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जुल्म, इश्क, सेक्स और जिंदगी, (डायरी, 21 नवंबर, 2021)

जुल्म कहिए या फिर अत्याचार अथवा शोषण-उत्पीड़न सब लगभग एक ही तरह के शब्द हैं। जब हम किसी का शोषण करते हैं तो उसके उपर जुल्म ही करते हैं और जिसका हम शोषण करते हैं, उससे वह उत्पीड़ित होता है। अत्याचार शब्द ब्राह्मणवादी शब्द है। इसका संधि विच्छेद ही है – अति+आचार। मतलब यह कि […]

जुल्म कहिए या फिर अत्याचार अथवा शोषण-उत्पीड़न सब लगभग एक ही तरह के शब्द हैं। जब हम किसी का शोषण करते हैं तो उसके उपर जुल्म ही करते हैं और जिसका हम शोषण करते हैं, उससे वह उत्पीड़ित होता है। अत्याचार शब्द ब्राह्मणवादी शब्द है। इसका संधि विच्छेद ही है – अति+आचार। मतलब यह कि अति करना। दरअसल, यही ब्राह्मणवादी भाषा है और यही इसकी सीमा भी है। इस लिहाज से अति से अधिक किया गया आचरण अत्याचार है। इससे कुकृत्य को एक शब्द से जोड़ दिया गया है। मतलब यह कि जबतक कोई आचरण अति की सीमा को पार न कर जाय, वह अत्याचार नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि वह प्रत्येक आचरण, जिससे किसी को कष्ट पहुंचता हो, जुल्म है और त्यागने योग्य है। फिर चाहे कोई आपका परिजन क्यों न हो।

[bs-quote quote=”जुल्म की एक दिशा होती है। ताकतवर ही कमजोर पर जुल्म करता है। यह कभी नहीं होता है कि कमजोर ताकतवर पर जुल्म करे। बाजदफा जब कमजोर संगठित हो जाते हैं और सामूहिक रूप से पलटवार करते हैं तब वे भी जुल्म करते हैं। लेकिन इस जुल्म की समाजशास्त्रीय परिभाषा दूसरी है। लेकिन होता तो वह भी जुल्म ही है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज मैं खुद को कसूरवार मानता हूं। जब पटना में रहता था तब मेरे खुद के आचरण आज मुझे जुल्म की श्रेणी में दीख रहे हैं। उन दिनों होता यह था कि मैं खाने में बैंगन सहित अनेक तरह की सब्जियां नहीं खाता था। मसालेदार तरकारी पसंद थी। जब घर में कभी मनपसंद सब्जी नहीं बनती थी तब मेरी पत्नी अलग से तरकारी बना देती या फिर आलू की भूजिया बना देती। यह सब उसे तब करना पड़ता था जब मैं दफ्तर से घर लौटता था। तब रात के साढ़े बारह-एक तो बज ही जाता था। शादी के पहले मैंने कई बार मां को मजबूर किया था कि वह मेरे लिए अच्छी तरकारी और भूजिया बनाए। मेरी मां बेचारी दिन भर मवेशियों से लेकर हम सभी परिजनों का ख्याल रखने के लिए खटते-खटते थक जाने के बाद खाना बनाती और मैं इतना बदमाश था कि खाना ही नहीं खाता। जिद करता कि मुझे भिंडी की तरकारी नहीं खानी है तो कभी बंधगोभी की सब्जी को लेकर नाराज हो जाता। कभी-कभी तो मां एकाध थप्पड़ भी लगा देती लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह मेरे लिए दूसरी तरकारी नहीं बनाती थी।
मैं स्वीकार करता हूं कि अपनी मां और पत्नी के साथ मैंने जो आचरण किया है, वह जुल्म है। दरअसल, जुल्म की एक दिशा होती है। ताकतवर ही कमजोर पर जुल्म करता है। यह कभी नहीं होता है कि कमजोर ताकतवर पर जुल्म करे। बाजदफा जब कमजोर संगठित हो जाते हैं और सामूहिक रूप से पलटवार करते हैं तब वे भी जुल्म करते हैं। लेकिन इस जुल्म की समाजशास्त्रीय परिभाषा दूसरी है। लेकिन होता तो वह भी जुल्म ही है। एक उदाहरण है 1-2 अक्टूबर, 2009 को बिहार के खगड़िया जिले के अलौली में हुआ नरसंहार।
यह नरसंहार बेहद दिलचस्प था। मैंने बिहार में हुए नरसंहारों के उपर गहन लेखन किया है। फिर चाहे वह रूपसपुर चंदवा नरसंहार हो या मियांपुर नरसंहार, सभी की पृष्ठभूमियों को जाना-समझा है। एक खगड़िया के अलौली प्रखंड के अमौसी में हुआ नरसंहार अलहदा था। इस नरसंहार में 16 लोग मारे गए थे। इसमें आक्रमणकारी जाति दलित और पीड़ित जाति कुर्मी थी। जबकि इसके पहले 14 नरसंहारों में आक्रमणकारी जाति कुर्मी और पीड़ितों की जाति दलित थी। उदाहरण के रूप में आप रूपसपुर चंदवा, बेलछी, पारसबीघा को आसानी से याद कर सकते हैं। कुर्मी जाति कैसे जुल्मकारी जाति रही है, इसका उल्लेख बिहार सरकार द्वारा गठित बंद्योपध्याय कमीशन ने अपनी रपट में विस्तार से दर्ज किया है।
तो अलौली नरसंहार के समय हवा बदली। दलितों ने कुर्मियों का नरसंहार किया और वह भी कुर्मी जाति से आने वाले नीतीश कुमार के मुख्यमंत्रित्व काल में। लेकिन इस नरसंहार को लेकर भी मेरा आकलन है कि जुल्म ताकतवर ने कमजोर पर किया। जिस इलाके में यह नरसंहार हुआ, उस इलाके में दलितों को कुर्मी जाति के लोगों ने एक तरह से गुलाम बनाकर रखा। उनके जुल्म से उनका इतिहास अटा पड़ा है। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि इसी अलौली के सहरबन्नी में रामविलास पासवान का जन्म हुआ था और वे स्वयं को दलितों का नेता कहने-कहलाने से दिल्ली में अघाते नहीं थे।
खैर, राजनीति छोड़ते हैं। वजह यह कि राजनीतिक इतिहास में ऐसी कई घटनाएं हैं, जिनका उल्लेख किया जा सकता है। एक पाकिस्तानी शायर थे, उनका नाम भूल रहा हूं। उनका शे’र याद है–
खंजर बकफ़ खड़े हैं गुलामीन-ए-मुंतजिर,
आका कभी तो निकलोगे अपने हिसार से।
तो राजनीति को छोड़ते हैं। प्यार की बात करते हैं। मुझे लगता है कि 1993 में एक फिल्म प्रदर्शित हुई थी– डर। इसके निर्देशक थे यशराज चोपड़ा और मुख्य कलाकार थे सनी देओल, जूही चावला और शाहरूख खान। मैंने इस फिल्म को संभवत: 1998 में टीवी पर देखा। यह फिल्म अजीब सी थी। कभी शाहरूख खान (फिल्म में शायद राहुल की भूमिका में थे) अच्छे लगते तो कभी उनके उपर गुस्सा आता। गुस्सा इसलिए कि वह जूही चावला और सनी देओल (दोनों ने प्रेमी युगल की भूमिका का निर्वहन किया था) को परेशान करते। एक तरह से दहशत पैदा कर दी थी राहुल ने। फिल्म के अंत के हिस्से में वह किरण यानी जूही चावला को किडनैप करने में कामयाब हो जाता है और उसके उपर दबाव बनाता है कि वह उससे शादी करे।

[bs-quote quote=”मैं अपने बारे में कह सकता हूं कि मैंने कभी बलात्कार नहीं किया है। और मुझे अपने इस आचरण से खुशी मिलती है। बहरहाल, आज जुल्म और डर की चर्चा करने की खास वजह है। यह वजह है केरल हाई कोर्ट के द्वारा कल सुनाया गया एक फैसला। न्यायमूर्ति आर नारायण पिशारदी ने अपने फैसले में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि “अपरिहार्य मजबूरी के सामने बेबसी को सहमति नहीं माना जा सकता है।”” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तब मेरा एक दोस्त था अमरजीत। उसे शाहरूख खान का यह किरदार बेहद पसंद था। वह कहता कि प्यार और जंग में सब जायज है। लेकिन क्या वाकई प्यार एक जंग है कि आदमी जिससे प्यार करे, उसे किडनैप कर ले और गन प्वाइंट पर शादी करे तथा सेक्स भी करे। सेक्स तो प्यार का चरम है। कोई वहशी सेक्स कैसे कर सकता है? वह चाहे तो बलात्कार अवश्य कर सकता है। बलात्कार और सेक्स में अंतर है। सेक्स को ऐसे भी हिंदी में संभोग कहते हैं। इसमें सम शब्द शामिल है, जिसका मतलब है बराबर।
खैर, मैं अपने बारे में कह सकता हूं कि मैंने कभी बलात्कार नहीं किया है। और मुझे अपने इस आचरण से खुशी मिलती है।
बहरहाल, आज जुल्म और डर की चर्चा करने की खास वजह है। यह वजह है केरल हाई कोर्ट के द्वारा कल सुनाया गया एक फैसला। न्यायमूर्ति आर नारायण पिशारदी ने अपने फैसले में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि “अपरिहार्य मजबूरी के सामने बेबसी को सहमति नहीं माना जा सकता है।” मामला वर्ष 2013 का है। श्याम सिवन नामक एक युवक ने एक लड़की को हासिल करने के लिए तमाम तरह की नौटंकी की। यहां तक कि उसने लड़की के घर के सामने खुदकुशी करने की धमकी दी और बेबस हो लड़की को उसके साथ अपना घर छोड़ना पड़ा। बाद में श्याम सिवन ने बिना उसकी मर्जी के शारीरिक संबंध बनाए।
बहरहाल, कल एक कविता जेहन में आयी। यह भी इश्क और उम्मीद से संबंधित है। मुख्य बात यह कि उम्मीदें काल्पनिक नहीं होतीं। मेरी उम्मीदें भी नहीं हैं। परंतु यह अमानवीय और पशुवत नही।
हर समझदार को 
उम्मीद और इश्क को
अलग-अलग चश्मे से देखना चाहिए
क्योंकि दोनों दो चीजें हैं
किसी उम्मीद में आदमी इश्क नहीं करता
और इश्क से उम्मीदें नहीं होतीं।
बाजदफा इश्क और उम्मीद
एक-दूसरे को विभाजक रेखा की तरह नहीं काटते
और जब ऐसा होता है
वह कोई विशेष खगोलीय घटना नहीं होती
सब वैसे ही होता है
जैसा होता आया है
चांद अपनी मर्जी से छोटा-बड़ा होता है
सूरज भी पूरी आजादी से उगता-डूबता है
धरती भी नाचती रहती है
हवाएं उन्मुक्त बहती हैंं
आसमान में बादल भी तब
कोई खास पेंटिंग नहीं बनाते।
लेकिन मन जानता है
उम्मीद और इश्क का अंतर
और यह भी कि
हर तजुर्बेकार को अंतर बनाए रखना चाहिए
लेकिन तजुर्बा तजुर्बा होता है
दिल कुछ कहता है
दिमाग विरोध करता है।
कई बार मैं सवाल करता हूं उम्मीद से
जवाब इश्क के पास रहता है
और मैं सोचता रह जाता हूं
इश्क और उम्मीदें
दोनों एक साथ हों तो
क्या समंदर में ज्वार-भाटे का उठना बंद हो जाएगा?
और यदि ऐसा हुआ तो
इश्क और उम्मीदों का क्या होगा?
और बिना इश्क के
बिना उम्मीद के 
यह धरती कैसी होगी?

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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