आज पूरी दुनिया पूंजीवाद के पीछे भागने की स्पर्धा में शामिल है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस स्पर्धा में पूरी दुनिया में समाजवाद के मार्गदर्शक बने रूस और चीन भी शामिल हैं। ये दोनों देश अपने ही देश में मजदूरों का भयंकर शोषण कर घोषित पूंजीवादी देशों को मात दे रहे हैं। जबकि आज से 107 वर्ष पहले रूस में और 76 वर्ष पहले चीन में किसान-मजदूरों की मदद से समाजवादी क्रांति हुई थी। लेकिन दोनों देशों की जो स्थिति आज है, उसे देखकर यकीन कर पाना मुश्किल है कि यहाँ कभी समाजवादी क्रांति हुई थी।
मेरी व्यक्तिगत लाइब्रेरी में बहुत सी पुरानी किताबें हैं, जिन्हें मैंने पन्द्रह वर्ष कोलकाता में रहने के दौरान कॉलेज स्ट्रीट के फुटपाथ और बुक फेयर से खरीदी थी। इनमें कुछ किताबें आज तक पढ़ी नहीं गई, फ़िलहाल मैडम खैरनार की तबीयत ठीक नहीं होने के कारण ज्यादा समय घर पर रहना हो रहा है, इस वजह से मिलने वाले समय में अपनी निजी लाइब्रेरी से पढने के लिए कुछ खोजते हुए मुझे मलियाली लेखक एनई बालाराम की 100 पेज से कम की किताब ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ पढ़ते हुए मुझे कुछ लिखने की प्रेरणा मिली।
1912 में स्वदेशाभिमानी रामकृष्ण पिल्लई ने कार्ल मार्क्स की जीवनी लिखी थी। लेकिन तब तक भारत में मार्क्सवाद को लेकर कोई राजनैतिक हलचल नहीं थी। वर्ष 1921 में यंग नैशनलिस्ट और मजदूरों के बीच काम करने वाले मुजफ्फर अहमद कलकत्ता, मुम्बई में एसए डांगे, लाहौर में गुलाम हुसैन कुछ प्रयास कर रहे थे। वे कुछ पत्रिकाएं भी निकाल रहे थे। कलकत्ता से नवयुग, मुम्बई से सोशलिस्ट और लाहौर से इन्क़लाब।
1921 में ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ बँगला और मराठी में छप चुका था। 1923 में मद्रास के अलावा विदेशों में भी कुछ प्रयास हुआ। अफगानिस्तान, जर्मनी और रूस में में एम. एन. रॉय भी लगे हुए थे। 1911 से सात-आठ वर्ष तक भारत के औद्योगिक शहरों- मुख्यतः मुम्बई, कलकत्ता, कानपुर, अहमदाबाद, मद्रास के मजदूरों में अच्छी-खासी साख बनने के बाद, लगभग सवा लाख मजदूरों ने हड़तालों में भाग लिया। इसी तरह 1920-1921 में जमशेदपुर के इस्पात कारख़ाने, जबलपुर में रेलवे, अहमदाबाद के कपडे के कारखाने में हड़ताल हुई। इसके परिणामस्वरूप 1920 में अखिल भारतीय मजदूर कॉंग्रेस (AITUC) का जन्म हुआ। यानी भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के पांच साल पहले कम्युनिस्ट मजदूरों के संगठन का जन्म हो चुका था।
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1919 में रौलेट ऐक्ट के खिलाफ जो प्रतिवाद हुआ, उसी के जवाब में जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ, उसी समय खिलाफत आंदोलन, किसानों के आंदोलन परवान पर थे। 1922 के बारदोली कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की फरवरी बैठक में अचानक गाँधी जी की सलाह पर चौरीचौरा काण्ड के कारण सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करने का एलान कर दिया गया। तब मोतीलाल नेहरु, सीआर दास, लाला लाजपत राय और जवाहरलाल नेहरु ने भी गाँधी जी के निर्णय की आलोचना की थी। इसी परिप्रेक्ष्य में कम्युनिस्ट ग्रुप के वजूद में आने की प्रक्रिया तेज हो गई। वैसे 1913 में ‘गदर पार्टी’ बन चुकी थी, बंगाल क्राँतिकारी पार्टी भी। इन सब गुटों के बीच मुजफ्फर अहमद और प्रमुखतः एम. एन. रॉय इस दिशा में सक्रिय थे। हालांकि श्री रॉय, जो 1924 से कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की एक्जिक्यूटिव के सद्स्य थे, को 1929 में उससे निष्कासित कर दिया गया था। 1924 मे कानपुर षड्यंत्र केस में कई कम्युनिस्ट नेताओं को पकड़ा गया। उनमें डांगे, मुजफ्फर अहमद और अन्य साथियों को जेल भेज दिया गया। इस कारण पार्टी के वजूद में आना, थोड़े समय के लिए टल गया। लेकिन साल भर के भीतर ही 1925 के दिसंबर महीने में कानपुर में एक सम्मलेन में पार्टी के गठन का एलान कर दिया गया। जनवरी 1926 से पार्टी ने कार्य करना शुरु कर दिया। इसमें एस. वी. घटाटे, मुजफ्फर अहमद, सिंगरवेलू चेट्टियार, हजरत मोहानी, जानकी प्रसाद, निमकर और जोगलेकर पार्टी के पहले सेक्रेटरी एस. वी घटाटे 1929 तक रहे। यह है भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी का संक्षिप्त इतिहास रहा है।
लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की पहले युद्ध का पक्ष लेने और फिर तुरंत युद्ध के विरुद्ध निर्णय लेने तथा इसमें फंसने की भूमिका से कम्युनिस्टों की साख को गहरी ठेस पहुंची। वही जाल, 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ जाने का निर्णय। इस भारत विरोधी टैग को हटाने के लिए कुछ शुरुआत की गई। लेकिन 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया तो कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन को मुक्तिदाता बता कर इतिहास की सबसे बड़ी गलती की। इसी कारण पार्टी में टूट भी हो गयी, लेकिन जो नुकसान होना था हो गया। वे जनता के बीच बनी राष्ट्रविरोधी पार्टी की छवि को सुधार नहीं सके। उसके बाद अभी 15 साल भी नहीं बीते थे कि 1974 में कम्युनिस्ट पार्टी के एक धड़े (भाकपा) ने जेपी आंदोलन को सीआईए की साजिश बता दिया, और न सिर्फ उससे दूर रहे थे बल्कि उस दौरान में पूरे देश में उस आंदोलन के खिलाफ प्रोपेगेंडा फैलाने में अहम भूमिका निभाई थी।
कोई शक नहीं कि कम्युनिस्ट पार्टी के आम कार्यकर्ता जमीन से हद कर काम करते हैं, गरीबों के हक की लड़ाई लड़ते हैं, उनके त्याग और तपस्या के बावजूद बंगाल, केरल और त्रिपुरा को छोड़ कर शेष भारत में लोगों के बीच उनकी कोई खास राजनीतिक पहचान नहीं है और अब उन्हें बंगाल और त्रिपुरा में भी हार का सामना करना पड़ा है।
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सवाल है कि केरल कब तक रहेगा? यह भी विचारणीय है कि 1925 में जन्मा आरएसएस आज कहां है? और भारत के सर्वहारा वर्ग, सामाजिक रूप से शोषित, पीड़ित, किसान और मजदूरों के लिए लगातार काम करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों को आज ऐसा दिन क्यों देखना पड़ रहा है?
1925 के बाद इन तीन गलतियों का खामियाजा उनको आज भी भुगतना पड़ रहा है। इससे सबक लेकर इन लोगों ने आगे बढ़ने की शुरुआत की थी। इसीलिए 1977 में पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने का मौका भी मिला। ‘ऑपरेशन बर्गा’ के माध्यम से जमीन का वितरण कर जनता के बीच पैठ बनायी, 35 साल लगातार राज किया। लेकिन नंदीग्राम और सिंगुर जैसे जनविरोधी प्रोजेक्ट थोपने की कोशिश में सत्ता से बाहर होना पड़ा, वाम मोर्चा सरकार की यह बहुत बड़ी भूल साबित हुई। भूल करने और उससे कुछ भी नहीं सीखने की बीमारी से पीड़ित पार्टी दोबारा इस देश में कब उभरती है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
यह सब लिख कर मेरा किसी का अपमान करना या मन दुखाने का बिलकुल इरादा नहीं है। फिर भी किसी साथी को ऐसा लगा होगा तो माफी कर दें, क्योंकि वर्तमान समय में हमारी सबसे बड़ी जरूरत सांम्प्रदायिक शक्तियों को परास्त करने के लिए गोलबंद होने की है, न कि एक दूसरे को नीचा दिखाने की।
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