मणिपुर, मई माह की तीन तारीख से जातीय हिंसा के कारण चर्चा में है। सत्तारूढ़ पार्टी हिंसा रोक पाने में पूरी तरह से असफल साबित हुई है। देश के प्रधानमंत्री ने मणिपुर के सवाल पर अब तक एक शब्द भी नहीं बोला है। राज्य सरकार वहां की स्थिति देखने, समझने तथा जांच करने वाले लोगों के ऊपर ही हिंसा फैलाने जैसे गैरजिम्मेदार आरोप मढ़कर खुद की नाकामयाबी छुपाना चाहती है।
मणिपुर की वर्तमान स्थिति की वजह वहां के उच्च न्यायालय का एक प्रस्ताव है। जिसमें 53 प्रतिशत मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की बात की गई थी। इस प्रस्ताव के खिलाफ आल ट्राइबल्स युनियन ने मोर्चा निकाला था और उसी मोर्चे के दौरान मैतेई और कुकी समुदाय के बीच हिंसा की शुरुआत हुई थी। इस संघर्ष में मणिपुर सरकार लगभग मूकदर्शक बनी रही इसके बावजूद भी भाजपा के मुख्यमंत्री बिरेन सिंह अपने पद पर बने हुए हैं।
हालांकि मणिपुर पहले से ही संवेदनशील क्षेत्र में आता है। इसलिए वहां पर सेना तथा अर्धसैनिक बल तैनात है। सैनिकों की इस तैनाती का कई बार गंभीर विरोध भी हुआ है। कुछ सालों पहले मणिपुर की महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर अपने शरीर पर ‘इंडियन आर्मी रेप अस’ का बैनर लपेटकर सेना के मुख्यालयों पर प्रदर्शन किया था। जिसकी चर्चा पूरी दुनिया में हुई थी और दुनियाभर के मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं ने इस मामले को लेकर आवाज भी उठाई थी। फिलहाल हमारे देश में हिमालय पर्वत की गोद में बने हुए सभी क्षेत्रों में कम-ज्यादा एक जैसी ही स्थिति है। कश्मीर से लेकर संपूर्ण उत्तर–पूर्व के राज्यों में इस तरह की स्थिति के लिए काफी हद तक सरकार द्वारा की जाने वाली कार्यवाहियाँ जिम्मेदार हैं।
चालीस साल पुराने अनुभवों के आधार पर अनुमान लगा सकता हूँ कि, संघ ने मणिपुर को इस स्थिति तक लाने के लिए लम्बी मशक्कत की है। संघ ने इस सब की बुनियाद लगभग पचास साल पहले ही रख दी थी। उसी कोशिश के परिणामस्वरूप आज समस्त उत्तर–पूर्व क्षेत्र में पहचान की राजनीति धार्मिक उग्रता में तलाशी जा रही है। त्रिपुरा में सीपीएम की जगह भाजपा की सरकार बनना संघ की उसी मेहनत और बुनियाद का परिणाम है। नागालैंड, मिजोरम, अरुणाञ्चल प्रदेश, मेघालय और असम में भी भाजपा की सरकारों का बनना संघ की उसी पचास साल पहले की कोशिश का प्रतिफल है। अस्मिता का सवाल उठाकर असम से लेकर पूरे उत्तर-पूर्व के प्रदेशों में आज जबरदस्त ध्रुवीकरण की राजनीति का उन्मादी प्रस्फुटन अब मणिपुर में हो रहा है। नागरिक संशोधन बिल लाने की एक वजह उत्तर-पूर्व में धर्मांतरित लोगों में से ईसाई, मुस्लिम और आदिवासियों को सबक सिखाने का उद्देश्य भी है। व्यापकता में देखा जाय तो पूरे देश में ही भाजपा इस कानून को लागू करने की इच्छा रखती है।
संघ का तथाकथित ‘एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा, एक निशान और एक विधान’ इस घोषणा का आशय ही यही है कि आदिवासियों से लेकर इस देश के सभी समुदाय एक रंग में रंग दिये जाएँ। भारत जैसे बहुलतावादी देश में सिर्फ मणिपुर ही नहीं बल्कि पूरे देश में ही पहचान की राजनीति को सामने रखकर कट्टर हिन्दुत्व की भावना पोषित की जा रही है ताकि हिन्दू वोटों का एकमुश्त ध्रुवीकरण किया जा सके। मणिपुर में जो स्थिति प्रकट रूप से चल रही है वही स्थिति अप्रकट रुप से देश के अन्य हिस्सों में भी निर्मित की जा रही है।
मणिपुर की समस्या को शुरू हुये आज दो महीने से अधिक का समय हो चुका है। प्रधानमंत्री अब भी इस विषय पर चुप हैं। राज्य सरकार मणिपुर की स्थिति सम्हालने में नाकामयाब रहने के बावजूद भी यथावत बनी हुई है। जबकि बंगाल, बिहार तथा अन्य गैर भाजपा सरकारों वाले राज्यों में वहाँ की कानून और व्यवस्था की स्थिति को लेकर हाय-तौबा मचाते हुए राज्यपाल के हस्तक्षेप करने के उदाहरण आए दिन दिखते हैं। तमिलनाडु के राज्यपाल ने बगैर मंत्रिमंडल की सिफारिश के, खुद ही एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया, जबकि यह पूरी तरह से संसदीय नियमों के विपरीत है। बंगाल में आए दिन राज्यपाल हस्तक्षेप करते हैं।
यही स्थिति आईबी, सीबीआई तथा अन्य एजेंसियों की भी है, जिनके ऊपर देश की कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है लेकिन वह पूरी तरह से सत्ताधारी पार्टी की कठपुतली की तरह काम करते हुए अन्य राजनीतिक पार्टियों को नियंत्रित करने का टूल बन चुके हैं। यह व्यवस्था हमारे देश की एकता और अखंडता के लिए निहायत ही खतरनाक है।
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भाजपा की फितरत है बाँटो और राज करो। मंदिर, गोवध बंदी, समान नागरिक कानून, लवजेहाद, हिजाब, धर्मांतरण विरोधी कानून और अब नागरिकता वाले कानून का इस्तेमाल करने की कोशिश, यह सब इस देश में हजारों सालों से साथ रह रहे लोगों में अलगाववादी और नफरती भावना पोषित करने का प्रयास है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के समय से ही अपनी इस भूमिका को व्यापक बनाने में लगा हुआ है। संघ अपने इसी एजेंडे से महंगाई, बेरोजगारी जैसे जरूरी सवालों को भी दबाता रहा है। हिन्दुत्व के नाम पर आज एक बड़ा समाज संघ के साथ खड़ा है। दूसरे धर्म के प्रति नफरत की भावना इतनी मजबूत हो चुकी है कि वह अपने जीवन की कठिनाइयों पर भी चुप लगा जाता है।
लगभग 90 साल पहले जर्मनी में हिटलर की पार्टी द्वारा भी ऐसा ही माहौल बनाया गया था। भारत में भारतीय जनता पार्टी और मुख्यतः उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज हिटलर के उन्हीं विचारों का अनुकरण कर रही है। धर्म और भाषा के आधार पर वह लंबे समय से नफरत की दीवार खड़ी करते रहे हैं, अब उसमें आदिवासी-गैरआदिवासी का नया अध्याय शामिल हो गया है। इसी अध्याय के सहारे मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदाय के बीच हिंसा जारी है। इस हिंसा की वजह से पचास हजार से अधिक लोगों को अपने घरों से पलायन करना पड़ा है। अब तक सौ से अधिक लोगों की मौत हो गई है और हजारों घर जलकर राख हो चुके हैं। वर्तमान मुख्यमंत्री का पुश्तैनी मकान भी इस आग में जल चुका है। संघ और उसकी सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी भाजपा सिर्फ लीपा-पोती करते नजर आ रहे हैं। अगर इस तरह की हरकतों को रोकने का काम नहीं हुआ तो संपूर्ण देश में गृहयुद्ध हो सकता है।