Thursday, April 18, 2024
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गैंग्स ऑफ गोरखपुर – जातीय दंभ को दांव पर लगाकर यहाँ से शुरू होते हैं राजनीति और अपराध के साझी बिसात के खेल 

उत्तर प्रदेश के बाहुबली -1 ऐलान होता था कि ‘घर से मत निकलना, आज गोली चलेगी और लोग डर से छुप जाते थे  उत्तर प्रदेश के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने में ठाकुरों व ब्राह्मणों की साझेदारी एवं सामंजस्य किसी से छुपे नहीं हैं पर जब बाहुबल के वर्चस्व की बात आती है तो यह दोस्ती […]

उत्तर प्रदेश के बाहुबली -1

ऐलान होता था कि ‘घर से मत निकलना, आज गोली चलेगी और लोग डर से छुप जाते थे 

उत्तर प्रदेश के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने में ठाकुरों व ब्राह्मणों की साझेदारी एवं सामंजस्य किसी से छुपे नहीं हैं पर जब बाहुबल के वर्चस्व की बात आती है तो यह दोस्ती नीम और करेला जैसी हो जाती है। यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि किसके मन में किसके लिए ज्यादा कड़वाहट भरी है। अगर यह कहा जाए कि इस कड़वाहट की जन्मस्थली मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्मभूमि गोरखपुर है तो बात बेमानी नहीं होगी। इस कड़वाहट के संवाहक मुख्यमंत्री भी हो सकते हैं पर इसके सूत्रधार नहीं। गोरखपुर उस ज़मीन में से एक है, जहां जातीय दंभनाद की आग शेष प्रदेश से ज्यादा जलती है। इसी आग ने पूर्वांचल को गैंग्स का गढ़ बना दिया था। इस शब्द ने पूर्वांचल में लगभग चार दशक की यात्रा पूरी की है। आज यह शब्द यहाँ उतना ताकतवर भले ही नहीं रह गया है पर खत्म भी नहीं हुआ है। जबकि अपने शुरुआती दौर में यह शब्द खुलेआम हत्या और गोलीबारी का ऐसा प्रतीक बन गया था कि सुनने वाले का कलेजा कांप जाता था।

गोरखपुर की जमीन से शुरू हुई इस आग ने वाराणसी और गाजीपुर को भी अपनी जड़ में समेट लिया था और तीनों जिले मिलकर बाहुबल के  ऐसे केंद्र बन गए थे कि पूरे उत्तर प्रदेश की आपराधिक और राजनीतिक हवा का रुख तय करने लगे थे। 1980 के दौर में गोरखपुर से माफियाराज का उदय हुआ था और इसके सूत्रधार बने थे हरिशंकर तिवारी। हरिशंकर तिवारी उत्तर प्रदेश के जरायम की दुनिया के पहले आदमी थे, जिसने सबसे पहले यह महसूस किया था कि अगर अपराध को किसी व्यवसाय की तरह संचालित करना है तो अपनी आपराधिक छवि को राजनीति का जोड़ा-जामा पहनाना जरूरी है। हरिशंकर ने किसी गणितज्ञ की तरह से अपने अपराध को परिमार्जित किया। अपनी जाति को अपना आधार बनाया और ब्राह्मण चेहरे के तौर पर अपनी मुकम्मल छवि तैयार की। इसके बाद उसी आधार के सहारे ठीक 90 अंश पर राजनीति का लंब बना दिया। इस लंब और आधार के ज्यामितीय परिणाम से जो विकर्ण बना उसने हरिशंकर तिवारी को उत्तर प्रदेश के माफिया जगत से लेकर राजनीति तक बाहुबली के रूप में स्थापित कर दिया।

वीरेंद्र प्रताप शाही और श्रीप्रकाश शुक्ला

जातीय वर्चस्व के खेल में ठाकुर बनाम ब्राह्मण की शुरुआत

यह कहानी 1970 के दशक में तब शुरू होती है जब पूरे देश में इंदिरा गांधी के खिलाफ जय प्रकाश नारायण ने आंदोलन का बिगुल बजा रखा था। उस समय की छात्र राजनीति पर जेपी आंदोलन का भरपूर असर था। पूर्वांचल की छात्र राजनीति भी जेपी आंदोलन से प्रभावित थी, पर इस राजनीति का पूरा लोहा अपने अंदर बारूद की आग समेट लेने की जुगत में लगा हुआ था। यहाँ की युवा राजनीति कट्टे के दम पर अपना भविष्य तय करने की ओर अग्रसर थी। 1972-73 में इस युवा आक्रोश को परखने के साथ उसकी कमान अपने हाथ में लेने के मंसूबे के साथ इस खेल में युवा हरिशंकर तिवारी की इंट्री होती है। यूनिवर्सिटी की राजनीति में धाक जमी तो एमएलसी का चुनाव लड़ा, पर हार गए। हरिशंकर चुनाव हारे जरूर थे पर उन्हें अपने भविष्य का रास्ता दिख गया था। अब तक की इस पराजित राजनीति ने भी उन्हें ठेकेदारी का काम दिलाना शुरू कर दिया था। ब्राह्मण समाज के युवा हरिशंकर तिवारी के रूप में अपना वह नायक पा चुके थे जिसको किसी भी तरह राजनीति के केंद्र में स्थापित करके वह अपनी उम्मीद की राह पर आगे बढ़ सकते थे। हरिशंकर तिवारी ने तब तक अपनी ठीक-ठाक आपराधिक छवि बना ली थी और जेल जा चुके थे।

वीर बहादुर सिंह

दरअसल, हरिशंकर तिवारी के इर्द-गिर्द जिस तेजी के साथ जातीय ध्रुवीकरण शुरू हुआ था उसने तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को भी सकते में डाल दिया था और उन्हें भी भविष्य में मिलने वाली चुनावी चुनौती का एहसास हो गया था। इसकी वजह से बीर बहादुर सिंह ने पर्दे के पीछे से हरिशंकर तिवारी पर हमला शुरू किया और सरकार की पुलिस ने हरिशंकर तिवारी को मोस्ट वांटेड अपराधी घोषित कर दिया। वीर बहादुर सिंह के प्रयास से हरिशंकर तिवारी जेल तो चले गए पर यही वह जगह थी जिसने हरिशंकर को बाह्मणों का नया परशुराम अवतार भी बना दिया था। पूरे प्रदेश में हर तरह की साझेदारी करने वाली ठाकुर-ब्राह्मण जाति ने गोरखपुर में इस साझेदारी को पूरी तरह से खत्म कर दिया। अब ब्राह्मण और ठाकुर के लौंडे अलग-अलग स्कूल के छात्र बन गए थे। ब्राह्मण शक्ति का केंद्र स्थल हरिशंकर तिवारी थे तो ठाकुर शक्ति का केंद्र बरास्ते बलवंत ठाकुर, वीरेंद्र प्रताप शाही बने। वीरेंद्र प्रताप शाही की ताकत के पीछे गोरखपुर का मठ था। यह वही मठ है जिसके तत्कालीन महंत योगी आदित्यनाथ हैं। उसी समय से उस मठ पर ठाकुरवादी वर्चस्व के केंद्र-स्थल की वह मुहर लगी जो आज तक कायम है। यहाँ तक कि योगी आदित्यनाथ पर भी यह आरोप कई बार लगते रहे हैं कि वह स्वाजातीय लोगों के प्रति ज्यादा स्नेहपूर्ण भाव रखते हैं। विकास दुबे एनकाउंटर के बाद तो भाजपा के अंदर भी योगी को एंटी ब्राह्मण चेहरे के रूप में देखा जाने लगा है। कोयला भले ही इतिहास से आया हो पर वह वर्तमान को भी काला तो करता ही है।

गैंगेस्टर से विधायक

हरिशंकर तिवारी के कथनानुसार “वे राजनीति में इसलिए आए क्योंकि उस समय के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने उन पर झूठे केस लगाकर जेल भेज दिया था। वह बताते हैं कि वह पहले प्रदेश कांग्रेस के सदस्य थे, इंदिरा गांधी के साथ काम कर चुके थे पर कभी चुनाव नहीं लड़ा था। तत्कालीन सरकार द्वारा किये उत्पीड़न के खिलाफ उन्हें राजनीति में कदम रखना पड़ा। बहरहाल, अब हरिशंकर तिवारी नाम नहीं बल्कि अपनी जाति के प्रतीक बन चुके थे। हरिशंकर तिवारी का आपराधिक फोकस एकदम साफ था। वह सिर्फ हिंसा के लिए अपराध की दुनिया में नहीं आए थे, बल्कि वह अपने तलुए के तले एक बड़ी आर्थिक ताकत महसूस करने का इरादा बना चुके थे। इस आर्थिक ताकत का आधार ठेकेदारी थी। अपने इन्हीं मंसूबों को पूरा करने के इरादे से उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया और जेल में रहते हुए ही 1985 में गोरखपुर की चिल्लू पार विधानसभा सीट से विधायक बन गए। यह उत्तर प्रदेश की राजनीति में नया प्रयोग था और किसी गैंगस्टर का राजनीति में पहला प्रवेश भी था। इस चुनावी जीत ने हरिशंकर तिवारी को गोरखपुर से आगे पूरे प्रदेश में एक ताकतवर पहचान दे दी। तिवारीजी का हाता (उनके घर को इसी नाम से जाना जाता है) पूरे पूर्वांचल के अपराधियों की राजधानी बन गया।

हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र प्रताप शाही दोनों ही ठेकेदारी के माध्यम से अकूत धन उगाही की कोशिश में लग गए थे। जिसकी वजह से गैंगवार शुरू हो गई। कहा जाता है कि दोनों गुटों की गैंगवार से पहले ही ऐलान हो जाता था कि ‘आज घर से कोई निकलेगा नहीं…’ और लोग भी घरों में दुबक जाते थे। गोलियों की तड़तड़ाहट जब पूरी तरह से शांत होती थी तब लोग लाश उठाने जाते थे। हरिशंकर तिवारी अपराध के इस नंगे खेल में कभी भी सीधे सामने नहीं आते थे, बावजूद इसके 1980 के दशक में उनपर लगभग 26 बड़े आपराधिक मामले दर्ज हुए। पर उन मामलों में कभी अपराध साबित नहीं हुआ।

अपराध से राजनीति का रास्ता पकड़ा और बन गए बाहुबली ‘बाबू जी’

सन 1985 में निर्दलीय चुनाव जीतकर हरिशंकर तिवारी ने आपराधिक कालिख को राजनीति की सफेदी से ढंकने के तिलिस्मी रास्ते से अन्य माफियाओं को भी रूबरू करवाने का काम किया। 1997 से 2007 तक लगातार हरिशंकर तिवारी मंत्री रहे। सरकार की पार्टी बदलती रही। मुख्यमंत्री का चेहरा बदलता रहा पर हरिशंकर तिवारी के जलवे में कभी कोई कमी नहीं आई। वह हर सरकार की गाड़ी में बहैसियत मंत्री सवार रहे। वह तीन बार निर्दलीय तो दो बार कांग्रेस समेत कुल छह बार विधायक बने। हरिशंकर तिवारी का दरबार ही गोरखपुर की न्यायपालिका बन चुका था। तिवारी के फैसले को नाफरमानी करने की कूवत ना आम आदमी में थी, ना प्रशासन में। वक्त के साथ वह समाज के प्यार भरे सम्बोधन में ‘बाबूजी’ बन चुके थे। कभी किराये के घर में रहने वाले तिवारी अब किले जैसे भवन के मालिक बन चुके थे और स्वजातीय अपराधियों को संरक्षण देकर तेजी से अपनी गैंग भी बढ़ा रहे थे। उनके सबसे चर्चित मोहरों में श्रीप्रकाश शुक्ला सबसे उल्लेखनीय नाम है। इसी श्रीप्रकाश शुक्ला ने हरिशंकर तिवारी के सबसे बड़े दुश्मन वीरेंद्र प्रताप शाही की लखनऊ में सरेआम हत्या कर दी। हत्या भले ही श्रीप्रकाश शुक्ला ने की थी पर पूर्वांचल के माफिया-संसार में यह  हरिशंकर तिवारी के रुतबे का उत्सव बन गई।

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हरिशंकर तिवारी अपराध के खेल में हमेशा ट्रेंड सेटर के रूप में देखे गए। वह आपराधिक छवि के साथ राबिनहुड छवि को बनाए रखना चाहते थे और लगभग 2007 तक उनके प्रयोग में उन्हें असफलता नहीं मिली। हरिशंकर तिवारी खुद जुर्म नहीं करते थे बल्कि अपराधी हायर करते थे और उनसे ही जुर्म करवाते थे। हरिशंकर के दो शार्प शूटर साहेब सिंह और मटनू सिंह ही उनके इशारे पर ज्यादातर अपराध को अमली जामा पहनाते थे।

एक वक्त ऐसा भी आया जब हर ठेका तिवारी का या तिवारी के समर्थकों के पास था। तिवारी से दुश्मनी का दावा करने वाला कोई दुश्मन जिंदा नहीं था। एक ओर जहां तिवारी की अपराजेय हनक थी, वहीं दूसरी ओर चिल्लूपार की जनता के प्रति उनका निजी लगाव भी था। वह गरीबों को परेशान नहीं करते थे बल्कि हर संभव मदद के लिए तैयार रहते थे थे जिसकी वजह से 6 बार वह विधायक भी बने।

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फिलहाल, अपराध और राजनीति के अलग-अलग समीकरण को एक ही प्रमेय से सिद्ध करने वाले इस बाहुबली के पराभव की शुरुआत 2007 से शुरू हुई। वह पहली बार चुनावी रूप से पराजित हुए। 2012 में पुनः पराजय का मुंह देखना पड़ा तो राजनीति से संन्यास ले लिया। 2009 में उनके बड़े बेटे भीष्म शंकर तिवारी संत कबीर नगर से सांसद रह चुके हैं। उनकी राजनीतिक विरासत अब भी उनके बेटों के पास है। 2017 में उनके छोटे बेटे विनय शंकर तिवारी चिल्लूपार से जीत कर अपने पिता की हार का बदला पूरा कर चुके हैं। फिलहाल, इस समय ब्राह्मण समाज का सबसे बड़ा नेता सपरिवार समाजवादी पार्टी में है और अपने परिवार की पुरानी हनक वापस पाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहा है।

कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।

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