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पलटूराम होकर भी नीतीश कुमार ने बिहार को क्या दिया है

नीतीश कुमार को बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर राज करते हुए बीस साल हो चुके हैं, लेकिन बिहार की अर्थव्यवस्था बहुत ही दयनीय हालत में है। इस वजह से पूरे देश में मजदूरी के सिलसिले में भारत के विभिन्न हिस्सों में जानेवाले कुल प्रवासी मजदूरों में आधे से अधिक मजदूर बिहार के ही होते […]

नीतीश कुमार को बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर राज करते हुए बीस साल हो चुके हैं, लेकिन बिहार की अर्थव्यवस्था बहुत ही दयनीय हालत में है। इस वजह से पूरे देश में मजदूरी के सिलसिले में भारत के विभिन्न हिस्सों में जानेवाले कुल प्रवासी मजदूरों में आधे से अधिक मजदूर बिहार के ही होते हैं।  वर्ष 2005 में जब पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब सत्ता में आते ही बिहार के मेहनत करने वाले लोगों को बिहार में ही काम देने की घोषणा की थी, लेकिन यह घोषणा केवल घोषणा बन कर रह गई। इस पर कभी विचार ही नहीं किया गया। यही कारण है कि बाहर कमाने गए ज़्यादातर मजदूर बिहार वापस नहीं रहना चाहता, यह अलग बात है कि बाहर जिन मजदूरों के घर नहीं बन सके वे बार-बार लौटते हैं लेकिन कुछ दिनों बाद फिर वापस उन्हीं जगहों पर लौटते हैं। बिहार में रह रहे खाली हाथ को कभी काम ही नहीं मिला।

ऐसा नहीं कि नीतीश में इच्छाशक्ति नहीं थी, इच्छाशक्ति तो पर्याप्त थी और इसी वजह से उन्होंने नरेंद्र मोदी की नकल करते हुए खुद को बिहार का विकास पुरुष बताकर बिहार को भय, भ्रष्टाचार और  भूख से मुक्त करने की घोषणा कर सड़क, बिजली, दलित स्त्रियों की सुरक्षा और सम्मानपूर्वक जीने के लिए सर्वांगीण विकास की घोषणा की।

लेकिन क्या नीतीश कुमार सीने पर हाथ रखकर दावा कर सकते हैं कि इन 20 सालों में बिहार कितना बदला? वहाँ कितना और विकास हुआ? अपने कार्यकाल में कितने किलोमीटर सड़कों का निर्माण करवाया? कितने गांवों में बिजली पहुंचाई? किसी एक भी अस्पताल का नाम बताएं जो इन्होंने अपने कार्यकाल में बनवाए हों। इसके विपरीत जेपी और एसएम जोशी के सपने का अस्पताल, जो ‘जयप्रभा’ के नाम से संचालित हो रहा था, उसे वेदांता ग्रुप को सौंप दिया, जहां आम और गरीब जनता अपना इलाज नहीं करवा सकती।

इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में देखा जाए तो स्कूल और कॉलेज दोनों की स्थिति दयनीय है। पूरे बिहार में प्राइवेट स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं, जहां गरीब-गुरबा के बच्चे स्पर्धा में बाहर हो गये हैं। महाराष्ट्र के प्राइवेट इंन्जीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में सबसे ज्यादा बच्चे बिहार से ही हैं। जेएनयू, बीएचयू और अन्य विश्वविद्यालयों में भी बिहार के बच्चों को  मजबूर होकर पढ़ने के लिए जाना पड़ता है।

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इतिहास में कभी विश्व के बड़े और प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र बिहार के नालंदा और राजगीर में ही स्थित थे, जहां दुनिया भर से लोग पढ़ने और ज्ञान अर्जित करने आते थे। लेकिन आज बिहार के बच्चे दर-दर की ठोकरें  खाने को मजबूर हैं। ऐसे में नीतीश भी खुद को नरेंद मोदी की ही तरह जुमलेबाजी कर बिहार का विकास पुरूष साबित कर रहे हैं।

क्यों बीमारू राज्य है बिहार

बिहार बीमारू राज्य है, ऐसा कहते हुए केंद्र सरकार से निधि बढ़ाने की लगातार मांग करते रहे हैं। अगर बिहार का चौतरफा विकास हुआ है, तब विकास के लिए निधि की मांग करने का क्या मतलब है? शायद मोदी जी की सोहबत के कारण नीतीश को भी फेंकने की बीमारी है। क्योंकि उन्हें बिहार में राज करते हुए 20 साल पूरे हो रहे हैं। लेकिन 20 वर्ष पहले जहां बिहार था, उससे भी पीछे पहुंचा दिया है।

मैंने 2019 सितंबर के महीने में, असम की यात्रा की थी। वहाँ मैंने डिब्रुगढ़, तेजपुर, शिवसागर के चाय बागानों में दौरा किया था। उन चाय बागानों में 50% से भी ज्यादा मजदूर बिहार के ही थे। यही हाल 2018 में कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में भी देखने को मिला। दिल्ली में तो लगता है कि बिहार यहाँ पर आकर बस गया है। एम्स में पेशंट से शुरू होकर रास्ते पर सामान बेचने वाले से लेकर रिक्शा व टैक्सी चलाने वालों के अलावा दिहाड़ी मजदूरों में बिहार के लोग ही मिलेंगे। और भी कमाल की बात यह कि दक्षिण भारत के सभी प्रदेशो में केरल के कितने लोग मिले? शायद ही कोई मिलेगा। भारत के हर हिस्से में बिहारी मजदूर बड़ी संख्या में मिलेंगे। क्या बिहार के विकास का यही पैमाना है?

2022 के सितम्बर माह में बरौनी से चलने वाली बागमती एक्सप्रेस, जो समस्तीपुर से मैसुरू जा रही थी। समस्तीपुर स्टेशन के प्लॅटफॉर्म पर खचाखच भीड़ थी, जहां पैर रखने के लिए भी जगह नहीं थी। गाड़ी आने के बाद उसमें घुसने के लिए युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई थी। मेरे अपने ही सामने वाली बर्थ की महिला जख्मी होकर बड़ी मुश्किल से अपनी बर्थ तक पहुंचने में सफल हुई। उस घायल महिला को नागपुर तक पहुंचते हुए रास्ते भर मैंने अपने पास रखी दवा दी। उतरने के पहले मैंने बची-खुची दवा उसे दे दी। बताने का मतलब यह है कि पूरी गाड़ी लगभग बिहार के मजदूरों से ही खचाखच भरी हुई थी और सभी मजदूर दक्षिण भारत के विभिन्न स्थानों पर मजदूरी करने जा रहे थे।

लॉकडाउन के समय पलायित मजदूरों की दुर्गति और भी ज्यादा स्पष्ट होकर सामने आई। लाखों मजदूर मई की चिलचिलाती 45 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान में सिर पर गृहस्थी का बोझा ढोते हुए नंगे पांव हजारों किलोमीटर चलकर वापस अपने गाँव आए। कोई भी संवेदनशील इंसान उन दिनों को याद कर सिहर जाए।

पूरे देश में लगभग चार करोड़ प्रवासी मजदूर हैं, उसमें से दो करोड़ मजदूर अकेले बिहार से हैं, जो कश्मीर की जनसंख्या के दुगुने हैं। आजादी के 76 वर्ष बाद भी ऐसी स्थिति में नैतिक रूप से जिस सुशासन, विकास और आत्मनिर्भरता की बात बिहार के मुखिया करते हैं, तो उन्हें यह बात करते हुए शर्म आनी चाहिए।

बिहार प्राकृतिक रूप से समृद्ध राज्य भी 

बिहार की प्राकृतिक स्थिति का आकलन किया जाए तो यहाँ  भारत के किसी भी प्रदेश से सबसे ज्यादा उपजाऊ भूमि है। यहाँ देश की प्रमुख और बड़ी नदियां बहती हैं, जिनमें साल भर पानी रहता है। ऐसे प्रदेश के मुख्यमंत्री जिन्हें आजादी के बाद से एक चौथाई से भी अधिक समय तक मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी मिली। लेकिन उन्होंने न तो अपने प्रदेश में उपलब्ध संसाधनों का उचित प्रबंधन किया और न ही जमीन के बंटवारे की कोई नीति ही तैयार की। जबकि जिस सोशलिस्ट पार्टी से इनकी राजनीति की शुरुआत हुई थी, उस पार्टी का मुख्य उद्देश्य ही था कि ‘जो जोतेगा जमीन उसकी होगी।‘

जबरन जोत के आन्दोलनों को आप भूल गए होंगे। जेपी, लोहिया, कर्पूरी ठाकुर बोल-बोलकर थक गये होंगे। एक नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने चुनाव में उनके नाम लेकर उनकी विचारधारा को भुनाने का काम किया लेकिन उनके सपनों को, बिहार के बारे में उनकी सोची बातों को कहाँ लाकर छोड़ दिया है।

बिहार के पास इतने संसाधन होते हुए भी नीतीश अदूरदर्शी बने रहे और सांप्रदायिक शक्तियों के हाथ का खिलौना बन गए। समता पार्टी से ही खेल की शुरुआत हुई बाद में जेडीयू के संस्थापक जॉर्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर, इस खेल के भागीदार बने।

जॉर्ज फर्नांडीज समता पार्टी के गठन के बाद मुझे महामंत्री पद की पेशकश की थी। उस समय ढाई-तीन घंटे से भी अधिक समय तक उनके दिल्ली स्थित, तीन मूर्ति लेन आवास पर था, जिस दिन जॉर्ज फर्नाडिज ने नीतीश कुमार और जया जेटली को मुंबई के महालक्ष्मी रेसकोर्स में हो रहे बीजेपी के महासम्मेलन में भेजा था।

इसी मुलाकात मे मैंने जॉर्ज साहब को साफ-साफ कहा था कि ‘आप उन भारतीय राजनीतिज्ञों में से एक हैं, जो कभी संघ परिवार के घोर आलोचक रहे थे। दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर फर्नांडीज साहब और मधु लिमये जी ने (1979-80) जनता पार्टी के विभाजन में ऐतिहासिक भुमिका निभाई थी। आज नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव के साथ ईर्ष्या के कारण अंधे हो गये हैं। सम्पूर्ण उत्तर भारत में संघ परिवार को राजनीतिक बढ़ावा देने के लिए मदद करने के लिए समता पार्टी का गठन कर रहे हैं। ऐसे में, मैं इस पार्टी का महामंत्री तो दूर, अगर आप अध्यक्ष पद भी देंगे तो भी मैं नहीं लेने वाला।‘

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जॉर्ज फर्नांडीज रहे हों या नीतीश कुमार सभी लालू प्रसाद यादव से ईर्ष्या करते रहे हैं। वर्तमान में सांप्रदायिक शक्तियों को पुष्ट करने के लिए हनुमान वाली भूमिका में हैं। यह लोग शुरू से ही नरेंद्र मोदी के समान संघ की शाखा से निकल कर आए स्वयंसेवक होते तो कोई बात नहीं थी लेकिन ये सोशलिस्ट स्कूल से आए हुए लोग हैं, जिसकी वजह से मुझे ज्यादा हैरानी हो रही है। इसलिये मुझे लगता है कि इतिहास इन्हें कभी माफ नहीं करेगा।

एनडीए की बात समझ में आने के बाद नीतीश ने कहा था कि कि ‘भले मैं राजनीति  से सन्यास ले लूंगा, मगर मैं अब सांप्रदायिक लोगों के साथ नहीं जाऊंगा।  22 जनवरी के बाद इनको कुछ नया इलहाम हुआ, जिस वजह से यह अपना संकल्प भूल गए। आज बीजेपी और जेडीयू अपना आत्मविश्वास खोकर विरोधी दलों के लोगों के व्यक्तिगत जीवन पर लगातार आरोप लगाते हुए खुद को दूध से धुला मान रहे हैं लेकिन असलियत सब जानते हैं।

नीतीश कुमार के बिहार के मुख्यमंत्री होने पर उनकी पार्टी के सिर्फ 45 विधायक ही थे। इसके उलट लालू प्रसाद यादव के आरजेडी के 79 विधायक होते भी उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के लिए समर्थन दिया। उस समय नीतीश को परिवारवाद दिखाई नहीं दिया। अभी 22 जनवरी के बाद उत्तर भारत में जिस तरह का उन्मादी माहौल, संघ और उसकी राजनीतिक इकाई भाजपा ने बनाया, उसे देखकर नीतीश बाबू को अब बिहार की राजनीति में परिवारवाद दिखाई देने लगा। अब नीतीश को संघ-भाजपा का फासिस्ट परिवार उस तुलना में ज्यादा जनतांत्रिक लगने लगा। इस जनतंत्र की व्याख्या उन्होंने अपने जीवन में कितनी बार बदली और मुख्यमंत्री बने? इस समय भी इनके कृत्य को देखते हुए सवाल उठना लाज़िम है इस आदमी ने सोशलिस्ट और सेक्युलरिज्म का कौन सा दर्शन पढ़ा है? बिल्कुल वैसे ही जैसे कि इनके वरिष्ठ नेता जॉर्ज फर्नांडीज ने अपने जीवन कि आखिरी पारी में एनडीए की गोद में जाकर खेलते हुए समाप्त की। हूबहू नीतीश कुमार भी उसे ही दोहरा रहे हैं। नीतीश कुमार सिर्फ पद लालसा के कारण ही बार-बार पाली बदल पलटूराम बन रहे हैं।

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