माननीय कांशीराम जब पुणे में कुछ समय के लिए डिफेंस में नौकरी कर रहे थे, उस दौरान उन्होंने ऐतिहासिक पूना पैक्ट का बाकायदा अध्ययन करने के दौरान एक दलित मराठीभाषी प्रोफेसर से दलित साहित्य तथा जाति व्यवस्था पर बातचीत करते थे, क्योंकि वे मराठी के चलते-फिरते और अधिकारिक संदर्भ ग्रंथ थे। एक बातचीत के दौरान मेरे इन मित्र ने मुझे बताया था कि, ‘कांशीरामजी जब पूना में कुछ समय रहे, तब वे दलित सवाल पर मुझसे बातचीत करने के लिए नियमित रूप से आते-जाते थे। एक दिन अचानक उन्होंने कहा कि, ‘आज मुझे मेरी राजनीति का दुश्मन मिल गया।’ ‘कौन?’ पूछने पर उनका जवाब आया ‘महात्मा गांधी।’ उनका जवाब सुनकर मैं थोड़ा असहज हुआ और कारण जानना चाहा। तब उन्होंने कहा ‘पूना पैक्ट’ कारण है।
मेरे मित्र ने बताया कि उनके जवाब से मुझे अचरज हुआ। डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने अपनी पत्रिका, ‘बहिष्कृत भारत’ के पहले ही अंक में प्रकाशित लेख में लिखा था कि, ‘काश महात्मा गाँधी के साथ मेरे संबंध और पहले बने होते तो कितना अच्छा होता। अंग्रेजों से मैंने सिर्फ 71 आरक्षित सीटें ही मांगी थी लेकिन गांधीजी के आग्रह पर 148 सीटें मिल गई थीं। मतलब दुगुनी से अधिक। साथ ही जिस तरह से उन्होंने संपूर्ण देश में अस्पृश्यता के खिलाफ जनजागृति की मुहिम शुरू की, उसका ऐतिहासिक महत्व था।’
इस देश में समाजवाद कब आएगा पता नहीं। भारत के साढ़े छह सौ लाख से अधिक गांवो में रहने वाले दलितों को अपनी जीविका के लिए, सवर्ण समाज के उपर निर्भर रहना रहना पड़ता है। वास्तविकता यह है कि उन्हें नाराज करते हुए, उस गांव में आसानी से नहीं रह सकते।
भले ही डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने दलितों को गांवों को छोड़कर शहरों की तरफ चलने का नारा दिया हो लेकिन अधिकतर दलित आज भी गांवों में ही रहने के लिए मजबूर हैं। सतत इस तनाव में रहते हुए जीवन बसर करना कठिन होता है।
इस बात को महात्मा गाँधीजी ने पूरी तरह पहचाना था इसलिए अस्पृश्यता के खिलाफ, उन्होंने समय-समय पर भूमिका निभाने की कोशिश की। कांग्रेस के इतिहास में पहली बार 1920 में नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के एक सामान्य प्रतिनिधि की हैसियत से शामिल हुए। वहाँ पहली बार अस्पृश्यता के खिलाफ प्रस्ताव पारित कराने का विशेष रूप से प्रयास किया।
दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत के उनके सभी आश्रमों में सभी जाति, धर्म और विभिन्न देशों के लोग रहते थे। किसी भी तरह के छुआछूत या अस्पृश्यता के खिलाफ उन्होंने काम नहीं किया। जाति-व्यवस्था आधारित व्यवसाय करते हुए उन्होंने अपने आश्रम में खुद पाखाना साफ करने से लेकर, मरे हुए जानवर की चमड़ी निकालने तक सब काम किया।
उन्होंने कसम खाई कि अंतरजातीय विवाहों में वर-वधू में से एक सवर्ण और दूसरा दलित होगा तभी वह शादी में शामिल होंगे। डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने भी कहा है कि,’जाति तब तक समाप्त नहीं होगी कि जब तक अंतरजातीय विवाह नहीं होंगे।’ यहीं जाति निर्मूलन के लिए कृतिशील कार्यक्रम का सुझाव दिया।
इसलिये मैंने इस लेख में बलराम नंदा की पुस्तक ‘गांधी और उनके आलोचक’ और अंग्रेजी में प्यारेलाल द्वारा लिखित पुस्तक ‘THE EPIC FAST’ का सहारा लिया। बलराम नंदा की किताब से पन्ना नंबर 31 से 39 तक ‘गांधीजी और जाति-प्रथा’ नाम के संपूर्ण अध्याय को यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ।
गांधीजी के ऊपर जो आरोप लगाए गए हैं उनमें एक यह भी है कि उन्होंने जाति-प्रथा के पक्षधर के रूप में कार्य किया। लिहाजा 1932 में किया गया उनका उपवास अंग्रेजी सरकार की नज़र में शूद्रों अर्थात अछूतों के पक्ष में नियोजित एक सकारात्मक कार्यवाहीथी इसलिए उन्होंने उनको रोकने का प्रयास किया था। तथ्य यह है कि सदियों पुरानी जाति-प्रथा की कमर तोड़ने और अस्पृश्यता का दाग हिंदुत्व के माथे से मिटाने के लिए गांधीजी से अधिक कोई कुछ नहीं कर सकता था और वह ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है। जाति-प्रथा का उद्भव, इसके गुण तथा अवगुण, छुआछूत के विरुद्ध गांधीजी का जीवनपर्यंत संघर्ष था। ब्रिटिश सरकार द्वारा हिंदुओं की एक सामाजिक समस्या को 1932 में भारतीय राष्ट्रीयता के विरुद्ध एक राजनीतिक हथियार बना देने की साम्राज्यवादी कोशिश की गई थी। वैसे तो जाति-प्रथा के आरंभ के बारे में विद्वानों में शुरू से ही विवाद रहा है, लेकिन आमतौर पर यह स्वीकार किया गया है कि मूल रूप में इसके व्यवसायगत चार प्रमुख विभाग थे, और न तो वे अनिवार्यतः वंशानुगत थे और न ही अपरिवर्तनीय। इस प्रथा ने लगता है, एक ऐतिहासिक प्रयोजन सिद्ध किया था। कुछ अन्य उपमहाद्वीपों के विजेताओं की तरह भारतीय आर्यों ने स्थानीय आबादियों को न मिटाया और न ही उन्हें गुलाम बनाया। अपनी सर्वोच्चता कायम रखते हुए भी उन्होंने मूल निवासियों को एक सामाजिक ढांचे में बांधे रखने का प्रयास किया। यह जाति-प्रथा के कारण ही संभव हो सका कि उत्तर-पश्चिम से आक्रमणकारियों और अप्रवासियों की निरंतर आती लहरें अपनी विशिष्ट पहचान खोए बिना भारतीय समाज में अपना स्थान बना सकीं।
राजनीतिक उथल-पुथल के समयों में जाति-प्रथा ने हिंदू समाज को एक निश्चित लचीलापन प्रदान किया और करोड़ों लोग शासक राजवंशों और उनके परिजनों के साथ जो कुछ बीता उससे बेखबर अपना जीवन जी सके लेकिन समय के साथ इस प्रथा में अत्यधिक रूढ़ता आ गई और यह पूरी तरह वंशानुगत बन गया। अनेक प्रकार के निषेध और कर्मकाण्डीय भावना से जुड़े विचार इसमें प्रवेश कर गए। फलतः जो वर्ग इस सामाजिक भवन की तली में थे वे अत्याचारों और भेदभाव के शिकार बन गए। सफाई से लेकर कारीगर तक के निम्न कार्यो में लगे ‘अंत्यजों ‘की दशा विशेष रूप से दारुण हो गई। मध्य युग में बसवेश्वर, तुकाराम, गोरखनाथ, नानकदेव, कबीर और चैतन्य जैसे संतों ने और उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले, आंबेडकर, रामास्वामी नायकर पेरियार जैसे समाज-सुधारकों ने करुणावश इनकी ओर ध्यान दिया। लेकिन कट्टरपन की जड़ें इतनी गहरी थीं कि उन्हें आसानी से हराया नहीं जा सकता था। अतंतः जाति-प्रथा की कट्टरता और छुआछूत की बुराइयों के सदियों पुराने जंजाल में फंसे हिंदुत्व को झकझोर कर बाहर निकालने का काम गांधीजी के जिम्मे आया।
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में वर्णन किया है कि ‘कैसे उनके अपने घर में छुआछूत से उनका सामना हुआ। जैसा कि वैष्णव हिंदुओं में सामान्य जातिगत भेदभावों का प्रचलन था, उनकी माता भी इसे मानती थीं।‘ बच्चों को आदेश था कि वे परिवार की भंगिन ऊका को छूकर और कक्षा के अछूत सहपाठियों के साथ खेलकर अपने आपको भ्रष्ट न करें। गांधीजी एक आज्ञाकारी बालक थे लेकिन इन निषेधों पर वे प्रकट रूप से बिदकते थे। उस छोटी आयु में भी उन्हें छुआछूत की प्रथा और रामायण के उस मनोहर प्रसंग, जिसमें उन्होंने सुना था कि ‘नायक राम को एक निम्न जाति के केवट ने गंगा के पार उतारा।‘ एक असंगति दिखाई देती थी। जैसे-जैसे वे बड़े होते गए निम्न से भी निम्नतम के प्रति मित्रत्व की भावना उनमें बढ़ती गई। दक्षिण अफ्रीका में सभी वर्गों के और समुदायों के लोग उनके सहयोगी बने। 1915 में भारत वापस आने के पर उन्होंने अहमदाबाद में जो पहला आश्रम स्थापित किया, उसमें एक अछूत परिवार को भी रखा। इस बात पर अहमदाबाद के वे धनी व्यापारी बिगड़ उठे जो आश्रम के लिए धन दे रहे थे। विरोध में कुछ सहयोगी भी साथ छोड़ कर गए थे। धन खत्म हो गया और आश्रम में भी थोड़े लोग रह गए। गांधीजी ने सोचा कि ‘अहमदाबाद की गंदी बस्तियों में जाकर रहा जाए।‘ तभी एक गुमनाम दानी ने उनके इस विचार को अनावश्यक बना दिया।
दक्षिण अफ्रीका से वापसी के बाद शुरुआती चार वर्षों के दौरान जब गांधीजी राष्ट्रीय राजनीति के किनारे पर थे तब उन्होंने छुआछूत की बुराई के विरुद्ध निरंतर प्रचार किया। इस सुधार को उन्होंने अपने 1920-22 के राजनीतिक अभियान में एक मुद्दा भी बनाया था। तीसरे दशक में, अपनी देशव्यापी यात्राओं के दौरान उन्होंने अपने भाषणों में छुआछूत का बार-बार जिक्र किया है। 1931 के लंदन की गोलमेज परिषद में, ‘यह देखकर उन्हें चोट पहुँची कि अछूतों के प्रतिनिधि, प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक और राजनीतिक तत्वों के हाथों में खेल रहे हैं।‘ जैसा कि मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों के साथ किया गया। अछूतों को भी एक पृथक चुनावी समुदाय के रूप में तोड़कर अलग किए जाने का उन्होंने विरोध किया। इस विषय पर उनके विचार कितने दृढ़ थे, यह उस भाषण से प्रकट होता है जो उन्होंने 13 नवंबर 1931 को अल्पसंख्यक समिति की बैठक में दिया था।
‘अस्पृश्यों की विशाल जनसंख्या का प्रतिनिधित्व अपने निजी रूप में करने का दावा मैं करता हूँ। यहाँ मैं सिर्फ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से ही नहीं, बल्कि अपने निजी पक्ष से भी बोल रहा हूँ। मैं दावा करता हूँ कि यदि अछूतों का जनमत लिया जाए तो मैं उनका मत प्राप्त करूँगा और सर्वाधिक मत मुझे ही मिलेंगे। हम नहीं चाहते कि हमारे रजिस्टर और हमारी जनगणना में अछूतों को एक अलग वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया जाए। सिख भले ही सदा सिख रहे इसी प्रकार मुसलमान मुसलमान रहे और यूरोपियन यूरोपियन लेकिन क्या अछूत सदा के लिए अछूत ही बने रहेंगे?’
यह महात्मा गांधी जी की दलित समस्याओं को देखने का नजरिया है, जिसे निहित राजनीतिक उद्देश्य के लिए कुछ लोग अनदेखी करके गलत इंटरप्रिटेशन करते हैं। महात्मा गांधी जी के मन में तो अस्पृश्यता खत्म करके समस्त अस्पृश्य समाज को हिंदुओं की बराबरी में शामिल करना था। अन्यथा छुआछूत के साथ जिस तरह से मुसलमान, सिखों और ईसाइयों के साथ समस्त अस्पृश्य समाज भी हिंदू धर्म से टूटकर अलग होने से अस्पृश्यता तो बनी रहेगी लेकिन भारत के भविष्य में अलगाव से आगे होने वाले बँटवारे में और एक तत्व शामिल होने से भारत के और कितने पाकिस्तान बनेंगे? इस दूरदर्शिता के कारण उन्होंने अपने जीवन के 63वें साल में अपने प्राणों की आहुति तक देने का संकल्प लिया था।
मार्च 1932 में जब गांधीजी जेल में थे तब उन्होंने ब्रिटेन की सरकार के उस सांप्रदायिक निर्णय के संबंध में एक पत्र भारत के सचिव सर सैम्युअल होर को लिखा था, जिसके द्वारा नए संविधान के अंतर्गत विधानमंडलों में प्रतिनिधित्व की संख्या और विधि निर्धारित की गई थी। उन्होंने होर को बताया कि पृथक चुनाव-क्षेत्रों से अछूतों का कोई भला नहीं होगा। लेकिन इससे हिंदु समाज विभाजित हो जायेगा। जैसा उन्होंने लंदन में कहा था वही उन्होंने पुनः याद दिलाया। उन्होंने कहा था कि ‘दलित वर्गों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र बनाने का विरोध वे जीवन देकर भी करेंगे। यह बात क्षणिक भावुकता में अथवा वाकपटुता के रूप में नहीं कही गई थी।’
जब 17 अगस्त 1932 को सांप्रदायिक निर्णय प्रकाशित हुआ तब गांधीजी का डर मजबूत होकर सामने आ गया। उसमें दलित वर्ग को दुहरे मताधिकार दिए गए थे। एक उनके निजी पृथक चुनाव क्षेत्र में और साथ ही दूसरा आम (हिंदू) चुनाव क्षेत्रों में, लेकिन तथ्य यह था कि इन वर्गों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र बनाए जाने थे ।
गांधीजी ने तत्काल ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड को लिखा कि ‘उन्होंने आमरण अनशन का निश्चय किया है।’ यह अनशन तभी तोड़ा जायेगा जब इसके दौरान ब्रिटिश सरकार या तो अपने विवेक से या लोकमत के दबाव से अपना फैसला बदल देगी। और दलित वर्गों के लिए जातिगत (पृथक) चुनाव क्षेत्र बनाने की अपनी योजना वापस लेगी। उन्हें जेल से छोड़ देने की स्थिति में भी उपवास जारी रहेगा। तीन सप्ताह बाद रैस्मे मॅकडोनाल्ड ने गांधीजी के पत्र का जवाब दिया और सरकार के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि ‘यह विरोधी दावे को न्यायसंगत रूप में संतुलित करने का प्रयास है।’ ब्रिटिश प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार समस्या के प्रति गांधीजी के भावनात्मक और धार्मिक रुख को समझने में असमर्थ रहे। उन्हें लगा कि इस उपवास में एक राजनीतिक लक्ष्य छिपा है। उन्हें संदेह हुआ कि ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन की विफलता से गांधीजी की प्रतिष्ठा को जो धक्का लगा उसे पुनः प्राप्त करने के लिए उनकी यह एक चाल है।‘
ब्रिटिश मंत्रीगण इस विषय पर गांधीजी की भावनाओं की गहराई को नाप नहीं सके। इससे भी अधिक यह कि उनकी दृष्टि में जो एक राजनीतिक समस्या थी, उसके समाधान के लिए उपवास करने की नैतिकता को वे नहीं समझ सके। यह मेरा आकलन है कि ब्रिटिश शासन 1857 के बाद भारत में अंग्रेजी शासन ‘बाँटो और राज करो’ की नीति पर काम कर रहा था था। इस कम्यूनल अवार्ड के तहत वह मुसलमानों और सिखों तथा तथाकथित यूरोपियनों को अलग-अलग तरह से इस्तेमाल कर रहा था। अब अस्पृश्यों को 1931 की राउंड टेबल कॉंफ्रेंस की आड़ में भारत को चार-पांच टुकड़ों में विभाजित करने की योजना की नींव डाल रहे थे। इस कोशिश में महात्मा गांधीजी के उपवास की जानबूझकर अनदेखी कर रहे थे।) उपवास उन्हें जोर-जबरदस्ती का एक छद्म रूप ही प्रतीत हुआ। गांधीजी के उपवासों के प्रति ब्रिटिश प्रतिक्रिया को डेविड लो ने अपने कार्टून ‘1933 की भविष्यवाणी‘ में अच्छी तरह चित्रित किया था। इसमें भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड विलिंग्टन को भूख हड़ताल पर बैठते हुए दिखाया गया था, क्योंकि 10 डाउनिंग स्ट्रीट का आदेश था कि ‘गांधीजी को नया संविधान’ स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाय।
क्या उपवास जोर-जबरदस्ती का एक तरीका था? गांधीजी जानते थे कि उनके उपवासों से एक नैतिक दबाव पैदा होता है। लेकिन वह दबाव उनसे असहमत होनेवाले पर नहीं बल्कि उनपर अधिक पड़ता था जो उनसे प्रेम करते थे और उनमें आस्था रखते थे। वे उनकी आत्मा में दर्द पैदा करने चाहते थे और अपनी व्यथा उन तक पहुंचाना चाहते थे। उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि उनके आलोचक भी वैसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे जैसी उनके मित्र और सहकर्मी व्यक्त करते हैं। उनका विश्वास था कि यदि उनका आत्मबलिदान भारत के उन करोड़ों लोगों के सामने अपनी सच्चाई को प्रदर्शित कर सके, जिससे वे एकात्म हो चुके थे, तो आधी से अधिक लड़ाई तो जीत ही ली गई।
एक बार अमेरिकी मिशनरी ई स्टेनली जोंस ने यरवदा जेल में गांधीजी से पुछा ‘क्या आपका उपवास जोर-जबरदस्ती का ही एक रूप नहीं है?’ गांधीजी का उत्तर थाः ‘हाँ’ है, यह वैसी ही जोर-जबरदस्ती है जैसे जीसस सलीब पर लटकाए जाकर आपके उपर करते हैं।‘ उपवास सलीब को माध्यम बनाकर मुद्दे को स्पष्ट करने का उपक्रम है। हालांकि प्रकट में यह तर्क दबाता दीखता है पर वास्तव में इसका लक्ष्य जड़ता और पूर्वाग्रह के मिश्रण से बुद्धि को मुक्त करना है जिसने सदियों से हिंदू समाज को एक कुत्सित सामाजिक अन्याय सहने के लिए बाध्य किया है।
इस समाचार से कि गांधीजी उपवास करने वाले हैं, एक कोने से दूसरे कोने तक पूरे भारत को हिला दिया। 20 सितंबर 1932 जिस दिन उपवास आरंभ हुआ उस दिन को देश में उपवास और प्रार्थना दिवस के रूप में मनाया गया। शांतिनिकेतन में रबींद्रनाथ टैगोर ने काले कपड़े पहनकर एक विशाल जनसमूह के सामने उपवास पर बैठ गए और युगों पुरानी कुप्रथा के विरुद्ध लड़ने की आवश्यकता पर भाषण दिया। इससे भावना का एक सहज ज्वार उठने लगा और मंदिरों, कुओं एवं अन्य सार्वजनिक स्थानों को अछूतो के लिए खोल दिया गया। सवर्ण हिंदुओं और अछूतों का एक सम्मेलन पूना में बुलाया गया। जिसका उद्देश्य एक वैकल्पिक निर्वाचन व्यवस्था की खोज करना था जो अंग्रेजों के सांप्रदायिक निर्णय के उन प्रावधानों का स्थान लें सकें जिन्होंने गांधीजी को चरम बलिदान के लिए प्रेरित किया था।
गांधीजी के बिस्तर के पास बैठकर दलित वर्गों के लिए जो काल्पनिक निर्वाचन व्यवस्था बनाई गई उसमें कहा गया कि ‘दलित वर्गों के मतदाता एक प्राथमिक चुनाव करेंगे और हर स्थान के लिए चार उम्मीदवार चुनेंगे। ये उम्मीदवार सवर्ण हिंदुओं और दलित वर्गों द्वारा, संयुक्त चुनाव के लिए स्वयं को प्रस्तुत करेंगे।’ प्रांतीय विधानमंडलों में दलित वर्गों के स्थानों की संख्या, जो ब्रिटिश निर्णय के अनुसार 71 थी उसे बढ़ाकर 148 कर दी गई। स्थानों का यह आरक्षण तब तक चलना था जब तक आपसी समझौते से इसे समाप्त न कर दिया जाए। ‘पूना पैक्ट‘ के नाम से जानी गई इस निर्वाचन व्यवस्था को ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार किया और गांधीजी ने 26 सितंबर 1932 को रवींद्रनाथ टैगोर की उपस्थिति में अपना उपवास तोड़ दिया।
बाद में हिंदू नेताओं ने (विशेष कर बंगाल में) गांधीजी की आलोचना की और कहा कि उन्होंने दलित वर्गों को बहुत कुछ दे डाला। पर इस संवैधानिक हिसाब से उन्हें घृणा थी। वे महसूस करते थे कि ‘अतीत में सवर्ण हिंदुओं ने अपने कमजोर भाइयों के साथ जो अत्याचार किए हैं उन्हें देखते हुए कुछ भी करके अधिक उदार वे नहीं कहला सकते।‘
इस उपवास का कम-से-कम एक तो उत्तम परिणाम निकला कि दलित वर्गों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्रों की बात खत्म कर दी गई। भारतीय राजनीति में एक कील की तरह गड़े प्रतिनिधित्व के इस तरीके का छलपूर्ण प्रभाव अगले दशक में पूर्णतः प्रकट हो गया। 1909 में सुधारों की मोर्ले-मिंटो योजना के अंतर्गत लागू किए गए पृथक चुनाव-क्षेत्रों ने मुस्लिम अलगाववाद के विकास के लिए एक संस्थागत आधार निर्मित कर दिया था। इसके तेइस वर्ष बाद राष्ट्रीय मोर्चे में एक बड़ी दरार डाल देने के वैसे ही प्रयास को गांधीजी के उपवास ने विफल कर दिया। 1932 में यदि पूना पैक्ट के द्वारा सांप्रदायिक निर्णय में संशोधन न किया होता तो 1945-47 के वर्षों में भारत की राजनीतिक समस्या का समाधान वस्तुतः जितना कठिन था, उससे अधिक असीमित रूप में कठिन हो गया होता।
सत्ता हस्तांतरण के लिए बातचीत के दौरान डॉ अंबेडकर ने दावा किया कि ‘उनका अनुसूचित जाति संघ पूरी छः करोड़ अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व करता है और केवल वही उनके एकमात्र प्रामाणिक प्रतिनिधि हैं।‘ उन्होंने तर्क दिया कि अनुसूचित जातियों को विशेष संरक्षण और अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता को ठीक वैसे ही जरूरत है जैसी मुस्लिम संप्रदाय को दी गई है। ‘सवर्ण हिंदुओं के प्रभुत्व‘ की निंदा करते हुए वे बहुत कुछ जिन्ना के मुहावरे में बोले। उन्होंने अनुसूचित जातियों के लिए पृथक चुनाव-क्षेत्रों और यहां तक कि पृथक चुनाव निर्णयों की मांग की। अंग्रेजों के मन में अंबेडकर के लिए एक कमजोरी थी। वे 1942 की वायसराय परिषद के सदस्य थे। 1945 में शिमला सम्मेलन में बहस के दौरान अंतरिम सरकार के लिए बनी सूची में लार्ड वेवेल ने उनका नाम शामिल किया था पर 1946 के प्रारंभ में प्रांतीय विधानमंडलों के लिए आम चुनावों के बाद स्थिति बदल गई।
कांग्रेस ने अंबेडकर के दल को उखाड़ फेंका। अब अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें मान्यता देना सरकार के लिए भी असंभव हो गया। अंबेडकर ने 1946 में संयुक्त चुनाव क्षेत्रों के अंतर्गत हुए चुनावों के परिणामों पर प्रश्नचिन्ह लगाया और सवर्ण हिंदुओं के अत्याचारों के विरुद्ध विषवमन किया और सीधी कार्रवाई की धमकी भी दी। उन्होंने प्रधानमंत्री एटली से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया तो एटली को सलाह दी गई कि ‘वे अंबेडकर के विरोध की परवाह न करें।‘
यदि गांधीजी ने 1932 में उपवास न रखा होता और जातिगत निर्णय में दिए गए पृथक चुनाव क्षेत्रों को पूना समझौते के द्वारा बदला नहीं गया होता तो संभवत मुस्लिम अलगाववाद और रियासतों के हठपूर्ण रवैये के कारण पहले से ही दुरुह बनी 1946-47 की बातचीत की गुत्थियां, अनुसूचित जातियों की समस्या के अतिरिक्त भार से और भी उलझ जाती।
संवैधानिक व्यवस्था तो संयोगवश अगले तीन वर्षों तक लागू नहीं हो पाई पर इससे अधिक महत्वपूर्ण थी भावनात्मक विरेचन की वह प्रक्रिया जिससे होकर हिंदू समाज गुजरा। जैसा कि गांधीजी ने माना था उपवास का प्रयोजन ‘हिंदू समाज की अंतरात्मा में चुभन पैदा करके उसे सही धार्मिक क्रियान्वयन की ओर उन्मुख करना ही था।‘ दलित वर्गों के लिए पृथक चुनाव-क्षेत्रों की समाप्ति छुआछूत के अंत की शुरुआत बन जानी थी।
इतिहास में समाज सुधार के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक आंदोलन एक राजकीय बंदी ने छेड़ा। गांधीजी ने अपने अनगिनत संवाददाताओं के लिए वक्तव्यों और पत्रों की एक झड़ी लगा दी, ताकि छुआछूत की बुराई से लोगों को अवगत व शिक्षित किया जा सके। उन्होंने इस आंदोलन को गति देने के लिए एक साप्ताहिक पत्रिका ‘हरिजन‘ के प्रकाशन की व्यवस्था की। ‘हरिजन‘ शब्द का अर्थ होता है, ईश्वर की संतान। यह नाम गांधीजी ने अंत्यजों, अछूतों को दिया था। गांधीजी ने लिखा कि संसार के सभी धर्मों में ईश्वर को प्रथमतः मित्रहीनों का मित्र, असहायों का सहायक और कमजोरों का संरक्षक बताया गया है। अछूत नाम से वर्गीकृत चार करोड़, हिंदुओं से अधिक मित्रहीन, असहाय और कमजोर और कौन होगा?’ गांधीजी को इस बात में संदेह था कि हिंदू धर्म ग्रंथों में अस्पृश्यता के समर्थन में कुछ भी लिखा गया है। यदि किसी प्राचीन पांडुलिपि में से इस क्रूरता के अनुमोदन में कुछ उद्धृत करना संभव भी हुआ तो गांधीजी उससे बंधे नहीं।
जेल से छूटने के बाद हिंदुत्व को छुआछूत की बुराई से मुक्त करने के लिए वे 12500 मील लंबी यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने हिंदुओं से आग्रह किया कि वे हरिजनों के विरुद्ध अपने पूर्वग्रहों का त्याग करें और हरिजनों से निवेदन किया कि वह नशिले पदार्थो और शराब का सेवन छोड़ दें क्योंकि हिंदु समाज में हिलमिल जाने में यह आदत सबसे बड़ी बाधा थी। उन्होंने इस अंधविश्वास का मजाक उड़ाया कि कोई व्यक्ति जन्म से ही अपवित्र हो सकता है अथवा किसी एक मनुष्य की छाया या उसका स्पर्श मात्र दूसरे को गंदा कर सकता है। हरिजन फंड के लिए धन इकठ्ठा करने के लिए उन्होंने अपने आपको थका डाला। दस महिनों में उन्हें आठ लाख रुपये प्राप्त हुए, यह राशि वे किसी महाराजा अथवा करोड़पति से उपहार के रूप में ले सकते थे लेकिन वैसे धन इकठ्ठा करने को वे अधिक महत्व नहीं देते थे। करोड़ों पुरुष, महिलाएं और बच्चे जिन्होने उनके कटोरे में पैसे डालें। छुआछूत के विरुध्द उनकी लड़ाई में साथी-सैनिक बन गए।
यह हरिजन यात्रा एक विजय यात्रा बिल्कुल नहीं रही। गांधीजी एक युगों पुरानी क्रुरता पर और लंबे समय से स्थापित निहित स्वार्थों पर आघात कर रहे थे, जबकि उन्हें मालूम था कि ये स्वार्थ अपनी रक्षा मे किसी बात से भी पीछे रहने वाले नही। कट्टरपंथी हिंदुओ ने एक खतरनाक हिंदुद्रोह का आरोप उनपर लगाया, काले झंडे लेकर प्रदर्शन किए, उन्हें बोलने नही दिया और उनकी सभाओं को तोड़ने की कोशिश की।
25 जून 1934 को जब वे पूना में नगरपालिका भवन की ओर जा रहे थे, उनके प्रतिनिधिमंडल पर बम फेंका गया। गांधीजी को चोट नहीं आई पर सात व्यक्ति घायल हो गए। बम फेंकने वाले अज्ञात व्यक्ति के प्रति उन्होंने गहरी करुणा व्यक्त की। उन्होंने कहा मैं शहिद बनने के लिये तिलमिला नही रहा हूँ, पर यदि उस अवस्था को कार्यरूप देने मे जिसे मैं अपना सर्वोच्च कर्तव्य मानता हूँ, और करोड़ों हिंदु जिसमें मेरे साथ एकमत हैं, वह मेरे रास्ते में आ ही जाए, तो मैं समझूँगा कि मैंने उसे ठीक ही अर्जित किया है।
यद्यपि कट्टरपंथी हिंदुओं का विरोध कठिनाई से ढीला पड़ा और उग्र हरिजन नेता भी उनकी आलोचना ही करते रहे तब भी गांधीजी एक अति प्राचीन फोडे को चीरा लगाने में सफल रहे। अग्रिम पंक्ति के राष्ट्रीय नेता राजगोपालाचारी ने ‘क्रांति पूरी हुई ‘ शीर्षक से एक लेख लिखा था ‘अब सिर्फ मलवे को हटाना बाकी है।‘ यह एक आशावादी उक्ति थी पर इसमे संदेह नहीं कि सुधारवादियों ने एक अच्छा आरंभ किया था। 1937-39 के कांग्रेस मंत्रीमंडलो ने हरिजनो की कुछ कानूनी अक्षमताओ को दूर कर दिया था और 1952 में लागू हूए भारत संघ-राज्य के संविधान में छुआछूत को गैर- कानूनी करार दिया गया ! एक सामाजिक और आर्थिक सभी मोर्चो पर निरंतर संघर्ष की जरुरत थी पर इसमें भी संदेह नहीं कि गांधीजी के आंदोलन ने उन सभी मोर्चो को जड़ तक हिलाया।
यद्यपि छुआछूत के प्रति गांधीजी का विरोधात्मक तेवर अविचल और अटल था पर छुआछूत जिस जाति-प्रथा की विकृत उपज थी उसके प्रति दक्षिणी अफ्रीका से वापसी के आरंभिक वर्षों में उनका रूख कुछ दुविधापूर्ण था। हिंदु पुराण-ग्रथों ने उनके सामने प्राचीन भारत की वर्णाश्रम व्यवस्था का एक रोमानी चित्र प्रस्तुत किया था। उस काल में इस मूलभूत चतुर्विध विभाजन में जातियाँ व्यवसायिक संघों के समकक्ष थी और जन्म ही एकमात्र सामाजिक स्तर एवं प्रतिष्ठा का निर्धारक नहीं था। गांधीजी को लगा कि अपने प्रकट दोषों के बावजूद इस प्रणाली ने उथल-पुथल के उन युगों में बाहरी दबावों को सोख लेने का काम किया है। वे सोचते थे कि क्या इसकी मूलभूत पवित्रता वापस आ सकती है और हिंदू समाज की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप इसे ढाला जा सकता है? जाति-प्रथा के प्रति उनकी प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ जिन्हें अक्सर उनके विरुद्ध उद्धृत किया जाता है, इसी पृष्ठभूमि में की गई है। यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि जाति-प्रथा के अनुकूल जो भी विचार उन्होंने व्यक्त किए वे उनके विश्वास के अनुसार वैसी व्यवस्था के बारे में है जो सुदूर अतीत में थी न कि जैसी उनके समय में बन गई उसके बारे में। भारत के सामाजिक परिदृश्य को प्रत्यक्ष और निकट से देखने पर उन्हें विश्वास हो गया था कि अंधविश्वासों, छुई-मुईवाद, सामाजिक विषमता और भेदभाव ने इस प्रथा को इतना सडा दिया है कि यह सुधार के लायक नहीं रह गई है।
जाति-प्रथा के प्रति गांधीजी का रुख निरंतर सख्त होता दिखाई देता है। दिसंबर 1920 में उन्होंने लिखा था ‘मैं सिर्फ इन चार विभाजनों को मूलभूत, नैसर्गिक और आवश्यक मानता हूँ। अनगिनत उपजातियां कभी सुविधाजनक हो जाती हैं, पर अक्सर रुकावटें पैदा करती है। जितनी जल्दी वे परस्पर घुलमिल जाएँ उतना ही अच्छा है।‘ पंद्रह वर्ष बाद उन्होंने घोषणा की कि शास्त्रों में वर्णित वर्णाश्रम आज व्यवहार में अस्तित्वहीन है। आज की जाति-प्रथा वर्णाश्रम से एकदम उलट है। सार्वजनिक राय से इसे जितनी जल्दी समाप्त किया जाय उतना ही अच्छा है।‘ उन्होंने सुझाव दिया कि सभी हिंदू स्वेच्छा से अपने आपको शूद्र कहें। शूद्र जो सामाजिक सीढ़ी में सबसे नीचे माना जाता है। उन्होंने इस विचार का खंडन किया कि छुआछूत हिंदु संस्कृति का एक अनिवार्य अंग है। उन्होंने कहा ‘यह एक महामारी है जिससे लड़ना हर हिंदू का परम कर्तव्य है।’
1920 के दशक में विभिन्न जातियों के लोगों के एक साथ खाने और परस्पर विवाह करने पर लगे प्रतिबंधों के अनुमोदन के लिए तैयार थे, क्योंकि वे इन्हें आत्मनियंत्रण का माध्यम मानते थे। पर 1930 के दशक में जाति-प्रथा अथवा स्थानीय पूर्वाग्रह से उत्पन्न किसी भी वर्जना की वे खुलकर निंदा करते थे। उन्होंने लिखा है ‘कोई व्यक्ति स्री या पुरुष कहाँ विवाह करता है या किसके साथ खाता है, यह उसकी उन्मुक्त इच्छा पर छोड़ दिया जाना चाहिए’ यदि भारत एक है और अविभाज्य है तो निश्चय ही इसमें अनगिनत छोटे-छोटे समुहो को जन्म देनेवाले कृत्रिम विभाजन नही होने चाहिए जो न एक दूसरे के साथ बैठकर खाना खा सके और न परस्पर विवाह कर सके। ‘1946 में गांधीजी ने एक चौका देनेवाली घोषणा की कि उनके सेवाग्राम स्थित आश्रम में कोई विवाह-संस्कार तब तक नही किया जाएगा जब तक वर-वधू में से एक जन्म से अछूत न हो।
आरंभिक वर्षों में जाति-प्रथा पर सीधी चोट करने में गांधीजी की हिचकिचाहट महज एक राजनीतिक कौशल हो सकती है। 1956 में हंगरी के पत्रकार टाइबर मेंडे से बातचीत को जवाहरलाल नेहरू ने इस प्रकार किया है: ‘मैंने गांधीजी से बार-बार कहा आप जाति-प्रथा पर सीधी चोट क्यों नहीं करते? तो उन्होंने कहा कि वे आदर्श व्यवसायिक संगठनों में व्यक्त होनेवाले रूपों के अलावा जाति-प्रथा में विश्वास नहीं रखते। वर्तमान जाति-प्रथा संपूर्णतया अहितकर है और इसे समाप्त करना ही होगा। उन्होंने कहा ‘मैं छुआछूत की समस्या का सामना करके इसे पूरी तरह नेस्तनाबूद कर रहा हूँ।‘
इस तरह आप देखते हैं कि किसी एक बात को हाथ में लेने के और उस पर ध्यान केंद्रित करने का उनका एक अलग तरीका था। उन्होंने कहा था ‘यदि छुआछूत नष्ट हो जाती है तो जाति-प्रथा भी नष्ट हो जाएगी।’