भारत का स्वाधीनता संग्राम बहुवादी था और उसका लक्ष्य था धर्मनिरपेक्ष एवं प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना। यह हमारे संविधान की उद्देशिका से भी जाहिर है, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूल्यों को स्थान दिया गया है। संविधान के कई अनुच्छेदों का लक्ष्य सामाजिक न्याय की स्थापना है। समानता से आशय है हर नागरिक – चाहे उसकी जाति, लिंग या धर्म कोई भी हो – को समान दर्जा देना। संविधान के अधिकांश प्रावधान धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों पर आधारित हैं।
‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द उद्देशिका में नहीं है मगर धर्मनिरपेक्षता, संविधान की नींव है, उसका निचोड़ है। संविधान का मसविदा डॉ आंबेडकर ने तैयार किया था, मगर उसके निर्माण में अलग-अलग राजनैतिक ताकतों ने भूमिका निभायी थी। संविधान को 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था।
हिन्दू राष्ट्रवादियों ने संविधान का इस आधार पर विरोध किया कि वह हमारे पवित्र ग्रंथों में निहित लैंगिक और जातिगत पदक्रम के चिरकालिक मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करता। आरएसएस के मुखपत्र द आर्गेनाइजर ने 19 नवम्बर 1949 को लिखा, ‘हमारे संविधान में प्राचीन भारत की अद्वितीय सांविधानिक विकास यात्रा के भी कोई निशान नहीं हैं। स्पार्टा के लाइकर्जस या फारस के सोलन से भी काफ़ी पहले मनु का क़ानून लिखा जा चुका था। आज भी मनुस्मृति की दुनिया तारीफ़ करती है। भारतीय हिंदुओं के लिए तो वह सर्वमान्य व सहज स्वीकार्य है, मगर हमारे सांविधानिक पंडितों के लिए इस सब का कोई अर्थ नहीं है।’
हिन्दू राष्ट्रवादी हमारे धर्मनिरपेक्ष, प्रजातान्त्रिक गणतंत्र को हिन्दू राष्ट्र बताते रहे हैं और यह शाखाओं में दिए जाने वाले प्रशिक्षण का हिस्सा था और है। भारत की सरकारें धर्मनिरपेक्ष नीतियों पर चलने का प्रयास करती रहीं हैं और धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितार्थ कई सकारात्मक कदम उठाये गए हैं। शाहबानो मामले में गलत निर्णय लेने के बाद से, दक्षिणपंथियों की ताकत बढनी शुरू हुई। वे धर्मनिरपेक्षता का मजाक उड़ने के लिए उसे ‘छद्म’ कहने लगे और ‘सिक्युलर’ जैसे शब्द इस्तेमाल करने लगे। उसके बाद संविधान को बदलने की मांग उठी। पहले वाजपेयी सरकार ने भारत के संविधान की समीक्षा के लिए वेंकटाचलैया आयोग बनाया। उसने अपनी सिफारिशें भी प्रस्तुत कर दीं मगर उनका इतना विरोध हुआ कि उन्हें ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया।
यह भी पढ़ें – छत्तीसगढ़ में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ घृणा : खतरनाक रूप ले रहे हैं संघ-भाजपा के कारनामे
इसी पृष्ठभूमि में हाल में तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि का एक वक्तव्य सामने आया है। उन्होंने कहा, ‘धर्मनिरपेक्षता भारतीय अवधारणा नहीं है। यह यूरोपीय अवधारणा है. उसे वहीं रहने दें। उन्हें उसका आनंद लेने दें। मगर भारत अपने धर्म से दूर कैसे जा सकता है?’ राज्यपाल महोदय ने ये वचन कन्याकुमारी के तिरुवत्तर में हिंदू धर्म विद्या पीठम के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुई कहे। उन्होंने नेहरू-पटेल और इंदिरा गाँधी को एक-दूसरे के खिलाफ बताने का प्रयास भी किया। उन्होंने कहा कि भारत के संविधान के निर्माता नेहरु और अम्बेडकर नहीं चाहते थे कि देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष हो और इसलिए यह शब्द उद्देशिका का हिस्सा नहीं था। उन्होंने यह भी कहा कि चूँकि इंदिरा गाँधी राजनैतिक रूप से असुरक्षित महसूस कर रही थीं इसलिए उन्होंने उद्देशिका में यह शब्द जोड़ा। वे यह बताने का प्रयास कर रहे थे कि धर्म, दरअसल, मनुस्मृति और अन्य हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में वर्णित धार्मिक कर्तव्यों और वर्ण व जाति पर आधारित सामाजिक संरचना से भिन्न है। हर धर्म का एक नैतिक पक्ष होता है – जैसे इस्लाम में दीन और ईसाईयत में ‘एथिक्स’. उनके अनुसार, धर्मनिरपेक्षता, धर्म-विरोधी है. एक तरह से वे सही कह रहे हैं क्योंकि धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों और आस्थाओं के लोगों को समान दर्जा देती है. भारत के मामले में धर्म, घोर असमानता का पैरोकार है।
यह भी पढ़ें –मिर्ज़ापुर में ग्रामीण सड़क : तमाम दावे फेल, सड़क के गड्ढे डरावने हो चुके हैं
ऐसा लगता है कि राज्यपाल इस तथ्य से अनजान हैं कि यद्यपि संविधान की उद्देशिका में धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं है तथापि, हमारा संपूर्ण संविधान बहुवाद, धर्मनिरपेक्षता और विविधता पर आधारित है। केवल इस आधार पर धर्मनिरपेक्षता को पश्चिमी अवधारणा नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसका जन्म पश्चिम में हुआ था। धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की शुरुआत, पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के साथ हुई। इसके साथ ही, वहां प्रजातंत्र और बहुवाद को भी स्वीकार्यता मिली। धर्मनिरपेक्षता एक आधुनिक अवधारणा है। इसका जन्म तब हुआ जब औद्योगिकरण के नतीजे में उद्योपतियों और श्रमिक वर्ग के उदय और महिलाओं की समानता के संघर्ष ने पुरोहित वर्ग और राजा के सामंती गठबंधन को चुनौती दी।
रवि धर्मनिरपेक्षता को केवल चर्च और राजा के बीच सत्ता संघर्ष से जोड़ना चाहते हैं। पश्चिम में पुरोहित वर्ग का सुपरिभाषित ढांचा था और राज्य सत्ता से उसके रिश्ते स्पष्ट थे। दुनिया के अन्य क्षेत्रों में भी कुछ-कुछ ऐसा ही था। हिन्दुओं में राजा-राजगुरु की जोड़ी थी और इस्लाम में नवाब-शाही इमाम की। राजा (जो सामंती व्यवस्था के शीर्ष पर था) और संगठित धर्म का बोलबाला था। उपनिवेशों, विशेषकर भारत में, एक और औपनिवेशिकता थी तो दूसरी ओर उद्योपतियों, श्रमिकों, महिलाओं और शिक्षित वर्गों के धर्मनिरपेक्ष–बहुवादी संगठन थे। इन्हीं वर्गों ने धर्मनिरपेक्षता के पौधे को पालापोसा।
अस्त होती सामंती ताकतें, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और आरएसएस जैसे सांप्रदायिक संगठनों के रूप में सामने आईं। वे धर्म का लबादा ओढ़ कर ‘ईश्वर द्वारा निर्धारित’ सामाजिक व्यवस्था, जिसमें वे सर्वेसर्वा थे, को जिंदा रखना चाहती थीं। भारत में हिन्दू धर्म के बारे में कहा जाता है कि वह पारंपरिक अर्थ में धर्म नहीं है। यह केवल लोगों को भ्रमित करने का तरीका है। जो लोग धर्म का रक्षक होने का दावा करते हैं वे दरअसल जाति और लिंग पर आधारित प्राचीन ऊंच-नीच को बनाए रखना चाहते है। ये ताकतें प्रजातंत्र के आगाज़ से पहले की दुनिया वापस लाना चाहती हैं। वे नहीं चाहतीं कि हर व्यक्ति का एक वोट हो। वे चाहतीं हैं कि राजा को ईश्वर से जोड़ा जाए और पुरोहित वर्ग उसे सहारा दे।
इस तरह की ताकतों को स्वयं को मजबूती देने के लिए एक शत्रु की ज़रूरत पड़ती है। भारत में वह शत्रु मुसलमान है। खाड़ी के कई देशों में वह शत्रु ईसाई है। वहां भी महिलाओं का दमन किया जाता है। ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ भी कहता है कि धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी अवधारणा है। कई लोगों ने यह कहा है कि वर्तमान संविधान के रहते, रवि राज्यपाल बने रहने के काबिल नहीं हैं। उनका असली उद्देश्य क्या रहा होगा? एक नेता के अनुसार इस तरह के बयान इसलिए दिलवाए जाते हैं ताकि उन पर होने वाली प्रतिक्रिया को परखा जा सके, यह देखने के लिए कि प्रजातंत्र-विरोधी बातों को जनता किस रूप में लेती है।
आज धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही हिंसा को रोकने की ज़रुरत तो है ही। इसके साथ ही धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को संरक्षित रखने की ज़रूरत भी है। आखिर धर्मनिरपेक्षता और प्रजातंत्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।