बचपन में कई तरह की आदतें थीं। एक थी, चप्पल नहीं पहनने की। नंगे पैर घूमता रहता था। स्कूल के जूते से बड़ी चिढ़ होती थी। तब होता यह था कि पैर में पसीना बहुत होता और हमेशा लगता कि पैर भींगा हुआ है। यह जानकारी तो बाद में हासिल हुई कि मेरे पास जो जूते थे, वे खराब क्वालिटी के थे और इस कारण मुझे पसीना होता था। असल में खराब क्वालिटी का मामला भी नहीं था, मामला मेरे पिता के पास पैसे का था। तंगी जैसी स्थिति नहीं होने के बावजूद इतने पैसे नहीं थे कि मेरे पिता मेरे लिए अच्छी गुणवत्ता वाले जूते खरीद सकते। वह तो कुरूम के जूते (चमड़ा के जूते) पसंद करते थे। फुलवारी बाजार में ही एक मोची जूते गांठता था। पापा उनके यहां से ही जूते बनवाते। मेरे लिए भी एक-दो बार जूते वहीं से खरीदे गए। लेकिन मेरी आदत तो नंगे पैर घूमने की थी तो घर आने के बाद पैरों को सुकून मिलता था।
एक आदत और थी, जो आज भी है। यह आदत थी, शब्दों को लिख लेने की। मेरे पिता निरक्षर हैं। किसी तरह हस्ताक्षर कर लेते थे पहले। अब तो वे हस्ताक्षर भी नहीं कर पाते। अंगूठा से काम चलाना पड़ता है। लेकिन उन दिनों उन्हें अखबारों का शौक बहुत रहा तो हमदोनों भाई उन्हें अखबार पढ़कर सुनाते। इसी क्रम में नये शब्दों को कॉपी में लिख लेने की आदत पड़ी।
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कल फिर दो शब्द मिले। मुक्तसर और मुख्तसर। दरअसल, एक आलेख में अनुवादक ने मुक्तसर शब्द का उपयोग किया था। वाक्य के भाव के हिसाब से इसका मतलब ‘संक्षेप में’ होना चाहिए था। मुक्तसर शब्द खटक रहा था। शंका हुई तो अपने वरिष्ठ साथी गुलाम रब्बानी को फोन किया। गुलाम रब्बानी ने जेएनयू से पीएचडी किया है और बिहार में ही इन दिनों अध्यापन कर रहे हैं। तो उन्होंने मेरी शंका को सही कहा और बताया कि मुक्तसर के बदले मुख्तसरन होना चाहिए। मुख्तसर का मतलब संक्षेप और चूंकि वाक्य के भाव के मुताबिक संक्षेप में होना चाहिए तो यह शब्द मुख्तसरन हो। फिर इसके पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से हाल ही में राही मासूम रजा की रचनाओं पर पीएचडी करनेवाली मित्र आंबरीन आफताब ने भी यही सुझाव दिया था।
तो अब मेरे पास दो शब्द हो गए। मुक्तसर भी एक शब्द है जिसका मतलब है प्रतिष्ठित और मुख्तसर का मतलब संक्षेप।
बचपन में जब नये शब्द मिलते थे तब मैं उनके उपर वाक्य बनाता था। कई दफा तो अजीबो-गरीब वाक्य बन जाते थे। बचपन की कॉपियां मेरे पास होतीं तो निस्संदेह अमूल्य थाती होतीं। खैर, आज मैंने इन दोनों शब्दों का उपयोग किया तो इसके पीछे बचपन की वह आदत ही है।
मुख्तसरन यह कि हम चाहे कितने भी पढ़-लिख जाएं या फिर जवान, अधेड़ और बूढ़े हो जाएं बचपन की अच्छी बातें हमेशा बनी रहती हैं। लेकिन मैं यह देख रहा हूं कि इस देश में जबरदस्त बदलाव आया है। कल ही दिल्ली के जहांगीरपुरी में आरएसएस के लोगों ने हनुमान जयंती (जिसके जन्म की तारीख ब्राह्मणों ने तय की हुई है) के मौके पर निकाली। पुलिस के मुताबिक तो इसी दौरान पथराव हुए और हिंसक घटना हुई। कुछेक पुलिसकर्मियों को चोटें लगी हैं। राकेश अस्थाना अभी दिल्ली के पुलिस आयुक्त हैं, से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जानकारी ली, ऐसी सूचना यहां दिल्ली से प्रकाशित अखबार जनसत्ता ने प्रकाशित किया है। अस्थाना ने कहा है कि किसी भी उपद्रवी को बख्शा नहीं जाएगा।
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मैं यह सोच रहा हूं कि ये उपद्रवी कौन हैं? दिल्ली पुलिस ने इसका खुलासा नहीं किया है। उसे करना भी नहीं चाहिए। लेकिन उसने परोक्ष रूप से संकेत जरूर दिए हैं और एक तरह से एक खास धर्म के लोगों को इसके लिए जिम्मेदार माना है। मुझे तो अस्थाना और मध्य प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र एक जैसे लग रहे हैं। खरगोन, मध्य प्रदेश में इसी तरह की तथाकथित शोभा यात्रा के दौरान हिंसा भड़की थी और मध्य प्रदेश सरकार ने अगले ही दिन अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों के घर बुलडोजर से ढहवा दिया।
तो दिल्ली के जहांगीरपुरी में भी इसी तरह की घटना को अंजाम दिया जा सकता है। या फिर यह हो सकता है कि लोगों को गिरफ्तार कर उनके उपर यूएपीए जैसी धाराएं लगा दी जाएंगी।
मैं यह सोच रहा हूं कि जब सरकार के स्तर पर ऐसी चीजें होती हैं तो समाज में इसका असर कैसे होता है।
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यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस देश में लोग यदि जी पा रहे हैं तो उसकी वजह संविधान है और आईपीसी व सीआरपीसी के प्रावधान हैं। जरा सोचिए कि यदि आईपीसी के तहत यह प्रावधान नहीं होता कि बलात्कार करनेवाले को जेल हो सकती है तो क्या होता? इस देश में महिलाओं की स्थिति क्या होती? ऐसे ही अनेकानेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। यह बात मैं इसके बावजूद कह रहा हूं कि अनेक मामलों में पुलिस आरोपियों को बचाने का प्रयास करती है और वकील उनके पक्ष में दलीलें देकर उन्हें सजा से बचा लेते हैं। लेकिन इसके बावजूद लोगों में कानून का खौफ तो रहता ही है।
लेकिन इन दिनों इस खौफ को सीमित किया जा रहा है और इसके पीछे आरएसएस की यह मंशा है कि इस देश में केवल और केवल ब्राह्मणवर्ग का राज रहे।
यह बेहद खतरनाक है। मुक्तसर हुक्मरानों को मुख्तसरन यह समझ लेना चाहिए कि कानून के खौफ का खात्मा होगा तब उनकी इमारतें भी सुरक्षित नहीं रहेंगीं। यह देश हम सभी का है। हम चाहें हिंदू हों, मुसलमान हों, सिक्ख और ईसाई हों, आदिवासी हों, महिलाएं हों, दलित हों, ओबीसी हों, डीएनटी समुदाय के लोग हों।
कल बुद्ध को लेकर अनेक सवाल जेहन में आए। एक कविता सूझी–
मत उलझाओ मुझे
जैसे उलझाया था
बुद्ध को पहेलियों में।
मुझे नहीं बंद रखनी हैं अपनी आंखें
और बरसों-बरस करनी है तपस्या
किसी बोधिवृक्ष के नीचे।
मुझे नहीं बंद रखनी हैं अपनी आंखें
और तलाशने हैं जवाब
सत्य की कसौटी पर।
हां, मुझे नहीं बंद रखनी हैं अपनी आंखें
देखने हैं वह सब जो
हद-अनहद के दरमियान है
और वे पहेलियां नहीं हैं।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
[…] मुख्तसर और मुक्तसर (डायरी 17 अप्रैल, 2022) […]