Saturday, July 27, 2024
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नीम की छाँव

25 दिसंबर 2017 को सुबह 9.30 बजे बरदहाँ गांव के युवा मित्र श्री पंकज प्रजापति के घर जाना हुआ। पंकज भी मुंबई के पास नालासोपारा उपनगर में रहते हैं। पंकज ने यद्यपि हिंदी में एमए किया है किंतु नंबर कम होने के कारण बीएड नहीं कर सके। विवाह जल्दी हो गया था सो बाल-बच्चे भी […]

25 दिसंबर 2017 को सुबह 9.30 बजे बरदहाँ गांव के युवा मित्र श्री पंकज प्रजापति के घर जाना हुआ। पंकज भी मुंबई के पास नालासोपारा उपनगर में रहते हैं। पंकज ने यद्यपि हिंदी में एमए किया है किंतु नंबर कम होने के कारण बीएड नहीं कर सके। विवाह जल्दी हो गया था सो बाल-बच्चे भी जल्दी हो गए। इनके पिताजी गांव से थोड़ी दूर स्थित एक कालीन कंपनी में काम करते हैं। पिता की कम तनख्वाह (आज भी उन्हें मात्र 6700/- रुपये मिलते हैं) और बहुत कम कृषि योग्य भूमि होने के कारण क्षेत्र के हजारों युवकों की तरह पंकज को भी रोजी-रोटी की तलाश में मुंबई की राह पकड़नी पड़ी। पंकज मितभाषी, मेहनती और ईमानदार युवक है जो पिछले 8-9 साल से मुंबई की एक सीए फर्म में लेखा सहायक के रूप में नौकरी करता है। अपनी बचत से उसने नाला सोपारा में अपना छोटा सा फ्लैट ले लिया है और अब गांव में भी छोटा सा पक्का आवास बनवा रहा है।

गुलाबचंद यादव

पंकज मेरे अभिन्न मित्र श्री राजाराम ( मास्टर जी) का भतीजा है और उनके जरिए ही मेरे संपर्क में आया। इन दसेक वर्षों में पंकज हर मुख्य त्योहार-पर्व पर हमें शुभेच्छा देता रहा है और साल में कम से कम 2-3 बार हमसे मिलने मीरा रोड जरूर आता है। गाहे-बगाहे फोन भी करता है और वाट्सएप के जरिए भी संपर्क में रहता है। अतः मेरा भी मन उसके घर जाकर मिलने का था और मैंने फोनकर अपनी मंशा बता दी। वह अपने पिताजी के साथ गेहूँ की बुवाई में जुटा था किंतु तुरंत घर आया और चाय-पान की व्यवस्था की। मैंने उसके परिवार, रोजगार, खेतीबाड़ी, पिता के रोजगार आदि की जानकारी ली।

मैंने गौर किया कि उसके गांव की बसावट अब और घनी हो गई है। लोगों ने अपने बखरीनुमा पुराने मकानों से निकलकर खेतों में पक्के मकान बना लिए थे और कुछ बनवा रहे थे। संतोष की बात यह थी कि मुंबई, दिल्ली, कोलकाता जैसे महानगरों में रहने के कारण यहाँ के लोगों में भी धीरे-धीरे आधुनिकता की समझ आ रही थी। स्वच्छ भारत अभियान और अन्य अभियानों का असर अब गांवों में भी साफ तौर पर दिखाई देने लगा है। लोग नये मॉडल के पक्के मकान बनवा रहे हैं जिनमें शौचालय, स्नानघर और रसोईघर का प्रावधान होता है। मकानों की छतों पर पानी की टंकियां लगाई गई हैं जिनमें टुल्लू पम्प के जरिए पानी भरा जाता है। अधिकांश घरों में अब रसोई गैस पहुँच गई है और उपले-कंडों, डंठलों और सूखी लकड़ियों की खपत/उपयोग दिनोंदिन कम हो रहा है। वास्तव में बिजली और रसोई गैस की उपलब्धता और उपयोग ने गांववासियों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने में अहम योगदान दिया है। बिजली आपूर्ति की बेहतर स्थिति ने अनेक घरों को टीवी, फ्रीज,कूलर, पंखों आदि जैसी सुविधाओं से सुसज्ज कर दिया है।

अरे यह क्या…? बात कहाँ से शुरू की थी और कहाँ पहुँच गई। लीजिए अब लौटता हूँ पंकज के घर। हम चाय पी रहे थे कि पंकज के मोबाइल पर एक कॉल आता है और पता चलता है कि उसके एक सिविल इंजीनियर मित्र श्री पांडेय जी बनारस से उससे मिलने आ रहे हैं और कुछ देर में अपनी कार से पहुँच जाएँगे। मैं उसके घर के सामने गुनगुनी धूप में बैठा था। सामने नीम के कई पेड़ थे। एक प्रौढ़ स्त्री नहा धोकर एक लोटे में जल लेकर सामने की नीम की जड़ के पास बैठकर भक्तिभाव से कुछ प्रार्थना बुदबुदाती हैं और लोटे के जल को नीम की जड़ों में डालकर प्रणाम कर अपने घर में चली जाती हैं।

[bs-quote quote=”मैंने गौर किया कि उसके गांव की बसावट अब और घनी हो गई है। लोगों ने अपने बखरीनुमा पुराने मकानों से निकलकर खेतों में पक्के मकान बना लिए थे और कुछ बनवा रहे थे। संतोष की बात यह थी कि मुंबई, दिल्ली, कोलकाता जैसे महानगरों में रहने के कारण यहाँ के लोगों में भी धीरे-धीरे आधुनिकता की समझ आ रही थी। स्वच्छ भारत अभियान और अन्य अभियानों का असर अब गांवों में भी साफ तौर पर दिखाई देने लगा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

इन प्रवासों में मैंने गौर किया है कि बाग-बगीचे खत्म या सुकुड़ते जा रहे हैं और महुआ के पेड़ भी कम होते जा रहे हैं किंतु नीम और आम के प्रति लोगों की श्रद्धा और लगाव बरकरार है। हर कोई अपने घर के सामने या आसपास नीम/आम के पेड़ जरूर लगा रहा है। इन नीम/आम के पेड़ों में स्वर्गलोक के देवी-देवता वास करते हैं या नहीं मुझे नहीं पता किन्तु मैं यह अवश्य मानता हूँ कि इन पेड़ों-दरख़्तों की आज हमारी पृथ्वी को सख़्त जरूरत है। ये पेड़-पौधे ही हवा से कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य हानिकारक गैसों को अवशोषित कर हमें ऑक्सीजन रूपी प्राणवायु देते हैं, अपनी शीतल छाया से हमे राहत देते हैं, अपनी सुखी टहनियों से गरीबों के चूल्हे जलाते हैं और अपने फ़लों, बीजों, पत्तियों से हमें उपकृत करते हैं। इसलिए यदि हम इन पेड़ों को देवी-देवता मानकर इनके प्रति पूजा-अभ्यर्थना के जरिए ही सही कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं तो यह बिल्कुल वाज़िब है। हमारे जंगल, नदियां, पहाड़ और बाग-बगीचे ही हमारे वास्तविक ईश्वर हैं क्योंकि इनके होने से ही हमारा जीवन संभव है ऐसा मेरा मानना है।

बरदहां गांव में पंकज (बाएं से दूसरे) तथा अन्य के साथ।

पिछले कुछ वर्षों में गांवों में काफी परिवर्तन आये हैं। स्वच्छ भारत अभियान की बदौलत अधिकांश घरों के आगे-पीछे शौचालय बने हैं और बन रहे हैं। जहाँ नहीं बने हैं वे उन लोगों के घर हैं जिन्होंने मौजूदा ग्राम प्रधान को वोट नहीं दिए होंगे और खुद बनवाने में असमर्थ हैं। बिजली की सुधरती आपूर्ति की बदौलत अब घरों-गलियों में रात को भी उजाला रहता है। सड़कों के किनारे बिजली के खंभों पर बल्ब लग गए हैं और कई जगहों पर सौर ऊर्जा वाले बल्ब लगाए गए हैं। इन सुविधाओं के चलते अब गांवों में चोरी-चकारी की घटनाओं में भी कमी आई है। जिन घरों में केवल साइकिलें हुआ करती थी, अब वहां मोटर साइकिलें आ गई हैं। जिन घरों में देस-परदेस की कमाई से थोड़ी ज्यादा संपन्नता आई है, उनके घर के सामने नये मॉडल वाली कारें खड़ी नजर आती हैं। बाजारों में भी रौनक दिखती है। कपड़े, सौंदर्य प्रसाधन, समोसे-चाट और मिठाई की दुकानों  पर ग्राहकों की अच्छी संख्या दिखाई देती है। डॉ.क्टरों के यहां भी भीड़ है। कस्बों/बाजारों में कई निजी अस्पताल/नर्सिंग होम खुल गए हैं। पेट्रोल पंपों की संख्या भी बढ़ी है। यहाँ की जमीनों के भी दाम आसमान छू रहे हैं। बाजार/कस्बों के आसपास जमीनें 1 लाख रुपये से लेकर 10 लाख रुपये प्रति फुट (पीछे 60 से 100 फुट जगह मिलती है) के भाव से बिक रही हैं। लोग गांवों की घनी आबादी से बाहर निकलकर सड़कों के किनारे आवास/गाले बना रहे हैं।

[bs-quote quote=”किन्तु गहराई से पड़ताल करने पर यह तथ्य सामने आता है कि कम या ज्यादा यह जो सम्पन्नता/सुविधाएं दिखाई दे रही हैं उनके पीछे स्थानीय आय का योगदान बहुत कम है। यह संभव हुआ है और हो रहा है मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, अहमदाबाद, पुणे, सूरत, नासिक, वापी जैसे तमाम महानगरो/शहरों में जा बसे उन लाखों पूरबियों की बदौलत जो यहाँ से पलायन कर परदेस की राह पकड़ने के लिए मजबूर हुए हैं और आज भी हो रहे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

किन्तु गहराई से पड़ताल करने पर यह तथ्य सामने आता है कि कम या ज्यादा यह जो सम्पन्नता/सुविधाएं दिखाई दे रही हैं उनके पीछे स्थानीय आय का योगदान बहुत कम है। यह संभव हुआ है और हो रहा है मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, अहमदाबाद, पुणे, सूरत, नासिक, वापी जैसे तमाम महानगरो/शहरों में जा बसे उन लाखों पूरबियों की बदौलत जो यहाँ से पलायन कर परदेस की राह पकड़ने के लिए मजबूर हुए हैं और आज भी हो रहे हैं।

इस 20 करोड़ की आबादीवाले प्रान्त में मानव संसाधन के साथ-साथ अन्य प्रकार के संसाधन भी विपुल मात्रा में उपलब्ध हैं किंतु फिर भी रोजगार के अवसर बहुत कम हैं। कब लगेंगे यहाँ कारखाने और फैक्ट्रियां? कब स्थापित होंगे यहाँ भी इंडस्ट्रियल हब? कब स्थापित होंगे यहां भी सॉफ्टवेयर पार्क और कॉल सेंटरों के जाल? कब सुधरेगी हालात यहां के पारंपरिक उद्योग-धंधों और कुटीर उद्योगों की? कब सुधरेगा यहां के ग्रामीण स्कूलों-कॉलेजों की शिक्षा का स्तर? सवाल तो सैकड़ों हैं किंतु स्पष्ट और संतोषजनक जवाब तो शायद यहां के नीति-नियंताओं के पास भी नहीं होंगे तो हमारी आपकी बिसात ही क्या? इन सवालों के जवाब यहां की मिट्टी-जमीन और यहाँ के परिवेश में ही तलाशने होंगे और इन कर्णधारों से ही पूछने होंगे जो हर चुनाव में खूब सब्ज़बाग दिखाते हैं, बड़े-बड़े वादे करते हैं और दिन-दुपहरिया में भी लुभावने सपने दिखाते हैं। उन्हें जताना ही होगा कि 70 साल तो बीत गए आजादी के बाद भइया, अब और कितना इंतजार करें हम….। आखिर धैर्य और सब्र की भी कोई सीमा होती है।

“भइया, लीजिए पकौड़ी।“ पंकज सामने आकर प्लेट रखकर आग्रह करता है। प्याज की गर्म पकौड़ी (मुंबई का कांदा-भजिया) की भीनी-सोंधी खुशबू से मेरी वैचारिक तंद्रा टूटती है और मैं वर्तमान में लौट आता हूँ। मुंबई वाले सिविल इंजीनियर पांडेय जी भी अपने मित्र उपाध्याय जी के साथ कार से आ गए हैं। हमारी चौपाल जम जाती है चाय-पकौड़े के साथ। इस गांव से 1 किमी दूरी पर स्थित रेललाइन से मुंबई से गोरखपुर जानेवाली मशहूर काशी एक्सप्रेस गाड़ी की सीटी सुनाई देती है जो शायद संकेत कर रही है कि, “भइया, काहे इतना सोच-विचार में पड़े हो, ताजी पकौड़ी खाओ और मस्त रहो…  हमारी तरह। हम भी तो वर्षों से बनी-बनाई लीक पर चल रही हैं।“ नाश्ता-चाय और संक्षिप्त चौपाल के बाद मैं पंकज से विदा लेता हूँ। रास्ते में किसी के टेप रिकॉर्डर या मोबाइल पर बजते इस गीत की कुछ पंक्तियाँ बरबस ध्यान खींच लेती हैं- “धनिया देखिहा खेती-बरिया हम परदेसवा जइबे ना….”। लगता है आज भी कई रामप्रसाद, सुरेश, रामदीन, प्रकाश और रामबचन परदेस जाने के लिए अपना झोरा/अटैची बाँध रहे होंगे एयूआर अपने निकटवर्ती स्टेशनों पर पहुँचने की तैयारी कर रहे होंगे क्योंकि रोजी-रोजगार की आशा तो अब परदेस में ही शेष रह गई है।

गुलाबचंद यादव बैंक में सेवारत हैं और फिलहाल मुबई में रहते हैं ।

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