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ग्राउंड रिपोर्ट

क्या राहुल गांधी ने खुद को मजबूत कर भाजपा के सामने खड़ी की चुनौती

राहुल गांधी को राजनीति विरासत में मिली, जिसके चलते उन्हें तुरंत ही सबके प्रिय और बड़े नेता बन जाना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अपने को साबित करने के लिए उन्होंने खुद को पूरी तरह झोंक दिया। 2014 के बाद भाजपा ने गोदी मीडिया के माध्यम से पूरी तरह से उन्हें एक कमजोर, अपरिपक्व और नासमझ नेता बताते हुए प्रचार-प्रसार किया। राहुल ने हार नहीं मानी। जनता के बीच लोकप्रिय होने के साथ ही, सड़क से संसद तक अपने को साबित किया।

भाजपा द्वारा पैदा की गयी नफ़रत की आँधियों के बीच चट्टान की तरह खड़े राहुल गांधी के सामने इतिहास ने कई चुनौतियां छोड़ रखी है! उनके समक्ष चुनौती है भारत के साधु-संतों, लेखक-पत्रकारों, मीडिया और धन्ना सेठों के इकतरफा समर्थन से पुष्ट विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को उसके मांद में धकेलने की;उनके समक्ष चुनौती है दलित,आदिवासी,पिछड़ों को  निजी कंपनियों,यूनिवर्सिटियों, अखबारों ,अस्पतालों इत्यादि का मालिक और सीईओ बनाने की;उनके समक्ष चुनौती है आधी आबादी को सरकारी नौकरियों में 50% हिस्सेदारी  दिलाने की;उनके समक्ष चुनौती है आरक्षण का 50% सीमित दायरा तोड़कर शक्ति के समस्त स्रोतों में जितनी आबादी, उतना हक का सिद्धांत लागू करने की; उनके समक्ष चुनौती है। देश के युवाओं को 30 लाख सरकारी नौकरियाँ देने की और चुनौती साथ है एमएसपी की कानूनी गारंटी के जरिये देश के अन्नदाता की स्थिति बेहतर करने की। उनके समक्ष और भी कई चुनौतियां हैं, जिनमें से एक है भारतीय इतिहास में महा नायक/नायिका के रूप में जगह बनाए। उन नेताओं  को भ्रांत साबित करने की, जिन्होंने कांग्रेस को समाप्त करना अपने जीवन का सबसे बड़ा राजनीतिक लक्ष्य बनाया था।

ऐसे नेताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है,जिन्होंने कांग्रेस का अंत अपना राजनीतिक मिशन बनाया था। ऐसे नेताओं में जिनका नाम हर किसी के जेहन में सहजता से उभरता है वे हैं: जय प्रकाश नारायण, ज्योति बसु, वीपी सिंह, मान्यवर कांशीराम और उनकी उत्तराधिकारी मायावती जैसे आंबेडकरवादी, वाजपेई- आडवाणी और मोदी-शाह जैसे संघी, एनटी रामाराव,चंद्रबाबू नायडू, जय ललिता इत्यादि जैसे दक्षिण भारतीय, ममता बनर्जी- अरविंद केजरीवाल जैसे नए जमाने के मसीहा, वामन मेश्राम, बीडी बोरकर जैसे बामसेफी एवं ढेरों लोहियावादी। अगर राहुल गांधी कांग्रेस को उबारने में सफल हो जाते हैं तो निश्चय ही इतिहास में उनका स्थान कांग्रेस विरोधी हीरोज से बहुत–बहुत ऊपर हो जायेगा: तमाम कांग्रेस विरोधी महानायक/ नायिकाएं ही उनके समक्ष बौने हो जायेंगे!

 कांग्रेस का पुनरुद्धार कर राहुल गांधी सिर्फ बड़े नेताओं को ही बौना नहीं बनाएंगे, वह साबित कर देंगे कि भारतीय बौद्धिकता की दुनिया के शिखर पुरुष एसपी सिंह, राजकिशोर, वरूण सेनगुप्ता, शेखर गुप्ता, रवीश कुमार,पुण्य प्रसून बनर्जी, योगेंद्र यादव, दिलीप मंडल से लगाए नीरजा चौधरी, अश्विनी कुमार, संजय गुप्ता इत्यादि सहित देश के 99% स्थापित पत्रकारों  और राजनीतिक विश्लेषकों की हैसियत  मामूली रिपोर्टरों से ज्यादा नहीं क्योंकि इन पत्रकारों ने कांग्रेस को फिनिश करने और खुद राहुल गांधी को खारिज करने में कभी सर्वशक्ति  लगाया था। याद करें भारतीय पत्रकारिता में आज के ढेरों पत्रकारों के आइकॉन हैसियत रखने वाले एसपी सिंह को,  जिन्होंने ने 1977 में इंदिरा गाँधी की पराजय के बाद कोलकाता से निकलने वाले ‘रविवार’  के जरिये कांग्रेस और इंदिरा गाँधी के खिलाफ जो घृणित अभियान चलाया, उसे आज की पत्रकारिता से जुड़ा कोई विद्यार्थी पढ़ें तो शर्म से उसका सिर झुक जायेगा कि कांग्रेस विरोध के नाम पर कैसे-कैसे लोगों को हीरो बना दिया गया था।

उसी दौर में बांग्ला में पत्रकारिता करने वाले वरुण सेनगुप्ता ‘इंदिरा एकादशी‘ जैसी पम्फलेटनुमा किताब निकालकर बंगाल जैसे राजनीतिक रुप से जागरूक प्रदेश में नायक का दर्जा हासिल कर लिये थे। कांग्रेस और इंदिरा विरोधी लेखन से वह इतने लोकप्रिय हो गये कि उसके बाद उनका अखबार ‘वर्तमान’ लोगों ने हाथो-हाथ ले लिया। आपातकाल के बाद पूरा देश ही एसपी और सेनगुप्ताओ से भर गया था। यह बात और है कि इंदिरा गाँधी ने 1980 में सत्ता में वापसी कर साबित कर दिया था कि उनकी दॄष्टि एक पोलिटिकल रिपोर्टर से ज्यादे की नहीं है।

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आपातकाल के बाद कांग्रेस को अतीत का विषय बनाने की होड़ केजरी–अण्णा के दौर में मची। तब आज की भारतीय पत्रकारिता के सुपर हीरो रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अभय कुमार दुबे, योगेन्द्र यादव इत्यादि जैसे 99 प्रतिशत लेखक-पत्रकार ही कांग्रेस का श्राद्ध करने में होड़ लगा कर साबित कर दिए थे कि भारतीय पत्रकारिता ऐसे लोगों से भरी है जिनकी दॄष्टि किसी गली-मोहल्ले के पत्रकार से ज्यादे की नहीं है। आज अण्णा–केजरी के दौर के पत्रकार क्या कर रहे हैं, उसे बताना उनका उपहास उड़ाना होगा लेकिन भारतीय पत्रकारिता के नायक-नायिकाओं ने तो कांग्रेस ही नहीं, राहुल गांधी को खारिज करने की सारी हदें लांघी। 2014 के बाद वास्तव में भारतीय पत्रकारों के अदूरदर्शिता और सतहीपन का अध्ययन करना हो तो मोदी राज के बाद जैसी सामग्री कहीं मिल ही नहीं सकती। मोदी राज के पत्रकारों की कारुणिक स्थिति की कुछ बानगी देखें।

2014 के बाद मीडिया ने बनाया था राहुल को पप्पू 

2014 के लोकसभा का चुनाव परिणाम आने के बाद अमर उजाला ने ‘कांग्रेस का हर दांव उलटा पड़ा’ अपनी संपादकीय में लिखा था- ‘चुनाव दर चुनाव अपनी सियासी जमीन दरकने से कांग्रेस का इस बार लोकसभा चुनाव में हर दांव उल्टा पड़ा। एक ओर यूपी का सशक्त नेतृत्वविहीन कांग्रेस का जर्जर संगठन तो दूसरी तरफ हर हथियारों से लैस टीम मोदी। चुनाव मैदान में शुरुआती दौर से ही कांग्रेस हर मोर्चे पर रक्षात्मक मुद्रा में नजर आ गई। कांग्रेस के चुनाव अभियान की कमान पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गाँधी व उनकी युवा टीम ने सम्भाल रखी थी।  जमीनी हकीकत से कोसों दूर यह टीम कम्प्यूटरी आँकड़ों से माहौल का आकलन करने मे व्य्स्त रही(अमर उजाला, 17 मई, 2014)

ऐसा लगता है 2014 का चुनाव कांग्रेस राहुल गाँधी के कारण ही हारी, इस बात का संकेत करते हुए दैनिक जागरण ने अपनी सम्पादकीय में लिखा था, ‘राहुल गाँधी के नेतृत्व में लड़े गए लोकसभा का चुनाव परिणामों के बाद मीडिया से मुखातिब हुईं सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष कम, एक मां ज्यादा लग रहीं थीं। अपना बयान पढ़ने के बाद पत्रकारों ने जब सवाल दागे तो पत्रकारों न कहते  हुए सोनिया ने ठिठके राहुल को साथ आने का इशारा कर सवालों से बचाया। यही नहीं जब राहुल ने हार की जिम्मेवारी स्वीकारी तो सोनिया खासी नाराज नजर आयीं। (दैनिक जागरण, 17 मई, 2014). अखबारों की  संपादकीय से इतर अखबारों के संपादकीय पेज पर छपने वाले बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषकों ने कांग्रेस को अतीत का विषय बताने और राहुल गांधी को खारिज करने में रिकॉर्ड ही कायम कर दिया था।

नीरजा चौधरी की पहचान देश के बड़े राजनीतिक विश्लेषकों में होती है। 2014 के चुनाव परिणाम पर राय देते हुए उन्होने लिखा था, ’लोगों को एक निर्णायक नेतृत्व की जरुरत थी, जो उन्हें नरेंद्र मोदी में दिखी इसलिए जनता ने उन्हें बहुमत से जिताया, ताकि वे लोगों की आकांक्षा को निर्बाध पूरा कर सकें। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वह अपने  सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। आपातकाल के बाद जब इंदिरा गाँधी हारी थीं तो बहुत कम समय में उन्होने वापसी कर ली थी. लेकिन कांग्रेस में अभी वह करिश्माई नेतृत्व नहीं दिख रहा है, जो इस कठिन घड़ी से उबार सके। अब भी कांग्रेस के नेता इस हार के लिये सामूहिक जिम्मेवारी की बात कर रहे हैं। यह एक तरह से सोनिया और राहुल को बचाने जैसा है,  अगर कांग्रेस ने अपने नेतृत्व में बदलाव नहीं किया तो इस बात का भी जोखिम है कि पार्टी कहीं टूट न जाए। (अमर उजाला, 17मई, 2014)।

 पंजाब केसरी के संपादक रहे अश्विनि कुमार का भारतीय पत्रकारिता में खास  नाम रहा। उन्होंने तब ‘मां-बेटे की  भेंट चढ़ी  कांग्रेस’ शीर्षक से लिखे अपने आलेख में बडी़ दृढ़ता से कहा था, ’कांग्रेस के जीर्णोद्धार का सबसे नायाब ‘गनी खान’ फार्मूला मेरे पास है। अगर कांग्रेसियों में हिम्मत है तो वे नेहरू–गाँधी खानदान के सहारे को छोड़कर अपने पैरों पर खड़े होने की ताकत रखते हुए मौजूदा ‘मां-बेटे’ की कांग्रेस को बंगाल की खाड़ी में बहा दें आौर मीरासियों की तरहसोनिया व राहुल के नाम का ढ़ोल बजाना बंद करे। नहीं आती। कोई हद तो होगी कर्ज चुकाने की कि नेहरु के बाद इंदिरा गांधी , इंदिरा गाँधी के बाद राजीव गाँधी ,राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी और सोनिया गाँधी के बाद राहुल गांधी। 21 वीं सदी के लोकतंत्र में इस मुगलिया खानदान का  अंत होना चाहिए और कांग्रेसियों को अपना नेता खुद ढूँढना चाहिए. (पंजाब केसरी, 17मई, 2014)

‘अकेला पड़़ गया हाथ’ में सरोज नागी ने दावा किया था ,’मोदी की सुनामी ने कांग्रेस को आइसीयू में पहुंचा दिया है। वो कोमा में पहुंच चुकी है और निकट भविष्य में उसकी तबीयत में सुधार का कोईं संकेत नहीं दिखाई दे रहा है। सोनिया ने राहुल पर भरोसा किया, जबकि हर बात इस बात की प्रमाण थीं कि वो नये और उभरते भारत के नेतृत्व की  चुनौतियों से निबटने में सक्षम नहीं हैं।(राजस्थान पत्रिका,19 मई, 2014)।

आज बड़े कांग्रेस समर्थक के रुप मे उभरे योगेंद्र यादव ने तब खुली घोषणा किया था कि कांग्रेस को अब मर जाना चाहिए!

कांग्रेस को अतीत का विषय बताने और राहुल की क्षमता पर सवाल उठाने वाले सिर्फ अमर उजाला और दैनिक जागरण जैसे अखबार तथ नीरजा चौधरी, अश्विनि कुमार, सरोज नागी जैसे थोड़े से राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं रहे. प्राय: 99 प्रतिशत अखबारों और राजनींतिक विश्लेषकों की राय ऐसी ही रही. लेकिन ये अखबार और राजनीति के पण्डित आज की तारीख मे 2014 का सिंहावलोकन करते होंगे तो उनमें चुल्लू भर पानी में डूब मरने की भावना जरूर उमड़ती होगी! किंतु भारी राहत की बात है कि किसी ने आत्म-ह्त्या नहीं की। अब अधिकांश ही राहुल गाँधी की तारीफ में कसीदे काढ़ते हुये अपनी अतीत की भूलों का प्रायश्चित करने में जुट गये हैं। राजनीति के पंडितों को भ्रांत प्रमाणित करने साथ जिस तरह राहुल गांधी ने  खुद को पण्डित नेहरू  से भी बड़ा समझने वाले मीडिया के सुपरमैन नरेंद्र मोदी को बुरी तरह निस्तेज किया है, उससे उन्होने कांग्रेस के पुनरुद्धार का लगभग 75 प्रतिशत काम पूरा कर लिया है।

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धरातल पर काम कर बने जनता के प्रिय नेता 

लेकिन भाजपा को हटाकर कांग्रेस की सत्ता स्थापित करके ही राहुल गांधी स्वाधीन भारत के महानतम नेता कहलाने के हकदार नहीं हो जायेंगे। जमीनी नेता बनने के लिए उन्हें दलित, आदिवासी, पिछड़ों को  निजी कंपनियों, यूनिवर्सिटियों, अखबारों ,अस्पतालों इत्यादि का मालिक और सीईओ बनाने; आधी आबादी को सरकारी नौकरियों में 50% हिस्सेदारी  दिलाने; आरक्षण का 50% सीमित दायरा तोड़ने; शक्ति के समस्त स्रोतों में जितनी आबादी, उतना हक का सिद्धांत लागू करने के साथ देश के युवाओं और किसानों के जीवन में सुखद बद्लाव लाने का किया गया वादा पूरा करना होगा। इन सब वादों को पूरा करने में राहुल गांधी किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। इसका विश्वास देशवासियों को है। लेकिन जबतक कांग्रेस संगठन में राजीव शुक्लाओं, कमलनाथ जैसे संघी सोच वालों का वर्चस्व है, वह यह काम चाह कर भी अंजाम नहीं दे पायेंगे, ऐसा मानने वालों की संख्या भी बहुत बड़ीं है। अत: राहुल गांधी अगर देश में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते हैं तो उन्हेँ सबसे कांग्रेस को शुक्लाओं-कमलनाथों से मुक्त करना होगा। कारण, इनकी सोच संघी हिंदुत्ववादियों से बहुत भिन्न नहीं है।

 इस कारण न तो इनमें संविधान, जिसे बचाने के लिये राहुल संघर्ष कर रहे हैं के प्रति श्रद्धा है और न ही सामाजिक अन्याय के खिलाफ आक्रोश! ये सोच से संघी हैं, इसिलिए हिमाचल प्रदेश के मंत्री विक्रमादित्य सिंह को यूपी के योगी आदित्यनाथ की तर्ज पर हिमाचल में भोजनालय और फास्ट फूड की रेहड़ी वालों को अपना पहचान पत्र दुकान पर लगाने का बयान जारी कर कांग्रेस की भद्द पिटवाने में कोई द्विधा नहीं हुई। इन्हें राहुल गांधी के जान की भी चिंता नहीं है, इसलिए जब अमेरिका में सिखों पर दिये गये बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश करते हुये भाजपा की ओर से उनका हश्र उनकी दादी जैसा करने और उनकी जुबान काटने जैसी धमकियां दी गयी, राजीव शुक्ला, कमलनाथ, विक्रमादित्यों  के भाइ-बंधुओं की ओर से अपेक्षित विरोध नहीं हुआ। यही लोग ‘मिशन समतामूलक भारत निर्माण’  में सबसे बड़ी  बाधा है। इनके रहते राहुल गांधी कदापि वह प्रत्याशा पूरी नहीं कर सकते जो देश के 90 प्रतिशत वंचित उनसे पाले हुए हैं। ऐसे में राहुल गाँधी अगर इस अवरोध से चिंतित हैं तो कांग्रेस संगठन में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करने का निर्णय लेकर इन पर अंकुश लगाएं।

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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