कोई भी समाज कितना सभ्य है, इसका निर्धारण कैसे किया जा सकता है? जाहिर तौर पर कोई एक पारामीटर नहीं हो सकता। अनेक मानक होते हैं और मेरे हिसाब से होने भी चाहिए। क्योंकि समाज कोई चूल्हे पर चढ़ा भात नहीं है कि उसके एक दाने से इसका हिसाब लगाया जा सकता है कि चावल के सभी दाने सींझ गए हैं। वैसे भी भारतीय समाज विविधतापूर्ण समाज है। धर्म और जाति के आधार पर भेद तो है ही, रंग, क्षेत्र और भाषा के आधार पर भी भेदभाव होता है। मेरा मानना है कि भारतीय समाज में यदि कोई सबसे अधिक पीड़ित है तो वह महिलाएं हैं। और इसलिए मेरी यह मान्यता है कि सभ्यता का निर्धारण महिलाओं की स्थिति के हिसाब से किया जाना चाहिए।
एक घटना का स्मरण हो रहा है। बचपन में मुझे सपने बहुत आते थे। कई बार तो मैं सपने में कुछ देख लेने के बाद डर जाता था और रोने लगता था। मेरी रूलाई सुनकर मां उठ जाती और फिर मुझे बताती कि जो मैंने देखा वह कोई बुरा सपना रहा होगा और ऐसे सपने सच नहीं होते। फिर मां की थपकियां सुला देतीं। लेकिन सपनों ने आना बंद नहीं किया। आज भी सपने आते हैं। पिछले 9 वर्षों से मैं उन सपनों को लिख लेता हूं जो मुझे या तो खूब डरा देते हैं या फिर खूब हंसा देते हैं। फिर जब कभी मौका मिलता है, उनके बारे में सोचता रहता हूं। हालांकि मेरे जीवन में सपनों की दखल कम हो गयी है। डराने वाले सपने तो नहीं के बराबर आते हैं। मुझे लगता है कि सपनों का लोगों के होने से संबंध है। जब आप लोगों के बीच होते हैं तो आपको सपने आएंगे। फिर चाहे वे अच्छे सपने हों या बुरे।
[bs-quote quote=”एनसीआरबी द्वारा जारी क्राइम इन इंडिया – 2019 का आंकड़ा कहता है कि प्रत्येक दिन औसतन 87 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं होती हैं। पुलिसिया आंकड़ों में जादूगरी से हम सभी वाकिफ हैं। इसलिए यदि इस आंकड़े औसतन डेढ़ सौ मान लें तो अतिशयोक्ति नहीं मानी जाएगी और इस आधार पर आकलन करें तो हर घंटे कम से कम छह रेप। यानी हर दस मिनट पर एक बलात्कार।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बचपन में एक बार हुआ यह कि होली के दिन थे। होलिका दहन को हम अगजा कहते हैं। अगजा के लिए हम सभी बच्चे घर-घर जाते और लकड़ियां और गोइठा जमा करते थे। तब हम एक कविता भी गुनगुनाते – हे जजमानी तोहर सोने के केवारी, दू गंडा गोइठा द। इस पंक्ति के माध्यम से हम गृहणी को कहते कि हे गृहणी, आपके घर का दरवाजा सोने का हो, आप हमें दस गोइठा दें। गोइठा रखने के लिए हम लुंगी अथवा चादर आदि का इस्तेमाल करते थे। ठीक वैसे ही जैसे शहरों में मुस्लिम भिखमंगे चादर फैलाकर भीख मांगते हैं। पूरे मुहल्ले का चक्कर लगाने के बाद हम उस जगह पर जाते, जहां अगजा का स्थान तय होता था।
तो हुआ यह कि एक दिन हम मुहल्ले में घूम रहे थे। एक घर के अंदर से किसी महिला के चिल्लाने की आवाज आयी। दरवाजा बंद था। खिड़की से झांककर देखा तो उस महिला का पति जो रिश्ते में मेरे चाचा लगते हैं, अपनी पत्नी को पीट रहे थे। उनके हाथ में पैना था। पैना बांस का होता है। इसको लोग अरऊआ भी कहते हैं मगह में। इसका इस्तेमाल बैलों को हांकने के लिए और भैंसों पर नियंत्रण के लिए किया जाता है। वह महिला यानी जो रिश्ते में मेरी चाचाी लगती हैं, मार खाए जा रही थीं। चाचा उन्हें पीट रहे थे और खूब गंदी गालियां दे रहे थे। करीब दो मिनट तक यह दृश्य मेरे सामने रहा। चाचाी कोई विरोध नहीं कर रही थीं। बस रोए जा रही थीं और गिड़गिड़ा रही थीं – छोड़ द, हम कवन गलती कइली हे। बस इतना ही।
[bs-quote quote=”पापा की बात में विश्वास का बोध था। हालांकि मम्मी-पापा के बीच झगड़े कम नहीं होते थे। दोनों झगड़ते भी बहुत थे। लेकिन घरेलू हिंसा मेरे घर में उस अर्थ में बिल्कुल नहीं था, जैसे कि अन्य घरों में होता था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हिंसा होती ही नहीं थी। पापा मम्मी को गालियां देते थे। कई बार जब मुझे समझ नहीं थी, मैंने अपनी पत्नी को गालियां दी है। मुझे अपने किए पर पछतावा होता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उस रात नींद देर से आयी। मेरी आंखों के सामने वह दृश्य था। मैंने सपने में देखा कि पापा मम्मी को पीट रहे हैं और मेरी मां बिल्कुल चाची की तरह रो रही थी। घबराकर उठा तो देखा कि पापा दफ्तर से आ गए थे और मां उन्हें खाना परोस रही थी। उन दिनों पापा ड्यूटी नाइट शिफ्ट की थी तो पापा को पाटलिपुत्र इंडस्ट्रीयल एरिया विद्युत सब डिविजन के कार्यालय से लौटते-लौटते साढ़े बारह बज ही जाता था। तब तक तो हम बच्चे अपनी दो नींद पूरी कर लेते थे।
खैर, मेरे रोने की आवाज से मम्मी-पापा समझ गए कि मैंने कोई बुरा सपना देखा है। पापा ने पूछा तो उन्हें सब बता दिया। अगजा मांगते समय जो देखा था वह भी और सपने में जो देखा वह भी। मां हंसने लगी। लेकिन पापा ने कहा कि हम हमारे घर में ऐसा नहीं होने देंगे।
पापा की बात में विश्वास का बोध था। हालांकि मम्मी-पापा के बीच झगड़े कम नहीं होते थे। दोनों झगड़ते भी बहुत थे। लेकिन घरेलू हिंसा मेरे घर में उस अर्थ में बिल्कुल नहीं था, जैसे कि अन्य घरों में होता था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हिंसा होती ही नहीं थी। पापा मम्मी को गालियां देते थे। कई बार जब मुझे समझ नहीं थी, मैंने अपनी पत्नी को गालियां दी है। मुझे अपने किए पर पछतावा होता है।
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आज मेरे पास दो खबरें हैं। एक खबर मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले के डबरा गांव की है। हालांकि घटना बीते 28 जून को घटित हुई। एक नवविवाहिता को उसके ससुराल वालों ने तेजाब पिलाकर मारने की कोशिश की। करीब 22 वर्षीया उस युवती की शादी इस साल अप्रैल महीने में हुई थी। युवती के माता-पिता ने ससुराल वालों के उपर दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया। युवती आज भी जीवन और मौत के बीच संघर्ष कर रही है। डाक्टरों के मुताबिक, तेजाब के कारण महिला के आंतरिक अगों पर बुरा असर पड़ा है। उसकी आंत तक क्षतिग्रस्त हो गयी हैं।
दूसरी खबर मेरे गृह राज्य बिहार की है और उस जिले की, जो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए पूरा बिहार है। मतलब यह कि शेष बिहार एक तरफ, नालंदा एक तरफ। इसी नालंदा जिले के बेन थाना में कल यह मामला दर्ज किया गया है। अति पिछड़ा वर्ग की एक नाबालिग बच्ची को मंगलवार की सुबह में गांव के दबंग कुर्मी जाति के छह नौजवानों ने घर से अगवा कर लिया। फिर उसके बाद उस नाबालिग के साथ गैंगरेप किया। आरोपियों का दुस्साहस यह कि उन्होंने पीड़िता के परिजनों को जान से मारने की धमकी दी। अब इस मामले में सच्चाई क्या है, यह काम तो पुलिस का है। लेकिन मेरे मन में सवाल है कि क्या वाकई हम सभ्य हैं?
हालांकि ये घटनाएं न पहली बार हुई हैं और ना ही अंतिम बार। एनसीआरबी द्वारा जारी क्राइम इन इंडिया – 2019 का आंकड़ा कहता है कि प्रत्येक दिन औसतन 87 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं होती हैं। पुलिसिया आंकड़ों में जादूगरी से हम सभी वाकिफ हैं। इसलिए यदि इस आंकड़े औसतन डेढ़ सौ मान लें तो अतिशयोक्ति नहीं मानी जाएगी और इस आधार पर आकलन करें तो हर घंटे कम से कम छह रेप। यानी हर दस मिनट पर एक बलात्कार।
दिल पर हाथ रखकर कहिए कि क्या आप और हम अब भी इकबाल का यह नज्म गाने का हक रखते हैं –
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा।।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।