नामवरों की बात डायरी (3 अगस्त, 2021)

नवल किशोर कुमार

0 589

जाति भारतीय समाज की सच्चाई है। इसे बीमारी कहना भी उचित ही है। इस बीमारी से सभी ग्रस्त हैं। फिर चाहे वह सरकार हो, उसका तंत्र हो या फिर न्यायपालिका। यहां तक कि शिक्षण संस्थाओं में भी जाति महत्वपूर्ण होती है। जाति का दुष्परिणाम अत्यंत ही भयावह है। यह तो मूल बात हो गयी। डॉ. आंबेडकर इस बीमारी को भलीभांति समझते थे और इस कारण ही उन्होंने 1936 में जाति  का विनाश किताब की रचना की। वह यह समझते थे कि यदि जातिवाद रहा तो इस देश में कभी भी समतामूलक समाज की स्थापना नहीं होगी। संसाधनों का विषम वितरण बदस्तूर जारी रहेगा।

कई बार जेहन में एक बात आती है शिक्षा को लेकर। बचपन में मुझे इस बात का कभी अहसास भी नहीं होता था कि मेरी जाति क्या है और इसका महत्व क्या है। बाजदफा गांव के लाला ठाकुर मेरा बाल काटते वक्त मुझे दादा रूचा गोप का पोता नवल गोप कह देते थे। तब गोप शब्द ऐसा लगता मानो कोई राजा की पदवी हो। एक वही थे जो मुझे गोप कहकर बुलाते थे। अब तो कई सारे लोग हैं जो मुझे मेरी जाति से संबोधित करते हैं और जो लोग भी ऐसा करते हैं, वे मेरा अपमान करने के लिए ही करते हैं।

प्रसिद्ध नामवर जी को लेकर उर्मिलेश जी ने अपनी किताब में एक पूरा अध्याय लिखा है। इसका शीर्षक हालांकि बहुत स्पष्ट नहीं है। शीर्षक है - जेएनयू में ‘वामाचार्य’ और एक अयोग्य छात्र के नोट्स। आलेख में भी उर्मिलेश जी ने मान और अपमान के बीच खूबसूरत सामंजस्य बनाने की कोशिश की है। मुझे लगता है कि वह सफल भी हुए हैं।

खैर, कल मैं केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का बयान सुन रहा था। लोकसभा में अपने एक जवाब में उन्होंने इस आंकड़े की पुष्टि की कि केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थाओं और विभिन्न शोध संस्थाओं में आरक्षित वर्ग के कुल 8773 शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। इनमें अनुसूचित जाति वर्ग के 2608, अनुसूचित जनजाति के 1344 और अन्य पिछड़ा वर्ग के 4821पद। ये पद रिक्त क्यों हैं, इसका कोई सटीक जवाब प्रधान नहीं दे सके। हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम 2019 में ही अधिसूचित कर दिया गया है और इसके बाद विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्थाएं हैं। यह उनका दायित्व है कि रिक्त पदों के आलोक में नियुक्तियां करें।

जाहिर तौर पर धर्मेंद्र प्रधान ने अपने जवाब में आंकड़ों के अलावा कोई ऐसी बात नहीं कही है, जिससे यह स्पष्ट हो कि आखिर वे कौन हैं जो आरक्षित पदों को रिक्त रहने देना चाहते हैं। वे कौन हैं, इस बारे में चर्चा के पहले कुछ और बातें दर्ज करना चाहता हूं।

कुछ दिनों पहले वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश जी की नवीनतम किताब गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल  प्राप्त हुई। इसे नवारुण प्रकाशन, गाजियाबाद ने प्रकाशित किया है। किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाया हूं। इसलिए पूरी किताब पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। वजह यह कि हर किताब में एक मकसद निहित होता ही है। बिना मकसद के कोई किताब क्यों लिखे। मैं तो यह मानता हूं कि हर शब्द का मकसद होता है। वैसे मकसद का होना बुरी बात नहीं है। मकसद न हो तो आदमी साहित्य की रचना नहीं कर सकता। मैं तो ब्राह्मणों के धर्मग्रंथों को भी इसी हिसाब से समझता हूं। वे अपने गंंथों के जरिए अपना वर्चस्व बनाए रखने में आजतक सफल रहे हैं।

केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थाओं और विभिन्न शोध संस्थाओं में आरक्षित वर्ग के कुल 8773 शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। इनमें अनुसूचित जाति वर्ग के 2608, अनुसूचित जनजाति के 1344 और अन्य पिछड़ा वर्ग के 4821पद। ये पद रिक्त क्यों हैं, इसका कोई सटीक जवाब प्रधान नहीं दे सके। हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम 2019 में ही अधिसूचित कर दिया गया है और इसके बाद विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्थाएं हैं।

खैर, मकसद के फेर में फंसा तो बात लंबी हो जाएगी। फिलहाल मैं उर्मिलेश जी की किताब से कुछ उद्धरण देना चाहता हूं जिससे यह स्पष्ट हो सके कि उच्च शिक्षण संस्थाओं में वे कौन हैं जिनको दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों के शिक्षकों से एलर्जी है। वे इतने ताकतवर होते हैं कि कथित तौर पर सरकार के आदेश की खुलेआम अवहेलना करते हैं। उन्हें किसी का डर नहीं होता।

हालांकि मैं यह दावे के साथ नहीं कह सकता कि उर्मिलेश जी ने अपनी किताब में जो लिखा है, वह सच है या झूठ। यह उर्मिलेश जी ही बेहतर जानते होंगे। मैं तो उनके लिखे के आधार पर उच्च शिक्षण संस्थानों को समझने की कोशिशें कर रहा हूं, जो इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में भी ‘गुरुकुल’ हैं और वहां आरक्षित वर्ग के छात्र व शिक्षक दोयम दर्जे के हैं।

अपनी किताब के पृष्ठ संख्या 47 में उर्मिलेश जी लिखते हैं – ‘[जेएनयू में] एक दिन मैं किसी क्लास से निकलकर जा रहा था कि चेयरमैन ऑफिस के एक क्लर्क ने आकर कहा कि डॉ. नामवर सिंह आपको चैम्बर में बुला रहे हैं। मैं अंदर दाखिल हुआ तो देखा कि नामवर जी के साथ केदार जी भी वहां बैठे हुए हैं। नामवर जी ने बड़े प्यार से बैठने को कहा। पहले थोड़ी बहुत भूमिका बांधी, ‘आप तो स्वयं वामपंथी हैं और यह जानते ही हैं कि आप और हमारे जैसे लोगों के लिए जाति-बिरादरी के कोई मायने नहीं होते। पर भारतीय समाज में सब किसी न किसी जाति में पैदा हुए हैं। आप तो ठाकुर हो न?’ मैंने कहा- नहीं। एक शब्द का मेरा जवाब सुनकर नामवर जी और केदार जी शांत नहीं हुए। अगला सवाल था, ‘फिर क्या जाति है आपकी, हम यूं ही पूछ रहे हैं, इसका कोई मतलब नहीं है।’ मैंने कहा, ‘मैं एक गरीब किसान परिवार में पैदा हुआ हूं।’ पर दोनों को इससे संतोष नहीं हुआ तो मुझे अंतत: अपने किसान परिवार परिवार की जाति बतानी पड़ी। अखिर गुरुओं को कब तक चकमा देता।’

र्मेंद्र प्रधान ने कल अपने जवाब में जो बात छिपायी, वह नामवरों से संबंधित है। नामवर बहुत ताकतवर हैं। अभी बहुत अधिक दिन नहीं हुए। मेरे एक परिचित को एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी मिली। नौकरी कैसे मिली, मैं इसका गवाह रहा हूं और दावे के साथ कह सकता हूं कि नामवरों को रीढ़ वाले लोग पसंद नहीं आते।

हिंदी साहित्य के सबसे अधिक प्रसिद्ध नामवर जी को लेकर उर्मिलेश जी ने अपनी किताब में एक पूरा अध्याय लिखा है। इसका शीर्षक हालांकि बहुत स्पष्ट नहीं है। शीर्षक है – जेएनयू में ‘वामाचार्य’ और एक अयोग्य छात्र के नोट्स। आलेख में भी उर्मिलेश जी ने मान और अपमान के बीच खूबसूरत सामंजस्य बनाने की कोशिश की है। मुझे लगता है कि वह सफल भी हुए हैं। अपने इस अध्याय में उन्होंने प्रहार तो नामवर जी के ऊपर किया है लेकिन मुझे लगता है कि वह स्वयं और नामवर जी दोनों प्रतीक स्परूप हैं। भारत के हर विश्वविद्यालय में कोई न कोई नामवर हैं और अनेक उर्मिलेश हैं। उर्मिलेश जी अपनी असफलता (प्रोफेसर की नौकरी नहीं मिलना) के लिए नामवर जी को कारण बताते हैं।

मुझे लगता है कि धर्मेंद्र प्रधान ने कल अपने जवाब में जो बात छिपायी, वह नामवरों से संबंधित है। नामवर बहुत ताकतवर हैं। अभी बहुत अधिक दिन नहीं हुए। मेरे एक परिचित को एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी मिली। नौकरी कैसे मिली, मैं इसका गवाह रहा हूं और दावे के साथ कह सकता हूं कि नामवरों को रीढ़ वाले लोग पसंद नहीं आते। यदि कोई दलित, आदिवासी और पिछड़ा है तो उसे न केवल अपनी रीढ़ को उतारकर अलग रख देना होता है, बल्कि कपड़े भी उतारने होते हैं।

 

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

 

Leave A Reply

Your email address will not be published.