कुशीनगर। फाजिलनगर के जोगिया जुनूबी पट्टी में लोकरंग कार्यक्रम में शिरकत करने जब हम पहुंचे, तब वहाँ 15 तारीख की प्रस्तुति के लिए अनेक टीमें पहुँच चुकी थीं। सुबह दस बजे हम लोकरंग कार्यक्रम के आयोजन स्थल पर पहुंचे जहां स्टेज के बगल में बड़े से हॉल में पच्चीस-तीस कलाकार ठहरे हुए थे। यहीं राजस्थान से आई बहुरूपिया कलाकारों की एक टीम भी थी। हालाँकि गर्मी अपने चरम पर पहुँच रही थी लेकिन हॉल में मौजूद कुछ कलाकार सो रहे थे तो कुछेक अपने मोबाइल में तल्लीन थे। कुछ लोग अपने-अपने प्रदर्शन की तैयारी में अपने साजो-सामान ठीक करने में भी लगे हुए थे। बहुरूपिया की टीम में आए छह कलाकारों में से कुछ तो आराम कर रहे थे लेकिन एक बहुरूपिया अपने मेकअप की शुरुआत कर चुके थे। दोपहर एक बजे उनका प्रदर्शन था। मैंने उनसे कहा – इतनी जल्दी जबकि आपका प्रदर्शन तो एक बजे से है। उन्होंने अपने काम में लगे हुये ही कहा- ‘तीन घंटे लगते हैं, मेकअप करने में।’ यह थे चालीस वर्ष के फिरोज बहुरूपिया। मेकअप करते हुए ही उन्होंने मुझसे बात की। ‘किस किरदार के लिए तैयार हो रहे हैं?’ उनका जवाब मिला – ‘जिन्न बन रहा हूँ।’ हाथ में छोटा-सा आईना लेकर चेहरा घुमाते हुए उसमें खुद को देखते हुए सिर पर एक लेप लगा रहे थे। पास में ही मेकअप का सारा सामान रखा हुआ था और बगल में जिन्न का कॉस्ट्यूम और गहने आदि रखे हुए थे।
फिरोज ने बहुरूपिया का काम दस वर्ष की उम्र में अपने पिता शिवराज बहुरूपिया के साथ शुरू कर दिया था। उनके पिता शिवराज बहुरूपिया राजस्थान के प्रसिद्ध लोककलाकार थे। पुराने दिनों को याद करते हुए उन्होंने बताया कि दस वर्ष की उम्र में चेहरा कच्चा था। इस वजह से वे पिता के साथ लुहारिन, सब्जी वाली और अन्य स्त्री पात्र के लिए तैयार होते थे। वह कहते हैं – ‘आज चालीस वर्ष का हो चुका हूँ। तब से लेकर आज तक सैकड़ों किरदार के लिए बहुरूपिया बन चुका है। वह समय दूसरा था और आज का समय एकदम बदल चुका है। पहले धार्मिक किरदार में शिव, हनुमान, राम जैसे पात्र बनता था, लोग खुश होते थे और सम्मान देते थे लेकिन इधर 8-9 वर्षों से हम धार्मिक किरदारों से बचते हैं।’
सांप्रदायिकता का असर इस कला पर भी पड़ा है
‘ऐसा क्यों?’ इस सवाल पर उन्होंने थोड़े दुखी और भावुक होते हुए कहा, ‘लोग कहते हैं कि तुम्हारा नाम फिरोज है इसलिए यह सब मत बना करो, अच्छा नहीं लगता।’ वह कहते हैं, ‘देश में कुछ ऐसी प्रगति हुई है कि व्यक्ति के अंदर से मोहब्बत की भावना ही खत्म हो चुकी है। पहले भी जाति-व्यवस्था और सांप्रदायिकता थी लेकिन आज उसका विकृत रूप हम सबके सामने हैं।’ उन्होंने कहा कि ‘मैं खुद जाति भेदभाव पर विश्वास नहीं करता। फिरोज नाम होते हुए भी पहले मैं एक कलाकार हूँ। बहुरूपिया बन जाने के बाद मैं किसी का दिया कुछ भी लेता नहीं हूँ। न ही खाता-पीता हूँ। चाहे वह प्रसाद ही क्यों न हो। हर कलाकार का अपना एक उसूल होता है। कलाकार की कोई जाति नहीं होती।’
बॉलीवुड का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि ‘वहाँ सभी कलाकार काम की जरूरत के हिसाब से किरदार निभाते हैं। हिन्दू कलाकार मुस्लिम बनते हैं और मुस्लिम हिन्दू का किरदार निभाता है। वहाँ कहने-सुनने के लिए कुछ नहीं होता क्योंकि वहाँ सत्ता और पॉवर का संरक्षण है। लेकिन हमारे पास कोई पॉवर नहीं है। हम बस अपने चेहरे को रंगकर अलग-अलग किरदार बनते हैं। हमारी पहचान हमारा मेकअप ही होता है, जैसे ही मेकअप किया तो लोग हमारे आसपास मंडराने लगते हैं, फोटो लेते हैं, सेल्फ़ी खींचते हैं और हमें हमारे मौलिक नाम से नहीं बल्कि किरदार के नाम पुकारते और जानते हैं। लेकिन जैसे ही मेकअप साफ हुआ, हमें कोई नहीं पहचानता।’
फिरोज बहुरूपिया ने अनपढ़ होने के बाद भी बहुत पते की बात कही, क्योंकि अपने काम के जरिए उन्होंने समाज और उसमें रहने वाले लोगों की मानसिकता पढ़ी है। किसी कलाकार की यही असली पहचान होती है कि वह कभी भी समाज को तोड़ने की नहीं, बल्कि जोड़ने की बात करता है, क्योंकि कला ही उसकी रोजी-रोटी का जरिया होता है।
वह बात करते हुए ही अपना मेकअप कर रहे थे। ‘आप सिर पर क्या पोत रहे हैं?’ पूछने पर उन्होंने जवाब दिया कि ‘घर पर ही तैयार किया गया एक पाउडर है जिसे गीला कर अपने सिर और चेहरे पर लगाते हैं। घर की स्त्रियाँ पनसारी की दुकान से जरूरत का सामान लाकर, उसमें प्राकृतिक सामानों को मिलाकर ही सारा मेकअप तैयार करती हैं। कास्टूयूम भी वही तैयार करती हैं। बाजार में तैयार किया हुआ सामान लेने पर बहुत खर्चा होता है जो हमारे बजट से कई गुना महंगा होता है इसलिए कम खर्च में हम यह सब तैयार करते हैं।’
बातें तो बहुत थीं लेकिन उन्हें अपने किरदार के लिए तैयार होना था, इसलिए लंबी बातचीत के लिए उनकी टीम के अन्य साथियों के पास पहुंचे जो इसी हॉल में आराम कर रहे थे। हमने बातचीत की मंशा जताई तो तुरंत ही उठ बैठे। फरीद बहुरूपिया, शमशाद बहुरूपिया और गुलजार बहुरूपिया ने हमें अपने काम और समाज के बारे में बताया।
शमशाद ने कहा कि ‘हम लोग राजस्थान के दौसा जिले के बांदीकुई कस्बे के रहने वाले हैं। हमारे दादा और पिता भी यही काम करते थे। पिता शिवराज बहुरूपिया पूरे देश के जाने-माने बहुरूपिया लोककलाकार रहे हैं और देश में जगह-जगह बहुरूपिया कला के प्रदर्शन के साथ-साथ दिल्ली के लाल किला एवं विदेशों में फ्रांस, जर्मनी, हॉंगकांग और रूस तक भी अपनी कला को लेकर गए। आज हम छह भाई इसी काम में लगे हुए हैं। बचपन से ही इस काम के सिलसिले में हमेशा घूमते रहना पड़ता था। इस वजह से पढ़ाई-लिखाई नाममात्र की ही हो पाई। ज्यादा पढ़-लिख नहीं पाए क्योंकि वास्तव में हम बंजारे थे। प्रदर्शन के लिए लगातार घूमते रहते थे।’ शमशाद यह कह तो रहे थे लेकिन उनके वाक्य-विन्यास और शब्दों के चयन से कहीं भी यह एहसास नहीं हुआ कि वे कम पढ़े-लिखे हैं। इसका श्रेय उन्होंने अपने पिता को दिया, जिन्होंने अपने बेटों को कला में पारंगत बना दिया और साथ ही भाषा-बोली के साथ इतना व्यावहारिक बना दिया कि ‘कोई भी यह नहीं जान पाता कि हम बहुत कम पढ़े-लिखे हैं। ‘
लगातार संकीर्ण होता गया है समाज का नजरिया
एक समय था जब इस कला और कलाकारों को बहुत ही सम्मान मिलता था। लोगों को इस कला पर बहुत नाज़ और भरोसा था लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है। बहुरूपियों को आज चोर-उच्चके और उठाईगीर से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता। कहीं कला दिखाने जाने पर उतना सम्मान भी नहीं मिलता। आज तक इन्हें कोई सपोर्ट नहीं मिला। सरकार की तरफ से इस काला को आगे बढ़ाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया और न ही कहीं कोई मान्यता ही प्राप्त हुई। शमशाद कहते हैं कि ‘ऐसे में एक बड़ा दर्शक वर्ग हमें उपेक्षा की नज़र से देखते हैं। लेकिन राजस्थान में हमारे स्थायी जजमान हैं। वहाँ हमको पूरा सम्मान मिलता है और सपोर्ट भी।’
राजस्थान राजाओं का गढ़ रहा है और इन्हीं राजाओं के मनोरंजन के लिए इन कलाकारों का बुलावा दूर-दूर तक होता था। एक समय मनोरंजन का एकमात्र साधन यही था। राज परिवारों में बहुरूपिया कलाकारों को बहुत सम्मान मिलता था। बहुरूपिया भांड़ जाति से आते हैं जो पिछड़ी जाति में शामिल है लेकिन इसका कोई लाभ आज तक इस समाज को नहीं मिला। बहुरूपिया बहुत प्राचीन कला है। बहुरूपिया कलाकार ही रामलीला और थिएटर का मुख्य आधार रहे हैं। यही एक कला है, जिसमें बहुरूपिया कलाकारों को कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं मिलता लेकिन वे अपने काम में इतने माहिर होते हैं कि अपनी वेशभूषा के आधार पर खुद ही स्क्रिप्ट लिखते हैं, संवाद बोलते हैं, मेकअप करते हैं और अपना पहनावा भी स्वयं तैयार करते हैं। कहने का मतलब है कि एक बहुरूपिया एक्टर, डायरेक्टर, स्क्रिप्ट राइटर, ड्रेस डिजायनर सबकुछ स्वयं होता है। इन्हें देखकर यह आभास तो हुआ ही कि किसी प्रशिक्षित कलाकार से उन्नीस नहीं बल्कि इक्कीस ही होंगे।
नई पीढ़ी का अंधकारमय भविष्य
बहुरूपिया कलाकारों ने रोजगार के संकट की बात कही। फरीद बहुरूपिया ने बताया कि ‘हमारे घर में हम छह भाइयों का संयुक्त परिवार है और सभी छह भाई इसी बहुरूपिया कला के माध्यम से परिवार चला रहे हैं। हम लोगों ने अपने पिता शिवराज बहुरूपिया को भी इसी काम में रहते हुए परिवार चलाते देखा। उनके समय में इस काम की बहुत इज्जत थी। देश-विदेश में उनका प्रदर्शन और सम्मान हुआ लेकिन घर की आर्थिक हालत में कोई बदलाव या सुधार नहीं हुआ। आज हम छह भाई भी यही काम कर रहे हैं और मुश्किल से परिवार चल रहा है। बच्चे समझ रहे हैं कि इतने वर्षों से काम करने के बाद भी नकद की समस्या बनी रहती है। इसी वजह से न तो वे लोग अच्छे से पढ़ पाए, न ही उनका जीवन सामान्य स्थिति से गुज़र पा रहा है। इस वजह से वे इस काम में आने से कतरा रहे हैं और सच कहूँ तो शर्म भी महसूस करते हैं। क्योंकि यदि सुबह कुछ मिल गया तो शाम का कोई ठिकाना नहीं। हमारे बच्चों ने बीमार दादा शिवराज बहुरूपिया के इलाज के लिए लाखों का कर्जा लेते देखा। लेकिन तब भी सरकार से किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली। हम कलाकार केवल मनोरंजन के लिए होते हैं।’
बहुरूपिया राजस्थान की पारंपरिक लोककला है। इसकी शुरुआत ही यहीं से हुई थी लेकिन न तो राजस्थान सरकार ने इस कला को बचाने और आगे ले जाने के लिए कोई काम किया, न ही भारत सरकार के पास इस कला को बचाने के लिए कोई योजना है। जबकि हमारे जिले में लगभग पाँच हजार लोग इस काम से जुड़े हुए हैं और बदहाल स्थिति में जीवन गुजार रहे हैं। इसे यदि स्थायी रोजगार की श्रेणी में रखा जाता तो आने वाली पीढ़ी इसे और बेहतर तरीके से करती क्योंकि उनके पास रोजी-नौकरी का कोई संकट नहीं होता। हमारी पीढ़ी आखिरी पीढ़ी है। हमारे परिवार में हमारी बाद की पीढ़ी इस काम को नहीं कर रही है न ही करने के इच्छुक हैं। स्थायी रोजगार की श्रेणी नहीं रहने की वजह समाज के सभी बच्चे अशिक्षित या बहुत कम ही पढ़-लिख पाए। जो केवल मजदूरी ही करने के योग्य हैं। आजतक हमारे समाज के केवल दो लोगों को राजस्थान रोडवेज में सरकारी नौकरी मिली।
बहुरूपिया हिन्दू-मुस्लिम दोनों धार्मिक समुदायों से आते हैं। शमशाद कहते हैं, ‘हमारी जाति भांड़ है। इसे कहीं एससी और कहीं पिछड़े वर्ग में रखा गया है। भागीदारी के सवाल पर शमशाद ने कहा कि ‘हम चाहते तो हैं कि सरकार हमारे बच्चों के लिए कुछ करे लेकिन हमें अपनी बात रखने और कहने का कोई जरिया नहीं है। हमारे पास कोई ताकत नहीं है कि हम उन तक पहुँच पाए और अपनी बात कह पाएं। जबकि बहुरूपिया के राष्ट्रीय कलाकार के रूप में हमारी पहचान है, लेकिन सरकार इस बात को कहने से पीछे हटती है। कोई भी सरकारी कार्यक्रम होता है तो वहाँ ईवेंट मैनेजर के माध्यम से बॉलीवुड कलाकारों को बुलाया जाता है और लाखों रुपये दिए जाते हैं और इसके उलट हम लोककलाकारों का मानदेय मात्र 750/- है। इसलिए कोई अपेक्षा नहीं रखते और इसी वजह से यह खत्म होने की कगार पर है।’
लोगों की रुचि और माध्यम बदल जाने से पूरे देश की लोकसंस्कृति के विकृत और विलुप्त हो जाने का खतरा लगातार बढ़ रहा है।