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सनातन व्यवस्था में दलितों और पिछड़ों की जगह

जो व्यवस्था बराबरी की बात नहीं करेगी उस पर सवाल तो होंगे ही। उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म की सामाजिक विषमताओं को अन्यायपूर्ण गैर-बराबरी वाली सोच से भरा मानते हुये कहा कि अब यह स्थिति आ गई है कि हमें केवल सनातन धर्म की अन्यायपूर्ण व्यवस्था का विरोध नहीं करना है बल्कि इसे समूल मिटाना होगा। […]

जो व्यवस्था बराबरी की बात नहीं करेगी उस पर सवाल तो होंगे ही। उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म की सामाजिक विषमताओं को अन्यायपूर्ण गैर-बराबरी वाली सोच से भरा मानते हुये कहा कि अब यह स्थिति आ गई है कि हमें केवल सनातन धर्म की अन्यायपूर्ण व्यवस्था का विरोध नहीं करना है बल्कि इसे समूल मिटाना होगा। उन्होंने कहा कि कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिनका विरोध करना काफी नहीं होता है। मच्छर, डेंगू, मलेरिया, कोरोना ये ऐसी चीज़ें हैं, जिनका हम केवल विरोध नहीं कर सकते, हमें उन्हें समूल मिटाने का प्रयास करना पड़ता है। सनातन भी ऐसा ही है, इसके खतरे और बढ़ें, उससे पहले इसे समूल नष्ट करना होगा। इस बात को लेकर देश भर के सनातनी समाज का आक्रोश उबाल मार रहा है। उदयनिधि स्टालिन को जेल भेजने से लेकर फांसी पर लटकाने तक की बात की जा रही है है। स्टालिन ने जो कहा है वह सिर्फ उनकी आवाज नहीं है बल्कि एक पूरा समाज है जो सनातन व्यवस्था के अंत की बात कर रहा है। उदयनिधि जिस आयोजन में बोल रहे थे उसमें मौजूद हर व्यक्ति  चाहता था कि सनातन का अंत हो। यह विरोध एक दिन में  पैदा नहीं हुआ बल्कि सदियों की ज़लालत झेलने के बाद सनातन की अंत्यज श्रेणी में रखे गए लोग इतनी हिम्मत जुटा पाये हैं। विरोध करने वालों को सुप्रसिद्ध विद्वान साहित्यकार और आलोचक  डॉ. एन. सिंह का यह लेख पढ़ना चाहिए। आज सनातन को लेकर समाज जिस रास्ते पर बढ़ रहा है उसकी आशंका उन्होंने पहले ही जता दी थी।  (संपादक)

भारत की इस पुण्य धरा पर उत्पन्न होने वाला ‘सनातन धर्म’ अपने आप में एक विचित्र अर्थ रखता है। ‘सनातन’ का अर्थ है-‘स्व-न-तन’ अर्थात् जिसका ‘स्व’(self) मात्र तन नहीं है। इसे इस प्रकार भी व्याख्यायित किया जा सकता है कि सनातन धर्म वह विज्ञान है, जो तन के माध्यम से मन को साधता है और मन के माध्यम से तन पर नियंत्रण करने की कला सिखाता है। इसे अपनी इस परिपक्व स्थिति तक पहुंचने की तीन स्थितियाँ या पड़ाव हैं। पहला है-‘ऋषि’, जो प्रकाश रूपी ज्ञान को सीधे ग्रहण करता है, और मुनि को दे देता है, जो उस पर मनन करता है तथा निष्कर्ष निकालता है कि यह ज्ञान (जानकारी) समाज के लिए उपयोगी है या नहीं! यह दूसरा पड़ाव है और जब यह तय हो जाता है कि यह ज्ञान समाज के लिए उपयोगी है, तो वह उसे ‘आचार्य’ को दे देता है। आचार्य पहले उसे अपने आचरण में उतारता है और फिर शिष्यों के रूप में समाज को सौंप देता है। यह तीसरा पड़ाव है। इसलिए आज भी आचार्य का स्थान समाज में सर्वोपरि है। इस प्रकार सनातन धर्म ने व्यावहारिक जीवन में आत्मिक विकास के लिए वेदों के रूप में ऐसे अमर सूत्र सौंपे हैं, जिसके 80 प्रतिशत हिस्से को आचार्य रजनीश कूड़ा-करकट मानते हुए भी 20 प्रतिशत भाग को अमूल्य मानते हैं।
सनातन धर्म की चिन्ता में मूलतः मानव है और वह जिस भी स्थिति में है और जैसा भी काम करता है, वहीं पर अपना आत्मिक विकास करे, इसकी व्यवस्था करता है। जो धर्म ‘कर्मेषु कौशलं योगाः’ कहता हो, फिर वह कर्म के आधार पर किसी भी प्रकार की ऊंच-नीच की व्यवस्था नहीं दे सकता। उसने अलग-अलग प्रकार के कर्म करने वाले जनसमूहों को आत्मिक विकास के अलग-अलग रास्ते बताए हैं, जो पहुंचते एक ही जगह पर हैं। जैसे जो व्यक्ति सात्विक जीवन जी रहा है, वह ‘सरस्वती’ जैसी देवी की पूजा करे। जो व्यक्ति मारकाट का काम करता है अर्थात् जिसकी प्रवृत्तियों में रजोगुण प्रधान है, वह ‘दुर्गा’ की पूजा करे। जिसकी प्रवृत्तियाँ तामसिक हैं, मांस-मदिरा आदि का सेवन करता है, वह ‘काली’ की पूजा करें तथा जिस व्यक्ति का काम धन कमाना है, वह ‘लक्ष्मी’ की पूजा करें। यह धर्म का लोकतन्त्रा है, जिसके लिए प्रत्येक व्यक्ति समान है, यदि भेद है तो केवल गुण और प्रवृत्तियों के कारण! यही कारण है कि ‘सनातन धर्मी’ भारत मुसलमानों का गुलाम रहा हजारों वर्ष, और अंग्रेजों का गुलाम रहा सैकड़ों वर्ष, लेकिन नष्ट नहीं हुआ। अन्यान्य धर्म पैदा हुए और नष्ट हो गए। इसीलिए अल्लामा इकबाल जैसे मुसलमान शायर को भी कहना पड़ा था कि-

यूनानो मिस्र रोमा सब मिट गए जहाँ से।

कुछ हस्ती है हमारी कि मिटती नहीं जहाँ से

अब प्रश्न यह पैदा होता है कि ऐसे लोकतान्त्रिक धर्म में मानवाधिकारों का इतना जघन्य उल्लंघन कैसे हो गया कि एक पूरा वर्ग श्रमिक से गुलाम हुआ और फिर अस्पृश्य हो गया। दुनियाँ का कोई धर्म ऐसा नहीं है, जो मनुष्यों के इतने बड़े समूह को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दे, अपने ही धर्म के अनुयायियों का अपने पूजा-स्थलों में प्रवेश वर्जित कर दे, अपने धर्मग्रंथों को पढ़ने ही नहीं, सुनने पर भी कान में पिघला हुआ शीशा तथा उच्चारण करने पर जीभ काट लेने जैसे क्रूरतम दण्ड का विधान करता हो। इसलिए इस धर्म के नियंता तथाकथित इस धरती के देव निश्चय ही देवता नहीं कसाई थे। जैसा कि एक विदेशी विद्वान सर जान उडरुफ ने लिखा भी है कि – ‘वह देखने में तो पुजारी है, किन्तु हृदय से कसाई है।’ इस ओर संकेत करते हुए हिगेल ने भी लिखा है कि- हिन्दू के चरित्र की बुनियादी विशेषता है चालाकी और धोखेबाजी। जो शूद्र उसके अधीन है, उसके प्रति उसकी बर्बरता की सीमा नहीं होती। ब्राह्मण खासतौर से भ्रष्ट होते हैं। वे खाने और सोने के अलावा कुछ नहीं करते।’ इस एक दोष के कारण ही सनातन जो बाद में हिन्दू धर्म कहा जाने लगा, दुनियाँ का सबसे घटिया धर्म हो गया। इस एक बुराई ने उसके सारे गुणों को नष्ट कर दिया। जैसे सम्पूर्ण गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति भी यदि चरित्रहीन हो, तो उसके सारे गुणों का लोप हो जाता है। इसलिए निश्चय ही हिन्दू धर्म में कहीं न कहीं कोई दोष था अवश्य। इस ओर संकेत करते हुए डाॅ. अम्बेडकर ने लिखा भी है कि-‘कुछ लोग कहते हैं हिन्दू सभ्यता छः हजार साल पुरानी है। कुछ को इससे भी सन्तोष नहीं होता, वे उसे इससे भी पुराना सिद्ध करना चाहते हैं। मुझे इस बात का अफसोस है कि इतनी पुरानी सभ्यता ने पाँच करोड़ अस्पृश्य, दो करोड़ आदिवासी, लगभग पचास लाख अपराधी जातियों को जन्म दिया। इस सभ्यता को क्या कहा जा सकता है? यह कैसी सभ्यता है जिसके परिणाम इतने शोचनीय हैं? कहीं बुनियादी खराबी है और मैं समझता हूं, हिन्दुओं को अब इस बात पर विचार करना चाहिए, क्या इस तरह की सभ्यता गर्व करने योग्य है? उन्हें इस पर एक बार नहीं सौ बार सोचना चाहिए कि क्या इस तरह के परिणामों के बावजूद उन्हें सभ्य कहा जा सकता है?’ निश्चय ही यह स्थिति उस वर्ण व्यवस्था की देन है, जिसका विकृत रूप जातियों के रूप में देखने को मिलता है। एक ही धर्म को मानने वाले इन विशाल जनसमूहों में एक-दूसरे के साथ विवाह सम्बन्ध तो होते ही नहीं, कुछ के साथ तो स्पर्श करने तक के सम्बन्ध नहीं हैं। जो धर्म अपने मानने वाले को समान अधिकार न देता हो, तो वह धर्म नहीं, अधर्म ही होता है और उसका विनाश निश्चित है।

हिन्दू धर्म मूलतः वर्णाश्रम पर आधारित है। प्रारम्भ में हिन्दू धर्म ने सम्पूर्ण समाज को उसके कार्यों के आधार पर चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बाँटा, धीरे-धीर यह व्यवस्था जन्म पर आधारित होती चली गयी। मनु ने लम्बे समय से चली आती व्यवस्था को कोड़बद्ध किया। मनुस्मृति के आधार पर ही यहाँ हम हिन्दू धर्म में शूद्र की स्थिति का विवेचन कर रहे हैं। हिन्दू धर्म द्वारा प्रदत्त असमानता, अन्याय, अपमान और घृणा को इस धर्म के चौथे वर्ण ने ही वहन किया। हिन्दू धर्म में शूद्र की स्थिति क्या है? इस तथ्य की पड़ताल करना ज़रूरी हो जाता है। मनुस्मृति, जो ‘हिन्दू धर्म का संविधान’ है, में तरह-तरह की मानसिक,आर्थिक एवं सामाजिक यातनाओं की व्यवस्था शूद्रों के लिए की गई है। हिन्दू समाज व्यवस्था चतुर्वर्ण पर आधारित है। मनुस्मृति के अनुसार – ‘लोक की वृद्धि के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की सृष्टि क्रमशः ब्रह्मा के मुख, बाँह, उरू और पैर से हुई है।’

लोकानां तु विवद्धयर्थ मुखबाहूरुपादतः।

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यंशूद्रं च निरवर्तयत्।।

हिन्दू धर्म की व्यवस्थाओं के अनुसार किसी भी देवता और सम्मान के लिए पुरुष के भी पैर ही स्पर्श किए जाते हैं। फिर ऐसा कैसे हो गया कि ब्रह्मा के उन्हीं पूज्य पैरों से उत्पन्न शूद्र अस्पृश्य हो गया। वैसे भी दुनियाँ के विकास का इतिहास गवाह है कि मनुष्य, चाहे वह दुनिया के किसी भी कोने में पैदा हुआ हो, अथवा किसी भी वर्ण का हो, पुरुष उसके जन्म का उपकरण तो है, लेकिन वह स्वयं उसे जन्म नहीं दे सकता। स्त्री के गर्भ से जन्म लेने का भी एक ही रास्ता है, वह भी अपने मुख, बाहु, उरू और पैर से किसी शिशु को जन्म नहीं दे सकती। इसलिए बज्रसूची के यशस्वी रचनाकार अश्वघोष ने अपनी इस पुस्तक में एक ऐसा तिलमिला देने वाला प्रश्न किया है कि ‘ब्राह्मण का जन्म ब्रह्मा के मुख से हुआ है, तो ब्राह्मणी का जन्म कहाँ से हुआ?’ इसका उत्तर भी वे स्वयं ही देते हैं कि -‘निश्चय ही ब्राह्मणी का जन्म भी ब्रह्मा के मुख से ही हुआ होगा।’ और निष्कर्ष देते हैं कि- ‘एक ही स्थान से उत्पन्न हुए ब्राह्मण और ब्राह्मणी, भाई-बहन हुए तथा भाई का बहन से स्त्री प्रसंग दुनियाँ का सबसे घृणित कृत्य है।’ तो ऐसे घृणित लोगों ने ब्रह्मा के पवित्र पैरों से तथाकथित उत्पन्न जन-समुदाय को इतना घृणित बना दिया कि जन्म के समय ही उसका नाम ‘जुगुप्सित’ (घृणित) शब्द से रखने की व्यवस्था दी –

मंगलस्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।

वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्।।

अर्थात् ब्राह्मण का मंगलसूचक शब्द से युक्त, क्षत्रिय का बलसूचक शब्द से युक्त, वैश्य का धन सूचक शब्द से युक्त, तथा शूद्र का निन्दित शब्द से युक्त नामकरण करना चाहिए। इससे अगले श्लोक में स्पष्ट लिखा है कि  ‘शूद्रस्य प्रेष्य संयुक्तम्’ अर्थात् शूद्र का नामकरण घृणित ‘शब्द’ के साथ ‘दास’ शब्द लगाकर करना चाहिए। इस व्यवस्था के कारण आज भी दलित वर्ग के लोगों में सुन्दर और अच्छे नाम नहीं मिलते। नामकरण की इस मनुवादी व्यवस्था पर मैंने अपने लेख व्यवस्था परिवर्तन का मिथक और दलित समाज में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि इस व्यवस्था के अनुसार – ‘जब एक ही घड़ी, एक ही नक्षत्रा में एक ब्राह्मण, एक क्षत्रिय तथा एक वैश्य और एक शूद्र के घर लड़के का जन्म होता है और ये चारों अपने बेटे का नाम पूछने पंडित के पास जाते हैं। माना ‘ब’ अक्षर से नाम निकलता है तो पंडित, ब्राह्मण को अपने बेटे का नाम ‘बुद्धिबल्लभ’, क्षत्रिय को ‘बलवंत सिंह’, वैश्य को ‘बांके बिहारी लाल’ और शूद्र को ‘बुद्धू’ रखने को कहते हैं। आगे चलकर ये चारों बच्चे बड़े होते हैं, तो ‘बुद्धिवल्लभ’ मूर्ख साबित होते हैं और छोले बेचते हैं तथा झूठी प्लेटें धोते हैं। ‘बलवंत सिंह’ कायर प्रमाणित होते हैं। वह एक कार्यालय में चपरासी है तथा आफिसर और क्लर्कों की झिड़कियाँ नित्यप्रति सुनना ही उसकी नियति है। वैश्यपुत्रा – दरिद्र दुकानदार है, जो नींबू और बेर बेचकर अपना गुजारा चला रहा है। ‘बुद्धू’ पढ़-लिखकर बुद्धिमान साबित होता है और आरक्षण का लाभ पाकर एक जिले का जिलाधिकारी बनता है। तो प्रश्न यह उठता है कि जो व्यवस्था पैदा होते ही ब्राह्मण के बच्चे को ‘बुद्धिवल्लभ’ और शूद्र के बच्चे को ‘बुद्धू’ बनाती रही है, वह व्यवस्था जो नाम में भी किसी शूद्र बच्चे को समानता नहीं दे पायी, वह समाज में, अर्थ में, सम्मान में, सत्ता और शासन में क्या समानता दे पाएगी।’ नामकरण के बाद बच्चा बड़ा होता है। पाँच वर्ष के बाद उसकी उम्र पाठशाला जाने की होती है, तो मनुस्मृति सभी वर्णों के कर्मों का निर्धारण करती हुई शूद्र को शिक्षा प्राप्ति के सामान्य और मानवीय अधिकार से वंचित करती है। इस संबध में मनुस्मृति के निम्न श्लोकों को देखिए –

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहं चैत, ब्राह्मणामकल्पयत्।।

प्रजानां रक्षणं दान मिज्याध्ययनमेव च।

विषयेठवप्रसक्तिश्व क्षत्रियस्य समासतः।।

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।

वाणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।।

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णनां शुश्रूषामन सूय या।।

अर्थात् ब्राह्मणों के षटकर्म पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, कराना, दान देना और लेना बताए हैं। प्रजा की रक्षा, दान देना, यज्ञ कराना, पढ़ना और विषयों में न फंसना ये संक्षेप में क्षत्रिय के कर्म हैं। पशुओं का पोषण, दान देना, यज्ञ कराना, पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना और खेती ये वैश्य के कर्म हैं। प्रभु ने शूद्रों का केवल एक ही कर्म बताया है कि इन ‘तीनों’ वर्णों की निन्दा रहित ‘जिसमें कोई निन्दा नहीं’ सेवा करना। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि शेष तीनों वर्णों के लिए मनुस्मृतिकार पढ़ने और ब्राह्मण के लिए पढ़ाने की भी व्यवस्था देता है, लेकिन शूद्र का कर्म केवल सेवा बताकर उसे शिक्षा, कृषि, व्यापार आदि मानवीय अधिकारों से वंचित कर देता है और इतना ही नहीं, वह शूद्र के कर्म को ब्राह्मण द्वारा नहीं, प्रभु द्वारा निर्धारित बताता है ताकि भविष्य में पढ़-लिखकर शूद्र वर्ग इस अपराध के लिए उसे अपराधी न समझे और भविष्य में उसकी सन्ततियों को दण्ड न दे। यही नहीं, मनु ने शूद्र के लिए यह भी तय किया कि वह किसकी सेवा करे और उसकी दिन-रात की गई हाड़तोड़ सेवा के बदले उसे क्या मजदूरी दी जाए। मनुस्मृति के दसवें अध्याय में देखिए, ‘मनु’ की व्यवस्था –

विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीत्र्यते।

मदतोउन्यद्धि कुरते तद्भवत्यस्य निष्फलम।।

उच्छिष्ट मन्नंदातव्यं जीर्णानिवसनाचि।

पुलाकाश्रैवधान्यानां जीर्णाश्रैव परिच्छदाः।।

अर्थात् ‘ब्राह्मण’ की सेवा को शूद्र के अन्य कर्मों से श्रेष्ठ कहा है। इसलिए इसके अतिरिक्त वह जो कुछ करता है – वह निष्फल है। इस सेवा के बदले शूद्र को – ‘भोजन से बचा हुआ ‘झूठा’ अन्न, पुराने कपड़े, धानों की छटन थोथा ‘अनाज’ तथा पुराना बरतन-भांडा देना चाहिए।’ इससे अगले श्लोक में कहा गया कि – ‘सेवक शूद्र को कोई पातक नहीं है, न वह संस्कार योग्य है और न ही धर्म में उसे कोई अधिकार है।’ मनु ने ब्राह्मण को यह अधिकार दिया है कि वह शूद्र से हर हालत में सेवा ही करवाए –

‘शूद्रंतु कारयेद्दास्यं क्रीतम्क्रीतमेव वा।

दास्यायेव हि सृष्टो सौ ब्राह्मणस्य स्वयंभुवा।।’

अर्थात् – शूद्र से तो सेवा ही करावें, वह शूद्र खरीदा हुआ हो या न खरीदा हुआ हो, क्योंकि ब्राह्मण की सेवा के लिए ही ब्रह्मा ने इसे उत्पन्न किया है। यदि इतनी कम मजदूरी पर कोई शूद्र काम करने से मना कर दे, तो मनु ने राजा को अधिकार दिया है कि वह शूद्र से जबरदस्ती सेवा कराए –

वाणिज्यं कारयेद्वैश्यं कुसीदं कृषिमेव च।

पशूनां रक्षणं चैव दास्यंशूद्रं द्विजन्मनाम्।।

अर्थात् – वाणिज्य, खेती और पशुओं की रक्षा वैश्यों से और शूद्र से द्विजों की सेवा राजा करावें। मनु आगे स्पष्ट करते हैं कि राजा को इनसे बलात् इनके कर्म क्यों कराने चाहिए-

वैश्य शूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत्।

तौ हि च्युतौ स्व कर्मभ्यः क्षोभयेता मिदं जगत्।।

अर्थात्  वैश्य और शूद्रों से प्रयत्न पूर्वक राजा अपने-अपने कर्म करावें, नहीं तो अपने-अपने कर्मों से अलग होकर ये जगत् में क्षोभ करा देंगे। इस प्रकार मनुस्मृति के रचनाकार ने शूद्र को हिन्दू धर्म और उसके संस्कारों से वंचित कर दिया और यदि कोई ब्राह्मण उसका संस्कार करता है, तो उसके लिए भी दण्ड निर्धारित किया कि वह ब्राह्मण ‘असंवृत’ नामक नरक में गिरता है –

न शूद्रायमतिद्ंद्यान्नोच्छिष्टं नह विष्कृृतम्।

न चास्योपदिशेद्धर्मन चास्यव्रतमा दिशेत्।।

योन्हृस्य धर्ममाचष्टेय श्रैच्वादिशतिव्रतम्।

सोउसंवृतं नामतमः सहतैनैव मज्जति।।

अर्थात – शूद्र को बुद्धि, उच्छिष्ट और हविष्कृत अर्थात् होमशेष का भाग न दें और उसको धर्मोपदेश न करें और व्रत भी न बतावें। जो ब्राह्मण इस शूद्र को धर्मोपदेश और प्रायश्चित का उपदेश करे, वह उस शूद्र के साथ ‘असंवृताश्य’ नामक बड़े अधंकार वाले नरक में गिरता है।’ इस अध्याय में शूद्र के साथ बैठने तक का निषेध किया गया है तथा शूद्रों के राज्य में निवास करने का भी निषेध किया गया है। शिक्षा, संस्कार से वंचित और सेवा के बदले थोथा अनाज, फटा वस्त्र प्राप्त करता हुआ भी यदि कोई शूद्र कुछ धन एकत्र कर लेता है, तो मनुस्मृतिकार ब्राह्मण को सलाह देता है कि वह उस शूद्र से उसका धन चालाकी से छीन ले, क्योंकि धन प्राप्त कर वह किसी ब्राह्मण की गुलामी नहीं करेगा –

विस्रब्धंब्राह्मणः शूद्राद द्रव्योपादानमाचरेत्।

न हि तस्यास्ति किंचित्स्वं भर्तृहार्यधनोहिसः।

शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्यो धनसंचयः।

शूद्रोहि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव बाधते।।

अर्थात – भरोसे से ब्राह्मण शूद्र का धन ग्रहण कर ले, क्योंकि उसका कुछ भी नहीं है किन्तु उसका धन भतृग्राहय (स्वामी का) है। ऐसा ब्राह्मण को क्यों करना चाहिए क्योंकि वह धन प्राप्त करके ब्राह्मण आदि को बाधा देता है। ब्राह्मण की चालाकी का शिकार होने से बचकर यदि वह कुछ धन एकत्र कर लेता है, तो ‘मनु’ राजा को आज्ञा देता है कि वह शूद्र का धन छीनकर उसे अपने राज्य से निकाल दे –

यो लोभाद्धमोजात्या जीवेदुत्कृष्ट कर्ममि।

तं राजा निर्धनं कृत्वा क्षिप्रमेव प्रवासेत्।।

अर्थात – जो निष्कृट जाति (शूद्र) से उत्पन्न हुआ, लोभ से उत्कृष्ट जाति की वृत्ति करे, उसको राजा निर्धन करके अपने देश से निकाल दे। शूद्र की हत्या से कुत्ते, बिल्ली, गधा, उल्लू, नेवला, कौआ, चिड़िया, मेंढ़क की हत्या जितना पाप लगता है। मनुस्मृति के अनुसार –

मार्जारन कुलौ हत्वा चाषं मण्ड्कमेव च।

वगोधोलूककाकांश्रव शूद्र हत्याव्रतं चरेत्।।

इसका तात्पर्य यह है कि हिन्दू धर्म में शूद्र की स्थिति पशु से भी बदतर थी, क्योंकि यहाँ गाय ‘पशु’ और पत्थर तो पूज्य है, लेकिन शूद्र ‘व्यक्ति’ सम्मान का पात्र भी नहीं है। पाराशर स्मृति इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करती है। उसके अनुसार – ‘ब्राह्मण दुश्चरित्रा हो तब भी पूज्य है और शूद्र जितेन्द्रिय होने पर भी पूज्य नहीं, क्योंकि कौन ऐसा मूर्ख है जो दुष्ट गाय को छोड़कर सुशीला गधी को दुहेगा।’ सम्भवतः मध्यकालीन कवि तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस में इसी का काव्यानुवाद किया है –

पूजिए विप्र ज्ञान गुण हीना।

शूद्र न गुणगण ज्ञान प्रवीना।।

इससे स्पष्ट होता है कि हिन्दू धर्म के नियन्ताओं ने शूद्र को इस हालत तक पहुँचा दिया कि वह किसी सवर्ण के साथ बैठने तक की बात सोच भी न सके यदि वह ऐसी इच्छा करता है, तो मनु का अमानुषिक विधान कहता है –

सहासनमभिप्रेप्सुरूत्कष्टस्यापकृष्टजः।

कट्याकृताअंगों निर्वास्यः स्फिचं वाअस्थाव कर्तयेत्।।

अर्थात् – उच्च के साथ बैठने की इच्छा करने वाले नीच की कटि (कमर) को दाग कर निकाल दें या उसके चूतड़ को थोड़ा कटवा दें। इतनी मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक यातनाओं को सहकर भी यदि कोई शूद्र हिन्दू धर्म के किसी नियामक को कुछ अपशब्द कहता या प्रतिकार करता हुआ उस पर प्रहार कर दे, तो उसके लिए मनुस्मृति अमानवीय और भयानक दण्डों का विधान करती है –

एक जाति द्विर्जातीस्तु वाचा दारूणया क्षिपन्।

जिव्हायाः माप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभावोहि सः।।

नाम जाति ग्रहंत्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः।

निक्षेप्योयोमयः शंकुज्र्वलन्नास्येदशांगुलः।।

अर्थात – यदि शूद्र द्विजातियों को गाली दे, तो जीभ के छेदन का दण्ड प्राप्त हो, क्योंकि वह निकृष्ट से उत्पन्न है। जो शूद्र द्विजातियों के नाम और जाति का उच्चारण करे, उसके मुँह में जलती हुई दस अंगुल की छड़ ठोकनी चाहिए। इस सबके उपरान्त भी यदि वह श्रोत परम्परा से कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेता है और किसी अशिक्षित ब्राह्मण द्वारा दिए जा रहे गलत उपदेश को सुधारने का निवेदन कर बैठता है, तो मनुस्मृति उसके मुँह और कानों में उबला हुआ तेल डालने की व्यवस्था देती है –

धर्मोपदेशंदर्पेण विप्राणामस्य कुवर्तः।

तप्तमासेचयेतैलं वत्क्रेश्रोत्रेचपार्थिवः।।

अर्थात – जो शूद्र अहंकार से ब्राह्मणों को उपदेश करे, उसके मुख, कान में राजा गर्म तेल डलवा दें। प्रहार करने पर मनु का दण्ड देखिए –

”येनकेन चिदंगेन हिंस्याच्चेच्छेष्टमन्तयजः।

देत्तव्यंतत्तदेवास्य तन्मनोरनुशासनम्।।“

अर्थात् – शूद्र लोग जिस किसी अंग से द्विजातियों को मारें, उसका वही अंग कटवाना चाहिए। यह मेरा (मनु का) अनुशासन है।

मनुष्य प्रकृति से सामाजिक प्राणी है और समाज में रहते हुए स्त्राी-पुरुषों के बीच परस्पर प्रेम संबंध (यौन सम्बंध) का होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह सम्बन्ध जाति और वर्ण देखकर तो विकसित होते नहीं हैं, लेकिन विकसित होने पर शूद्र के लिए जो दण्ड निर्धारित किए गए हैं, वे अमानवीय और पक्षपातपूर्ण हैं। ब्राह्मण के लिए यह व्यवस्था है कि वह अपने से हीन ‘तीन वर्णों’ की स्त्राी से विवाह कर सकता है, लेकिन उसकी सम्पत्ति में से किस वर्ण की स्त्राी से उत्पन्न पुत्रा को कितना हिस्सा मिलेगा, यह व्यवस्था पक्षपात का सर्वाेत्तम उदाहरण है –

चतुरोंशा-हरे द्विपस्त्राी नंशान्क्षत्रिया सुतः।

वैश्यापुत्राी हरेद्द्वयंशमंशशूद्रा सुतो हरेत्।।

अर्थात् – दस भागों में से चार अंश ब्राह्मणी का पुत्र और क्षत्रिय का पुत्र तीन अंश तथा वैश्य का पुत्र दो अंश और शूद्रा का पुत्र एक अंश ले। लेकिन आगे मनु शूद्रा पुत्र को एक अंश से भी वंचित कर देता है –

”ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्रापुत्रो नरिक्थसाक्।

यदेवास्य पिता दद्यात्त देवास्य धनंभवेत्।।“

अर्थात् – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों का शूद्रा से उत्पन्न हुआ पुत्रा धन का भागी नहीं, किन्तु जो कुछ उसका पिता उसे दे दे, वही उसका धन है।“ अब आप देखिए कि ब्राह्मण किसी शूद्र स्त्राी का यौन शोषण तो कर सकता है, लेकिन इसके लिए उसे किसी प्रकार की सजा नहीं दी जा सकती। उसके लिए मनु ने निम्न व्यवस्था दी है-

अब्राह्मणा संग्रहणे प्राणान्तंदण्ड मर्हति।

चतुर्णामपिवर्णानां दारा रक्ष्यत्माः सदा।।

अर्थात् – ब्राह्मण को छोड़कर अन्य जो कोई परस्त्री से यौन सम्पर्क रखे, वह प्राणान्त दण्ड योग्य है क्योंकि चारों वर्णों की स्त्रियाँ सर्वदा रक्षा करने योग्य हैं। आगे 8/365 वें श्लोक में उत्तम वर्ण के पुरुष से समागम करने वाली स्त्री को दण्ड मुक्त कर दिया गया है, लेकिन यदि कोई ब्राह्मणी किसी शूद्र के साथ यौन सम्बन्ध रखती है, तो शूद्र के लिए मनु का दण्ड विधान देखिए –

शूद्रोगुप्तमगुप्तं वा द्वैजातं वर्णमावसन्।

अगुप्तम अंग सर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते।।

अर्थात् – रक्षित या अरक्षित द्विज जाति (ब्राह्मण) वर्ण की स्त्री के साथ यदि शूद्र गमन करे, तो अरक्षित में अंग छेदन (लिंग काट देना) तथा सर्वस्व हरण करें और रक्षित के सम्बन्ध में सब (शरीर तथा धनादि) से हीन कर दें। आगे 8/377वें श्लोक में इस दण्ड को और अधिक स्पष्ट किया है कि ‘शूद्र को चटाई में लपेटकर जला दिया जाए।’ जबकि दुनियाँ का कोई न्यायशास्त्र ऐसा नहीं, जो एक ही अपराध के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग सजा दे। न्याय विधान में तो किसी अपराध-कर्म की सजा अपराध की प्रकृति तथा अपराधी की मंशा के अनुसार होती है – जाति या वर्ण के अनुसार कहीं भी दण्ड दिए जाने का विधान नहीं बनाया गया है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि हिन्दू धर्म में शूद्र की स्थिति पशु से भी बदतर रही है। वरिष्ठ लेखक पद्मश्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने लिखा भी है कि – ‘सामाजिक परिस्थितियों ने मूल्यों को ओझल कर दिया था और मानव समाज को छोटी-बड़ी जातियों में बांट दिया। मानवों के एक बड़े समूह को उन अधिकारों से भी वंचित कर दिया, जो पशुओं को भी प्राप्त है।’ लगता है कि हिन्दू धर्म में शूद्र की उक्त स्थिति किसी क्रूरतम सामाजिक साज़िश का परिणाम थी, जो आज भी किसी न किसी रूप में भारतीय समाज में विद्यमान है। इसका परिणाम यह हुआ कि जब-जब शूद्र ने आगे बढ़कर पौरूष, विद्या और सम्पदा प्राप्त करने की कोशिश की उसे दण्डित किया गया। महाभारतकाल में एकलव्य का अंगूठा कटवा लिया, राम ने शम्बूक की हत्या कर दी।

सन् 1947 के बाद स्थितियाँ बदल गई हैं। भारत की जनता ने अपनी राज्य व्यवस्था के लिए लोकतांत्रिक संविधान को स्वीकार किया। जिसमें समानता को मौलिक अधिकार घोषित किया गया है। कोई भी व्यक्ति कोई भी व्यवसाय चुनने के लिए स्वतन्त्र है। अब ब्राह्मण जूता फैक्टरी का मैनेजर भी है और दुकान पर बैठकर जूता बेचता भी है। अब ‘शूद्र’ किसी विश्वविद्यालय, महाविद्यालय में किसी विभाग का अध्यक्ष भी है और किसी बौद्धिक स्थान का सर्वेसर्वा भी है। बनिया व्यापार छोड़कर खेती भी कर रहा है तो क्षत्रिय शौर्य-पूर्ण कार्य छोड़कर व्यापार और कृषि से भी जीवनयापन कर रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब कर्म पर ही (जिस पर वर्ण आधारित था) बंधन नहीं रहा, तो फिर विवाह सम्बन्धों पर भी बंधन नही रह सकता। अतः अन्तर्जातीय विवाहों में पिछले पचास वर्ष में काफी बढ़ोतरी हुई है। यह तथ्य साफतौर पर दिखाई दे रहा है कि हिन्दू धर्म की यह वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था अब बहुत दिन तक नहीं ठहर सकती। तो जो स्वाभाविक है, उसकी समाप्ति के लिए किसी समाज सुधारक ने अब तक आवाज़ क्यों नहीं उठाई? क्योंकि इस व्यवस्था के टूटने से उसका और उसके वर्ग का जन्मना श्रेष्ठता का अधिकार समाप्त हो जाएगा और ऐसा वे क्यों चाहने लगे?

अस्पृश्यता एक सामाजिक बुराई है, जब सती प्रथा और बाल विवाह आदि कुप्रथाओं की समाप्ति के लिए राजा राममोहन राय और शूद्रों के शास्त्र पठन-पाठन के लिए स्वामी दयानन्द आन्दोलन चला सकते हैं, तो फिर अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए कोई शंकराचार्य आन्दोलन क्यों नहीं छेड़ सका? जबकि अब भी वे शूद्रों के मन्दिर प्रवेश को धर्म विरुद्ध, सती प्रथा को धर्म सम्मत और स्त्रियों के वेदपाठ को निषिद्ध घोषित करने में जरा भी विलम्ब नहीं करते। इसलिए वर्तमान समय में हिन्दू धर्म से दलितों का मोहभंग हो गया है और यह प्रवृत्ति सर्वत्र दिखाई दे रही है कि वह बौद्ध आदि अन्य धर्मों की ओर आकृष्ट हो रहा है। अब उसके लिए मन्दिर आदि का तो कोई महत्त्व रहा ही नहीं, किसी शंकराचार्य के प्रति भी सम्मान का भाव उसके मन में नहीं रहा। यह सब शंकराचार्यों की अमानवीय हरकतों के कारण ही हुआ है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में वह दिन दूर नहीं है, जब हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाएगा। यदि उसने अपनी इस गलती को नहीं सुधारा, अस्पृश्यता समाप्त करने के लिए हिन्दू धर्मशास्त्र को परिवर्तित कर अपनी मानसिकता में परिवर्तन नहीं किया। दलितों के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं जोड़ा। कुल मिलाकर सामाजिक समता के लिए शहर से गाँव तक प्रयास नहीं किया तो परिणाम बहुत बुरे होंगे- और कितने बुरे होंगे? इसका अंदाज नहीं लगाया जा सकता।

गाँव के लोग
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