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ग्राउंड रिपोर्ट

भारत में ‘धर्म’, डायरी (31 मई, 2022) 

वैसे तो यह मामला केवल भारत का नहीं है। विश्व के अनेक देशों में धार्मिक संविधान हैं। लेकिन भारत की खासियत यह है कि यहां धर्म आधारित संविधान नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि धर्म का महत्व नहीं है। भारत में भी सरकारें उस धर्म का अनुपालन करती रही हैं, जिसे माननेवाले […]

वैसे तो यह मामला केवल भारत का नहीं है। विश्व के अनेक देशों में धार्मिक संविधान हैं। लेकिन भारत की खासियत यह है कि यहां धर्म आधारित संविधान नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि धर्म का महत्व नहीं है। भारत में भी सरकारें उस धर्म का अनुपालन करती रही हैं, जिसे माननेवाले बहुसंख्यक हैं। जाहिर तौर पर मैं हिंदू धर्म की बात कर रहा हूं। ब्राह्मणों के इस धर्म का आज भारत में बोलबाला है। यह कहना भी गैर-वाजिब नहीं है कि ब्राह्मण धर्म भारतीय प्रशासनिक तंत्र की धुरी है। प्रशासनिक तंत्र के साथ आप न्यायिक तंत्र को भी जोड़ लें तो यह अतिश्योक्ति नहीं कही जाएगी।
मुझे तो चारा घोटाला मामले में लालू प्रसाद को दोषी ठहरानेवाले सीबीआई की विशेष अदालत के जज प्रवास कुमार सिंह का फैसला याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने पहली पंक्ति में लिखा था– ‘धर्म रक्षति रक्षत:।’ इस फैसले को आज भी देखा जा सकता है और यह अदालती फैसले का हिस्सा है, जिसक मतलब है धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है। मैंने यह बात अपनी एक रपट में उस समय भी दर्ज किया था कि लालू प्रसाद ने शायद धर्म की रक्षा नहीं की, इसलिए धर्म (ब्राह्मणों का) ने उनकी रक्षा नहीं की और उन्हें कसूरवार मानते हुए पांच साल की सजा सुनायी।
मैं आज भी सोचता हूं कि आखिर लालू प्रसाद ने किस धर्म की रक्षा नहीं की, जो सीबीआई की विशेष अदालत के जज को उपरोक्त टिप्पणी दर्ज करनी पड़ी? वर्तमान में तो मैं देख रहा हूं कि लालू प्रसाद ब्राह्मणों के धर्म को मानने को उतावले रहते हैं। उनके परिजनों में भी यह लालसा दिख जाती है। उनका बड़ा बेटा तो स्वयं को ब्राह्मणों से भी अधिक ब्राह्मण मानता है।

[bs-quote quote=”बिहार में मंडल कमीशन की अनुशंसा के अनुरूप ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण को कड़ाई से लागू किया। जब आरएसएस के गुंडों ने उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में बाबरी मस्जिद को ढाह दिया तब पूरे देश में दंगा की स्थिति बन गई थी। अनेक जगहों पर दंगे हुए भी। लेकिन लालू प्रसाद ने बिहार के ब्राह्मण वर्गों को काबू में रखा। तब लालू के राज में सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष संविधान साकार हो रहा था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लालू प्रसाद का अतीत ऐसा नहीं था। इस राजनेता के लिए संविधान सबसे बड़ा धर्म था। इस राजनेता ने बिहार में ब्राह्मणों के हर तरह के वर्चस्व को तोड़ा। बिहार में मंडल कमीशन की अनुशंसा के अनुरूप ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण को कड़ाई से लागू किया। जब आरएसएस के गुंडों ने उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में बाबरी मस्जिद को ढाह दिया तब पूरे देश में दंगा की स्थिति बन गई थी। अनेक जगहों पर दंगे हुए भी। लेकिन लालू प्रसाद ने बिहार के ब्राह्मण वर्गों को काबू में रखा। तब लालू के राज में सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष संविधान  साकार हो रहा था।
तो मेरे हिसाब से न्यायाधीश प्रवास कुमार सिंह ने ऊपर वर्णित टिप्पणी इसलिए की होगी क्योंकि लालू प्रसाद ने ब्राह्मण धर्म की रक्षा नहीं की। हालांकि लालू प्रसाद ने समाज के सभी तबकों को समुचित भागीदारी दी थी। उनकी पहली कैबिनेट में जो मंत्री थे, उनमें सवर्ण भी थे। रघुनाथ झा, जो कि मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदार भी थे, लालू प्रसाद की पहली कैबिनेट में संसदीय मामलों के मंत्री बनाए गए थे। वैसे ही जगदानंद सिंह भी थे, जो कि राजपूत जाति के हैं। लालू प्रसाद ने असल में अपने पहले पांच साल में राज नहीं किया, समाज सुधार किया और इसका प्रभाव गजब का था। भगवतिया देवी को कौन भूल सकता है भला? एक पत्थर तोड़नेवाली मजदूरीन को उन्होंने सदन का सदस्य बनाया। यह तो महज एक उदाहरण है। वर्ष 1995 में बिहार में हुए विधानसभा चुनाव का परिणाम इस बात का गवाह है कि कैसे लालू प्रसाद ने सदन के अंदर ब्राह्मण वर्गों की उपस्थिति को 25 फीसदी से भी कम कर दिया था।
लेकिन यह इतिहास की बात है। कल एक अद्भुत काम किया है लालू प्रसाद ने। उन्होंने मुन्नी देवी नामक एक महिला को विधान परिषद का उम्मीदवार बनाया है। वह दलित वर्ग की धोबी जाति की हैं और पटना के बख्तियारपुर में कपड़ा साफ करने व इस्त्री करने का काम वह अपने पति के साथ मिलकर करती हैं। इसके अलावा वह राजद की कार्यकर्ता रही हैं। कल दो ब्राह्मण वर्ग के पत्रकारों ने दूरभाष पर कहा कि लालू के लिए शिक्षा का कोई महत्व नहीं है। उनके मुताबिक मुन्नी देवी की शिक्षा समुचित नहीं है और इसलिए उन्हें उच्च सदन भेजा जाना ठीक नहीं है। यह लालू प्रसाद की मनमर्जी है।

[bs-quote quote=”कोयंबटूर जिले में एक दंपत्ति ने अपनी तीन साल की बेटी के लिए ‘कोई धर्म नहीं, कोई जाति नहीं’ प्रमाण पत्र हासिल किया है। खबर के मुताबिक प्रमाणपत्र कोयंबटूर के तहसीलदार ने नरेश कार्तिक और गायत्री के अपनी बेटी विल्मा को यह प्रमाणपत्र एक हलफनामा जमा करने के बाद जारी किया है कि विल्मा कभी भी धर्म व जाति के आधार पर आरक्षण का लाभ नहीं लेगी। खबर में ही बताया गया है कि ऐसा प्रमाणपत्र 1973 में राज्य सरकार के एक आदेश के तहत जारी किया गया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

मैंने हंसते हुए कहा कि तो क्या उच्च सदन में केवल ऊंची जातियों के लोगों को भेजा जाना चाहिए?
खैर, धर्म और जाति से जुड़े दो और मसले हैं, जिन्हें आज जनसत्ता ने प्रमुखता से जगह दी है। पहला है काशी के एक मंदिर के महंत का इस्तीफा और उसका यह बयान कि उसने कभी नहीं कहा कि ज्ञानवापी मस्जिद में जो मिला, वह शिवलिंग नहीं, फव्वारा है। जबकि हाल ही में उसका वीडियो साक्षात्कार सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ, जिसमें वह कह रहा है कि हिंदू पक्ष के लोगों ने अन्याय किया है और फव्वारे को शिवलिंग बताया जा रहा है। अब उसने यू-टर्न लिया है। इस महंत क नाम है गणेश शंकर उपाध्याय है और यह कल तक काशी के प्रसिद्ध मंदिर काशी करवत का महंत था। कल ही उसने अपना उत्तराधिकार अपने छोटे भाई डॉ. दिनेश अंबाशंकर उपाध्याय को सौंप दिया गोया मंदिर उसकी बपौती हो। वैसे सारे मंदिरों पर ब्राह्मणों की बपौती ही है, जैसे कि जमीनों पर।
खैर, मैं यही समझने की कोशिश कर रहा हूं कि आखिर गणेश शंकर उपाध्याय ने यू-टर्न क्यों लिया? क्या उसे ‘जान से मारने’ की धमकी दी गयी होगी? यह मुमकिन है। या फिर ब्राह्मण पक्ष के लोगों ने उससे कहा होगा कि यदि आप अपना बयान नहीं बदलेंगे तो हम आपका बहिष्कार कर देंगे। शायद वह इसी बात से डर गया होगा। नहीं तो और कोई वजह हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता।

[bs-quote quote=”ब्राह्मण वर्ग बहुत चालाक वर्ग है। यह वर्ग सबकुछ अपने हिस्से में चाहता है। वह आरक्षित वर्ग के लोगों को बताना चाहता है कि तुम जो जाति के आधार पर अपने लिए आरक्षण चाहते हो, वह नैतिकताविहीन है और हम जो वर्चस्व के अधिकारी हैं, हर तरीके से नैतिकवान हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अब दूसरा मसला, जिसे जनसत्ता ने बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित किया है। तमिलनाडु के कोयंबटूर जिले में एक दंपत्ति ने अपनी तीन साल की बेटी के लिए ‘कोई धर्म नहीं, कोई जाति नहीं’ प्रमाण पत्र हासिल किया है। खबर के मुताबिक प्रमाणपत्र कोयंबटूर के तहसीलदार ने नरेश कार्तिक और गायत्री के अपनी बेटी विल्मा को यह प्रमाणपत्र एक हलफनामा जमा करने के बाद जारी किया है कि विल्मा कभी भी धर्म व जाति के आधार पर आरक्षण का लाभ नहीं लेगी। खबर में ही बताया गया है कि ऐसा प्रमाणपत्र 1973 में राज्य सरकार के एक आदेश के तहत जारी किया गया है।
खैर, मैं यह सोच रहा हूं कि इस खबर के पीछे ब्राह्मण वर्गों का पैंतरा क्या है? दरअसल, ब्राह्मण वर्ग बहुत चालाक वर्ग है। यह वर्ग सबकुछ अपने हिस्से में चाहता है। वह आरक्षित वर्ग के लोगों को बताना चाहता है कि तुम जो जाति के आधार पर अपने लिए आरक्षण चाहते हो, वह नैतिकताविहीन है और हम जो वर्चस्व के अधिकारी हैं, हर तरीके से नैतिकवान हैं। आप यदि सूक्ष्मता से अध्ययन करेंगे तो आपको इसमें दीनदयाल उपाध्याय का एकात्मवाद नजर आएगा जो कि असल में केवल और केवल साजिश है। दीनदयाल का मानना था कि जैसे मनुष्य के एक हाथ की पांचों उंगलियां एक समान नहीं होती हैं, वैसे ही आदमी भी है। हालांकि दीनदयाल का यह कथन भी उनका अपना नहीं है। उनके पहले गांधी जैसे लोगों ने समरसता का उदाहरण पेश किया था।
निस्संदेह, इस देश के दलित-बहुजनों को ब्राह्मणाें की साजिश को समझना चाहिए और भ्रम में नहीं रहना चाहिए। हिंदू धर्म और हिंदू धर्म की जातियां दोनों ही त्यागने के योग्य हैं। लेकिन इसके लिए उत्पादन के संसाधनों पर बहुसंख्यक वर्गों की हिस्सेदारी महत्वपूर्ण है। शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी महत्वपूर्ण है।
बहरहाल, परसों पटना में हुए सड़क हादसे में मेरे जिस परिजन की मौत हुई थी, कल उसके पोस्टमार्टम के बाद मेरे परिजनों से पीएमसीएच के कर्मियों ने लाश देने के बदले रिश्वत मांगी। इसके लिए तीन घंटे तक पोस्टमार्टम के बाद भी लाश को अपने कब्जे में रखा। मैंने अपने एक परिचित अधिकारी से कहा तो उसने लगभग अनसुना कर दिया। बाद में मेरे परिजनों ने रिश्वत की रकम दे दी।
मैं यह सोच रहा हूं कि जिस राज्य में यह भी होता है, वहां के शासक और जिस देश में मैं रहता हूं, उस देश का शासक यह कैसे कह सकता है कि वह सुशासक है?
कल देर रात खुद के बारे में सोच रहा था–
एक बेतकल्लुफी-सी है मौत से मुझे साथी,
जो जिंदगी से कभी नहीं कमबख्त काफिर।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

प्रशासनिक अधिकारियों का मनोगत चित्रण करता है सिनेमा

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