प्रशांत किशोर लगातार चर्चा में हैं। लगता है कुछ न कुछ कर गुजरेंगे। अपने प्रयासों के ज़रिए जन सुराज ने बिहार में इतनी जगह बना ली है कि उसे एकदम से इग्नोर तो नहीं किया जा सकता है। पिछले उप चुनाव, जो हालांकि बहुत छोटे स्तर पर था, में पहली बार ही हिस्सा लेकर, जन सुराज ने लगभग 10 फीसदी वोट हासिल कर लिया था, जो की नोट करने लायक बात है।
सर्वे एजेंसी सी वोटर के ताजा सर्वे से भी पता चलता है कि प्रशांत किशोर बिहार में एक फैक्टर बन चुके हैं, छोटा या बड़ा फैक्टर? यह तो चुनाव बाद पता चलेगा, पर इस सर्वे के अनुसार 36 फीसदी लोगों ने जहां तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद के लिए अपना पसंदीदा चेहरा बताया तो 17 फीसदी लोगों ने जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर को अपनी पसंद बताया, जबकि नीतीश कुमार की लोकप्रियता थोड़ी कम हुई है।
हालांकि किसी सर्वे को अंतिम सच मानकर नहीं चला सकता है फिर भी एक नए ट्रेंड को शुरूआती स्तर पर स्थापित होते हुए ज़रूर देखा जा सकता है, जिसे बिहार में स्थापित दोनों गठबंधन और उनके समर्थक अभी मानने के लिए तैयार नही हैं।
जन सुराज द्वारा चलाए जा रहे अभियानों को केवल नकारने की रणनीति पर ही बिहार में विपक्ष व पक्ष दोनों काम कर रहे है। प्रशांत किशोर की ज्यादातर गतिविधियों को संदिग्ध नजरों से देखा जा रहा है। उन पर आरोप है कि वह भाजपा के लिए काम कर रहे हैं। यह भी आरोप है कि उनके लिए कारपोरेट फंडिंग हो रही है।
सवाल यह भी है कि प्रशांत किशोर सामाजिक न्याय के सवाल को महत्व नहीं देते हैं, बचते हैं। या धीमी आवाज़ में बोलते हैं। उनकी विचारधारा भी अभी तक स्पष्ट नही है, वह परिणामवादी तरीके से हर धारा से कुछ-कुछ लेते हुए दिखते हैं।
और यह भी कि वह राजनेता कम नौकरशहाना ज्यादा हैं, या किसी कारपोरेट कंपनी के सीइओ की तरह काम करते हैं।
यह संभव है कि इन सारे आरोप में एक हद तक दम हो, पर अभी असली सवाल ये है कि प्रशांत बिहार की राजनीति पर क्या असर डाल रहे हैं? कहां-कहां क्या गैप रह जा है, जहां वह उसे भरने की गंभीर क़िस्म की कोशिश करते दिख रहे हैं।
जैसे कि इबीसी समाज के अंदर जो मुकम्मल बदलाव की या हाशिए से बाहर निकलने की आकांक्षा है, क्या नीतीश कुमार उसे एड्रेस करने की स्थिति में हैं? ये जरूर है कि जब बिहार में इबीसी समाज राजनीति के एजेंडे से बाहर हो रहा था, उस समय कर्पूरी ठाकुर के बाद, नीतीश कुमार ने उनके सवालों को सीमित स्तर पर ही सही हल करने की कोशिश की थी और इबीसी समाज का उन्हें समर्थन भी मिला, पर साथ ही उस समाज की समग्र आकांक्षाओं को संबोधित करने से वह बराबर बचते भी रहे.
बिहार में जाति आधारित सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के बाद यह उम्मीद बंधी थी, कि सरकार कोई बड़ा बदलाव करने की योजना बना रही है, बिहार में 65 फीसदी आरक्षण के बाद, इबीसी समाज के अंदर एक सकारात्मक ऊर्जा पैदा हुई थी, ये लग भी रहा था कि मोदी सरकार,जदयू पर निर्भर है, तो बिहार में आरक्षण के फैसले को संविधान के 9वीं अनुसूची में आसानी से शामिल कर लिया जाएगा, पर ऐसा नही हुआ।
इसके चलते इबीसी समाज और नीतीश कुमार के बीच एक स्तर का गैप होता दिखने लगा है। इसके साथ ही नीतीश कुमार की बीमारी और उम्र को लेकर जो नकारात्मक नैरेटिव बना है, उसके चलते भी उस समाज में उनको लेकर थोड़ी निराशा ज़रूर जा रही होगी।
नतीजन इस जगह को भरने में सभी राजनीतिक धाराएं जद्दोजहद कर रही हैं। अन्य धाराओं के साथ ही प्रशांत किशोर भी, आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व का सवाल उठा कर, उसी जद्दोजहद में लगे हुए हैं, जिस पर विश्लेषकों का ध्यान कम जा रहा है।
इसी तरह लंबे समय से राष्ट्रीय जनता दल भी एमवाई दायरे से आगे नहीं बढ़ पा रही है, अति पिछड़ा समाज बहुत पहले ही राजद से छूट गया था, जो अभी तक मुकम्मल तौर पर लौटा नही है। हालाकि राजद द्वारा इस दिशा में प्रयास किया जा रहा है पर इन समूहों को वास्तविक प्रतिनिधित्व दिए बिना उनकी वापसी संभव नही है।
मुस्लिम जनाधार में भी राजद को लेकर बराबर ये शिकायत रहती है कि उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है और इसी दरार को ओवैसी साहब एक स्तर तक भरते रहे हैं और इसी के चलते भाजपा के साथ रहते हुए भी, नीतीश कुमार के साथ मुसलमानों का एक हिस्सा जाता रहा है। पसमांदा सवाल भी अब एक स्तर पर आकार ले रहा है, जिसे अभी ठीक से संबोधित करने की कहीं भी कोशिश नही की जा रही है।
इसी ख़ास परिस्थिति में एक महत्वपूर्ण पहल पर कम ध्यान दिया जा रहा है। यानि कि जब कोई भी राजनीतिक धारा यह कहने की स्थिति में नही है कि जिसकी जितनी आबादी होगी उसी अनुपात में टिकट का भी बंटवारा किया जाएगा। लेकिन उसी समय प्रशांत किशोर,खुलेआम यह ऐलान कर रहे हैं कि जिसकी जितनी आबादी होगी उसी अनुपात में उस समाज को टिकट बंटवारे में जगह दी जाएगी और यह आश्वासन वह सभी समाजिक समूहों, मसलन पिछड़े, अति पिछड़े, दलित व मुस्लिम समाज या अन्य के लिए भी कह रहे हैं।
ऐसे में जन सुराज की वैचारिकी पर बहस खड़ा करिए, पर यह भी देखिए कि राजनीतिक जमीन भी उन्हें कहां-कहां मिलती दिख रही है?
जैसे बिहार में दलित राजनीति कभी भी उत्तर प्रदेश की तर्ज़ पर नही खड़ी हो पाई। छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित रही है। आज भी कमोबेश यही स्थिति है। और इसमें अभी भी कोई बदलाव होता हुआ नही दिख रहा है, बल्कि थोड़ा बिखराव और बढ़ा है।
एक ख़ास सामाजिक समूह को आज़ चिराग़ पासवान तो दूसरे समूह को जीतन राम मांझी तथा उसी तरह एक तीसरे हिस्से का नेतृत्व लेफ्ट करता है। बसपा व जदयू की भी हिस्सेदारी इन सामाजिक समूहों के बीच बनी हुई है।
दलित समाज की राजनीति के कमजोर पड़ने की एक बड़ी वज़ह तो बिहार में भूमि सुधार का लगभग फेल हो जाना है, जिसके चलते ज्यादातर दलित समाज भूमिहीन ही बना रह गया, फिर शिक्षा व राजनीतिक चेतना से भी एक स्तर तक वंचित रह गया।
फिर बाद में ओबीसी राजनीति ने दलित समाज को अपने से जोड़ने की कोशिश की,जोड़ा भी पर उसकी भी एक सीमा थी, समग्रता में उनके सवालों को संबोधित करने का प्रयास नही किया गया,जल्दी ही यह गठबंधन भी टूट गया।
प्रशांत किशोर स्थापित दलों की इसी कमजोरी को एड्रेस करने की कोशिश कर रहे हैं, जातिगत सर्वेक्षण से ये आंकड़ा सामने आ गया है कि दलित समाज का 42 फीसदी हिस्सा बेहद ग़रीबी में जी रहा है, इसी हिस्से को बिहार से सबसे ज्यादा पलायन करना पड़ रहा है। भूमिहीनता इन्ही सामाजिक समूहों के बीच ज्यादा है।
इन्हीं सब पहलुओं को ध्यान में रखते हुए जन सुराज पिछले 2 सालों से पलायन के सवाल को बड़े पैमाने पर उठा रहा हैं, इसे रोक देने की गारंटी दे रहा हैऔर इसके लिए एक स्तर की योजना भी पेश कर रहा है।
और बहुत ऊपरी स्तर पर ही सही पर जन सुराज द्वारा बार-बार जमीन का सवाल भी उठाया जा रहा हैं, जो दलित समाज के लिए आज़ भी बड़ा सवाल है, जो उन्हें सीमित भूमि सुधार के चलते आज़ भी हासिल नही हुआ है।
बंधोपाध्याय आयोग के ज़रिए एक समय नीतीश कुमार ने इस सवाल को संबोधित करने की कोशिश की थी, पर अपर कास्ट दबाव के चलते उन्हें पीछे हटना पड़ा था। ज्यादातर राजनीतिक धाराएं जमीन के सवाल को अब मुद्दा ही नहीं मानती हैं,या मानती हैं तो उसे अपने राजनीति के केंद्र में नहीं रखना चाहती हैं।
लेकिन जन सुराज पार्टी जोर-शोर से पलायन व जमीन के सवाल के साथ ही बिहार में ही बेहतर शिक्षा व बिहार में ही रोजगार के प्रश्न को केंद्रीय एजेंडा बनाए हुए हैं।
चूंकि स्थापित राजनीतिक धाराओं के पास इन सभी बड़े प्रश्नों पर कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है या है तो प्रचारित नही है।
जबकि प्रशांत किशोर ऊपरी स्तर पर ही सही एक व्यवहारिक योजना लेकर बिहार की यात्रा पर निकले हुए हैं।
इस रणनीति को समझना हो तो दिल्ली में शुरूआती दिनों के अरविंद केजरीवाल को देखा जा सकता है,और उन्हीं के ज़रिए बिहार में प्रशांत किशोर फैक्टर को भी कुछ-कुछ समझा जा सकता है। हालांकि ठीक-ठीक तुलना नहीं की जा सकती है पर यह तो समझा जा सकता है कि नयी सिरे से स्थापित होने की कोशिश कर रही पार्टी को कैसे, स्थापित पक्ष-विपक्ष अक़्सर चरम उपेक्षा के हथियार से हाशिए पर धकेलने की नाकाम कोशिश करता हैं? उसी समय यह नहीं देख रहा होता है कि कोई नयी धारा, स्थापित दलों द्वारा छोड़े गए जगहों को अपने तरीके से लगातार भर रही है, जनता के आकांक्षाओं की नयी पैकेजिंग की जा रही है, छोड़ दिए गए मुद्दों का अपने ढंग से मार्केटिंग किया जा रहा है।
दिल्ली में शुरूआती दिनों में यही हुआ। एक बड़ा हिस्सा ‘आप’ के साथ हो लिया,और एक दूसरा बड़ा हिस्सा,’आप’ पर केवल वैचारिक हमले करता रहा,लेकिन उसी समय आम आदमी पार्टी स्थापित दलों द्वारा छोड़े गए राजनीतिक गैप को भरती जा रही थी। उस पर उस समय की किसी स्थापित धारा ने बिल्कुल ही ध्यान नही दिया, जिसके चलते स्थापित दल को तात्कालिक तौर पर विदाई लेनी पड़ी।
बिहार में भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है, यह बिल्कुल नही कहा जा रहा है,पर इस सच्चाई को भी समझना ज़रूरी है कि बिहार की राजनीति भी अभी संक्रमणकालीन दौर से गुज़र रही है।
भाजपा चाह कर भी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पा रही है। नीतीश कुमार की राजनीति भारी अनिश्चितता की तरफ बढ़ रही है, कांग्रेस अपने अंदर ही अभी जूझ रही है। राजद व लेफ्ट के राजनीतिक-वैचारिक धार में एक सीमा के बाद ठहराव सा आ गया है। ऐसे में बिहार में नयी राजनीति के नाम पर किसी आर्टिफिशियल या तथाकथित बदलाव की कोशिश को बहुत हल्के में लेना बिल्कुल ही ठीक नहीं है बल्कि कई मायने में तो बेहद ख़तरनाक भी है।