पिछली कुछ रिपोर्टों में मैंने बनारस के कश्मीरीगंज और लल्लापुरा के ऐसे दस्तकारों के बारे में बताया था जो भारत की पतनशील अर्थव्यवस्था के सबसे बुरे परिणाम के शिकार हैं. उन्हें न्यूनतम मजदूरी तक के लाले हैं और उनका जीवन तथा भविष्य अन्धकारमय है. वहीँ कई लोग खिलौनों के ब्रांड हैं और इतने बड़े ब्रांड हैं कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनका नाम है. कई कलाकारों को पद्मश्री आदि मिल चुका है और वे खिलौनों के बड़े एक्सपोर्टर हैं. उनका लाखों-करोड़ों का टर्नओवर है. उनके ब्रांड के कारण उनकी विशिष्ट पहचान है. ऐसे ही एक ब्रांड है जोगई. लकड़ी के सामानों का एक ऐसा ब्रांड जिसने अपनी एक अलग पहचान बनाई है. बनारस के किसी कोने पर जोगई का कोई साइनबोर्ड नहीं दीखता लेकिन रविन्द्रपुरी कालोनी में आसानी से उनकी गली तक पहुँचा जा सकता है. इसके संचालक बड़े दिलचस्प किस्म के व्यक्ति हैं. वे किसी चीज का श्रेय स्वयं नहीं लेते बल्कि मालिक को देते हैं. बात-बात में आध्यात्मिकता झलकती है. यह शोरूम एक बड़े मकान में है जहाँ घुसते ही एक आराम कुर्सी ने हमारा स्वागत किया और ढाँचे-खाँचे तथा फिनिशिंग के कारण मन मोह लिया. इसके साथ ही यहाँ सौ से अधिक चीजें प्रदर्शित हैं और सभी उम्दा किस्म की. छोटे से लेकर बड़े तक अनेक सामान जिनको घर में रखने से घरवालों की सुरुचि का स्वतः विज्ञापन होता चलता है और लोग पूछने लगते हैं कि कहाँ से ख़रीदा। आपको बता दें कि इसे उमेश और राजेश संचालित करते हैं।
उमेश ने बताया कि ‘इस जगह आए अभी चार माह ही हुए हैं. इसके पहले उनका वर्कशॉप शिवाला में था जो एक कियोल वर्कशॉप था और इतनी तंग गली में था कि एक तरफ से कोई आ जाए तो दूसरी तरफ से दूसरा जा नहीं सकता था। फिर भी हम दोनों भाई (राजेश जोगई और उमेश जोगई) अपने वहाँ के काम और जगह से एकदम संतुष्ट थे। लेकिन नई पीढ़ी यानी भाई के दो बच्चों ने ग्रेजुयशन करने के बाद इस काम में आने का मन बनाया तब हमने काम और जगह का एक्सटेंशन करते हुए यहाँ यह शोरूम खोला। नई पीढ़ी नए तरीके से काम करना चाहती है।’
उन्होंने यह भी बताया कि यह उनका पारंपरिक या पुश्तैनी का नहीं है। पिताजी कोयले के व्यापारी थी। इनके दादाजी राजस्थान के झुंझुनू जिले के चिवाड़ा कस्बे से यहाँ आकर बस गए थे और वे संस्कृत के विद्वान और कर्मकांडी थे। साथ ही संस्कृत के दो विद्यालय का संचालन भी करते थे।
उमेश जोगई ने बताया कि शिवाला में जो वर्कशॉप था वह भी जोगई के नाम से ही था लेकिन टैग लाइन थी – क्रिएटिविटी द मैटर और जब आज से चार माह पहले अपना वर्कशॉप और शोरूम यहाँ लेकर आये तो टैग लाइन बदली – इनोवेशन विद ट्रेडिशन, क्योंकि पुराने चीजों की ओर हम फिर लौटना चाहते हैं। प्लास्टिक के आ जाने से लकड़ी की चीजें विलुप्त हो गईं। यहाँ तक कि हाथ से झलने वाला लकड़ी का पंखा और रसोई में पानी भरने की गगरी तक प्लास्टिक की आ चुकी है। यह एक उदाहरण भर है, लेकिन बाजार जाने पर हम खुद देखते हैं कि प्लास्टिक के सामानों की भरमार है। इसलिए हमारी इच्छा हुई कि इन खिलौनों को एमडीएफ में बनाकर लाएँ। जिन उपयोगी और सजावटी सामानों को प्लास्टिक और रबर ने ले लिया है उसे हम फिर से लकड़ी पर बनाकर लाना चाहते हैं। यह कठिन काम है लेकिन कोशिश करेंगे। असल में पहले हम दोनों भाई ही काम करते थे लेकिन अब हमारे बाद की पीढ़ी तैयार हो गई है और इस काम में शामिल हो गई है। नई पीढ़ी जब शामिल हुई तो वह जगह कम पड़ने लगी और फिर लगा कि काम बढ़ेगा तो जगह भी पर्याप्त होनी चाहिए इसीलिए अपना काम हम यहाँ ले आए. हालांकि शिवाला का काम शुरू है और यह एक्सटेंनशन वहाँ के काम का है।
वे बताते हैं कि ‘2005-06 में खिलौना उद्योग में ग्लोबल मंदी आई। उससे पहले बनारस का खिलौना उद्योग काफी मजबूत था, जो मंदी के बाद बैठ गया। लकड़ी के खिलौने बनाने वाले जितने लोग थे और कंपनियाँ थीं, उन सबके काम पर असर पड़ा। रोजी-रोजगार के लिए मंदी के बाद खिलौने से जुड़े कारीगर धीरे-धीरे विस्थापित होकर दूसरे काम में लग गए। परिवार चलाने का सवाल सबसे बड़ा था और सामने खड़ा था।’
कैसे बनता है एमडीएफ
उमेश बताते हैं कि ‘पहले खिलौने कोरैया की जंगली लकड़ी पर बनाए जाते थे, जो बहुत मुलायम होती थी और इस वजह से इस पर होने वाले काम की फिनिशिंग बेहद अच्छी होती थी। लेकिन इस लकड़ी पर सरकार ने बंदिश लगा दी। उसके बाद लोगों के सामने समस्या आई कि किस लकड़ी से खिलौने बनाए जाएं। उसके बाद यूकेलिप्टस (नीलगिरि) की लकड़ियों से खिलौने बनाने लगे। आज यूकेलिप्टस के साथ कदम के पेड़ की लकड़ियों से भी खिलौने बनने लगे हैं।
‘लेकिन हम लोगों ने टर्न किया और एमडीएफ में यानी मीडियम डेनसिटी फाइबर बोर्ड पर काम करना शुरू किया जिसे आज हम इंजीनियरिंग वुड कहते हैं। एमडीएफ बनाने की प्रोसेस है कि जब कोई भी पेड़ कटता है, तो उसका मात्र 30 प्रतिशत ही उपयोग में आता है और 70 प्रतिशत बेकार हो जाता है। इसी 70 फीसदी बची हुई लकड़ी का बुरादा बनाकर उसमें रेजिन मिलाकर फाइबर बोर्ड बना देते हैं। यही एमडीएफ कहलाता है। आज के समय में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा इसी पर काम हो रहा है। इसे इंजीनियरिंग वुड भी कहते हैं। कोरैया की लकड़ी पर बंदिश के बाद लोग यूकेलिप्टस की तरफ मुड़े और हम इंजीनियरिंग वुड को लेकर काम करने लगे। इस लकड़ी पर हमने बहुत प्रयोग किया। अधिकतर लोग लकड़ी के शोपीस और खिलौने ही बनाते थे लेकिन हमने उससे हटकर एमडीएफ से यूटिलिटी आइटम बनाना शुरू किया।
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‘हम लोग पहले अमेरिकन कंपनी के लिए काम करते थे। उनके स्वभाव में होता है कि वे क्वालिटी पहले देखते हैं, प्राइस बाद में। यही कारण था कि जब हमने इस काम की तरफ रुझान किया तो पटरी वाली क्वालिटी नहीं बनाई बल्कि बहुत अच्छी क्वालिटी का सामान बनाया। शुरू के 5-6 साल बहुत संघर्ष करना पड़ा।’
कौन करता है इतना कलात्मक काम
क्रिएटिविटी एक व्यक्ति की होती है लेकिन उस क्रिएटिविटी को रूप देने के लिए अनेक कारीगरों की जरूरत होती है। इनके बिना काम हो ही नहीं सकता। उमेश जोगई ने बताया कि ‘यहाँ आपको जितना भी सामान दिख रहा है उसमें प्राय: तीन बिरादरी के लोग काम करते हैं। विश्वकर्मा जाति के लोग लकड़ी काटने, चीरने और छीलने का और खिलौने, शोपीस और यूटिलिटी आइटम बनाने का काम करते हैं। खिलौनों की रंगाई का काम अधिकांशत: प्रजापति समुदाय के लोग करते हैं। बिना रंगे हुए खिलौने उभरते नहीं, रंगने के बाद इनकी सुंदरता बढ़ जाती है। कून के ऊपर जो काम करते हैं वह कोइरी और मुसहर समुदाय के लोग हैं। जब किसी आइटम को बनाने का आर्डर मिलता है, उसके तुरंत बाद ही उसके स्वरूप को लेकर दिमाग काम करने लगता है। बनवाने वाली के नज़रिए को ध्यान में रखते हुए बेहतर करने की कोशिश की जाती है।
2005-06 में हमने मिठाई के डिब्बे और लकड़ी की ट्रे बनाए। उसे फिनिशिंग के साथ पेंट किया। आज मिठाई के लिए इन लकड़ी के डिब्बों की बहुत डिमांड है। देहरादून के दून स्कूल के लिए, दून स्कूल का एक नमूना लकड़ी पर बनाया। सन 2011 में हिंदुस्तान में लकड़ी की राखी बनाने की शुरुआत जोगई ने ही की। उसके बाद तो बहुत से लोगों ने लकड़ी की राखियाँ बनाई। उमेश बताते हैं ‘गारमेंट इंडस्ट्री में कपड़ों पर लगने वाले लकड़ी के बटन बनाने और एक्सपोर्ट का काम हमने ही शुरू किया। 2013-14 में ये लकड़ी के बटन बांग्लादेश भेजे जाते थे, जहां इसकी अच्छी-खासी मांग थी। अब तो बहुत से लोगों ने इंजीनियरिंग वुड पर इस तरह की कलाकृतियाँ और आइटम बनाना शुरू कर दिया है लेकिन सबसे पहले इसकी शुरुआत हम लोगों ने ही की।
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हमने वुडन मोमेंटों बनाए। पहले जो मोमेंटों बनाए जाते थे, उनमें केवल बेस ही लकड़ी का होता था बाकी ऊपरी हिस्सा फाइबर, अक्रेली या मेटल का होता था लेकिन हमने ओवरआल लकड़ी का मोमेंटों बनाया। ऐसा समझ सकते हैं कि हमने वुडन बुटीक स्थापित की। ग्राहक की मांग के अनुसार उनके हिसाब से सामान बनाते हैं। कोई भी बड़ी कान्फ़्रेंस होती है तब लोग कोई कुछ नया और अलग चाहते हैं और उनको हमारे यहाँ वैराइटी और क्वालिटी दोनों मिलती है। आज पूरे उत्तर प्रदेश से मोमेंटो के बहुत ऑर्डर मिलते हैं। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे, जर्मनी के चांसलर को यहाँ से बनकर गया मोमेंटो प्रधानमंत्री मोदी ने दिया।’ कोई भी बड़ा सरकारी कार्यक्रम हो उसके लिए हम ऑर्डर पर बना कर देते हैं। अखिलेश यादव हों या योगी सभी हमारे यहाँ से मोमेंटों बनवाते हैं और हर बार वे कुछ खास चाहते हैं इसलिए हमें विशेष बनाने के लिए काफी मेहनत करनी होती है। कलात्मकता का कोई अंत नहीं। आप कितने कल्पनाशील हैं यह इस बात पर निर्भर करता है।
बनारस जहां बनारसी साड़ियों के लिए जाना जाता है, एक समय वहीं लकड़ी के खिलौनों का भी उत्पादन बहुत अच्छा होता था और उसका एक बड़ा बाजार बनारस और बनारस के बाहर था लेकिन जब मंदी आई तो उसके बाद खिलौने का उत्पादन और बाजार दोनों प्रभावित हुए।
बनारस में जहां खिलौने यूकेलिप्टस की लकड़ियों से बनाए जाते हैं वहीँ जोगई ने एमडीएफ और लकड़ी को बनारस के ट्रेंड से जोड़कर एक नया काम शुरू किया। इसे आज बहुत लोग करते हैं। मैंने पूछा कि आपके यहाँ विश्वनाथ मंदिर, सारनाथ, बीएचयू आदि की अनुकृतियाँ दिखाई दे रहीं हैं, इनकी डिमांड कहाँ से आ रही है? उमेश कहते हैं कि ‘बीएचयू एजुकेशन का हब है, यहाँ काशी विद्यापीठ है, सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय है। यहाँ आए दिन कान्फ़्रेंसेस होती हैं। कार्यक्रम होते रहते हैं। बाहर से लोग आते हैं। आयोजक बाहर से आए लोगों को यहाँ की विरासत और खास जगहों को मोमेंटों के रूप में देना चाहते हैं। उन कार्यक्रमों के लिए उनकी मांग के अनुसार काशी विश्वनाथ, बीएचयू, सारनाथ का स्तूप, ज्ञानवापी मस्जिद, कलमा, गंगा घाट, कबीर पर मोमेंटों तैयार करते हैं। धार्मिक राजधानी होने की वजह से भी लोग सोचते हैं कि धर्म से जुड़ी कोई चीज दी जाए। देश के अनेक शहरों की कोई सांस्कृतिक पहचान नहीं हैं ऐसे में जब उनका कोई अपना कोई कल्चर नहीं है, तो वे बांटेंगे क्या?’
हमारी तरह से यहाँ काम करने वाले बहुत से लोग हैं। लेकिन जोगई में जितनी चीजें हैं उनमें से लगभग 90 फीसदी चीजें यहीं क्रियेट की गईं हैं मौलिक रूप से। गूगल या अन्य कहीं से कोई नकल नहीं है या फोटोस्टेट नहीं है। पेट चलाने के लिए इसका व्यवसायीकरण किया है हमने, लेकिन यह कला से जुड़ा हुआ है। जितनी चीजें हैं उनका पहला क्रिएशन हम दोनों भाइयों द्वारा किया जाता है। एक पीस तो हम तैयार कर लेते हैं लेकिन जब ज्यादा बनाना होता है तो उसके लिए हमें हैंड्स चाहिए और तब यहाँ वे हमारे कहे अनुसार काम को पूरा करते हैं।
पूरे देश में हमें जानने वाले लोग यहाँ ऑर्डर भेजकर अपने कार्यक्रमों के लिए मोमेंटों, शादी के कार्ड आदि बनवाते हैं। जयपुर, आजमगढ़, अमरकंटक, झांसी, ग्वालियर, हरिद्वार, उज्जैन, पशुपतिनाथ, अयोध्या जहां भी कार्यक्रम होते हैं वहाँ जोगई से सामान जाता है। जैसे नर्मदा उद्गम स्थल का मोमेंटों बनवाने के लिए नैशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी से यहाँ आए। कहने का मतलब दूर-दूर से लोग आते हैं क्योंकि हर किसी को यूनिक चीजें चाहिए।
सांस्कृतिक रूप से देश में जितनी चीजें हैं क्या उन्हें आप सहेजना चाहते हैं? यह पूछने पर उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है क्योंकि इतना समय ही नहीं है, जिसकी जो डिमांड होती है उसे बनाकर हम दे देते हैं। जैसे हथुआ मार्केट में जितने भी पूजा पंडाल होते हैं उनका एक छोटा नमूना हर वर्ष यहाँ बनाया जाता है।
हमारी बनाई चीजों की मार्केट में कोई सप्लाई नहीं है क्योंकि यह कला से जुड़ा हुआ मामला है और मशीनीकरण नहीं है इस काम का। मैन पावर और साथ कुशल कारीगर चाहिए। जितना ऑर्डर आता है वही पूरा नहीं हो पाता, ऐसे में बाजार में सप्लाई कैसे होगी। आज इस काम से हजारों-लाखों लोग रोजगार पा रहे हैं और अपना परिवार चला रहे हैं। समय-समय पर इनसे जुड़े लोगों की मदद करने पर भी हम पीछे नहीं रहते।
उमेश कहते हैं कि ‘अनेक बार इस काम के लिए हमें सम्मानित करने के लिए प्रस्ताव आए। लेकिन मैंने मना कर दिया।’ मैंने कारण पूछा तो संतुष्ट भाव से उन्होंने बताया कि ‘नौकरों का ज्यादा नाम नहीं होना चाहिए बल्कि मालिक का नाम होना चाहिए।’ इस बात पर थोड़ा चौंकी लेकिन फिर उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘हम तो नौकर हैं मालिक तो ऊपर वाला है। इसीलिए अनेक बार अवॉर्ड को हमने मना किया और अपने काम में लगे हुए हैं। काम अच्छा होने पर नाम तो वैसे भी दूर-दूर तक जाता है। हमने कभी अपने काम का प्रचार-प्रसार नहीं किया। कुछ लोगों ने यहाँ से सामान ले जाकर अखबार में अपने नाम से छपवाया भी। हमें कोई एतराज नहीं है बल्कि कुछ नया बनने पर ऐसे शौकीन लोगों को खुद बुलाकर हम उन्हें देते हैं।
पटरी और शोरूम का जो डिस्टेन्स है वह हम बनाकर चलते हैं। इसमें 10-15 प्रतिशत कम-ज्यादा हो सकता है। केवल सोच और नजरिए का अंतर है, लेकिन क्वालिटी से हम कभी समझौता नहीं करते। काम करते हुए कभी कोई काम गड़बड़ हुआ तो उसे गड़बड़ मानकर रोक दिया जाता है। यही हमारे यहाँ काम करने वाले भी करते हैं। उन्होंने कहा कि कारीगर हमारे यहाँ काम नहीं करते बल्कि हमारे साथ काम करते हैं। व्यापारिक शुचिता बहुत बड़ी चीज होती है। जिन देशों में पूंजीवाद बहुत तेजी से आगे बढ़ा वहाँ व्यापारिक शुचिता बहुत महत्त्वपूर्ण बात थी। अपने ग्राहक को सामान देना और पैसा लेना एक बात है लेकिन पैसे के बदले अच्छी चीज देनी की नैतिकता किसी भी व्यापार की बड़ी बात है।’