Saturday, April 20, 2024
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दलित पैंथर और आज के बहुजन लेखकों की भूमिका!   

 दलित पैंथर ने ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा किया आज 9 जुलाई है :‘दलित पैंथर’ का स्थापना दिवस! आज से 49 वर्ष पूर्व,1972 आज ही के दिन नामदेव लक्ष्मण ढसाल और उनके लेखक साथियों ने मिलकर इसकी स्थापना की थी.इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान अपमान से बोधशून्य आकांक्षाहीन दलित […]

 दलित पैंथर ने ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा किया

आज 9 जुलाई है :‘दलित पैंथर’ का स्थापना दिवस! आज से 49 वर्ष पूर्व,1972 आज ही के दिन नामदेव लक्ष्मण ढसाल और उनके लेखक साथियों ने मिलकर इसकी स्थापना की थी.इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान अपमान से बोधशून्य आकांक्षाहीन दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया.इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलित समुदाय में जोश भर दिया,जिसके फलस्वरूप दलितों को अपनी ताकत का अहसास हुआ और उनमे ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई.इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही 15 अगस्त 1972 को राजा ढाले ने ‘साधना’के विशेषांक में ‘काला स्वतंत्रता दिवस’ लेख लिखकर तथा ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे,शासक दलों में हडकंप मचा दिया.

  ब्लैक पैंथर से प्रेरित:दलित पैंथर  

दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय,सामाजिक,आर्थिक व राजनैतिक अधिकारों को दिलाने के  लिए 1966 से ही संघर्षरत था.इस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और राजा ढाले जैसे जैसे क्रांतिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ‘ब्लैक पैंथर’ की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम ‘दलित पैंथर’ रख दिया.जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैंथरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित किया,जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ.

दलित पैंथर के संस्थापक सदस्यों में एक नामदेव ढसाल

दलित पैंथर का घोषणापत्र 

उसके घोषणापत्र में कहा गया,’दलित पैंथर आरपीआई के नेतृत्व की सौदेबाजी के खिलाफ एक विद्रोह है.अनुसूचित जातियां,जनजातियां,भूमिहीन श्रमिक,गरीब किसान हमारे मित्र हैं…वे सब लोग जो राजनीतिक और आर्थिक शोषण के शिकार हैं,वे सभी हमारे मित्र हैं.जमींदार,पूंजीपति,साहूकार और उनके एजेंट तथा सरकार  जो शोषण के समर्थक तत्वों का समर्थन करती है,वे पैंथरों के दुश्मन हैं’.उसमें यह भी कहा गया,’हम आर्थिक ,राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में नियंत्रणकर्ता की हैसियत का प्राधान्य चाहते है…हम ब्राह्मणों के मध्य नहीं रहना चाहते.हम पूरे भारत पर शासन के पक्षधर हैं.मात्र ह्रदय परिवर्तन अथवा उदार शिक्षा अन्याय और शोषण को समाप्त नहीं कर सकते.हम क्रान्तिशील जनता को जागृत करेंगे और उन्हें संगठित करेंगे ताकि परिवर्तन हो सके.हमें विश्वास है कि जनसमूह में संघर्ष द्वारा क्रांति की ज्वाला जरुर जलेगी.क्योंकि हम जानते हैं कि कोई भी समाज-व्यवस्था मात्र रियायतों की मांग,चुनाव और सत्याग्रह के जरिये नहीं बदली जा सकती.हमारी सामाजिक क्रांति का विद्रोही विचार हमारे लोगों के दिलों में उत्पन्न होगा तथा तुरंत ही वह गर्म लोहे की भांति अस्तित्व में आयेगा.अंत में हमारा संघर्ष दासत्व की  जंजीरों को तोड़ डालेगा.’

जिस दौर में नामदेव ढसाल और उनके साथियों ने दलित पैंथर की स्थापना की. आज दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबकों को जिस स्टेज में पंहुचा दिया गया है, उस स्टेज में बहुजनों के सामने अपनी मुक्ति की लड़ाई में उसी तरह उतरना जरुरी हो गया है जैसे अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों और दक्षिण अफ्रीका में गोरों के समक्ष मूलनिवासी काले अपने मुक्ति की लड़ाई में उतरे।

 

एक चिंगारी : जो आग न बन सकी 

दलित पैंथर के घोषणापत्र ने जहां जागरूक दलितों और प्रगतिशील आम युवा पीढ़ी में हलचल पैदा की,वहीँ समाजवादी,साम्यवादी,प्रगतिशील लेखकों-विचारकों को झकझोर दिया.किन्तु तमाम खूबियों के बावजूद यह अपना घोषित लक्ष्य पाने में विफल रहा.’दलित पैंथर आन्दोलन’ पुस्तक के लेखक अजय कुमार के शब्दों में-‘यह आन्दोलन देश में दलित नेताओं और गैर-दलित नेताओं द्वारा अनुसूचित जाति के उद्धार के लिए चलाये गए अन्दोलनों से बिलकुल हट कर है तथा अपनी एक अमिट छाप छोड़ता है.दलित पैंथर आन्दोलन के प्रतिनिधियों ने पैंथरों की भांति ही काम किया तथा सरकार को अपनी मांगे मनवाने के लिए पूर्णतः तो नहीं लेकिन सर झुकाने को मजबूर जरुर कर दिया.परन्तु आंदोलनकारियों के आपसी मतभेदों के कारण यह संगठन अपने चरम बिंदु तक नहीं पहुँच सका.जो चिंगारी के रूप में भड़का वह जंगल में फैलनेवाली आग का रूप धारण नहीं कर सका क्योंकि इसके अंदर संगठनात्मक,संरचनात्मक,वित्त सम्बन्धी,सामंजस्य सम्बन्धी तथा विचारधारा विरोधी कमियां थी.यदि यह आन्दोलन इन सभी विरोधों को समाप्त करके एकल विचारधारा पर चलता तो शायद एक ऐसा आन्दोलन बन जाता कि भारतवर्ष से छुआछूत,अलगाव,अमीर-गरीब,नीच-उच्च,नैतिक-अनैतिक,पवित्र-अपवित्र का वैरभाव मिट जाता.’

गर्व करने लायक रहीं : दलित पैंथर की उपलब्धियां 

यह सही है कि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुँच सका,तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं.बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक डॉ.आनंद तेलतुम्बडे, ’इसने देश में स्थापित व्यवस्था की बुनियादों को हिला कर रख दिया और संक्षेप में यह दर्शाया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है.इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी हुई थी.अपने घोषणापत्र पर अमल करते हुए दलित पैंथरों ने दलित आन्दोलन के लिए राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थों में नई जमीन तोड़ी.उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की और उनके संघर्षों को पूरी दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्षों से जोड़ दिया.’बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज भी कर सकता है,किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रअंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है.

दलित पैंथर आन्दोलन और दलित साहित्य 

दलित पैंथर आन्दोलन और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलू  हैं.इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही दलित साहित्य से जुड़े हुए थे.दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया.परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित मराठी दलित साहित्य ,हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया.

  दलित पैंथर की स्थापना के दिनों के मुकाबले : आज है बहुत बदतर हालात    

बहरहाल जिन दिनों नामदेव ढसाल और उनके साथियों ने दलित पैंथर की स्थापना की,उन दिनों देश में विषमता की आज जैसी चौड़ी खाई नहीं थी.देश अपनी स्वाधीनता की रजत जयंती ही मनाया था और यह उम्मीद कहीं बची हुई थी कि देश के कर्णधार निकट भविष्य में शक्ति के स्रोतों(आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक) का न्यायोचित बंटवारा कर उस आर्थिक और सामाजिक असमानता से पार पा लेंगे,जिसके खात्मे का आह्वान संविधान निर्माता ने 25 नवम्बर,1949 को किया था.लेकिन आज आजादी के प्रायः सात दशक बाद विषमता पहले से कई गुना बढ़ गयी है और भारत इस मामले में विश्व चैम्पियन बन गया है .इस का कारण यह है कि जिन शक्ति के स्रोतों के असमान बंटवारे के फलस्वरूप मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या, ‘आर्थिक और सामाजिक विषमता’ की उत्पत्ति होती रही है: भारत के शासक दलों ने स्व- वर्णीय हित के हाथों मजबूर होकर, उसके वाजिब बंटवारे की दिशा में ठोस काम ही नहीं किया:  उल्टे मंडल के बाद नवउदारीकारण की अर्थनीति को घातक हथियार के रूप में तब्दील करते हुए अपने वर्ग-शत्रु बहुजनों को फिनिश करने में जुट गया.

मंडल उत्तरकाल में शासक दलों के ऐसे जघन्य कार्यों के फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के परम्परागत सुविधाभोगी जैसा शक्ति के स्रोतों पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है. आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें  80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकानें इन्हीं की है. चार से आठ- दस लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल व पोर्टल्स  प्राय इन्हीं के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है. संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं. न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में इनके जैसा दबदबा आज दुनिया में कहीं नहीं है. आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों पर ऐसा दबदबा कहीं नहीं है.शक्ति के स्रोतों पर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के बेनजीर वर्चस्व से संविधान की उद्द्येशिका में उल्लिखित तीन न्याय- आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक- पूरी तरह एक सपना बनते जा रहे है. आर्थिक और सामाजिक विषमता की विस्फोटक स्थिति के मध्यजिस तरह विनिवेशीकरण, निजीकरण और लैट्रल इंट्री के जरिये शक्ति के समस्त स्रोतों से वंचित बहुजनों के पूरी तरह बहिष्कार का अभियान चल रहा है, उसके फलस्वरूप ऐसी स्थिति पैदा होती जा रही है, जिसके फलस्वरूप डॉ. आंबेडकर के शब्दों में,’ विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने बड़ी मेहनत से तैयार किया था.’ शक्ति स्रोतों पर सुविधाभोगी वर्ग के बेहिसाब दबदबे ने बहुसंख्य लोगों के समक्ष जैसा विकट हालात पैदा कर दिया है, वैसे से ही हालातों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों  को स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा था.

दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय,सामाजिक,आर्थिक व राजनैतिक अधिकारों को दिलाने के  लिए 1966 से ही संघर्षरत था.इस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और राजा ढाले जैसे जैसे क्रांतिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ‘ब्लैक पैंथर’ की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम ‘दलित पैंथर’ रख दिया.जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैंथरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित किया,जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ।

आज आरपीआई की भूमिका में अवतरित हो चुके हैं तमाम बहुजनवादी दल

हम जानते हैं आर्थिक और सामाजिक विषमता के साथ दलित पैंथर की स्थापना की पृष्ठभूमि में आरपीआई नेतृत्व की सौदेबाज़ी सबसे बड़ा कारण थी. किन्तु यदि हम तत्कालीन आरपीआई के सौदेबाजी की तुलना वर्तमान बहुजनवादी दलों से करें तो स्थिति और भी शोचनीय नजर आएगी. आज आंबेडकरवाद के भारतमय प्रसार के फलस्वरूप बहुजन चेतना में लम्बवत विकास  हुआ है. नामदेव ढसाल और उनके साथी लेखकों सहित बहुजन नायक कांशीराम के आन्दोलनों के फलस्वरूप बहुजन चेतना में लम्बवत विकास हुआ है . जिन ब्राह्मणों के मध्य रहने से कभी पैन्थरों ने अपने घोषणापत्र में खुला इनकार किया था , उन ब्राहमणों का शक्ति के स्रोतों पर जैसा आज वर्चस्व कायम हुआ है, वैसा हजारों साल के इतिहास में कभी नहीं हुआ. इन सब बातों से आज पढ़े-लिखे बहुजनों में समतामूलक भारत निर्माण की चाह एक्सट्रीम पर पहुँच गयी है. आज भारत में सापेक्षिक वंचना जिस बिंदु पर पहुँच गयी है, बहुजन नेतृत्व यदि इमानदारी से उसका सदुपयोग करने की कोशिश करता तो भारत आज दक्षिण अफ्रीका बन गया होता, जहाँ दो सौ साल से वर्चस्व जमाये भारत के सवर्णों सादृश्य गोरों को हटाकर मूलनिवासी कालों ने अपनी तानाशाही सत्ता कायम कर ली है. किन्तु  जिस भारत की सर्वाधिक साम्यता दक्षिण अफ्रीका से है, उस भारत में मूलनिवासी नए सिरे से गुलामों की स्थिति में पहुँच गए हैं तो उसके लिए जिम्मेवार भारत के बहुजनवादी दल हैं. प्रायः सारे के सारे बहुजनवादी दलों का नेतृत्व समाज के हितों की पूरी तरह उपेक्षा कर अपना साम्राज्य बचाने के लिए उन शासक दलों से सौदेबाज़ी में जुट गया है जो अपने वर्गीय हित में खुले आम देश को बेच रहा है: आंबेडकर के सविधान को कागजों की शोभा बनाने का षड्यंत्र कर रहा है.

कुल मिलाकर भारत की स्थिति उस दौर से बहुत बदतर हो गयी है, जिस दौर में नामदेव ढसाल और उनके साथियों ने दलित पैंथर की स्थापना की. आज दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबकों को जिस स्टेज में पंहुचा दिया गया है, उस स्टेज में बहुजनों के सामने अपनी मुक्ति की लड़ाई में उसी तरह उतरना जरुरी हो गया है जैसे अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों और दक्षिण अफ्रीका में गोरों के समक्ष मूलनिवासी काले अपने मुक्ति की लड़ाई में उतरे. इस स्टेज में आज इतिहास ने महान लेखक ढसाल के बचे हुए साथियों तथा उनसे प्रेरणा लेकर दलित/ बहुजन साहित्य को नयी ऊँचाई देने में मशगूल गैर-मराठी लेखकों को अपनी भूमिका नए सिरे से स्थिर करने के सवाल छोड़ दिया है।

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