Friday, April 19, 2024
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तस्वीरें झूठ नहीं बोलती हैं  (डायरी 30 मई, 2022)  

समय खुद को दुहराता है और सवाल भी करता है। आज इस डायरी के साथ यह तस्वीर भी सहेज रहा हूं। यह तस्वीर ठीक तीन साल पुरानी है। इस तस्वीर को दिल्ली से प्रकाशित इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर छापा था। फोटोग्राफर का नाम अनिल शर्मा। इस तस्वीर के बारे में आगे चर्चा करता […]

समय खुद को दुहराता है और सवाल भी करता है। आज इस डायरी के साथ यह तस्वीर भी सहेज रहा हूं। यह तस्वीर ठीक तीन साल पुरानी है। इस तस्वीर को दिल्ली से प्रकाशित इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर छापा था। फोटोग्राफर का नाम अनिल शर्मा। इस तस्वीर के बारे में आगे चर्चा करता हूं। पहले एक व्यक्तिगत बात।
जिन दिनों मैंने कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई शुरु की थी, तब माइक्रोप्रोसेसर सबसे खासा दिलचस्प लगता था। कंप्यूटर का सबसे खास हिस्सा, जो कि गणनाओं के लिए जिम्मेदार है। हालांकि तब जो माइक्रोप्रोसेसर इस्तेमाल में लाए जाते थे, वे आज की तरह समुन्नत नहीं थे। वह तो 8086 श्रृंखला के माइक्रोप्रोसेसर थे, जिसे इंटेल नामक कंपनी ने ईजाद किया था। यह एक वर्गाकार चिप हुआ करता था, जो मुझे देखने में सबसे खूबसूरत लगता था और मैं फिदा था तो इसकी गणना करने की गति पर। उन दिनों किताबें पढ़ता भी खूब था। एक बार पढ़ा कि एक सामान्य यूजर अपने माइक्रोप्रोसेसर की क्षमता का अधिकतम 20-25 फीसदी ही उपयोग कर पाता है। वह भी तब जब हमारे पास आपरेटिंग सिस्टम के रूप में विंडोज हुआ करता था। एक भारी-भारकम आपरेटिंग सिस्टम है यह। इसके लिए कंप्यूटर की प्राइमरी मेमोरी का अधिक होना अनिवार्य था।
खैर, इस जानकारी ने कि हम कंप्यूटर के माइक्रोप्रोसेसर की क्षमता का अधिकतम 20-25 फीसदी ही उपयोग कर पाते हैं,  मेरी एक समझ को पुख्ता किया कि कथनी और करनी में फर्क क्यों है। आप माइक्रोप्रोसेसर की जगह मस्तिष्क को रख लें और फिर सोचें कि आप पलक झपकते ही दिल्ली में बैठे-बैठे दुनिया भी कल्पना कर सकते हैं। आप जिन जगहों पर पर गए हैं, वहां के दृश्यों को महसूस कर सकते हैं। लेकिन चाहकर भी आप वह नहीं कर सकते जो कि आप करना चाहते हैं। बस आप केवल सोच सकते हैं। वजह यह कि करने के लिए इनपुट और आउटपुट उपकरणाें का समुन्नत होना बेहद महत्वपूर्ण है। मानव अंगों में इनपुट और आउटपुट उपकरणों की बात करें तो हमारे हाथ-पैर के अलावा हमारी ज्ञानेंद्रियां इस कैटेगरी में शामिल हैं।

[bs-quote quote=”, इस तस्वीर की बात करता हूं। तीन साल पुरानी इस तस्वीर में दो शख्स हैं। एक का नाम है नीतीश कुमार, जो कि बिहार के मुख्यमंत्री हैं और दूसरे हैं भाजपा नेता भूपेंद्र यादव। ये दोनों जिस परिसर में खड़े हैं, वह परिसर अमित शाह के नई दिल्ली स्थित सरकारी आवास का है। यह तस्वीर इसलिए भी खास है कि बिहार का मुख्यमंत्री और गठबंधन के अहम घटक दल का नेता होने के बावजूद नीतीश कुमार को आधे घंटे तक अमित शाह का इंतजार करना पड़ा था। वह इंतजार कर रहे थे ताकि वह अमित शाह से याचना कर सकें कि आरसीपी सिंह को कैबिनेट में जगह दी जाय।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मैं यह बात इसलिए दर्ज कर रहा हूं क्योंकि कल मेरे परिवार में फिर एक हादसा हुआ। मेरे अपने चचेरे भाई शंभू के बड़े बेटे (उसका नाम रोहित है, यह उसकी मौत के बाद मुझे जानकारी मिली) की मौत सड़क हादसे में हो गई। कल शाम करीब चार बजे रीतू ने फोन पर यह दुखद जानकारी दी। कैसे हुआ यह? जवाब मिला कि पटना-गया रोड पर यह हादसा हुआ। स्कूटी पर रोहित और उसका एक मित्र सवार था। पीछे से एक ट्रैक्टर चालक ने रौंद दिया। इस घटना में रोहित की मौत घटनास्थल पर हो गई और रोहित गंभीर रूप से घायल हो गया, जिसे स्थानीय लोगों ने अस्पताल पहुंचाया।
खैर, सूचना पीड़ादायक थी और मेरा दिमाग माइक्रोप्रोसेसर की तरह काम कर रहा था। जिस वक्त यह सूचना मिली, उस वक्त मेरे लैपटॉप के स्क्रीन पर एक महत्वपूर्ण आलेख था। दिमाग दो हिस्सों में बंट गया था। एक हिस्से में रोहित की वह छवि थी जो आज से करीब सात या आठ साल पुरानी थी। शंभू का घर और मेरा घर एकदम सटा है। वह मेरे संझले चाचा का बेटा है। कई बार गर्मी के दिनों में छत पर सो जाया करता था। एक लड़का सुबह होने के साथ ही शोर मचाने लगता। वह रोहित हुआ करता था। कई बार वह छत फांदकर मेरे छत पर आ जाता।
दिमाग के इसी हिस्से में पटना-गया रोड की तस्वीर भी थी। असल में मेरी छोटी दीदी (उनके बाद हम दो भाई हैं) की शादी इस पटना-गया रोड में परसा नामक गांव में हुई है। तो ऐसे भी इस रोड से वास्ता रहा है। यह पटना और गया को जोड़नेवाली मुख्य सड़क है। इसके बावजूद यह पतली सड़क है और परसा के आगे पुनपुन नदी है, जहां बालू खनन का कारोबार खूब जोरों से चलता है। हजारों की संख्या में ट्रैक्टर टॉलियों, डंफर आदि गाड़ियां बालू ढोती हैं। इस सड़क की खासियत यह है कि इसके पूरब और पश्चिम में सघन आबादी है। सारे मुख्य बाजार इसी सड़क के किनारे हैं। तो होता यह है कि सड़क पर भीड़ खूब होती है और गाड़ियों की रफ्तार बेलगाम।
दिमाग का यह हिस्सा सबकुछ देख रहा था लेकिन मेरे इनपुट और आउटपुट डिवाइस अक्षम थे। सक्षम होते तो बिहार के मुख्यमंत्री की गाल पर तमाचा रसीद कर देता और बताता कि विकास करना कहते किसे हैं। लेकिन कंप्यूटर साइंस की मेरी थ्योरी सच साबित हो रही थी। बस एक डिवाइस ने मेरा साथ दिया। वह डिवाइस है मेरी आंखें। कुछ  बूँद निकली  और मैंने खुद को विराम दिया।
खैर, इस तस्वीर की बात करता हूं। तीन साल पुरानी इस तस्वीर में दो शख्स हैं। एक का नाम है नीतीश कुमार, जो कि बिहार के मुख्यमंत्री हैं और दूसरे हैं भाजपा नेता भूपेंद्र यादव। ये दोनों जिस परिसर में खड़े हैं, वह परिसर अमित शाह के नई दिल्ली स्थित सरकारी आवास का है। यह तस्वीर इसलिए भी खास है कि बिहार का मुख्यमंत्री और गठबंधन के अहम घटक दल का नेता होने के बावजूद नीतीश कुमार को आधे घंटे तक अमित शाह का इंतजार करना पड़ा था। वह इंतजार कर रहे थे ताकि वह अमित शाह से याचना कर सकें कि आरसीपी सिंह को कैबिनेट में जगह दी जाय। आरसीपी सिंह पूर्व में आईएएस अधिकारी थे। नीतीश कुमार ने स्वजातीय होने के कारण उन्हें राजनीति में शामिल किया। इसके लिए उन्होंने पहले आरसीपी सिंह को अपना खासमखास भी नियुक्त किया था।

[bs-quote quote=”इस देश में पिछले आठ साल में क्या हुआ है। आदिवासियों के साथ किस तरह का सुलूक किया जा रहा है? दलितों के उपर कैसे अत्याचार बढ़े हैं? ओबीसी के अधिकारों का हनन और उनका दमन किस क्रूरता के साथ किया जा रहा है? मुसलमानों के लिए यह देश किस कदर खतरनाक हो गया है कि उपासना के उनके मौलिक अधिकारों तक का हनन किया जा रहा है? मैं यह सारे सवाल इस देश की जनता के लिए छोड़ता हूं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कल की घटना है कि उसी नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को राज्यसभा भेजने से इंकार कर दिया जबकि आरसीपी सिंह केंद्र में कबीना मंत्री हैं। मतलब यह कि तीन साल पहले जिस व्यक्ति को मंत्री बनाने के लिए नीतीश अमित शाह के आगे नतमस्तक खड़े थे, कल उसके खिलाफ। जदयू के कुछ लोग इसे नीतीश कुमार की अंतरात्मा की आवाज बता रहे हैं। एक ऊंची जाति के समाजवादी नीतीश कुमार के फैसले को इस हद तक क्रांतिकारी बता रहे हैं कि वह उनका मस्तक चूम  लेना चाहते हैं।
दरअसल, आरसीपी सिंह पर यह आरोप लगता रहा है कि वह नीतीश कुमार के लिए धन जुटाऊ नेता रहे। उनके पहले नीतीश कुमार के एक धन जुटाऊ नेता और रहे। संभवत: उनका नाम विनय सिंह था। माना जाता है कि पटना के बोरिंग रोड इलाके के विवेकानंद मार्ग में जहां नीतीश कुमार का अस्थायी आवास हुआ करता था, वह उनके ही सौजन्य से था। शायद कुछ अलग परिस्थिति हुई होगी तो विनय सिंह के आवास पर छापा मारा गया और लोग कहते हैं कि उनके यहां से एक बोरा रुपए मिले थे। यह एकदम उसी समय की बात है जब गिरिराज सिंह के पटना स्थित आवास पर भी छापा मारा गया था और उनके यहां भी अकूत धन मिला था। लेकिन शायद सब मैनेज कर लिया गया। न तो विनय सिंह और ना ही गिरिराज सिंह के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई। हालांकि दो साल बाद विनय सिंह की मौत भी हो गई।
इन सबके बावजूद नीतीश कुमार अलग किस्म के नेता हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह नरेंद्र मोदी खास नेता हैं। आज कई हिंदी अखबारों ने भाजपा नेताओं के बड़े बयान आलेख के रूप में प्रकाशित किये हैं कि आठ साल के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार ने किस तरह देश की सेवा की है।
मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। वजह यह कि सब वाकिफ हैं कि इस देश में पिछले आठ साल में क्या हुआ है। आदिवासियों के साथ किस तरह का सुलूक किया जा रहा है? दलितों के उपर कैसे अत्याचार बढ़े हैं? ओबीसी के अधिकारों का हनन और उनका दमन किस क्रूरता के साथ किया जा रहा है? मुसलमानों के लिए यह देश किस कदर खतरनाक हो गया है कि उपासना के उनके मौलिक अधिकारों तक का हनन किया जा रहा है? मैं यह सारे सवाल इस देश की जनता के लिए छोड़ता हूं।
हां, मेरी जेहन में एक कविता अवश्य है। हालांकि इसके लिए शीर्षक शब्द मेरी प्रेमिका ने ही दिये हैं।
किस्से-कहानियों वाला यह देश
कभी शासकविहीन नहीं रहा।
शासक शासक ही होते थे
और वे शासन ही करते थे
ठीक वैसे ही जैसे
आज भी इस देश में शासक हैं
और वे भी शासन ही करते हैं।
बाजदफा शासक बाघ होते हैं
आदमी की शक्ल में
वे पहनते हैं बघनखा
और चीर डालते हैं।
हर उस आदमी का पेट
जिसके पास होती है 
बोलनेवाली जुबान।
कुछ शासक होते हैं
गीदड़ों का स्वभाव रखनेवाले
लेकिन वे गीदड़ नहीं होते
जबकि वे हर लाश का
जश्न मनाते हैं
और एक दिन किसी बंकर में
कुत्ते की मौत मारे जाते हैं।
हां, किस्से-कहानियों वाला यह देश
कभी शासकविहीन नहीं रहा।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

प्रशासनिक अधिकारियों का मनोगत चित्रण करता है सिनेमा

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