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ग्राउंड रिपोर्ट

संविधान दिवस : देश में संविधान की किताब तो है लेकिन लोग पढ़ नहीं रहे हैं

ऐसे समय में जबकि हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए चैम्पियन संविधान विरोधी मोदी भारत के संविधान की जगह मनु लॉ को स्थापित करने में सर्वशक्ति लगाते दिख रहे हैं। आंबेडकर के संविधान में आस्था रखने बुद्धिजीवियों/ एक्टिविस्टों के ऊपर संविधान के उद्देश्यों को सफल बनाने की विशेष जिम्मेवारी आन पड़ी है। यह जिम्मेवारी इसलिए और आन पड़ी है क्योंकि संविधान में गहरी आस्था जताने वाले खुद सामाजिक न्यायवादी दल तक मोदी सरकार की संविधान विरोधी साजिशों से आँखें मूंदे हुए हैं। बहरहाल संविधान समर्थक जागरूक लोग अगर संविधान के उद्देश्यों को सफल बनाना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले संविधान के उद्देश्यों की पूर्ति लायक एजेंडा तय करना पड़ेगा।

आज 26 नवम्बर है, संविधान दिवस। 1949 में आज ही के दिन बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्र को वह महान संविधान सौपा था, जिसकी उद्देशिका में भारत के लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुलभ कराने की घोषणा की थी। किन्तु संविधान सौंपने के एक दिन पूर्व अर्थात 25 नवम्बर, 1949 को उन्होंने इसे लेकर संसद के केन्द्रीय कक्ष से राष्ट्र को चेतावनी भी दिया था। उन्होंने कहा था- ’26 जनवरी, 1950 को हम राजनीतिक रूप से समान किन्तु आर्थिक और सामाजिक रूप से असमान होंगे। जितना शीघ्र हो सके हमें यह भेदभाव और पृथकता दूर कर लेना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो जो लोग इस भेदभाव के शिकार हैं, वे राजनीतिक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे, जिसे इस संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है।’ हमें यह स्वीकारने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि स्वाधीन भारत के शासकों ने डॉ.आंबेडकर की उस ऐतिहासिक चेतावनी की प्रायः पूरी तरह अनेदखी कर दिया, जिसके फलस्वरूप आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी, जोकि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है, का भीषणतम साम्राज्य आज भारत में कायम हो गया है। अल्पजन जन्मजात विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी तबके के धर्म के साथ अर्थ-ज्ञान और राज-सत्ता पर प्रायः  90 प्रतिशत कब्ज़ा हो गया है, जो इस बात का प्रमाण है कि संविधान अपने उद्देश्यों को पूरा करने में प्रायः पूरी व्यर्थ हो चुका है। यही कारण है आजकल वंचित वर्गों के असंख्य संगठन और नेता आरक्षण के साथ संविधान बचाने के लिए रैलियां निकाल रहे हैं, भूरि-भूरि सेमीनार आयोजित कर रहे हैं। आज के इस खास दिन संविधान बचाने के नाम पर पूरे देश में असंख्य सेमीनार आयोजित किये जाएंगे, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

संविधान में उल्लेखित तीन न्याय की क्यों हुई उपेक्षा

बहरहाल यह सवाल किसी को भी परेशान कर सकता है कि आजाद भारत के शासकों ने भयावह आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे तथा लोगों को तीन न्याय–सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक- सुलभ कराने के लिए प्रभावी कदम क्यों नहीं उठाया? इस सवाल का बेहतर जवाब खुद बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर ही दे गए हैं। उन्होंने कहा है, ’संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर इसका इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे होंगे तो यह बुरा साबित होगा। अगर संविधान बुरा है, पर उसका इस्तेमाल करने वाले अच्छे होंगे तो बुरा संविधान भी अच्छा साबित होगा।’ जिस  बेरहमी से अबतक आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की समस्या तथा तीन न्याय की उपेक्षा हुई है, हमें अब मान लेना चाहिए कि हमारे संविधान का इस्तेमाल करनेवाले लोग अच्छे लोगों में शुमार करने लायक नहीं रहे। अगर ऐसा नहीं होता तो वे आर्थिक और सामाजिक विषमता से देश को उबारने तथा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय सुलभ करने के लिए संविधान में उपलब्ध प्रावधानों का सम्यक इस्तेमाल करते, जो नहीं हुआ। इस लिहाज से पंडित जवाहर लाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, ज्योति बासु, जय प्रकाश नारायण इत्यादि जैसे राजनीति के सुपर स्टारों तक की भूमिका भी प्रश्नातीत नहीं रही।

 संविधान को लागू करने वाले नहीं हो सके अच्छे लोगों में शुमार

आखिर क्यों नहीं आजाद भारत के शासक अच्छे लोग साबित हो सके, यह सवाल भी लोगों को परेशान कर सकता है। इसका जवाब यह है- ‘चूंकि सारी दुनिया में ही आर्थिक और सामाजिक विषमता की उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक- शैक्षिक- धार्मिक) के लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से ही होती रही है और इसके खात्मे का उत्तम उपाय सिर्फ लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक का वाजिब बंटवारा है, इसलिए आजाद भारत के शासक, जो हजारों साल के विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न वर्ग से रहे, समग्र–वर्ग की चेतना से दरिद्र होने के कारण इसके खात्मे की दिशा में आगे नहीं बढ़े। क्योंकि इसके लिए उन्हें विविधतामय भारत के विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा कराना पड़ता और ऐसा करने पर उनका वर्गीय-हित विघ्नित होता, अतः वे स्व-वर्णीय हित के हाथों विवश होकर डॉ.आंबेडकर की अतिमूल्यवान चेतावनी तथा संविधान के उद्देश्यिका की अनदेखी कर गए और विषमता के खात्मे तथा तीन न्याय सुलभ करने के लायक ठोस नीतियां बनाने की बजाय गरीबी हटाओ, लोकतंत्र बचाओ, राम मंदिर बनाओ, भ्रष्टाचार मिटाओ इत्यादि जैसे लोक लुभावन नारों के जरिये सत्ता अख्तियार करते रहे हैं। उधर बाबा साहेब की सतर्कतावाणी की अवहेलना के फलस्वरूप गणतंत्र के विस्फोटित होने का सामान धीरे-धीरे तैयार होता रहा। आज पौने दो सौ जिलों तक नक्सलवाद का विस्तार, सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली,  लैंगिक समानता के मोर्चे पर हमारा बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान जैसे पिछड़े राष्ट्रों से पीछे रहना, तेज विकास के दौर में 84 करोड़ से अधिक लोगों का 20-25 रूपये रोजाना पर गुजर-बसर और कुछ नहीं, बारूद के वे ढेर हैं जिसे अगर सम्यक तरीके से निष्क्रिय नहीं किया गया तो निकट भविष्य में हमारे लोकतंत्र का विस्फोटित होना तय है। बहरहाल यहां लाख टके का सवाल पैदा होता है, जब संविधान के सदुपयोग के लिहाज से आजाद भारत के पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंह राव, वाजपेयी इत्यादि जैसे शासक अच्छे लोगों में उत्तीर्ण होने में विफल रहे तो वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी को किस श्रेणी में रखा जाय? क्योंकि वे संविधान और आंबेडकर-प्रेम के मामले में बहुत आगे निकल चुके हैं।

प्रधानमंत्री मोदी किस श्रेणी के शासक 

जहां तक संविधान के प्रति श्रद्धा का सवाल है, इस मामले में 26 नवम्बर, 2015 एक खास दिन बन चुका है। उस दिन मोदी ने बाबा साहेब डॉ.भीमराव आंबेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष को स्मरणीय बनाने के लिए 26 नवम्बर को ‘संविधान दिवस’ घोषित करने के बाद 27  नवम्बर को लोकसभा में राष्ट्र के समक्ष एक मार्मिक अपील करते हुए कहा था –’26 नवम्बर इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इसे उजागर करने के पीछे 26 जनवरी को नीचा दिखाने का प्रयास नहीं है। 26 जनवरी की जो ताकत है, वह 26 नवम्बर में निहित है, यह उजागर करने की आवश्यकता है। भारत जैसा देश जो विविधताओं से भरा हुआ देश है, हम सबको बांधने की ताकत संविधान में है, हम सबको बढ़ाने की ताकत संविधान में है और इसलिए समय की मांग है कि हम संविधान की सैंक्टिटी, संविधान की शक्ति और संविधान में निहित बातों से जन-जन को परिचित कराने का एक निरंतर प्रयास करें। हमें इस प्रक्रिया को एक पूरे रिलीजियस भाव से, एक पूरे समर्पित भाव से करना चाहिये. बाबा साहेब आंबेडकर की 125 वीं जयंती जब देश मना रहा है तो उसके कारण संसद के साथ जोड़कर इस कार्यक्रम(संविधान दिवस ) की रचना हुई। लेकिन भविष्य में इसको लोकसभा तक सीमित नहीं रखना है। इसको जन-सभा तक ले जाना है। इस पर व्यापक रूप से सेमिनार हो, डिबेट हो, कम्पटीशन हो, हर पीढ़ी के लोग संविधान के संबंध में सोचें, समझें और चर्चा करें। इस संबंध में एक निरंतर मंथन चलते रहना चाहिए और इसलिए एक छोटे से प्रयास का आरंभ हो रहा है।’

मोदी : आरक्षण के प्रति कितने श्रद्धाशील

इतना ही नहीं उस अवसर पर संविधान निर्माण में डॉ.आंबेडकर की भूमिका की प्रशंसा करते हुए उन्होंने यहां तक कह डाला था -‘अगर बाबा साहब आंबेडकर ने इस आरक्षण की व्यवस्था को बल नहीं दिया होता, तो कोई बताये कि मेरे दलित, पीड़ित, शोषित समाज की हालत क्या होती? परमात्मा ने उसे वह सब दिया है, जो मुझे और आपको दिया है, लेकिन उसे अवसर नहीं मिला और उसके कारण उसकी दुर्दशा है। उन्हें अवसर देना हमारा दायित्व बनता है- ‘उनके उस भावुक आह्वान को देखते हुए ढेरों लोग उम्मीद कर रहे थे कि वे आने वाले वर्षों  में कुछ ऐसे ठोस विधाई एजेंडे  पेश करेंगे जिससे संविधान के उद्देश्यिका की अबतक हुयी उपेक्षा की भरपाई होगी: समता तथा सामाजिक न्याय के  डॉ.आंबेडकर की संकल्पना को आगे बढाने में मदद मिलेगी। किन्तु जिस तरह सत्ता में आने के पहले प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15 लाख रूपये जमा कराने का उनका वादा जुमला साबित हुआ, उसी तरह उनका डॉ.आंबेडकर और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता दिखाना भी जुमला साबित हुआ। उनके कार्यकाल में 1 प्रतिशत टॉप के आबादी की जो दौलत सन 2000 में 37 प्रतिशत बढ़कर 2016 में 58.5 प्रतिशत तक पहुंची थी, वह सिर्फ एक साल, 2017 में 73 प्रतिशत पहुँच गयी। आज टॉप की 10 प्रतिशत आबादी का 90 प्रतिशत से ज्यादा धन-दौलत पर कब्ज़ा हो चुका है, जो सरकारी नौकरियां अरक्षित वर्गों, विशेषकर दलितों के बचे रहने का एकमात्र स्रोत हैं, वह ख़त्म हो चुकी है, इसका खुलासा खुद मोदी सरकार के वरिष्ठ  मंत्री नितिन गडकरी  5 अगस्त, 2018 को ही कर दिया था। उन्होंने उस दिन कहा था कि सरकारी नौकरियां ख़त्म हो चुकी हैं, इसलिए अब आरक्षण का कोई अर्थ नहीं रह गया है। दरअसल 2015 में संविधान दिवस की घोषणा के बाद से मोदी के अब तक क्रियाकलापों का सिंहावलोकन करने पर स्पष्ट नजर आता है कि उन्होंने न सिर्फ आंबेडकर के लोगों, बल्कि वर्ण –व्यवस्था के सम्पूर्ण जन्मजात वंचितों को वर्ग शत्रु के रूप में ट्रीट करते हुए, उन्हें फिनिश करने मे ही राजसत्ता का इस्तेमाल किया है. इसे समझने के लिए वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्तकार कार्ल मार्क्स के नजरिये से इतिहास का सिंहावलोकन  कर लेना होगा।

भारत का आरक्षित वर्ग मोदी की नज़रों में वर्ग शत्रु

वर्ग संघर्ष के सूत्रकार मार्क्स ने कहा है ‘अब तक का विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है और दूसरा वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है. पहला वर्ग सदैव ही दूसरे का शोषण करता रहा है। मार्क्स के अनुसार समाज के शोषक और शोषित : ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता.’ जहां तक भारत में वर्ग संघर्ष का प्रश्न है, यह वर्ण-व्यवस्था रूपी आरक्षण – व्यवस्था में क्रियाशील रहा, जिसमें 7 अगस्त,1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही एक नया मोड़ आ गया. क्योंकि इससे सदियों से शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार जमाये विशेषाधिकारयुक्त तबकों का वर्चस्व टूटने की स्थिति पैदा हो गयी. मंडल ने जहां सुविधाभोगी सवर्णों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित कर दिया, वहीँ इससे दलित,आदिवासी, पिछड़ों की जाति चेतना का ऐसा लम्बवत विकास हुआ कि सुविधाभोगी वर्ग राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हो गए। कुल मिला कर मंडल से एक ऐसी स्थिति का उद्भव हुआ जिससे वंचित वर्गों की स्थिति अभूतपूर्व रूप से बेहतर होने की सम्भावना उजागर हो गयी और ऐसा होते ही सुविधाभोगी वर्ग के बुद्धिजीवी,मीडिया, साधु – संत, छात्र और उनके अभिभावक तथा राजनीतिक दल अपना कर्तव्य स्थिर कर लिए।

मंडल से त्रस्त सुविधाभोगी  समाज भाग्यवान था जो उसे जल्द ही ‘नवउदारीकरण’ का हथियार मिल गया, जिसे 24 जुलाई,1991 को नरसिंह राव ने सोत्साह वरण कर लिया। इसी नवउदारवादी अर्थिनीति को हथियार बनाकर नरसिंह राव ने मंडल उत्तरकाल में हजारों साल के सुविधाभोगी वर्ग के वर्चस्व को नए सिरे से स्थापित करने की बुनियाद रखी, जिस पर महल खड़ा करने की जिम्मेवारी परवर्तीकाल में अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ.मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी पर आई। नरसिंह राव के बाद सुविधाभोगी वर्ग को बेहतर हालात में ले जाने की जिम्मेवारी जिन पर आई, उनमें डॉ. मनमोहन सिंह अ-हिन्दू होने के कारण वंचित  वर्ग के प्रति कुछ सह्रदय रहे, इसलिए उनके राज में उच्च शिक्षा में ओबीसी को आरक्षण मिलने के साथ बहुजनों को उद्यमिता के क्षेत्र में भी कुछ बढ़ावा मिला। किन्तु अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी हिन्दू होने के साथ उस संघ से प्रशिक्षित पीएम रहे, जिसका एकमेव लक्ष्य ब्राह्मणों के नेतृत्व में सिर्फ सवर्णों का हित-पोषण रहा है। अतः संघ प्रशिक्षित इन दोनों प्रधानमंत्रियों ने सवर्ण वर्चस्व को स्थापित करने में देश-हित तक की बलि चढ़ा दी, बहरहाल मंडलोत्तर भारत में सवर्णों का वर्चस्व स्थापित करने की दिशा में कांग्रेसी नरसिंह राव और डॉ. मनमोहन सिंह तथा संघी वाजपेयी ने जितना काम बीस सालों में किया, उतना मोदी ने विगत साढ़े सात  सालों में कर दिखाया है।

बहुसंख्य लोगों की खुशियाँ छीनने के लिए मोदी की रणनीति 

विगत साढ़े सात वर्षों में आरक्षण के खात्मे तथा बहुसंख्य लोगों की खुशिया छीनने की रणनीति के तहत ही मोदी राज में श्रम कानूनों को निरंतर कमजोर करने के साथ ही नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा देकर, शक्तिहीन बहुजनों को शोषण-वंचना के दलदल में फंसानें का काम जोर-शोर से हुआ। बहुसंख्य वंचित वर्ग को आरक्षण से महरूम करने के लिए ही एयर इंडिया, रेलवे स्टेशनों और हास्पिटलों इत्यादि को निजीक्षेत्र में देने की शुरुआत हुई। आरक्षण के खात्मे की योजना के तहत ही सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100 प्रतिशत एफडीआई की मजूरी दी गयी। आरक्षित वर्ग के लोगों को बदहाल बनाने के लिए ही 62 यूनिवर्सिटियों को स्वायतता प्रदान करने के साथ–साथ ऐसी व्यवस्था कर दी गयी जिससे कि आरक्षित वर्ग, खासकर एससी/एसटी के लोगों का विश्वविद्यालयों में शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाना एक सपना बन गया। कुल मिलाकर जो सरकारी नौकरियां वंचित वर्गों के धनार्जन का प्रधान आधार थीं, प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के पहले कार्यकाल में उसके स्रोत आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने का काम लगभग पूरा कर लिया गया. लेकिन मोदी अपने पहले कार्यकाल में वर्ग शत्रुओं को पूरी तरह पंगु बनाने के बावजूद संतुष्ट नहीं हुए।

 मई 2019 में सत्ता में वापसी के बाद वे जन्मजात  शत्रु वर्ग को पूरी तरह फिनिश तथा संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने में और जोर-शोर से मुस्तैद हो गए तथा  विनिवेशीकरण की दिशा में बड़े से बड़े कदम उठाने लगे।  इस क्रम में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने फ़रवरी 2021 में बजट पेश करते समय बीपीसीएल, एयर इंडिया, शिपिंग कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया, कंटेनर कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया, पवन हंस, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड इत्यादि कई कंपनियों के विनिवेश के जरिये 1. 75 लाख रूपये कमाने की घोषणा कर समग्र राष्ट्र को तो चौंकाया ही, खुद स्वदेशी जागरण मंच तक को विनिवेश का विरोध करने के लिए मजबूर कर दिया।

 संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने वाले चैम्पियन 

जाहिर है मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों के कारण ही आरक्षण लगभग कागजों की शोभा बनकर रह गया है। आज उनकी सवर्णपरस्त नीतियों के चलते भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का अर्थ-सत्ता, राज सत्ता, ज्ञान-सत्ता पर भी 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा हो चुका। ऐसे में अल्पजन सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों पर औसतन 90 प्रतिशत से ज्यादे कब्जे के फलस्वरूप संविधान की उद्देश्यिका में वर्णित तीन न्याय- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक- पूरी तरह सपना बन चुका है, जो इस बात संकेतक है कि संविधान अपने मूल उद्देश्य में प्रायः पूरी तरह विफल हो चुका है. और आज की तारीख में इस विफलता में मोदी की भूमिका का आंकलन करते हुए यह खुली घोषणा की जा सकती है कि संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने वालों में प्रधानमंत्री मोदी चैम्पियन शासक हैं और वह जिस तेजी के साथ अपने पितृ संगठन संघ के हिन्दू राष्ट्र के सपनों को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, उससे निकट भविष्य में मनु लॉ(कानून) के आंबेडकर के संविधान की जगह लेने के लक्षण उजागर होने लगे हैं।

संविधान के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जरुरी है विशेष प्रयास

बहरहाल एक ऐसे समय में जबकि हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए चैम्पियन संविधान विरोधी मोदी भारत के संविधान की जगह मनु लॉ को स्थापित करने में सर्वशक्ति लगाते दिख रहे हैं। आंबेडकर के संविधान में आस्था रखने बुद्धिजीवियों/ एक्टिविस्टों के ऊपर संविधान के उद्देश्यों को सफल बनाने की विशेष जिम्मेवारी आन पड़ी है। यह जिम्मेवारी इसलिए और आन पड़ी है क्योंकि संविधान में गहरी आस्था जताने वाले खुद सामाजिक न्यायवादी दल तक मोदी सरकार की संविधान विरोधी साजिशों से आँखें मूंदे हुए हैं। बहरहाल संविधान समर्थक जागरूक लोग अगर संविधान के उद्देश्यों को सफल बनाना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले संविधान के उद्देश्यों की पूर्ति लायक निर्भूल एजेंडा तय करना पड़ेगा। उसके बाद उस एजेंडे को लागू करवाने का जतन करना पड़ेगा। इस काम में बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का दस सूत्रीय अजेंडा काफी कारगर साबित हो सकता है।

बहुजन डाइवर्सिटी मिशन (बीडीएम )वंचित वर्गों के लेखकों का संगठन है,जिसकी गतिविधियाँ पूरी तरह आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे पर केन्द्रित हैं. यह संगठन मानता है कि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक और सामाजिक विषमता है, जिसकी उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों(आर्थिक- राजनैतिक–शैक्षिक–धार्मिक) सामाजिक और लैंगिक विविधता के असमान प्रतिबिम्बन अर्थात शक्ति के स्रोतों के विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से होती है। ऐसा मानते हुए यह संगठन आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए भारत के प्रमुख सामाजिक समूहों-सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के  स्त्री और पुरुषों के मध्य निम्न क्षेत्रों में संख्यानुपात में बंटवारे का अभियान चला रहा है।

1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार नौकरियों; 2- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जाने वाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जाने वाली खरीदारी; 4 – सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन; 5 – सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकी-व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों के संचालन, प्रवेश व अध्यापन; 6 – सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जाने वाली धनराशि; 7- देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं(एनजीओ ) को दी जाने वाली धनराशि; 8 – प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एवं फिल्म के सभी प्रभागों;9 – रेल-राष्ट्रीय राजमार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की जमीन व्यवसायिक इस्तेमाल के लिए एससी/एसटी के मध्य वितरित हो तथा पौरोहित्य एवं 10- ग्राम पंचायत, शहरी निकाय, सांसद-विधानसभा, राज्यसभा की सीटों एवं केंद्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों, राष्ट्रपति-राज्यपाल, प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल में —अगर भारत के विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय सुलभ कराना ही हमारे संविधान का प्रधान उद्देश्य है तो इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन से बेहतर कोई उपाय ही नहीं हो सकता।

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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