Saturday, July 27, 2024
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रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एकदिन

सागर साहब हमेशा याद आते हैं। इस बार मुंबई में होने के बावजूद उनसे मिल नहीं सका था क्योंकि वे अपने दफ्तर आ नहीं रहे थे और कई बार सोचकर भी उनके घर सायन जा नहीं सका। फिर एक दिन उनके न रहने की खबर मिली । अन्त्येष्टि में भी जाना संभव नहीं था क्योंकि […]

सागर साहब हमेशा याद आते हैं। इस बार मुंबई में होने के बावजूद उनसे मिल नहीं सका था क्योंकि वे अपने दफ्तर आ नहीं रहे थे और कई बार सोचकर भी उनके घर सायन जा नहीं सका। फिर एक दिन उनके न रहने की खबर मिली । अन्त्येष्टि में भी जाना संभव नहीं था क्योंकि ट्रेन में बारह बजे के बाद ही जा सकते थे। और तब तक वे पंचतत्व में विलीन हो चुके थे। निजी रूप से मेरे लिए यह बहुत दुखद खबर थी क्योंकि तीन साल लगातार हमारा मिलना-जुलना होता रहा । बहस-मुबाहसे चलते और नई फिल्मों, खासकर बाज़ार टू को लेकर योजनाएँ बनती रहतीं अलबत्ता यह कभी साकार नहीं हुआ । ऐसे ही बरसों से डिब्बे में पड़ी उनकी फिल्म चौसर के बिकने और फिर बिकते-बिकते रह जाने की बात भी होती । सागर साहब अपने ढंग के व्यक्ति थे । उनमें कुछ जुनून और खब्त भी था तो कुछ सहज-महज बेवकूफ़ियाँ भी । इसके बावजूद उनके अरमान ज़िंदा थे कि भविष्य में कुछ बेहतर कर गुजरेंगे। लेकिन वे वस्तुतः बहुत संवेदनशील और यारबास इंसान थे। उनके यहाँ स्ट्रगलरों का भारी जमावड़ा लगा रहता। चाय बनती, बिस्कुट के पैकेट खुलते , कभी-कभी बड़ा पाव या समोसे भी मंगाए जाते । मुंबई में एकमात्र उनका ही दफ्तर था जहां हर स्ट्रगलर अपना ठीहा समझकर घंटों जमा रहता। सागर साहब सबके प्रिय थे । वे ऐसे इंसान थे कि किसी के चेहरे पर तनाव और मुरझाव देखकर पूछ लेते कि क्या बात है । खाना खाये हो? भूखा होने पर वे उसके लिए खाना मंगाते। जिसके पास लौटने का किराया न होता वह बिना संकोच सागर साहब की जेब निहार सकता था।

सागर सरहदी के साथ रामजी यादव

एक बार मैंने उनसे पूछा कि आप इतना जमावड़ा क्यों लगाए रहते हैं ? इन लड़कों की समस्याएँ तो आप दूर कर नहीं सकते। वे बोले समस्या उनकी नहीं मेरी है। उनके आ जाने से मेरा अकेलापन कट जाता है। अकेलापन उनके जीवन का सच था। एक बार तो उन्हें सायन वाले घर में ही डर  लगने लगा तो वे अपने ऑफिस में रहने लगे। एक लड़के को अपने साथ रोक लिया। कई हफ्ते बाद वे घर जाने लगे। एक बार मैंने पूछा कि आपने शादी क्यों नहीं की तो उन्होंने बड़े ही मजाकिए स्वर में कहा कि रिफ़्यूजियों को लोटा लेकर दूर मैदान में दिशा-फरागत के लिए जाना पड़ता था। जब मेरे बाप ने शादी पर ज़ोर डाला तो मैंने कहा कि क्या आप मेरी तरह मेरी बीवी को भी लोटा लेकर जाने पर मजबूर करना चाहते हैं ? चाहे जो हो,  लेकिन एक बार उन्होंने यह भी कहा कि जो बातें मैं अपनी बीवी से करता वह सब मैंने संवादों में लिख दिया। बातों की कमी पूरी हो गई ।

दो हज़ार ग्यारह में जब मैं पहली बार मुंबई में गया तो युवा रंगकर्मी अमर यादव ने उनका ज़िक्र किया और बताया यहीं अंधेरी में उनका ऑफिस है। चलना हो तो चलिये। अमर ने उनके दिलचस्प किस्से बताए कि वे लोगों को अक्सर गालियाँ दे देते हैं। कई मशहूर और तुर्रम खाँ लोगों को भी नहीं बख्शा। फिर भी कम लोग उनकी बात का बुरा मानते हैं। लेकिन मुझे अगले ही दिन दिल्ली लौटना था इसलिए मुलाक़ात नहीं हुई। एक विज्ञापन कंपनी में काम करते हुये मैं ठीक एक बजे अंधेरी स्टेशन से बस पकड़ता था। बस स्टैंड पर लाइन में एक बुजुर्गवार भी खड़े होते थे और सबसे आगे की इकलौती सीट पर जाकर बैठ जाते थे। उनको देखकर लगता कि ये कोई खास व्यक्ति हैं। एक बजे वाली बस का ड्राइवर किसी और को उस सीट पर बैठने पर उठा देता था। और उस पर वही बुजुर्गवार जाकर बैठ जाते और लक्ष्मी इंडस्ट्रियल एस्टेट के स्टॉप पर उतर जाते। यह छः-सात महीने मैं देखता रहा। फिर नौकरी छूटी और क्रम टूट गया। एक दिन मनोज कृष्ण ने कहा भाई साहब चलिये सागर साहब के यहाँ चला जाय। वहाँ जाने पर पाया कि बस से आने वाले बुजुर्गवार दरअसल सागर साहब थे। यह आश्चर्यजनक था कि इतना बड़ा फ़िल्मकार बस से आता-जाता था। बहुत बाद में, उनसे मिलने के बाद मुझे लगा कि आमतौर पर शेख़ी बघारने के लिए वे उन लोगों को गालियां दे दिया करते हैं जो अपने को उनसे बड़ा दिखाने की कोशिश करते थे या अधिक स्मार्ट बनते थे।

लेकिन सागर साहब घनघोर अध्येता थे और जिसकी रुचि किताबों में होती उसे कभी गाली नहीं देते बल्कि जी भर किताबों और दूसरे मुद्दे पर बतियाते। उनकी रुचि मार्क्सवाद में बहुत गहरी थी और नक्सल आंदोलन को लेकर भी वे बातें करते थे। वरवर राव और आनंद स्वरूप वर्मा के मुरीद थे। मुझसे कई बार उन्होंने वर्मा जी की पत्रिका ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के लिए अपना आर्थिक सहयोग न दे पाने का अफसोस किया। वे यह भी चाहते थे कि मुंबई के मित्रों से दो-तीन लाख रुपए इकट्ठा करके वर्मा जी को भिजवाया जाय।

एक बार इतवार को उन्होंने मुझे सायन आने को कहा। वहाँ खाने-पीने की दावत थी। बाद में रितेश पाण्डेय और कई अन्य लोग भी आ गए। मैं यह देखकर आश्चर्य से भर गया कि उनका एक पूरा कमरा नीचे से ऊपर तक किताबों से भरा पड़ा है । एक से एक दुर्लभ किताबें । हिन्दी , अंग्रेजी , पंजाबी और उर्दू की । उन्होंने कहा यार रामजी ये किताबें कूड़े में ही चली जाएंगी मेरे बाद। किसको गरज पड़ी है कि पढ़े। तुमको जो चाहिए ले लो। हो सके तो सब उठा ले जाओ। मैं जानता हूँ कि तुम इनमें दिलचस्पी रखते हो। इतना सुनते ही मैंने खाने-पीने से ज्यादा तरजीह किताबों को दिया और लगभग सौ किताबों का एक बंडल घर ले आया। लेकिन मेरे घर में पहले से दो आलमारी किताबें थीं। अब और की जगह नहीं थी। इसलिए बाकी सब नहीं आ सकीं । अब रमेश तलवार साहब जो करें।

[bs-quote quote=”आदमी कंजूमर हो गया और सभी को बिना टैलेंट के सक्सेस चाहिए। अब फ़िल्में ख़राब बन रही है। प्रिंट मिडिया में भी संकट हैं और रोज छपने के लिए वे नंगी लड़कियां कहाँ से लायें। उनका संकट यह है कि पहले तो उन्होंने खूब नंगी-नंगी तस्वीरें छाप कर लोगों का टेस्ट बिगाड़ा और अपनी बिक्री बढ़ाई लेकिन अब जब सीधे-सीधे पोर्न सुलभ हो गया तो लोगों का टेस्ट बदल गया और उनकी बिक्री पर भी असर पड़ा। अब वे और नंगी लड़कियों की तस्वीरें कहाँ से लायें ! टी वी भी वही कर रहा है। जनता के लिए काम करने लिए टीवी का तो सवाल ही नहीं। एक फ़्रांसिसी विद्वान ने कहा कि टी वी पूरे ज़माने को बरबाद कर देगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

सागर सरहदी हिन्दी सिनेमा के बहुत बड़े नाम हैं लेकिन वे निरे फिल्मी व्यक्ति नहीं थे। इंसानी रूप में उन्हें हजारों लोग जानते हैं। वे प्रसिद्ध रंगकर्मी थे और जब तक पौरुख चला तब तक कुछ नया करने की उनमें बेचैनी थी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे अपने देश के हालात से गाफ़िल नहीं थे। उस पर सोचते-विचारते थे। बोलते थे और राजनीतिक रूप से कतई उदासीन नहीं थे।

उन पर एक किताब लिखवाने की मेरी इच्छा थी और मुंबई में कुमार विजय को यह दायित्व दिया भी था लेकिन लॉकडाउन ने बहुत सी चीजों को असंभव बना डाला। एक बार देश के वर्तमान हालात पर उनसे मैंने एक लंबी बातचीत की थी। प्रस्तुत है उसका एक अंश।

निराशाजनक माहौल है लेकिन ईमानदारी से काम करना ही पड़ेगा ! : सागर सरहदी

यह समय पैसे और पॉवर का है। जिसके पास पैसा है वह पॉवर बनाने में लगा है और अब हर मध्यवर्गीय व्यक्ति समझता है कि पैसा हो जाय तो अपने आप वह पॉवर-स्ट्रक्चर का हिस्सेदार हो जायेगा। इसलिए वह अधिक से अधिक पैसा बनाने के फेर में है। यह हमारे दौर की सबसे बड़ी खूबी है। ऊपर से नीचे तक यही सोच काम कर रहा है। जो भी इसके उलट सोचता है वह सिस्टम में फिट नहीं हो पाता। उसे या तो आइसोलेट कर दिया जाता है या वह खुद सिस्टम से अलग चला जाता है। मेरे खयाल से जो भी थोड़ा अलग सोचता है उसके सामने अलग तरह के मानक होते हैं। क्रिएटिव लोग इसीलिए अकेले हो जाते हैं क्योंकि उनके मानक औरों से अलग हो जाते हैं। वे भीड़ में नहीं शामिल हो पाते। जहाँ तक मुझे लगता है कि आज जिस युवा की बात की जा रही है उसके भीतर के क्रिएटिव हिस्से को पूँजीवाद और सरमायेदारी ने खा लिया है और पूरी तरह महज एक कंजूमर बना कर छोड़ दिया है। लिहाज़ा हम देखते हैं कि आज का युवा अपनी क्रियेटिविटी को बेच रही है और समान को खरीद रही है। क्या आयरनी है कि सब लोग अपनी क्रियेटिविटी बेचकर ऐसे सामान खरीद रहे हैं जिनकी बहुत ज्यादा जरूरत ज़िंदगी जीने के लिए नहीं पड़ती।

इसलिए मुझे दो बातें जो समझ में आती हैं वे यह कि सारी क्रियेटिविटी सिस्टम को मज़बूत बनाने में लगी हुई है और सिस्टम के बाहर उसकी कोई जगह है ही नहीं। और जब जगह नहीं है तो किसी को भी इस बात की परवाह नहीं रह जाती कि जनता किस तरह जी रही है। उसके प्रॉबलम्स क्या हैं। उसकी क्राइसिस क्या हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। बल्कि मैं तो कहूँगा कि वे मारे जा रहे हैं लेकिन क्रिएटिव लोग उधर नहीं देख रहे हैं। वे कुछ और जगहों पर अपनी क्रियेटिविटी लगा रहे हैं। पिटी-पिटाई चीजों को लेकर आते हैं और दो दिन में खलास हो जाते हैं। एक तरह से हम देखते हैं कि सारी चीजें सरमायेदारी ने अपने हिसाब से तय कर दी है और विचार उसी के हिसाब से उसी के हित में पनपते हैं।

दूसरी बात जो मुझे लगती है वह यह कि सरमायेदारी ने जेनुइन चीजों को नष्ट करना शुरू कर दिया है। जो भी अच्छा करता है उसको कहा जाता है कि यह बिकेगा कैसे ? इसे देखेगा कौन ? और उसको इतना आइसोलेट कर दिया जाता है कि वह एक दिन गायब ही हो जाता है। ऐसे ही न जाने कितने जेनुइन क्रिएटिव लोग ख़त्म हो गए। तो इस बात के खिलाफ अब सोचने की जरूरत है कि जनता के लिए जो जरूरी और जेनुइन चीजें हैं वे बनें, सामने आयें और बचें। ऐसे में युवा पीढ़ी के भविष्य और इंसानी भविष्य को लेकर जो उठ खड़ा न हो वह मुर्दे से अधिक कुछ नहीं है।

अब तो थियेटर के लिए भी जो पैशन होना चाहिए उसकी जगह कॉमर्स ने ले ली है। लोग मानते हैं कि थियेटर में भी जब तक मोटा पैसा नहीं होगा तो वह नहीं चलेगा। देखनेवाला ऐसा ही थियेटर  देखता है। महंगा टिकट वाला नाटक। अब तो सभी ऐसा ही करते हैं। इप्टा भी करता है हालाँकि थोडा कम। सब थियेटर को भी कंजूमर की तरह देखते हैं। इनको ज़िन्दगी के बारे में कुछ पता ही नहीं है।। मैं डी-कर्टेनन के नाम से थियेटर करता हूँ। मैं अँधेरी में एक ओपन थियेटर करता हूँ बिना टिकट। अक्सर लोग देखनेवाले न होना का रोना रोते हैं लेकिन जब भी मैं करता हूँ दो सौ तीन सौ लोग आ जाते हैं। उनको मन मुताबिक विषय भी मिल जाते हैं। और लोग भी मिल जाएँ तो और अच्छा काम हो सकता है। जैसे पृथ्वीराज करते थे उसी तरह मैं भी अपनी जिम्मेदारी मानकर करता हूँ। इसके लिए मैं लोगों से सहयोग मांगता हूँ। चादर बाहर फ़ैलाने की जरूरत है। लोग सहयोग देते हैं।

यह बड़ा मुश्किल लगता है कि सारे लिटिल मैगजीन धीरे धीरे गायब हो रहे हैं। पोलिटिकल सिचुएशन बहुत ख़राब हैं। और मिनिमम कॉमन प्रोग्राम को देखिये। क्या हश्र हो रहा। आज भी यही हो रहा है। सभी पार्टियाँ बड़े-बड़े दावे करती हैं। बदलाव की बातें करती हैं लेकिन बदलाव नहीं आया बल्कि क्राइसिस बढ़ गई है। आज पार्टियों के पास कल्चरल और पोलिटिकल संघर्ष नहीं है इसलिए कोई बयान नहीं आता। सब ख़त्म हो गया है।

सारी परंपरा ख़त्म हो गई।  सबसे पहले तो यह कि मैं हन्डरेड परसेंट सोचता हूँ कि ये होना चाहिए। लेकिन करेगा कौन ? अब सारी चीजें बिखर गई हैं। लोग नॉन सीरियस रह गए हैं।

आदमी कंजूमर हो गया और सभी को बिना टैलेंट के सक्सेस चाहिए। अब फ़िल्में ख़राब बन रही है। प्रिंट मिडिया में भी संकट हैं और रोज छपने के लिए वे नंगी लड़कियां कहाँ से लायें। उनका संकट यह है कि पहले तो उन्होंने खूब नंगी-नंगी तस्वीरें छाप कर लोगों का टेस्ट बिगाड़ा और अपनी बिक्री बढाई लेकिन अब जब सीधे-सीधे पोर्न सुलभ हो गया तो लोगों का टेस्ट बदल गया और उनकी बिक्री पर भी असर पड़ा। अब वे और नंगी लड़कियों की तस्वीरें कहाँ से लायें ! टी वी भी वही कर रहा है। जनता के लिए काम करने लिए टीवी का तो सवाल ही नहीं। एक फ़्रांसिसी विद्वान ने कहा कि टी वी पूरे ज़माने को बरबाद कर देगा।

लेकिन लोग जगह जगह काम कर रहे हैं। यह प्रोसेस चलता रहेगा। मैंने सरिता के नाम एक नाटक लिखा था। मैं पहली बार सिनेमा में रिचुअल का उपयोग कर रहा हूँ। मैं अपने आपको थोडा सीरियसली ले रहा है। अब उसी पर आधारित एक फिल्म बना रहा हूँ. हालाँकि टोटेलिटी में यह हालात बहुत बरबाद है। लेकिन काम करना पड़ेगा। और सही मायने में ईमानदार ढंग से काम करना पड़ेगा !

गाँव के लोग
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2 COMMENTS

  1. सागर सरहदी तरक्की पसंद के ख्यालात के थे। बाज़ार फिल्म उनकी नायाब कृति है।

  2. सागर सरहदी साहब को नमन। बढ़िया संस्मरण।

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