Saturday, July 27, 2024
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मेहनतकश शेरपाओं की धरती पर…

पहला भाग.. उत्तर पूर्व के लोग पश्चिमी बंगाल के जिस हिस्से पर गोरखालैंड का लेबल चस्पां किया गया है वह एक मिथ्या प्रदेश या कि अंग्रेज़ी में ‘मिस्नोमर’ है, क्योंकि इसका पूरा सांस्कृतिक क्षेत्रफल आंदोलनकारियों के दावे  से कहीं अधिक बड़ा और विस्तृत हैI यह नेपाली भाषा बोलने वालों के प्रदेश के साथ साथ पूरे […]

पहला भाग..

उत्तर पूर्व के लोग

पश्चिमी बंगाल के जिस हिस्से पर गोरखालैंड का लेबल चस्पां किया गया है वह एक मिथ्या प्रदेश या कि अंग्रेज़ी में ‘मिस्नोमर’ है, क्योंकि इसका पूरा सांस्कृतिक क्षेत्रफल आंदोलनकारियों के दावे  से कहीं अधिक बड़ा और विस्तृत हैI

यह नेपाली भाषा बोलने वालों के प्रदेश के साथ साथ पूरे नेपाल, सिक्किम, भूटान, दार्जीलिंग, असम और उससे भी आगे पूरे देश के शहरों में फैले बहादुर जाति के उन ठिगने वंशजों का प्रतीक है जिन्हें कभी तमगा देने वाले अंदाज़ में शौर्य और वफादारी की मिसाल की तरह पेश किया जाता है तो कभी उनके भोले स्वभाव को मंदबुद्धि लतीफों की शक्ल देकर फिल्म और टेलीविज़न के कार्यक्रमों में सुविधा के साथ भुनाया जाता हैI वे हर जगह हैं, कभी हमारे आलीशान बंगलों की रखवाली करते हुए, कभी सुदूर ठिकानों के रसोईघरों में अलस्सुबह जीवन-दायिनी गर्म चाय के कप आप तक पहुंचाते हुए तो कभी दुनिया के सर्वोच्च शिखर पर सबसे पहले चढ़ जाने के बाद भी गोरी चमड़ी वाले नायकों के मुकाबले बहुत छोटे और कम आंके जाने वालेI

गाँव लाटपंचोर

वे बहुत कम में खुश हो जाते हैं और इसीलिये उनके साथ हर चीज़ को लेकर मोलभाव करने में हमें अभूतपूर्व आनंद आता हैI वे दोयम कहलाये जाने और माथों पर असंभव वज़न ढोने के बावजूद कभी मुसकराना नहीं भूलते और हम मान लेते हैं कि वे अपने हाल से खुश हैं, संतुष्ट हैं और ले देकर उन्हें देश के तथाकथित विकास का वह केन्द्रीय मॉडल स्वीकार्य है जिसके अंतर्गत दशकों तक समूचे उत्तर पूर्व और तराई के लोगों को स्थितप्रज्ञता में छोड़ दिया गया और जिस असंतुलित विकास का खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैंI अपने तमाम नारों और आश्वासनों के बावजूद कथनी में सरकार और हमने कभी उन्हें अपने बराबर नहीं समझाI

इसी का नतीजा है कि आज अपनी अलग पहचान के नारे पूरे देश में कोंगुनाडू, सौराष्ट्र, रायलासीमा, पानुन कश्मीर, विदर्भ, बुंदेलखंड, हरितप्रदेश और उत्तर पूर्व में बोडोलैंड और गोरखालैंड की शक्ल में गूँज रहे हैं, छोटे बड़े आंदोलनों की शक्ल मेंI

[bs-quote quote=”किशोर कुमार की फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ के मजरूह रचित मकबूल गीतों में से एक की पंक्ति है ‘जाते थे जापान पहुँच गए चीन, समझ गए ना? ‘ कुछ उसी अंदाज़ में हम मिज़ोराम जाते- जाते आधे रास्ते से पूर्व नियोजित कार्यक्रम के रद्द हो जाने के बाद, वापस लौटने की जगह अपने पागल जूनून में फिर उसी बागडोगरा से होते हुए पश्चिम बंगाल के उस हिस्से में जा पहुंचे थे जहाँ इससे पहले हमने कभी कदम नहीं रक्खे थे और समकालीन राजनीतिक मुहावरे में जिसे गोरखालैंड का अंदरूनी हिस्सा समझा जाता है” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

किसी जमाने में यह देश सौ से अधिक छोटी छोटी रियासतों में बंटा हुआ था, जिनके आतंरिक मतभेदों का पूरा फायदा उठाकर अंग्रेजों ने चार सौ साल हम पर राज कियाI उत्तर पूर्व को सात राज्यों में बांटकर वहां की सांस्कृतिक विविधताओं को सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया था, लेकिन यह विभाजन प्रदेश के धार्मिक और भाषाई अंतरों को बहुत कोशिश के बाद भी पाट नहीं सका है. बल्कि पिछले चार-पांच वर्षों में भाषा, धर्म और जाति के ये अंतर पूरे देश में ध्रुवीकरण के एक कारगर हथियार की तरह इस्तेमाल किये जाने लगे हैंI उत्तर प्रदेश के बाद उत्तर पूर्व में बीजेपी और संघ  की सफलता शायद धर्म और जाति के आधार पर लोगों को बांटने का ऐसा भरोसेमंद मॉडल है जिसे आने वाले चुनावों में आप बार बार घटित होता देखेंगेI इनमें त्रिपुरा का मॉडल सबसे विस्मयकारी है जिसमें प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में धार्मिक/जातिगत  गणित की मुकम्मल पहचान के आधार पर विपक्ष (सी.पी.एम.) के 42 प्रतिशत वोटों में सेंध लगाए बगैर भी समूचे सत्ता पक्ष को पटखनी देकर चित्त किया जा सका हैI

असम के जंगल

किशोर कुमार की फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ के मजरूह रचित मकबूल गीतों में से एक की पंक्ति है ‘जाते थे जापान पहुँच गए चीन, समझ गए ना? ‘ कुछ उसी अंदाज़ में हम मिज़ोराम जाते- जाते आधे रास्ते से पूर्व नियोजित कार्यक्रम के रद्द हो जाने के बाद, वापस लौटने की जगह अपने पागल जूनून में फिर उसी बागडोगरा से होते हुए पश्चिम बंगाल के उस हिस्से में जा पहुंचे थे जहाँ इससे पहले हमने कभी कदम नहीं रक्खे थे और समकालीन राजनीतिक मुहावरे में जिसे गोरखालैंड का अंदरूनी हिस्सा समझा जाता है, जहाँ पिछले चुनाव में दीदी की तृणमूल कांग्रेस को दूर-दूर तक कोई सीट नहीं मिली थीI

हमारी मिज़ोरम की यात्रा रद्द होने के कारण भी राजनीतिक-सामजिक थेI असम और मिजोराम के बीच एक अरसे से सीमा विवाद चला आ रहा हैI पिछली मार्च में विद्यार्थियों के एक जुलूस और असम पुलिस के बीच हुई झड़प में कुछ विद्यार्थियों पर हमला हुआ और कई विद्यार्थियों के साथ एक पत्रकार भी घायल हो गयाI मंदिर-मस्जिद जैसे विवाद में किस्सा यूं हुआ कि मिजोरम की विद्यार्थी संस्था मिज़ो ज़िर्लाई पॉल राज्य ने असम सीमा के पास अपने किसानों के लिए एक विश्रामगृह बना दिया थाI लेकिन असम के वनविभाग और पुलिस का मानना था कि वह जगह असम राज्य की सीमा के भीतर थीI लिहाजा असम पुलिस ने जब बलपूर्वक लकड़ी का वह ढांचा तोड़ डाला था तो दोनों पक्षों के बीच घमासान छिड़ गयाI

जैसा कि इन वारदातों में  अक्सर होता है, शांति बहाल करने के लिए असम और मिज़ोरम के बहुत सारे हिस्सों में धारा 144 लगा दी गयी, जिसके चलते ऐज़व्ल का विमान पकड़ने से कुछ घंटे पहले ही स्थानीय मेजबानों ने हमें यात्रा मुल्तवी करने की सलाह दी थीI हम सब अपनी व्यस्तताएं छोड़कर इस यात्रा के लिए आये थे और कोलकाता तक जा पहुँचने के बाद लौटने का ख्याल दुखदायी थाI ऐसे में बागडोगरा की ओर मुड़कर वहां से कुछ और उत्तर की ओर निकल चलने का विचार कहीं अधिक सांत्वना देने वाला थाI

लेकिन सिलीगुड़ी और उससे आगे दार्जीलिंग को जाने वाले मुख्य राजमार्ग पर राजनीति एक बार फिर हमारा पीछा करती मिलीI सड़क के दोनों ओर थोड़े थोड़े फासले पर ममता दीदी की मुस्कराती छवि वाले पोस्टर दिखाई देते रहेI पता चला कि मुख्यमंत्री एक सम्मेलन के उद्घाटन के लिए दार्जीलिंग आयी हुई हैंI तृणमूल कांग्रेस को शायद यह अवसर गोरखा निवासियों के बीच उनकी छवि सुधारने के लिए सबसे उपयुक्त लगा होगाI गोरखा समस्या के मद्देनज़र इसकी बहुत ज़रुरत भी थीI आधे से अधिक पोस्टर देवनागरी में थे जिनमें छोटे बड़े स्थानीय संस्थानों ने दीदी के आने का भावपूर्ण स्वागत नेपाली भाषा में किया थाI

अश्वमेध पर निकले राजनीतिज्ञों के स्वागत की यह प्रथा आजकल पूरे हिन्दुस्तान में ज़ोर शोर पर हैI इसमें अनिवार्य रूप से राजनीतिज्ञों के साथ कुछ स्थानीय छुटभैयों की तस्वीरें भी वरीयता के क्रम में सुशोभित होती हैं और इत्तफाक कुछ ऐसा है कि आम आदमी को डराने वाले इन पोस्टरों में दिखते अधिकाँश चेहरे हमेशा किसी माफिया गिरोह के सक्रिय सदस्य से मिलते जुलते नज़र आते हैंI आजकल तो ये पोस्टर यात्राओं के अलावा मुख्य त्यौहारों या किसी अत्यंत महत्वपूर्ण घटना की तरह इन शरीफजादों के जन्मदिनों पर भी दिखाई देने लगे हैंI

मुझे नहीं लगता कि इन पोस्टरों से जनता के बीच इन नेताओं की छवि में कोई ख़ास सुधार होता होगा. बल्कि ये पोस्टर जिस तरह उन चुने हुए स्थानों पर लगाए जाते हैं जहां से नेता को गुज़रना होता है, उससे तो यही लगता  है कि इनका उद्देश्य आम लोगों से अधिक स्वयं उन नेताओं के नार्सिज्म और उनकी आत्ममुग्धता की तुष्टि करना होता हैI आम आदमी तो इन विशालकाय पोस्टरों को देखकर सिर्फ आतंकित ही हो सकता हैI

दार्जीलिंग की ओर  जाने वाली सेवोक रोड पर कोई एक घंटा चलने के बाद कालीझोरा में जब हम बायीं ओर मुड़े तो वे पोस्टर भी आश्चर्यजनक ढंग से दिखने बंद हो गए, जिससे स्पष्ट था कि हमने मुख्यमंत्री का रास्ता छोड़ दिया हैI एक क्षत-विक्षत पतली सी सड़क पर कोई पौन घंटे के दौरान साढ़े चार हज़ार फीट की ऊँचाई तक चढ़ने के बाद हम एक विस्मृत गाँव लाटपंचोर में थे जो अंग्रेजों के ज़माने में अपेक्षाकृत आबाद हुआ करता थाI तब यहाँ दक्षिणी अमेरिका से लाये गए सिंचोना के पौधे कोई 4000 एकड़ क्षेत्र में चाय के बगानों की तरह उगाये गए थेI

कहा जाता है कि पेरू के इन्का वंशज इन पौधों के औषधीय गुणों से भली भांति परिचित थेI बाद में फ्रांसीसियों और अंग्रेजों ने भी इन्हें पहचानाI लाटपंचोर में ये पौधे कोई डेढ़ सौ साल पहले अंग्रेजों ने लगाए थेI इसकी छाल से निकाली जाने वाली मलेरिया की रामबाण औषधि कुनैन यहाँ के छोटे छोटे कारखानों से होकर पूरे देश की दवा कंपनियों तक पहुँचती थीI सिंचोना के वे जंगल अब सिमटकर एक तिहाई से भी कम रह गए हैं और उनका व्यावसायिक महत्त्व भी जाता रहा हैI प्रयोगशालाओं में अब कृत्रिम सिंथेटिक कुनैन बनने लगी है जो मलेरिया की नयी दवा-विरोधक किस्मों के उपचार में अधिक प्रभावी हैI मलेरिया की सिर्फ एक किस्म में प्राकृतिक सिंचोना से निकला कुनैन अब भी काम में आता है. बाज़ार उठने के बाद लाटपंचोर में छाल से कुनैन निकालने वाले अनगिनत छोटे छोटे कारखाने अब ठप्प पड़े हैंI इन्हीं कारखानों से सरकारों ने किसी ज़माने में बेहिसाब पैसा बटोरा थाI

चुनाव से पहले ममता दीदी ने इसी धरती से अपने भाषणों में कहा था कि “मैं इन सिंचोना बगानों की पुरानी गरिमा वापस लेकर आऊंगी!” लेकिन मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमन्त्री तक के खोखले आश्वासनों से बखूबी परिचित  लाटपंचोर के निवासियों पर इसका बहुत कम असर हुआ थाI

इसे छाल से बनती है औषधि कुनैन

सिंचोना की छाल में कुनैन के अलावा कई दूसरे स्टेरॉयड रसायन भी मिलते हैं जिनमें पेचिश रोकने  और  कैंसर के प्रतिरोध में काम आने वाली ‘टक्सौल’ शामिल हैI तकनीकी विशेषज्ञों का मानना है कि उनमें से किसी एक या दो के कुशल व्यावसायिक संयोजन से सिंचोना उद्योग को मरने से बचाया जा सकता थाI लेकिन इसके लिए सरकारों और वैज्ञानिकों को एक साथ दूर तक जाने की ज़रुरत थी, और इस लम्बे सफ़र को तय करने का मनोबल या संकल्प किसी के पास नहीं थाI लाटपंचोर के पर्वतीय निवासी स्वीकार कर चुके हैं कि सिंचोना के ज़रिये जीविका चला पाना अब संभव नहीं रहाI उनमें से अधिकाँश ने अपने मकानों में कमरे बढ़ाकर वहां पर्यटकों के लिए छोटे मोटे आवास या ‘होमस्टे’ बना लिए हैंI ऐसे ही एक घर में मेहमान की हैसियत से लाटपंचोर में हमारी पहली रात गुज़रीI

महानंदा अभयारण्य का ‘कोर’ इलाका यहाँ से 6 किलोमीटर के फासले पर है, फिर भी सैलानियों के बीच लाटपंचोर की पहचान अपेक्षाकृत नयी हैI यहाँ होटलों  और रिसोर्ट की जगह सिर्फ अंग्रेजों के समय में बना वन विभाग का एक छोटा सा कामचलाऊ विश्राम गृह हैI लेकिन प्रकृति प्रेमियों के चलते यहाँ घरों में ठहरना आसान हो गया है. आसमान साफ़ होने पर यहाँ एक ओर कंचनजंघा के पहाड़ दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर तीस्ता नदी नीचे चमचमाती नज़र आती हैI यहाँ पहाड़ी से नीचे उतरते जंगलों में आपको यहाँ के ख़ास पक्षी लालकंठ धनेश का घोंसला दिखाने वाले स्थानीय गाइड भी मिल जायेंगेI

इसी के घोंसले के नाम पर बना होमस्टे आवास ‘हार्नबिल नेस्ट’ पदम् गुरंग अपने दो साथियों प्रेमचंद राय और सुनील छेत्री के साथ मिलकर चलाते हैंI ऊपर की मंजिल पर तीन कमरे और सीढ़ियों के नीचे रसोईघर, जहां घर की औरतें मेहमानों के लिए भोजन बनाती हैंI यहीं गुरंग नीचे अपने परिवार के साथ रहते हैं. मुख्य दरवाज़े पर होमस्टे का बोर्ड लगाया जाना भी अभी बाकी हैI लेकिन लाटपंचोर के सब बाशिंदे गुरंग जितने भाग्यशाली नहींI गुरंग की देखादेखी कुछ ने अपने घरों में होमस्टे बनाए हैं, लेकिन मेहमानों के अभाव में ये अधिकाँश समय खाली रहते हैंI कुछ अब भी सिंचोना के घिसटते  कारखानों से जुड़े हैं तो बाकी जीविका के लिए खेती की ओर लौट गए हैंI इन सबकी मातृभाषा नेपाली है, हालांकि हिंदी-बंगला से भी इनका नज़दीक का रिश्ता हैI

इसके बावजूद पिछले साल जब तृणमूल सरकार ने स्कूल में माध्यमिक कक्षाओं तक बंगला पढ़ना अनिवार्य घोषित किया था तो लोग सड़कों पर उतर आए थेI इस व्यापक रोष देखते हुए सरकार को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा था, लेकिन इससे भी लोगों का गुस्सा कम नहीं हुआ थाI अधिकाँश स्थानीय निवासी मानते हैं कि गोरखालैंड के संघर्ष में भाषा का बहुत बड़ा हाथ रहा हैI कुछ उसी तरह जैसे पूर्वी बंगाल के बंगाली नागरिकों ने सालों पहले वहां उर्दू थोपे जाने के विरोध में बांग्लादेश का स्वतंत्रता संग्राम छेड़ा थाI

गुरंग बताता है कि लाटपंचोर का नेपाली में अर्थ है बांस का झुरमुटI लेकिन यहाँ के बांस कब के ख़त्म हो चुके हैंI अलबत्ता जंगलों में सिंचोना के अलावा साल, शीशम और चीड़ के पेड़ों की भरमार हैI इन्हीं के बीच लालकंठ धनेश का एक जोड़ा हमारे पास से उड़ता हुआ दूर चला जाता है. इस पक्षी की एक झलक पाने के लिए पक्षी प्रेमी कई बार यहाँ सारा-सारा दिन तपस्या की मुद्रा में बिता देते हैंI गुरंग और उनके साथी इसी जुनून में संभावनाएं तलाश रहे हैंI वे जानते हैं कि सिंचोना के बाद अब यह पर्यावरण और यहाँ पाए जाने वाले ये रंग बिरंगे पक्षी ही उन्हें बाज़ार की मंदी से उबार सकते हैंI

होमस्टे की औरतें विशेष बँगला भोजन बनाने में निपुण हैं, हालांकि उनकी अपनी हर रोज़ खायी जाने वाली दाल भात तरकारी भी इससे बहुत अलग नहीं हैI बंगला मसाले ‘पांचफोरन’ में बनी आलू की सब्जी और रोटी खाकर हम लाटपंचोर से आगे चलते हैं तो मुख्य सड़क पर एक बार फिर वे तोरण, रंग बिरंगी झंडियाँ और पोस्टर हमारा स्वागत करते हैंI दार्जीलिंग में इस वक्त राजनीतिज्ञों और बिज़नस प्रतिनिधियों का जमावड़ा है. गनीमत है कि सारी राजनीतिक चहल-पहल को पीछे छोड़ते हुए हम शहर में प्रवेश करने से पहले ही ‘घूम’ के चौराहे से शहर का रास्ता छोड़ ऊपर की ओर निकल जाते हैंI

पश्चिम बंगाल का यह उत्तरी छोर पश्चिम में नेपाल और उत्तर में सिक्किम से सटा हुआ हैI इसी में पूरी लम्बाई पर फैला है सिंगालीला राष्ट्रीय अभयारण्य, जिसकी पश्चिमी सीमा नेपाल को छूती चलती है. यह एक अनौपचारिक रेखा है जिसके आर-पार नेपाल और भारत की धरती के बीच फर्क करना भी कभी-कभी मुश्किल हो जाता है. पश्चिमी बंगाल की सबसे ऊंची चोटी संदकफू (बारह हज़ार फीट) भी यहीं ठीक भारत और नेपाल की सीमा पर स्थित है. यह पैदल ट्रैकिंग करने वाले शौकीनों का भी प्रिय इलाका हैI

सिंगालीला राष्ट्रीय अभयारण्य

‘घूम’ से आगे दार्जीलिंग का प्रभाव समाप्त होते-होते सड़क भी संकरी होकर टूटनी शुरू को जाती है. यहाँ से सूखिया पोखरी का 11 किलोमीटर का छोटा सा फासला तय करने में एक घंटे से अधिक का समय लग गयाI यहाँ जंगल के बीच से एक अधिक सुखकारी पैदल रास्ता भी जाता है, लेकिन परमिट का दफ्तर दोपहर में जल्दी बंद हो जाता था, लिहाजा कुछ और समय के लिए हमें उस सड़क को बर्दाश्त करना पड़ाI लेकिन हमें मालूम नहीं था कि जिसे हम खराब समझ रहे थे, वह दरअसल अगले दस दिनों के दौरान न्यूनतम परिभाषाओं के मुताबिक़ वहाँ की सबसे  शानदार सड़क साबित होने वाली थी!

जितेन्द्र भाटिया सुप्रसिद्ध कहानीकार,नाटककार और पर्यावरणविद हैं 

क्रमशः

 

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