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छत्तीसगढ़ के बसोड़ जिनकी कला के आधे-अधूरे संरक्षण ने नई पीढ़ी की दिलचस्पी खत्म कर दी है

छत्तीसगढ़ में बांस की कलाकारी करनेवाले बड़े से बड़े लोक कलाकार और दस्तकार की तकलीफ यह है कि उसके बच्चे इस कला के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि वे किसी बड़ी नौकरी में जा लगे हों लेकिन अपना पारिवारिक पेशा वे नहीं अपनाना चाहते। आखिर इसकी क्या वजहें हैं? हमने […]

छत्तीसगढ़ में बांस की कलाकारी करनेवाले बड़े से बड़े लोक कलाकार और दस्तकार की तकलीफ यह है कि उसके बच्चे इस कला के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि वे किसी बड़ी नौकरी में जा लगे हों लेकिन अपना पारिवारिक पेशा वे नहीं अपनाना चाहते। आखिर इसकी क्या वजहें हैं? हमने सबसे पहले छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में बाँस का सामान बनाने वाले बसोड़ जाति के लोगों से बातचीत करने का इरादा किया। रायगढ़ के एक गाँव कोसमनारा में बसोड़ जाति के पैंतालीस घर हैं। वहाँ के हर घर में बाँस का काम होता है।

कोसमनारा गाँव जाने से पहले वहाँ के युवा दस्तकार गनपत लाल बसोड़ से फोन पर मेरी बातचीत हो गई। रायगढ़ के जान-माने शिक्षाविद, अत्यंत लोकप्रिय शिक्षक और चित्रकार प्रताप सिंह खोड़ियार से जब मैंने बसोड़ जाति के लोगों के बारे में जानने की जिज्ञासा व्यक्त की तो उन्होंने गनपत लाल बसोड़ को फ़ोन लगाकर मिलने का समय ले लिया। लेकिन रायगढ़ से 13-14 किलोमीटर दूर स्कूटी से जाने में असमर्थता जताई। ऐसे में उन्होंने रंगकर्मी और बच्चों के साथ लगातार काम कर रही कल्याणी मुखर्जी को याद किया और कहा कि उनकी कार मेरे घर पर खड़ी रहती है। क्यों न उससे चला जाए और गाड़ी चालक के रूप में प्रथम सामाजिक संस्थान के राजेन्द्र जी को साथ लिया और मुझे लेते हुए चल पड़े। खोड़ियार सर और कल्याणी मुखर्जी के साथ हम रायगढ़ से बारह-तेरह किलोमीटर दूर सपनई गाँव पहुंचे, जहाँ गनपत लाल बसोड़ मत्स्य पालन के एक बड़े प्रोजेक्ट पर अपने तीन साथियों को लेकर काम कर रहे थे। वे अड़तालीस साल के व्यक्ति हैं और न केवल उत्साह से भरे हैं बल्कि अपने काम में माहिर और अनुभवी भी हैं।

कल्याणी मुखर्जी, प्रताप सिंह खोडियार, राजेंद्र जी और गनपत लाल बसोड़ ग्राम चुनचुना के सपनई में

 

गनपत लाल बसोड़ ने खोड़ियाए सर और हमारा अभिवादन किया और बताया कि इस तलब के लिए चौहद्दी बनाने में सात सौ बाँस लग रहे हैं। अभी यही काम कर रहा हूँ। मैंने गनपत से पूछा कि आपने कब से बाँस का काम शुरू किया? उन्होंने बताया कि यह उनका पारिवारिक काम है जो कई पीढ़ियों से चलता आ रहा है। मैं अपने बचपन से ही कर रहा हूँ। उन्होंने हिसाब लगते हुये कहा सन 1986 से ही मैं इस काम में लगा हुआ हूँ। यानी अब उन्हें 36 साल हो गए हैं।

उन्होंने बताया कि मेरे गाँव में कुल 45 परिवार हैं। सभी बांस के पारंपरिक काम ही करते हैं। कोसमनारा के अलावा रायगढ़ जिले में लैलूंगा, कापू, धर्मजयगढ़, खरसिया और सारंगढ़ ब्लॉक के कुछ गांवों में भी बांस से सम्बंधित काम करने वाले लोग हैं।

बांस के काम में माहिर गनपत लाल बसोड

कोसमनारा में कुल 45 परिवार बांस से बनाए जाने वाले सामान बनाते हैं लेकिन आज भी वे अपने उत्पादों का समुचित लाभ नहीं उठा पाते। गनपत लाल बताते हैं कि ‘बांस का पारंपरिक काम करने वाले अनेक लोग गाँव के व्यापारियों के चंगुल में फंस जाते हैं जिससे वे अपने उत्पाद औने-पौने दाम पर बेच देते हैं। यह इस पर भी निर्भर है कि किसकी गर्दन कितनी फांसी है। मतलब जब बसोड़ किसी तरह की मदद या काम-परोजन के लिए इन व्यापारियों से कर्ज़ लेते हैं, तो उन्हें एक शर्त माननी ही पड़ती है। उन्हें काफी कम दाम पर अपनी चीजें महाजनों को देनी पड़ती है। और जो लोग चंगुल से मुक्त हैं, वे खुले बाज़ार में जाकर अपना सामान बेचते हैं। एक सूपा बाजार में सौ रुपया में बिकता है लेकिन यदि व्यापारी के हाथ में बेचना होता है तो अधिकतम साठ रुपया में ही बेच पाते हैं।’

लेकिन केवल यही कारण नहीं है। गनपत बताते हैं कि ‘हमारे लिए कोई फिक्स बाज़ार ही नहीं है। इसलिए हम घूम-घूम कर खुले में ही बेच सकते हैं। खुले में बेचने से हम काफी कम दाम में बेचने को मजबूर होते हैं।’

बांस का टोकनी, पेन स्टैंड,सूपा,पंखा और मछली पकड़ने का

पारंपरिक वस्तुओं में शादी में उपयोग आने वाला पर्रा-बिजना और सूपा बहुत ही जरूरी सामान होता है, जो शादी में लगना ही लगना है। टोकनी अलग-अलग आकार की होती है। एक   दौरा भी होता है। गनपत कहते हैं कि ‘दौरा का एक ही सीजन होता है। बिहारी लोग छठ पर्व के मौके पर पूजा में इसका इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा इसकी कोई डिमांड नहीं है। हाँ, पहले शादी में दौरा का उपयोग भी बहुत होता था। पर्रा की मांग सबसे ज्यादा ठण्ड में होती है। एक तो वह शादी का मौसम होता है। और इसका दूसरा उपयोग रखिया बड़ी, बिजौरी और लाई बड़ी बनाने के लिए होता है। लेकिन अब हर चीज खत्म हो रही है, क्योंकि आजकल लोगों के यहाँ न आँगन होता है न छत। ऐसे में पर्रा के ऊपर बनाकर धूप में सुखाया जाता है।

इन पारंपरिक चीजों को बनाने का समय मांग और बाजार के हिसाब से तय होता है। फसल कटाई के बाद सूपा की  मांग बढ़ जाती है। उन्होंने बताया कि फसल चाहे कितनी भी हार्वेस्टर से काटी जाए लेकिन खेती-किसानी के काम में सूपे का बराबर इस्तेमाल किया जा रहा है।

कोई भी पारंपरिक वस्तु बांस की साइज़ और गुणवत्ता पर निर्भर करती है। यदि अच्छे साइज़ का बांस है तो एक बांस से तीन-चार सूपा आराम से बन जाता है। सूपा बनाने के लिए पहले बांस को बीच से फाड़ते हैं, उसके बाद उससे चिप्स निकाला जाता है, फिर पानी में डालकर नरम किया जाता है। उसके बाद उसमें से निकाल कर उसकी नमी को धूप में सुखाते हैं। फिर छिलाई कर उसे चिकना किया जाता है। पूरी तैयारी हो जाने पर एक हफ्ते में दो लोग मिलकर तीस-पैंतीस सूपा तैयार कर लेते हैं। इस तरह एक सीजन में एक व्यक्ति की एक दिन की साढ़े तीन सौ-चार सौ रुपये की कमाई हो जाती है। शादी का सीजन एकादशी से शुरू होकर रथ द्युतिया तक चलता है। तब तक शादी में उपयोग आने वाले सभी सामानों की बहुत मांग होती है।

गनपत लाल बताते हैं कि ‘पहले कच्चा माल / बांस जंगल से लाते थे। बाज़ार भी अच्छा था। पिता के साथ रायगढ़, सक्ती, चिखली आदि साप्ताहिक बाज़ार में जाते थे।’ लेकिन अब हालात बदल गए हैं। वे कहते हैं ‘अब बांस के जंगल से सीधा बांस नहीं लाते, क्योंकि जिंदल का प्लांट आ जाने  के कारण बहुत घूमकर जाना पड़ता है। इसीलिए अब जंगल से बांस नहीं लाते।  हम लोग सामान्य या पहाड़ी बांस का उपयोग करते हैं। उसे तैयार होने में पांच साल लग जाता है और इसके बाद ही इसे उपयोग में ला सकते हैं। लेकिन पारंपरिक कच्चा और शुरुआती बांस, जिसे करील कहते हैं, फरवरी-मार्च तक काम के लायक हो जाता है। असल में यह बांस बहुत जल्दी बढ़ता है। इसका सूपा बहुत आकर्षक दिखता है और महंगा भी होता है। इस बांस का बना सूपा ज्यादा सफ़ेद और चिकना होता है लेकिन लोग भी इसे बहुत पसंद करते हैं, जबकि यह कच्चे बांस का होने की वजह से टिकाऊ नही होता। करील वाला बांस वन विभाग द्वारा मुहैय्या नहीं कराया जाता है क्योंकि इसे तोड़ना क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित है। फिर भी कुछ लोग चोरी-छिपे ले आते हैं।’

काम के लिए बांस छांटते और काटते हुए वन विभाग के डिपो में (बसोड समुदाय के लोगों को वन विभाग द्वारा सब्सिडी में बांस उपलब्ध कराया जाता है)

 

वे बताते हैं कि ‘नाबार्ड और वन विभाग की तरफ से सामान्य सुविधा केंद्र  (सीएफसी या कॉमन फेसिलिटेशन सेन्टर) बना है। रायगढ़ जिले में कोसमनारा और खरसिया ब्लाक में बरगढ़ में सीएफसी है।  लेकिन कोरोना के चलते फ़िलहाल बंद हैं। कोसमनारा का कुछ शुरू है लेकिन पूर्ण रूप  से नहीं चलता। डीएफओ की तरफ से बांस और कुछ टूल्स भी मिले हैं।’

गनपत लाल बताते हैं कि ‘बांस के लिए पिछले साल से वन विभाग की तरफ से सब्सिडी पर बांस उपलब्ध हो जा रहा है। बाजार में जो बांस 45-50 रु में मिलता है, वन विभाग द्वारा मात्र 13 रुपये में मिलता है। सरकार की तरफ से मिलने वाला बाँस कभी पर्याप्त संख्या में मिल जाता है तो तो कभी जरूरत से भी कम मिल पाता है। इसके चलते पर्याप्त संख्या में बांस उपलब्ध नहीं हो पाता है। वन विभाग द्वारा प्रति व्यक्ति सालाना पंद्रह सौ नग बांस देने का प्रावधान है। यह इस बात से तय होता है कि कौन सा काम कर रहे हैं और इसमें बांस की कितनी खपत होगी।  वैसे वन विभाग द्वारा उपलब्ध कराया जाने वाला लोकल बाँस पांच-पचास साइज़ का मतलब सत्रह-अठारह फीट तक लम्बा और व्यास सवा-डेढ़ इंच गोल होता है। यह सबसे अच्छा बाँस होता है। बांस के बंडल से हमें छांटकर और तय कर निकालना पड़ता है कि किस काम के लिए कौन सा बांस उपयुक्त है? सॉलिड मोटा बांस फर्नीचर के लिए निकाल लेते हैं। फर्नीचर आर्डर पर बनाते हैं।’

बांस से बना सोफा

गनपत लाल इस बात पर दुख प्रकट करते हैं कि हम जिस कला को जानते हैं वह कई पीढ़ियों से चला आ रहा है इसलिए इसमें हमें महारत हासिल है। लेकिन लगता है इसमें अब कोई चरम नहीं रहा। महंगाई बढ़ रही है। नई-नई चीजें बाज़ार में आ रही हैं और वे जरूरत बनकर जीवन में घुस रही हैं लेकिन हमारी मेहनत का मोल उनके सामने कम से कमतर है। रोटी-कपड़ा, दवा सबकुछ इतना महँगा होता जा रहा है कि पास में कुछ बचता ही नहीं। पहले बचत हो जाती थी लेकिन अब तो लगता है महँगाई जेब काटकर सड़क पर नंगा छोड़ देगी।

वे कहते हैं ‘इसका कोई ऐसा बाजार नहीं है जहाँ हम इसकी बिक्री कर सकें। बांस की पारंपरिक वस्तुएं जैसे सूप, दौरा, पर्री, टोकनी साप्ताहिक बाजार में लेकर जाते तो हैं लेकिन शादियों के सीजन में ही इसकी ज्यादा बिक्री हो पाती है। तब दौरी और सूप विशेष आर्डर पर भी बनवाये जाते हैं। लेकिन अभी रोज़मर्रा के लिए कोई बाजार नही मिला है।’

शादी के लिए बनाई गई झांपी

सरकार की तरफ से चलाई जाने वाली सीएफसी योजना और नाबार्ड की तरफ से कोई आर्थिक सहयोग भी कभी नहीं मिला और न ही लोन की कोई सुविधा ही है। गनपत कहते हैं ‘लेकिन अन्त्योदय सहायता योजना के अंतर्गत कोरोना से पहले बांस का काम करनेवाले बसोड़ जनजाति के लोगों को प्रति व्यक्ति पच्चीस हजार रुपया मिला था। इसको चुकता करते समय कुछ प्रतिशत छूट मिली थी और बाद में इसे माफ़ भी कर दिया गया।’

गनपत से बातचीत में शाम हो गई तो खोड़ियार सर और कल्याणी जी लौटने की बात करने लगे। लेकिन अभी मैं कोसमनारा गाँव जाकर और लोगों से बात करना चाहती थी। तय हुआ कि किसी और दिन वहाँ जाया जाय। दो दिन बात हर्ष सिंह को साथ लेकर अपनी स्कूटी से ही  कोसमनारा पहुंचे। यह बसोड़ जाति के लोगों का गाँव हैं और जहाँ सभी परिवारों में बाँस का काम किया जाता है। हर्ष सिंह बताते हैं कि वे और अजय आठले कई बार दशहरे से पहले गनपत लाल के यहाँ आते रहे हैं। गनपत लाल दशहरे में जलाये जाने वाले रावण का निर्माण भी करते हैं।

न कहने के बावजूद दुख छिपता नहीं है

कोसमनारा के सबसे वरिष्ठ बसोड़ कलाकार भांतू राम तुरी हैं। जब हम उनके घर पहुँचे तब देखा कि वे दो कमरे के घर के बाहर परछी में बैठकर कर हैंडल वाली टोकरी तैयार कर रहे थे। पूछने पर बताया कि किसी ने ऐसी दो टोकरी बनाने का आर्डर दिया है, वही बना रहा हूँ। जब उनसे अपने और अपने काम के बारे में बताने को कहा तो वे थोड़ा झिझके और बोले ‘क्या बताऊँ मैडम?’ लेकिन जल्द ही अपनी बात कहना शुरू किये और बताया कि दसवीं तक रायगढ़ के म्युनिसिपल स्कूल में पढ़ाई किये हुए हैं। उन दिनों नौकरी करने का ज्यादा चलन नहीं था।  लोग अपना काम करना ही शान समझते थे। इसीलिए सभी आठ भाई-बहनों ने अपने पिता से सीखकर बांस के पारंपरिक सामान बनाने का काम शुरू किया।

भान्तू राम (निराशा के बाद भी संतुष्ट)

अब के बाजार और पहले के बाजार की स्थिति पूछने पर उन्होंने बताया कि ‘कोई अच्छी स्थिति नहीं थी पहले भी, लेकिन तब भी सभी लोग बहुत खुश थे।’

‘बांस कहाँ से लेकर आते हैं?’  पूछने पर उन्होंने बताया कि ‘जो जंगल के किनारे रहते हैं वे जंगल से ले आते है और सरकार की तरफ से  हर हफ्ता 10-15 बांस मिलता है। एक अच्छा बांस होने पर दो से तीन सूपा बन जाता है।’

सूखे और गीले दोनों तरह के बाँसों से सामान बनता है।  सूखे बांस को चीरने और उसका चिप्स काटने में मेहनत ज्यादा होती है, लेकिन इसकी लाइफ नहीं होती और सामान पुराने जैसे दिखता है। चमक नहीं दिखती। आर्डर पर ही ज्यादा सामान तैयार करते हैं।’

वे बताते हैं कि ‘बाजार में मिलने वाले दौ सौ रुपये का बांस सरकार से तेरह रुपये में मिल जाता है। मैं खुद बाजार में बेचने नहीं जाता हूँ, गाँव में ही दे देता हूँ और तत्काल पैसा मिल जाता है। बाजार लेकर जाने पर सामान रखने और सजाने की जगह नहीं मिल पाती है। सबसे मुश्किल जगह को लेकर है।  भटकना पड़ता है इसीलिए खुद बाजार नहीं जाते हैं ।’

मैंने पूछा ‘आपका गुजारा इस काम से हो जाता है?’ वे कहते हैं ‘सब कुछ इसी से चल रहा है। सरकार से राशन-पानी कुछ मिल जाता है। पहले तो राशन कार्ड ही नहीं था। उन दिनों हम लोग बहुत मुश्किल से गुजारा कर पाते थे क्योंकि सामान बेचकर इतनी आमदनी नहीं हो पाती थी। रायगढ़ जाकर गंज (एक बाजार का नाम) से चावल-तेल खरीदकर लाना पड़ता था, लेकिन अब का समय बेहतरीन समय है।’

बांस का चिप्स काट कर उसे चिकना करते हुए

अपने काम से संतुष्ट दिखने वाले भांतू राम कुछ बातों पर हताश भी हैं। अपने पुराने दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं ‘हम खुश और संतुष्ट रहे तभी आज सत्तर साल की उम्र में भी स्वस्थ हैं और काम कर रहे हैं। लेकिन बुढ़ापा भी काम करके काटना पड़ रहा है। आज के नेता केवल अपना वोट हासिल करने तक वादा और आश्वासन देते हैं। किसी को भी जितवा दीजिये उसके बाद कभी कोई काम करवाने नहीं आता। परिवार बढ़ रहा है तो हम चाहते हैं कि हमको ज़मीन दी जाए जिससे हमारे परिवार का भविष्य सुरक्षित हो सके।’

उन्होंने बताया कि सभी को प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत पैसा मिला और घर बना लिए लेकिन उनके छोटे बेटे को आज तक इसका पैसा हासिल नहीं हुआ। जबकि उसके पास सभी कागज तैयार हैं। अनेक बार अप्लाई किया और सारे कागज़ जमा कर दिए लेकिन कुछ भी बात नहीं बनी।

कोसमनारा के महेश तुरी युवा बसोड़ हैं, जिन्हें रायगढ़ के कलेक्टर भीम सिंह ने बांस शिल्प कला में उल्लेखनीय योगदान के लिए सम्मानित किया है। इन्होंने बांस की पारंपरिक वस्तुओं के अलावा बांस के नए शिल्प की तरफ ध्यान दिया। महेश सूपा, टोकनी, दौरी, पर्रा के अलावा बांस के अन्य सजावटी सामान भी तैयार करते हैं, जिनकी कीमत बाजार में अच्छी मिल जाती है।  हालाँकि उन्होंने यह बताया कि ‘इन सामानों की बिक्री के लिए अन्य दुकानों की तरह कोई दुकान या स्थायी ठीहा नहीं है। हाँ, कहीं मेला-ठेला लगे, साप्ताहिक बाजार लगे या कोई आर्डर मिले तो सामान की बिक्री होती है। पिछले पंद्रह-सोलह सालों से इस इस काम से जुड़े हैं क्योंकि घर पर पिताजी इस काम को किया करते थे। उन्हें देखकर और उनकी मदद करते हुए मैंने इस काम को सीखा। पढ़ाई पांचवीं तक ही कर  पाया।’

बांस शिल्प कला के शेत्र में विशेष योगदान देने के लिए महेश कुमार तुरी को प्राप्त सम्मान पत्र

महेश ने बांस की जड़ को निकाल कर उसे आकार देकर सजावटी वस्तुएं तैयार कीं। वे बांस की जड़ से चिड़िया बनाते हैं। बांस की जड़ से कलाकारी करना उन्होंने बालाकाम, शिवतराई रायपुर के पास सीखा है। बांस से फूल, हिरन, गाय, डिज़ाइनर टेबल-सोफे और अन्य पारंपरिक वस्तुएं बनाते हैं।

जहाँ आवारा गाय-बैलों को देखरेख के लिए रखा जाता है उसे छत्तीसगढ़ी में गोठान कहते हैं।   महेश कुमार तुरी एक गोठान में सरकारी चौकीदार हैं। इसी गोठान में वन विभाग बेचने के बांस भी रखता है और जिनका पंजीयन होता है। उन्हें ही सब्सिडी दर पर तेरह रुपये में बांस उपलब्ध होता है। साल भर में एक व्यक्ति को आवयश्कतानुसार एक हजार या उससे ज्यादा बांस मिलता है।

महेश पुतले भी बनाते हैं दशहरे के पहले रावण, मेघनाथ और कुम्भकरण बनाने का काम पिछले सात-आठ वर्षों से मिल रहा है। बीस फीट का एक पुतला बनाने पर तीन सौ से चार सौ बांस लगते हैं। पंद्रह दिनों में इसे बना लेते हैं और लगभग सत्तर से अस्सी हजार रुपया मेहनताना मिलता है। यह टीम वर्क होता है।

महेश तुरी ने बांस की जड़ पर कलाकारी कर चिड़िया बनाई

 

 

पारम्परिक सूपा तैयार करती गाँव की एक महिला

कोसमनारा में महिलाएं भी बाँस के काम में लगी हैं लेकिन अक्सर महिलाएँ अपने काम और विशेष उपलब्धियों के बारे में खुलकर बता नहीं पातीं। खासकर ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं तो और भी संकोची होती हैं। लेकिन मुझे लगा कि यदि महिलाओं से बात न की जाय तो कैसे पता चलेगा कि जीवन-निर्वाह का वास्तविक संघर्ष किस स्तर पर चल रहा है। इसे जानने के लिए हम दिलकुंवर तुरी के घर पहुँचे। साठ-पैंसठ साल के दरम्यान की सुंदर सी दिलकुंवर तुरी अपने बारे में बताने में इतना संकोच कर रही थी कि मुझे उनसे कुछ जानने के लिए देर तक मशक्कत करनी पड़ी। काफी देर बाद उन्होंने साड़ी से मुँह दबाए हुये छत्तीसगढ़ी में कहा ‘का ला बताओं?’

उन्होंने बताया कि शादी से पहले भी अपने मायके में वे बांस का काम करती थीं। शादी के बाद सास-ससुर के साथ काम करने लगीं और हफ्ते वाले बाजार में बांस से बने सभी पारम्परिक सामान ले जाती थीं और लगभग सभी सामान बिक जाया करता था। पचास पैसे या बारह आने (पचहत्तर पैसे) में सूपा बिकता था। सब सस्ता था इसीलिए इन सामानों का मूल्य भी कम था।  पुरानी यादों में खोते हुए उन्होंने कहा ‘ओ जमाना हर गिस। तब तो सस्ती के जमाना रिहिस। अब तो एक ठी सूपा के कीमत बाजार में सौ रुपया हे।

वे बताती हैं कि खेती-किसानी न पहले थी न अब है। उस समय सबसे बड़ी समस्या चावल की होती थी क्योंकि राशन कार्ड बना नहीं था कि चावल आसानी से मिल पाता। तब हम लोग बारिश के दिनों में कोचिया (घूम-घूमकर सामान बेचने वाले) को चालीस पान सूपा बीस रुपये में बेच देते थे। पान सूपा मतलब बड़ा सूपा। मतलब एक सूपा पचास पैसे में। तब कहीं चावल की व्यवस्था हो पाती थी।  वे कहती हैं ‘अब महँगाई बाढ़ गिस हे। लेकिन नई मिले के कौनो समस्या नी हे।’

दिलकुंवर टोकरी के ढक्कन को फाइनल टच देती हुईं

दिलकुँवर तुरी और भांतू राम पड़ोसी हैं और आस-पास ही बैठकर काम करते हैं। हमें दिखाने के लिए वे और भांतू राम अंदर कमरे में जाकर ऊपर टाँड़ पर रखे झाँपी को उतारा और हमें दिखाया। यह किसी के यहाँ आषाढ़ में होने वाली शादी के लिए आर्डर देकर बनवाया गया था लेकिन इसे ले नहीं जाया गया। घर से ले जाने पर बारह सौ रूपये का एक सेट और बाजार में यही झांपी सोलह सौ रुपये में मिलती। वे बांस का दौरा, सूपा, झांपी बना लेते हैं.

पैंतीस-छत्तीस साल की शर्मिला तुरी बाँस की कई चीजें बड़ी कुशलता से तैयार करती हैं। जब मैंने उनसे बात की तो उन्होंने छतीसगढ़ी में अपनी बात कही ‘बनेच्च दिन हो गिस न मेडम, शादी के पहिले ले करत हों. मोर मायके हर लैलूंगा कोती हे। उहाँ गां में सब झिन येइच्च काम करथें। हमन जहाँ पहिले रहत रहेन, वो हर गां छेत्र है। उहाँ सरकार तरफ ले कोई सुविधा नी मिलत हे। जंगल ले बांस लेके आथें और कोई-कोई किसान मन अपन कोला-बारी में जगाये हें। उहिंच्च ला खरीद कर लाथें। अभी तो रेट बहुत हो गिस है। एक ठी बांस अस्सी रुपया से सौ रुपया तक मिलथे। सामान बनाए के सक्ती, बाराद्वार जाथों। अब येइच्च में जइसे-तइसे गुजारा होत है। लइका मन त ये काम ल नी सीखत हैं। लड़का मन रोजी-मजूरी करत हें और लड़की मन पढ़त हें।’

शर्मीला तुरी,सूप के लिए तैयार करती चिप्स

शर्मिला तुरी के कहने का अर्थ है – उन्हें काम करते हुये बहुत दिन हो गए। शादी के पहले से ही वे यहकाम कर रही हैं। उनका मायका लैलूंगा में है। वहाँ गाँव में यही काम होता है लेकिन कोई सरकारी सुविधा नहीं है। जंगल से बाँस लेकर आते हैं । किसी किसी किसान ने भी बास लगा रखा है तो उनसे भी खरीद लेते हैं। अभी तो बहुत रेट हो गया है। एक बाँस अस्सी से सौ रुपए तक में मिलता है। सामान बनाकर सक्ती, बाराद्वार तक बेचने जाते हैं। इसी में जैसे-तैसे गुजारा होता है। बच्चे इस काम में दिलचस्पी नहीं रखते। लड़के मजदूरी कर रहे हैं और लड़की पढ़ रही हैं। 

सूपा की किनारी लगने को तैयार

बच्चे नहीं लेते हैं इस काम में रुचि

गनपत लाल कहते हैं कि ‘मैंने तो अपने पिता के साथ बड़ी रुचि के साथ यह काम सीखा था लेकिन मेरा बेटा अब इसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेता। असल में नई पीढ़ी ने इस काम को सीखा भी नहीं है क्योंकि वह इस काम को करना ही नहीं चाहती है।’  ऐसा क्यों हैं ? जब मैंने पूछा तो गनपत ने कहा ‘क्योंकि इस काम में पर्याप्त पैसा नहीं मिलता। सामान के बिकने पर या आर्डर देने पर कोई सामान बनाया जाता है तो उस समय आमदनी होती है, अन्यथा कभी-कभी कोई काम नही होता इसीलिए वे रोजी-मजदूरी करने जाते हैं। रोज कमाओ रोज खाओ लेकिन इससे यह काम आगे नहीं पहुँच पायेगा। आज की महंगाई को देखते हुए रोज कम से कम तीन सौ-चार सौ रुपये तो आने ही चाहिए। लेकिन रेगुलर कभी नहीं आता। महीने में चार-पांच दिन ही कुछ मिल पाता है। किसी-किसी दिन हजार रुपये तक मिल जाता है लेकिन यह रोज नहीं होता। ले देकर वही हिसाब रह जाता है। खर्चा पूरा नहीं पड़ता है।’

बांस से तैयार मुर्गी का दड़बा

वे कहते हैं कि ‘आजकल के बच्चे हमारे समय से बिलकुल अलग हैं, पहले जैसे नहीं हैं। हम लोग स्कूल से आकर इसी काम में लग जाते थे। पिताजी के काम में सहयोग करते हुए बांस से काड़ी निकालने का काम मैंने छठवीं कक्षा से शुरू कर दिया था लेकिन मेरा बच्चा अभी सत्रह साल का है फिर भी उसे इस काम में कोई रुचि नहीं है। इसी वजह से वह आज तक बांस से तिनका तोड़ना भी नहीं सीख पाया है।’

गनपत के साथ काम कर रहे उनके साथी ने कहा ‘गाँव में भी स्थिति ख़राब है। आज की पीढ़ी का कोई भी बच्चा इस काम में दिखाई नहीं दे रहा है। आज की पीढ़ी के बच्चे मोबाइल की दुनिया में भटक गए हैं।’

महेश कुमार तुरी द्वारा बनाया गया टेबल

कोसमनारा के सबसे बुज़ुर्ग बसोड़ भांतू राम तुरी का कहना है कि ‘आज कल के लड़के रोजी-मजदूरी में लग गए है क्योंकि वे इस काम में ज्यादा मेहनत के बावजूद नियमित आय नहीं होने से कोई रुचि नही रखते। इसीलिए सीखना भी नहीं चाहते हैं। लेकिन आज के जो होनहार बच्चे हैं, उन्हें सरकार की तरफ से सुविधा दी जाए ताकि आने वाले दिनों में वे बेहतर कर सकें।’

गनपत कहते हैं ‘सरकार इस काम के लिए ट्रेनिंग करवा देती है, सस्ते में कच्चा माल भी उपलब्ध करवा देती है लेकिन बाज़ार नही मिलता। जब कभी मीटिंग में जाने का मौका मिलता है तो सरकारी अधिकारियों के सामने इस बात को रखता हूँ कि कम से कम बाजार तो उपलब्ध कराया जाए। मैंने तो यह भी प्रस्ताव रखा कि सरकारी विभाग के हर टेबल पर एक पेन स्टैंड और डस्टबिन बनवाने का आर्डर दें ताकि बड़े स्तर पर उत्पादन होने के बाद उसका दाम मिल पाए। लेकिन ऐसा आदेश कभी मिला नहीं।’

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8 COMMENTS
  1. क्या यह समाज सिर्फ ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य की सिर्फ सेवा करता है जैसा कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में सिर्फ सेवा करना या पैर दबाना बताते हुए उन्हें निम्न कोटि यानी शूद्र वर्ण में रखा गया है। लानत है ऐसे समाज को। जो पैदाइशी अविष्कारक, इन्जीनियर, उत्पादक रहा हो, हर तरह के जीवनपयोगी बस्तुओ का उत्पादन कर पूरे समाज को जीवन दान दिया हो और जिनका भरण पोषण किया हो, वही बेइमान, निठल्ला, परजीवी, ढोगी पाखंडी अपने को उच्च बना लिया और कलाकारों को नींच दुष्ट पापी बना कर सदियों से सोषण करते आ रहा है। आज भी सब जानते हुए भी,गंंदी मानसिकता के लोग अपनी मानसिकता को बदलने को तैयार नहीं है , बड़ा दुःख होता है।

  2. सारगर्भित और तथ्यात्मक लेख। बेशक इस तरह की हज़ारों शिल्प कलाओं को सहेजने की आवश्यकता है लेकिन प्रश्न है कि क्यों और कैसे? सारे कुटीर उद्योग खत्म हो गए। चूड़ी, बांस, चमड़ा, मिट्टी आदि के सभी शिल्पकार भी चाहते हैं कि उनके बच्चे भी पढ़ लिखकर आगे बढ़े। इस प्रकार के कुटीर उद्योगों से सिर्फ जीवित रहा जा सकता है लेकिन विकास नहीं किया जा सकता है। खजूर के पत्ते से बनने वाला हाथ का पंखा बाज़ार से लोग 20 रुपये का भी नहीं खरीदते लेकिन अमेज़न से 150 का भी ले लेते हैं। जूते बनाकर और बेचकर कोई लखपति या करोड़पति न हुआ लेकिन मोची और खादिम जैसी कम्पनियों के मालिक जो कभी इस व्यवसाय में न थे आज अरबपति हैं।
    नई शिक्षा नीति इस भेद को आगे बढ़ाती दिखती है। किस अधिकारी, नेता या व्यवसाई का बच्चा मिट्टी या चमड़े की वस्तुएं बनाना सीखेगा और वो क्यों सीखे। भारत मे श्रम नहीं श्रमिकों का विभाजन किया गया है जाति व्यवस्था के सहारे जो आज भी प्रचलन में हैं।
    बांस से चीजें बनाना बसोड़ लोगों की संस्कृति हो सकती है लेकिन उससे ज्यादा उनकी मजबूरी है

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