उत्तर प्रदेश में छुट्टा पशुओं की समस्या एक मानव जनित सामाजिक समस्या है जिसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव कृषि पर पड़ा है। गाँव गाँव में सैकड़ों की संख्या में छुट्टा पशु खुले आम घूम रहे हैं और फसल को बर्बाद कर रहे हैं। किसानों की व्यथा अंततः विभिन्न मंचों के माध्यम से राजनैतिक दलों, प्रशासन एवं सरकार तक भी पहुंच चुकी है। विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा प्रमुखता से उठता रहा। स्वयं प्रधानमन्त्री तक को इस समस्या को स्वीकारते हुए शीघ्र समाधान का आश्वासन देना पड़ा। विभिन्न दलों के घोषणा पत्र और चुनावी भाषणों के दौरान छुट्टा गोवंश की समस्या की चर्चा हुयी। अगले सप्ताह तक प्रदेश में नयी सरकार का गठन हो जाना है, आगामी सरकार के समक्ष भी इस समस्या के समाधान हेतु कारगर उपाय करने का दबाव होगा। आइये, जमीनी सच्चाई को स्वीकारते हुए समस्या और समाधान पर कुछ समझने की चेष्टा करें।
इस समस्या का स्थाई निराकरण समाज और सरकार को दृढ इच्छाशक्ति के साथ मिलजुल कर करना होगा। सरकार के स्तर से प्रत्येक गाँव में गोवंश आश्रय स्थल (गौशाला) की स्थापना की घोषणा दुर्भाग्य से केवल कागजों पर ही सीमित रह गयी। नीतिगत खामियों के कारण इस प्रयास का व्यवहारिक परिणाम नगण्य रहा। इसके कई कारण हैं जिन पर गंभीरता से विचार नही हो सका। बहुत-सी ग्रामसभाओं में सार्वजनिक जमीन की उपलब्धता नहीं है जहाँ गौशाला की स्थापना हो सके। इसके अलावा सरकार की तरफ से एक पशु पर केवल 900 रुपये प्रतिमाह यानी 30 रुपया प्रतिदिन का ही भुगतान किया जाने का प्रस्ताव है।
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गौशाला के संचालन में होने वाले अन्य व्यय जैसे सुरक्षा, पानी, छाया, चिकित्सा, टीकाकरण आदि पर होने वाले व्यय को देखा जाय तो न्यूनतम 100 प्रतिदिन प्रति पशु से कम खर्च नही होगा, ऐसे में किसी भी गौशाला को सरकारी सहायता से लम्बे समय तक संचालित कर पाना संभव और व्यवहारिक नही है। एक-दो प्रतिष्ठित और स्वनामधन्य गौशालाओं जिनका संचालन किसी बड़ी संस्था या समूह द्वारा किया जा रहा हो को कुछ आर्थिक सहयोग समाज से प्राप्त हो जाता है किन्तु ग्राम स्तर पर संचालित गौशाला के लिए यह अकल्पनीय बात है कि यहाँ कोई आर्थिक मदद समाज से सतत रूप में मिलेगी। इस कारण तमाम सरकारी घोषणाओं के बावजूद गोवंश आश्रय स्थल का संचालन हो पाना संभव नही हो सका। कुछ गाँवो में यदि संचालन प्रारम्भ भी हुआ तो सरकारी मशीनरी की कागजी खानापूर्ति के चलते कई महीने तक संचालक को पैसे का भुगतान ही नहीं हुआ ऐसे में गौशालाएं दुर्व्यवस्था की शिकार हुईं और प्रायः बंद भी हो गयीं।
दरअसल इस योजना के कुशल संचालन के लिए जिस इच्छाशक्ति की आवश्यकता थी उसका सरकार या प्रशासन में सर्वथा अभाव रहा। केवल घोषणाएं की जाती रहीं और जमीनी सच्चाई तथा वास्तविकता जानने की कोई कोशिश नही की गयी। यही कारण रहा कि स्थिति बद से बदतर होती चली गयी और यह खेती किसानी के लिए अभिशाप हो गया। स्थिति यहाँ तक आ गयी कि आज गाँव की सड़क हो, बाजार हो या कि फोरलेन राजमार्ग हर जगह समूह में छुट्टा गोवंश दिखाई दे रहे हैं, आये दिन इनके कारण सड़क दुर्घटनाएं हो रही हैं, जहाँ एक तरफ लोग चोटिल हो रहे हैं और मौत तक हो जा रही है। दूसरी तरफ, गोवंश घायल होकर तड़प रहे हैं इनकी तीमारदारी करने कोई नही पहुंच रहा है, कुछ वर्ष पहले तक गोवंश को लेकर जो श्रद्धा भाव था जिसके कारण कहीं भी बीमार या घायलावस्था में गोवंश देखने पर आस पास के लोग सेवा को स्वतः तत्पर हो जाया करते थे वह सेवा भाव अब कम होते होते झल्लाहट की स्थिति में आ गया है। पशु चिकित्सालयों को सूचित करने पर वहां से कोई सकारात्मक सहयोग प्रायः नहीं मिल पाता है। गोवंश की यह दयनीय स्थिति केवल इसलिए है कि इनके लिए कोई स्थायी गोवंश आश्रय स्थल की स्थापना नहीं हो सकी।
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किसान से गोबर या कम्पोस्ट खरीदने की घोषणा भी केवल जबानी जमा खर्च के अलावा कुछ नही रही। व्यावहारिक बात करें तो कृषि के तरीके में बदलाव के कारण पशुओं के चारे के उत्पादन में कमी हो गयी है। हार्वेस्टर के प्रयोग से भूंसा या पुआल का काफी अंश बर्बाद हो जाता है इस कारण पशु चारे की औसत कीमत (पुवाल या भूंसा) 6-8 रुपये प्रति किलोग्राम तक हो गयी है। एक वयस्क गोवंश को औसतन 8-10 किलोग्राम पशु चारे की आवश्यकता होती है इसके अलावा पानी, खली चुनी, चोकर, दाना, दवा आदि का भी खर्च है। कोरोना संकट, नोटबंदी, आर्थिक मंदी, महंगाई आदि के कारण एक आम पशुपालक के लिए निष्प्रयोज्य पशु को रख पाना कठिन हो रहा है। छुट्टा पशुओं की समस्या के चलते हरे चारे की खेती और उत्पादन नगण्य हो गया है इसका भी असर पशु पालन पर पड़ रहा है।
ट्रैक्टर और अन्य कृषि यंत्रों के बढ़ते चलन के कारण खेती के कार्यों में बछड़ों, साँड़ और बैल का प्रयोग अब काफी कम हो गया है, अतः ऐसे पशुओं को सार्वजनिक छोड़ देना आम बात हो गयी है। वैसे भी देसी नस्ल के अलावा विदेशी नस्ल के बछड़े कृषि कार्यों के लिए प्रायः अनुपयोगी ही होते हैं। इसी प्रकार दूध न देने वाले पशुओं को भी महंगाई के कारण प्रायः छुट्टा छोड़ देने का चलन बढ़ा है। जबकि नैतिक और सामाजिक दृष्टि से देखें तो यह बहुत ही गैरजिम्मेदारी भरा कृत्य है कि आप पशु पालन करते हैं और पूरा लाभ प्राप्त करने के बाद निष्प्रयोज्य जानवरों को सार्वजनिक स्थानों पर खुल्ला अपने हाल पर जीने मरने के लिए छोड़ देते हैं। गांवों में चरागाह या अभयारण्य जैसी कोई व्यवस्था शेष नही बची है ऐसे में इन छुट्टा जानवरों के पास जीवन बचाने के लिए कृषि फसल को चरने के अलावा कोई विकल्प ही नही है।
तीन वर्ष पहले उत्तर प्रदेश की सरकार ने सड़क पर घूमते गोवंश के लिए गौशाला के निर्माण और उनके रखरखाव के लिए संसाधन जुटाने हेतु 0.5 प्रतिशत ‘गो-कल्याण सेस’ लागू किया है। यह ‘कर’ शराब, टोल प्लाजा और सरकारी इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों आदि से वसूल जा रहा है, सोच यह है कि इस कर के द्वारा जो पैसा जमा होगा उसकी मदद से प्रदेशभर में छुट्टा गोवंश के लिए शेल्टर होम बनाया जाएगा लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ होते नही दिखा। छुट्टा गोवंश की समस्या का स्थायी समाधान सरकार और समाज को ही निकालना होगा कुछ नये प्रयोग करने होंगे लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी होगा व्यावहारिक नीति बनाना और उसे दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ क्रियान्वित करना।
कुछ सुझाव निम्न हैं-
- पशु गणना और जिओटैगिंग कराकर नियमित रूप से आंकड़े एकत्र करना जिससे योजना और बजट व्यावहारिक रूप से बन सके।
- ग्राम सभास्तर पर कम से कम 200 गोवंश की क्षमता के गोवंश आश्रय स्थल की स्थापना करना। जिसमे बाड़, पेयजल, छाया, चारे के भंडारण हेतु शेड, हरे चारे के लिए व्यवस्था, कम्पोस्ट एवं केंचुआ खाद इकाई की स्थापना एवं सामुदायिक बायोगैस की स्थापना अनिवार्य रूप से हो। यदि किसी ग्राम सभा में कोई सार्वजनिक भूमि न उपलब्ध हो तो निजी भूस्वामी से किराए पर पर्याप्त भूमि प्राप्त की जाए। इसी प्रकार नगरीय क्षेत्र में भी भूमि चिन्हित करके नंदी विहार की स्थापना हो।
- गोवंश आश्रय स्थलों पर दैनिक श्रम कार्य हेतु श्रमिकों की व्यवस्था ग्राम सभा द्वारा मनरेगा के अंतर्गत कराई जाय, गोवंश की देखरेख के लिए निश्चित मानदेय पर स्थानीय युवको की नियुक्ति की जाय।
- पशुओं की संख्या उनकी स्थिति और देखरेख के लिए ग्राम स्तर पर सक्रिय निगरानी समिति हो और किसी भी अनियमितता पर उसकी जवाबदेही सुनिश्चित हो।
- गोवंश आश्रय स्थलों से उत्पादित दुग्ध, कम्पोस्ट, केंचुआ खाद, बायो गैस आदि के विक्रय की समुचित व्यवस्था हो। इन स्थलों से विद्युत उत्पादन की इकाइयों की स्थापना की सम्भावना भी तलाशी जाय।
- गोवंश के देख रेख के लिए प्रति पशु न्यूनतम 100 रुपया प्रतिदिन का भुगतान ग्राम सभा के माध्यम से साप्ताहिक अवधि पर किया जाय।
- यदि कोई गौ सेवक सेवा हेतु गौशाला से गोवंश लेना चाहे तो उसे भी प्रति पशु न्यूनतम 100 रुपया प्रतिदिन का भुगतान किया जाय।
- निजी स्तर पर निष्प्रयोज्य गोवंश रखने के लिए आम जन को प्रेरित किया जाए। उनसे गोबर, गोमूत्र, कम्पोस्ट आदि उचित मूल्य पर क्रय किये जाने की एवं चारे के लिए प्रति पशु न्यूनतम 50 रुपये प्रतिदिन की प्रतिपूर्ति प्रदान करने की व्यवस्था की जाय। यह सुनिश्चित किया जाए कि कोई पशु पालकअपने पशुओं को छुट्टा न छोड़ें उन्हें आस पास की किसी गौशाला में लिखित आवेदन और बंध पत्र के साथ सौंपे।
- कृषि एवं अन्य कार्यों हेतु बछड़ा, बैल, भैंसा आदि के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के लिए परंपरागत तरीकों में तकनीकी को विकसित किया जाए एवं इस प्रकार के प्रयोग करने वालों को विशेष पारितोषिक दिया जाय।
- उपरोक्त कार्यों के लिए संसाधन की उपलब्धता के लिए ‘गो-कल्याण सेस’का दायरा बढ़ाते हुए इसे अन्य क्षेत्रों में भी विस्तारित किया जाए। गोवंश आश्रय स्थलों की स्थापना और संचालन कार्य को कॉर्पोरेट जगत के सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) के तहत लाया जाए। धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं जिन्हें आयकर में छूट की सुविधा मिलती है उन्हें भी इस कार्य में अनिवार्य रूप से सहयोग करने के लिए बाध्यकारी किया जाए।
- पशुओं की सामान्य चिकित्सा के लिए ग्राम सभा स्तर पर युवाओं को प्रशिक्षित किया जाय एवं निश्चित मानदेय पर उन्हें गोवंश आश्रय स्थलों पर चिकित्सा सेवा हेतु नियुक्त किया जाय। न्याय पंचायत स्तर पर सचल पशु चिकित्सालय एवं गोवंश एम्बुलेंस की व्यवस्था की जाय।
- लघु एवं सीमान्त किसानों को उनकी कृषि भूमि की सुरक्षा के लिए तार घेरा बंदी के लिए कम से कम 50 प्रतिशत का अनुदान उपलब्ध कराया जाय।
यदि उपरोक्त सुझावों की व्यवहारिकता पर विचार करते हुए नीतियां बने और उन पर ईमानदारी से अमल किया जा सके तो छुट्टा गोवंश की समस्या को एक संसाधन के रूप में स्थापित किया जा सकेगा जिससे गोवंश के साथ ही रोजगार, कृषि और ग्रामीण आर्थिकी का भी कल्याण संभव होगा। उम्मीद है आगामी सरकार इस मुद्दे को गम्भीरता से लेगी।
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