन, प्रजनन, विषाक्तता, एंजाइम संबंधी जटिलता, प्रोटीन संरचना में बदलाव, चिंता, अनिद्रा, सूजन, मितली, जलन, कार्पल टनल सिंड्रोम (हाथ का सुन्न हो जाना) आदि जैसी बीमारियां होती है। मानव स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा प्रभाव उन रसायनों द्वारा होता है जिनका प्रयोग रंग, गंध और स्वाद के लिए किया जाता है। कंपनियों द्वारा उत्पादित खाद्य पदार्थों में मिलाए जाने वाले रंगों से स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव का जब चूहों और पशुओं पर परीक्षण किया गया तो उन्हें ट्यूमर, कैंसर, एलर्जी आदि के लक्षण प्रकट हो गए।

कंपनियों के दबाव में सरकारें कानून बनाकर लोगों को इन कंपनियों द्वारा उत्पादित सिंथेटिक खाद्य पदार्थों को खरीदने के लिए मजबूर कर सकती हैं, पूर्व की घटनाएं तो ऐसा ही कहती हैं, जब भारत सरकार ने टाटा के दबाव में 1994 में आयोडीन युक्त नमक खाने के लिए अनिवार्य कर दिया। 1998 में खाद्य तेल उत्पादक कंपनियों के दबाव में पैकेट बंद खाद्य तेल खरीदने पर मजबूर कर दिया गया था। 

वर्तमान समय में खाद्य सुरक्षा के तहत बहुत बड़ी आबादी को भारत की केंद्र सरकार द्वारा कंपनियों का आयरन मिला फोर्टीफाइड चावल खिलाया जा रहा है। लोगों को पता भी नहीं है कि वह क्या खा रहे हैं। 2022 में खाद्य मंत्रालय का कहना था कि देश की हर दूसरी महिला खून की कमी और हर तीसरा बच्चा कमजोरी से जूझ रहा है, जिससे निपटने के लिए आयरन की जरूरत है। आयरन युक्त चावल ही फोर्टीफाइड चावल है, सवाल है कि जिन लोगों को आयरन की जरूरत नहीं है या ऐसे रोगी जिन्हें आयरन की थोड़ी मात्रा भी नुकसान पहुंचा सकती है उन्हें जबरदस्ती आयरन क्यों खिलाया जा रहा है। जिन महिलाओं और बच्चों को आयरन की कमी है उन्हें आयरन की गोली देने की जगह यह चावल क्यों खिलाया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि फोर्टीफाइड चावल से बहुत ज्यादा मात्रा में आयरन शरीर में जा सकता है, जिससे हृदय की धड़कन बढ़ सकती है। हृदय अनियंत्रित हो सकता है और हार्ट फेल भी हो सकता है। अधिक मात्रा में आयरन से लिवर कैंसर का खतरा बढ़ जाता है और अंतः स्रावी ग्रंथियों में अनियमितता हो सकती है। थैलेसीमिया और सिकल सेल (रक्त संबंधी बीमारी) के रोगी को विशेष रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

 विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद आखिर सरकार क्यों लोगों की जान जोखिम में डालने पर आमादा है इसका सीधा सा जवाब कंपनियों के दबाव में उनको फायदा पहुंचाना है। खाद्य पदार्थों का उत्पादन जब फैक्ट्री में रसायनों के द्वारा होगा तब कृषि और किसान का क्या होगा? जैविक खेती (रसायन मुक्त) खाद्यान्न के अभियान का क्या होगा? अब न तो खेती बचेगी न ही किसान।

सिंथेटिक खाद्य पदार्थ के उत्पादन में लगी कंपनियों का कहना है की सिंथेटिक खाद्य पदार्थों से भूमि उपयोग में कमी, पानी की कम खपत, ग्रीन हाउस गैस का कम उत्सर्जन हो रहा है और यह पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाये पैदा किया जाता है। इसका सबसे बड़ा बाजार अमेरिका, कनाडा, और मेक्सिको है।

सिंथेटिक खाद्य बाजार अनुसंधान के अनुसार अमेरिका, रूस, जर्मनी, जापान, कोरिया, ब्रिटेन, कनाडा, स्पेन, इंडोनेशिया, भारत आदि कई देशों में सिंथेटिक खाद्य पदार्थों की बिक्री की जा रही है। धीरे-धीरे यह सिंथेटिक भोजन का व्यापार अपना पांव पसार रहा है। 2022 में सिंथेटिक भोजन का व्यवसाय 16 बिलियन डॉलर, 2023 में 16.48 बिलियन डॉलर एवं  2024 में 17.57 बिलियन डॉलर के व्यवसाय का अनुमान है। 2030 तक इसके 31 बिलियन डॉलर हो जाने की संभावना व्यक्त की गई है। ऐसे में जैविक खेती एक दिवा स्वप्न की तरह ही है।

यहां पढ़ें इस शृंखला के पिछले 2 लेख-

रासायनिक खेती का सच : कारपोरेट खेती और जहरीले खाद्यान से कैसे मिलेगी निजात?

रासायनिक खेती के उदय और विकास में वैश्विक शक्तियों की भूमिका और लाभ की राजनीति

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