प्रार्थना: मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा

प्रीति सिंह

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‘प्रार्थना’, ख्यातिलब्ध कथाकार-उपन्यासकार संजीव की अद्यतन कहानी है। हिंदी साहित्य की गद्य विधा में दो सौ से अधिक कहानियाँ लिखने वाले यशस्वी कथाकार संजीव शब्दों के कुशल चितेरे होने के साथ ही अपनी विशिष्ट शैली, भाषा-विन्यास एवं विषय-वस्तु के लिए अलग से जाने जाते हैं। वे अपनी कहानियों में मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं का ऐसा धरातल तैयार करते हैं, जहाँ जीवन के नए आयाम पाठकों को शिद्दत से उद्वेलित करते हैं। उनकी कहानियों में कथ्य और शिल्प दोनों ही बेजोड़ होते हैं। यहाँ पाठक कथ्य से केवल द्रवित ही नहीं होता अपितु शिल्प से प्रभावित भी होता है।

संजीव सिद्धहस्त कहानीकार-उपन्यासकार हैं। उनके यहाँ सृजन में कथ्य की पुनरावृति नहीं है। वे कथ्य में व्यापकता की दृष्टि से समृद्ध कथाकार हैं। वे जनमानस की बात कहते हैं, लेकिन बिलकुल नए अंदाज़ में और यही उनके लेखन की कलात्मकता है। वे सर्वथा नवीन विषयों को अपनी रचना का आधार बनाते हैं। पुराने प्रसंगों को यदि अपनी कहानी या उपन्यास का विषय बनाते भी हैं तो खालिश नवीनता के साथ, जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान में भी उतनी ही अक्षुण्ण है जितना कि अतीत में रहा था। मृत्यु के पश्चात अधिकांश व्यक्ति अंग दान करते हैं, यह कोई नई बात नहीं, किन्तु ‘प्रार्थना’ कहानी में संजीव ने इस विषय को जिस अंदाज़ में उद्धृत किया है वह विरल है।

प्रार्थना में संजीव, जीवन और मृत्यु के बीच, मृत्यु से परे जीवन और जन्म की उपयोगिता रेखांकित करते हैं। भौतिक जीवन में दुश्वारियाँ कम नहीं है फिर भी मनुष्य तमाम झंझावातों को झेलते हुए आगे बढ़ता है। यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि जीवन के प्रति उसका एप्रोच क्या है। दुर्घटना में अपनी जान गँवाने वाला आनंद एक जिंदादिल इंसान है। जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण सकारात्मक रहा है जो मानवीय संवेदना से परिपूर्ण है। आनंद सांसारिक दुनिया का व्यक्ति ज़रूर है किन्तु उसकी सोच और उसका कर्म इस दुनिया से भिन्न एक पारलौकिक दुनिया की अनुभूति कराता है।

‘प्रार्थना’ मानवीय संवेदनाओं की पृष्ठभूमि पर उकेरी गई मर्मस्पर्शी एवं मानवतावादी दृष्टिकोण से प्रेरक कहानी है। यह कहानी मानवीय मूल्यों की रक्षा करती है। जीवन-मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भौतिक संसार में जन्म लेना जीवन का आगाज है तो मृत्यु का वरण अंजाम। मृत्यु अटल सत्य है। मृत्यु के साथ ही परलौकिक ब्रम्ह की यात्रा में आत्मा सजीव काया से मुक्त हो जाती है। काया रुपी पिंजर में मनुष्य इस लौकिक संसार के प्राणी के रूप में जीवनपर्यन्त कर्मरत रहता है। यह जीवन कर्म ही किसी मनुष्य के व्यक्तिविशेष का परिचायक होता है। अपने कर्म से व्यक्ति जीवित अवस्था में और मरने के बाद भी अपने अस्तित्व को जीवित रखता है। अपने पीछे छोड़े गये पदचिन्हों के माध्यम से ही समाज किसी व्यक्ति को याद रखता है। आधुनिक विज्ञान ने मनुष्य की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की देन ने जीवन की कसौटी को अर्श पर पहुँचा दिया है। ह्यूमन आर्गन के ट्रांसप्लांट ने अंगदान की जिस मानवीय परंपरा की नींव रखी उसमें संजीव की कहानी ‘प्रार्थना’ सर्वोच्च मानक स्थापित करती है। दुर्घटना में मृत्यु के पश्चात अंग दान के माध्यम से आनंद न केवल भौतिक संसार में अपने अस्तित्व को जीवित रखने का उपक्रम करता है, बल्कि आध्यात्मिक जीवन के ईश्वरीय रूप का भी प्रतिस्थापन करता है।

‘प्रार्थना’ में संजीव, जीवन और मृत्यु के बीच, मृत्यु से परे जीवन और जन्म की उपयोगिता रेखांकित करते हैं। भौतिक जीवन में दुश्वारियाँ कम नहीं है फिर भी मनुष्य तमाम झंझावातों को झेलते हुए आगे बढ़ता है। यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि जीवन के प्रति उसका एप्रोच क्या है। दुर्घटना में अपनी जान गँवाने वाला आनंद एक जिंदादिल इंसान है। जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण सकारात्मक रहा है जो मानवीय संवेदना से परिपूर्ण है। आनंद सांसारिक दुनिया का व्यक्ति ज़रूर है किन्तु उसकी सोच और उसका कर्म इस दुनिया से भिन्न एक पारलौकिक दुनिया की अनुभूति कराता है।

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इस भौतिक संसार में व्यक्ति जीते जी अपने विचारों की सकारात्मकता, परोपकार और सृजन से अपने बाद भी एक सुखद स्मृति छोड़ जाता है, किन्तु इस कहानी के कथ्य में सबसे बड़ी विशिष्टता यही है कि जीते जी तो जो कर्म किया गया सो किया गया किन्तु मरणोपरांत भी अपने शरीर का उपयोग, दूसरों को एक नयी जिंदगी देकर गया। संजीव का यह नवीन प्रयोग उन्हें अपनी रचना में सफल बनाता है। कहानी की निम्नलिखित पंक्तियाँ कहानी के मर्म की उत्कृष्टता को समझने के लिए विवश करती है। आनंद कहता है, मेरी बॉडी को न जलाना, न दफनाना, फेंक देना दिशाओं में, पारसियों की तरह रख देना कहीं चट्टान पर, चील-कौवे और अन्य जीव आकर चुग लें….मरनो भलो विदेश में, जहाँ न अपनों कोय, माटी खाय जनावरा, महाम्होच्छ्व होय। जहाँ लोग अपने मृत शरीर को भी जतन से अग्नि दिलवाने की चाह रखते हैं, वहाँ अपने शरीर को मृत्युपरांत चारों दिशाओं में फैलाने की चाह और चील-कौवे को खाने के लिए दान करने का विचार, कहानी के कथ्य को उत्कृष्टता प्रदान करता है। संजीव ने अपने विचारों को अपने पात्र आनंद में उतारते हुए उसके चरित्र को श्रेष्ठता प्रदान की है।

आनंद के ये पारलौकिक भाव मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा का दिग्दर्शन कराती है। कहानी के कथ्य के इस बिंदू के समक्ष अन्य सभी बिन्दुएँ फीकी जान पड़ जाती हैं। आनंद की इच्छा पूर्ण होती है।उसका शरीर दसों दिशाओं में वितरित होकर कई लोगों को एक नई जिंदगी प्रदान करता है। उन्हें पुनः जी उठने के लिए एक नई दुनिया देता है।

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संजीव के शब्दों में, इसे क्या कहें-आनंद का श्लेष या एकोअह्म्…वाकई अनंत टुकड़ों में बँट गये तुम। आनंद के माध्यम से संजीव ने न सिर्फ अंगदान के मुद्दे को उठाया है बल्कि उन्होंने विभिन्न जाति एवं धर्मों में आनंद के अंगों का ट्रांसप्लांट दिखाकर धर्म एवं जाति की संकीर्णताओं को मिटाने का प्रयत्न भी किया है। आनंद के अंग किसी एक धर्म या जाति में बँटकर नहीं रह जाते बल्कि वह तमाम् आवर्जनाओं को पार कर विभिन्न मतों को मनुष्यता के एक सूत्र में पिरोते हैं।

केशव कुट्टी, कहानी का सूत्रधार है। आनंद के अंगदान से उसका दाया हाथ कुट्टी के हिस्से आया है। वह कहानी का कृतज्ञ पात्र है जो एक अभियान के तहत गायत्री और उसकी बेटी प्रार्थना को ढूंढ निकालता है. वह गायत्री का शुक्रिया इस रूप में अदा करता है कि उनके पति कितने महान व्यक्तित्व थे। उनके अंगदान से इतने ज़रूरतमंद लोगों को नवजीवन मिला। जैकब और खुर्शीद के जीवन का अँधेरा हमेशा-हमेशा के लिए मिट गया। आनंद की दोनों आँखों ने इन दोनों के जीवन के अँधेरे को रोशनी में तब्दील कर दिया। आनंद की एक किडनी शकीला बानो के शरीर में ट्रांसप्लांट की गयी तो दूसरी सत्तर वर्षीय वृद्ध चौबे जी को जीवन दान दे गया। उनकी गोरी त्वचा, काली त्वचा वाले सर हार्लेक को नया यौवन प्रदान करता है, वहीं बोनमैरो किसी महिला के शरीर का हिस्सा बनता है। हृदय सैमुएल साहब को प्लांट किया गया जो दुर्भाग्यवश सक्सेस नहीं रहा। कुट्टी अपनी दूसरी मुलाकात में लाभान्वितों को गायत्री के घर लाते हैं, कृतज्ञता की दूसरी क़िस्त अदा करने। आनंद के अंगदान से उपकृत सभी गायत्री के आभारी हैं। आभार प्रकट करने के लिए उनके पास शब्द भले ही थोड़े हैं किन्तु आँखों में कृतज्ञता का ठांठे मारता समंदर है। गायत्री किंकर्तव्यविमूढ़ है।

यहाँ कहानी अपने चरम पर जा पहुँचती है। उसके सामने फिर से नई दुनिया उभर आती है जिसमें उसका आनंद अभी भी जिन्दा है- टुकड़ों में बंटकर ही सही। अनेक शरीर में ट्रांसप्लांट होकर कई-कई शरीर का हिस्सा बनकर। कुट्टी का हाथ उसे आनंद के होने का अहसास कराता है। गायत्री पुनः अपनी पुरानी दुनिया में लौट जाती है, जहाँ आनन्द के हृदय में गायत्री के प्रति अगाध प्रेम है। अपने सकारात्मक विचार, जीवन जीने के अह्ल्दा ढंग, बातों में शायराना पुट, उच्छृंखल स्नेह से पत्नी के दिलोदिमाग में प्रेम के शाश्वत बीज बोता है। केशव कुट्टी से मिलने के उपरान्त आनंद की बातें गायत्री को गुदगुदाती है, रोमांचित करती है और गर्वोक्ति प्रदान करती है। पहली मुलाकात में गायत्री कुट्टी के हाथ में लगे आनंद के हाथ को पहचानकर भावावेश में चूम लेती है। दूसरी मुलाकात में आनंद के अन्य अंग-प्रत्यंग को दूसरे लाभान्वितों के शरीर में महसूसती है। आँखों को आँखों ही आँखों में, त्वचा के रंग को आनंद के रंग से मेल करती, किडनी और बोनमैरो को मन की आँखों के एक्स-रे से पता करती गायत्री भावना के उस द्वीप में विचरण करती प्रतीत होती है जहाँ आनंद के विशुद्ध प्रेम की बातें, वातावरण की ताजी हवा संग घुलकर उसके कपोंलो को सहलाती मन को गुदगुदाती है। प्रेम अपने सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति में परिलक्षित होता है। आनंद को इतने रूपों में सामने पाकर गायत्री स्वप्न लोक में पहुँच जाती है, जहाँ उसका मन-प्राण शरीर-आत्मा भावविभोर चैतन्य की प्रतीति करती है।

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कहानी के मर्मस्पर्शी पक्ष का दूसरा पहलू ‘प्रार्थना’ है। गायत्री और आनंद की एकमात्र संतान। आनंद की प्रतिमूर्ति, आनंद की डीएनए पिता के डीएनए से निर्मित अस्तित्व में मेधा, प्रतिभा के साथ दयाभाव, दानभाव, परोपकार का आंगिक और गुण सूत्र का सूक्ष्म ट्रांसप्लांट। वास्तव में, प्रार्थना, आनंद की तरह सबका भला चाहने वाली लड़की है। कक्षा में प्रथम आकर भी वह अपनी ख़ुशी से अधिक सहपाठियों के सैड फील करने से सैड हो जाती है। उसका सेंस ऑफ़ ह्यूमर कुट्टी सहित सारे लाभुकों को आश्चर्य से भर देता है। कुट्टी को प्रार्थना में आनंद की झलक दिखती है। उसे लगता है यह ब्रेन डेड नहीं ब्रेन एक्सिस्ट है आनंद का डीएनए प्रार्थना में बायोलॉजिकली तो है ही उसके सारे गुण भी नैचुरली कायम है। बाप बेटी में जिन्दा है। बकौल संजीव, ‘उनका बेटी प्रार्थना भी तो किसी को दुखी…? बेटी में जिन्दा है बाप’।

प्रार्थना शब्द में श्रद्धा, भावना, पवित्रता और निष्काम का भाव समाहित है। प्रार्थना, ईश्वर की स्तुति मात्र नहीं होता वरन मानवीय आदर्श के उच्च मानक पर देवत्व में लीन सुकर्म होता है। यही धर्म है। भक्ति का ऐसा भाव जो किसी पत्थर की बेजान मूरत पर दूध, फल, मेवा, मिष्ठान अर्पित न कर ज़रूरतमंद की सेवा में समर्पित होकर मानवता की रक्षा करता है। आनंद का अंगदान प्रार्थना के पवित्र शब्द से कहीं अधिक पुण्यदात्री है। कर्म की प्रधानता, मानवता के रक्षार्थ, धर्म की ध्वजा थामे ‘सर्वे भवन्तु सुखिना’ को चरितार्थ करती है।

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संजीव ने इस कहानी में लौकिक से अलौकिक दुनिया की सृष्टि की है। मरणोपरांत भौतिक जीवन के कर्म की प्रासंगिकता का आध्यात्मिक सौन्दर्य कहानी का मर्मस्पर्शी पहलू है। यही मर्म कहानी का चरमोत्कर्ष भी है। निष्प्राण शरीर अग्नि को सुपुर्द राख में तब्दील हो या कब्र में दफ़न होकर मिटटी का हिस्सा, दोनों ही अर्थ में निरर्थक है। कहानी में आनंद का निर्जीव शरीर निरर्थक नहीं है। यह अनेक जीवित दिव्यांग शरीर का हिस्सा बनकर सार्थकता प्राप्त करती है। वास्तव में कहानी, मानव शरीर के अस्तित्व में होने या न होने के बावजूद इसकी उपयोगिता को मानवीय संवेदना से जोड़कर एक ऐसे संसार की संकल्पना में सफल रही है जहाँ मानव जीवन के वास्तविक प्राप्य अपने श्रेष्ठतम रूप रंग में उपस्थित है।

संजीव की अद्यतन कहानी ‘प्रार्थना’ का मर्म, वेदना में, वेदना से परे संवेदना जगाती, मानवीय धरातल पर मील का पत्थर साबित होती है।

प्रीति सिंह प्राध्यापिका हैं और आसनसोल में रहती हैं।

 

 

4 Comments
  1. Gulabchand Yadav says

    अच्छी समीक्षा। बधाई एवं शुभकामनाएं।

  2. Kabira says

    Iss kanya ko hum jaante hai..
    Bahut hi pratibha se sampann hai inke lekhnj me sakchaat sarswati maa ka waas haj to inke kalam me musi premchadra ki aatma…

  3. आनंद मिश्रा says

    बेहतरीन ढंग से आपने यशस्वी कथाकार संजीव के कहानी को अपने शब्दों के कुशल लेखनी से प्रस्तुत किया है ,……………शानदार प्रीति जी यूँ ही लिखते रहिये

  4. Vinod Yadav says

    बहुत ही अच्छा

    ???

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